6 दिसम्बर 1992 की स्मृति में
कविता कृष्णपल्लवी
1947 में देश के टुकड़े होने के साथ ही
सदी की सबसे बड़ी साम्प्रदायिक मारकाट हुई
इसी धरती पर, बहती रही लहू की धार, लगातार।
दशकों तक टपकता रहा लहू, रिसते रहे ज़ख़्म
और उस लहू को पीकर तैयार होती रहीं
धार्मिक कट्टरपंथी फासिज़्म की फसलें
और दंगों के आँच पर सियासी चुनावी पार्टियाँ
लाल करती रहीं अपनी गोटियाँ।
फिर रथयात्रा पर निकला जुनून की गर्द उड़ाता
फासिज़्म का लकड़ी का रावण
अपने को लौहपुरुष कहता हुआ
और एक दिन पूँजीवादी सड़ांध से उपजा
सारा का सारा फासिस्टी उन्माद
टूट पड़ा मेहनतकश जनों की एकता पर, जीवन पर
और स्वप्नों पर, हमारे इतिहास-बोध पर,
शहादतों और विरासतों की हमारी साझेदारी पर,
हमारे भविष्य की योजनाओं के शिद्दत से बुने गये
ताने-बाने पर।
वह 6 दिसम्बर 1992 का काला दिन था
अयोध्या में, जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया
एक सम्मोहित पागल भीड़ ने
तब देश का प्रधानमंत्री पूजा कर रहा था
मस्जिद-नाश पर उल्लसित चेहरों के बीच एक साध्वी
एक नेता से चिपककर खिलखिला रही थी।
‘जय श्रीराम’ शब्दों की धार्मिक सात्विकता
एक भयोत्पादक खूनी उन्माद का सबब बन चुकी थी।
गुजरात-2002 की पटकथा उसी दिन लिखी जा चुकी थी,
मुजफ्फरनगर-2013 का ब्लू प्रिण्ट उसी दिन
रचा जा चुका था,
देश के इतिहास का एक लम्बा काला अध्याय
उसी दिन शुरू हो चुका था।
बाबरी मस्जिद के मलबे से भले न हो सकती हो
फिर से उसकी तामीर,
उस काले धब्बे जैसे दिन को हमेशा हमें
दिलों में और इतिहास में दर्ज रखना होगा
और आने वाले दिनों में सड़कों पर
फासिस्टी उन्माद से जूझने-मरने का संकल्प
फौलादी बनाना होगा, ताकि हममे से जो भी बचें
वे पूरे समाज में फैले फासिस्टी मलबे और कचरे को
साफ करके एक बेहतर भारत का निर्माण करें वैसे ही
जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के फासिस्टी ध्वंसावशेषों को
हटाकर, चन्द वर्षों में ही रच दी गयी थी
एक सुन्दर, नयी दुनिया।
फासिस्टों को याद दिलाना होगा कि किन ताकतों ने मिट्टी में
मिलाया था उनके मंसूबों को,
किन ताक़तों ने उन्हें धूल चटायी थी पिछली सदी में।
झंझावाती परिवर्तन की वाहक वे अग्रगामी शक्तियाँ
पीछे हट गयी हैं ऐतिहासिक युद्ध के एक युगीन चक्र में,
बिखर गयी हैं, पर मरी नहीं हैं,
बीज की तरह बिखरी पड़ी हैं धरती के पाँचो महाद्वीपों पर
इसी सदी में फिर से सूरज की ओर सिर उठाकर
अंकुर से पौधा और फिर वृक्ष बनने के लिए।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2013
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