आखि़र कब बदलेगी सफ़ाईकर्मियों की ज़िन्दगी?
लखविन्दर
देश के सफ़ाई लाखों कर्मचारी आज भी बेहद बुरे हालात में काम करने और जीने को मजबूर हैं। दिल्ली में पिछली 14 जुलाई को हुई घटना इसका जीता-जागता उदाहरण है। दिल्ली के इन्दिरा गाँधी क़ौमी कला केन्द्र में 14 जुलाई की रात साढ़े आठ बजे तीन सफ़ाईकर्मी अशोक, राजेश और सतीश गटर साफ़ करते हुए मौत के शिकार हो गये। ये तीनों कर्मी प्रत्यक्ष तौर पर इसी संस्था के कर्मी थे या इसके द्वारा आगे किसी और कम्पनी द्वारा काम पर रखे गये थे, इस बारे में कुछ भी पता नहीं। वे इन्दिरा गाँधी क़ौमी कला केन्द्र की ए.सी. बिल्डिंग में 6 गटर साफ़ करने के लिए गये थे। इस बिल्डिंग में जाने से पहले गेट के रजिस्टर में अपना नाम आदि दर्ज करना होता है। इसके बिना कोई भी अन्दर नहीं जा सकता। तीनों के पास केन्द्र का पहचान पत्र भी था। वे मोबाइल फ़ोन भी साथ लेकर गये थे। हमारे देश में ग़रीब मेहनतकशों की ज़िन्दगी की कितनी क़ीमत है, अगर आप इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं तो आपको इसमें बिल्कुल भी हैरानी नहीं होगी कि देर रात तक मृतक कर्मचारियों के परिवारों को कोई सूचना नहीं पहुँचायी गयी। कला केन्द्र के अधिकारियों ने तो तीनों को अपना कर्मचारी मानने, ग़लती मानने, माफ़ी माँगने और मृतकों के परिवारों से मिलने को साफ़ मना कर दिया। पुलिस ने तो लाशों को पहचानने से भी इनकार कर दिया था। पुलिस द्वारा परिवारों को सौंपे गये क़ागज़ों में मौत के कारणों और जगह के बारे में भी सही जानकारी नहीं दी गयी। कहा गया कि सड़क पर लावारिस लाशें मिली हैं।
सीवरेज गटरों और पाइपों की सफ़ाई का काम भारत में मुख्य तौर पर आज भी बिना मशीनों के ही होता है। गटर में कर्मियों को घुसाकर सफ़ाई करवानी ग़ैरक़ानूनी है। इस पर रोकथाम के लिए भारत में 1993 में ‘इम्प्लायमेण्ट ऑफ़ मैनुअल स्कैवैंजर्ज़ एण्ड कंस्ट्रक्शन ऑफ़ ड्राई लैट्रीन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट’ बना था। पर यह क़ानून लागू नहीं होता है। फ़रवरी 2013 में ही दिल्ली सरकार ने घोषणा की थी कि यह पहला सूबा है जहाँ हाथ से मैला साफ़ करने पर पूर्ण पाबन्दी लगा दी गयी है। पर जैसे कि हमारे देश में मज़दूरों-मेहनतकशों के हित में बने बाक़ी क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं, वैसे ही इस क़ानून के साथ भी होता है। देश की राजधानी दिल्ली भी इस मामले में अपवाद नहीं है। दिल्ली में सफ़ाईकर्मियों की इन मौतों के दोषी क़ौमी कला केन्द्र के अधिकारी हैं पर पुलिस की मिलीभगत के कारण उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ। कहने की ज़रूरत नहीं कि पीड़ित ग़रीब परिवारों को किसी भी तरह का मुआवज़ा नहीं मिला।
देश में 3,40,000 लोग तो ऐसे हैं, जो आज भी मुफले जैसे औज़ारों से मैला उठाते हैं और बाल्टियों या तसलों में सिर पर ढोते हैं। इसके अलावा भारत के बेहद पिछड़े, घटिया दर्जे के सीवरेज प्रबन्ध में काम करने वाले कर्मियों को भी ये काम बहुत हद तक ना सिर्फ़ हाथ से करना पड़ता है, बल्कि उन्हें तो गटरों में भी उतरना पड़ता है। इस नज़र से देखा जाये तो हालत पहले से भी ज़्यादा बिगड़ रही है। इन कर्मियों की कुल संख्या लगभग 13 लाख है। क़ानून तोड़ने में सबसे आगे भारतीय रेलवे है। ग़रीबी, बदहाली और सामाजिक अलगाव और बन्धन झेल रही तथाकथित निचली जातियाँ मानवद्रोही ढंग से करवाये जाने वाले ये सफ़ाई के काम करने के लिए मजबूर हैं। इनमें भी ज़्यादातर औरतें हैं। यह भी एक त्रासदी ही है कि आज के इतने विकसित तकनीकी युग में भी इंसान को इस तरह के काम करने पड़ रहे हैं। देश के शोषक पूँजीपति वर्ग को लोगों की कोई चिन्ता नहीं। उन्हें तो बस अपना काम करवाने से मतलब है। ये काम मशीनें करें या इन्सान, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। सरकारी ख़ज़ाना पूँजीपतियों को सब्सिडी देने, संसद-विधानसभा में बहसबाज़ी करने वाले नेताओं और अफ़सरों की अय्याशियों, तनख़्वाहों- भत्तों पर खुले दिल से लुटाया जाता है। (इस पर सारे वोट-बटोरू अपने सारे “मतभेद” भुलाकर एकजुट हैं) पर ये ना तो सफ़ाईकर्मियों के हालात को बेहतर बनाने के लिए लगाया जा रहा है और ना ही ग़रीब लोगों के साफ़-सफ़ाई के पुख्ता प्रबन्ध मुहैया करवाने के लिए ही। भारत के 72 फ़ीसदी लोगों को सफ़ाई के उचित बन्दोबस्त हासिल नहीं हैं और इसके सीधे दोषी इस देश के हाकिम पूँजीपति हैं।
वैसे तो सफ़ाईकर्मियों के हालात हमेशा से ही बदतर रहे हैं, पर 1991 के बाद निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के साथ हालात और भी बदतर हो गये हैं। सरकार ने पूँजीपतियों के मुनाफ़े की राह में हर तरह की बाधाओं को दूर करने के लिए तेज़ी से क़दम आगे बढ़ाये हैं। निजीकरण के आने के बाद साफ़-सफ़ाई के कामों की ज़िम्मेदारी सँभालने में भी सरकार ने टालमटोल रवैया अपनाया। निजी कम्पनियों को कम से कम कर्मियों से कम से कम सुविधाएँ देकर ज़्यादा काम लेना था और यही हुआ। आज ज़्यादातर सफ़ाईकर्मी ठेकाकरण के अधीन बहुत कम तनख़्वाहों पर 10-10, 12-12 घण्टे काम करते हैं। श्रम क़ानूनों के तहत न्यूनतम मज़दूरी, हाज़िरी, पहचान पत्र, ई.पी.एफ़., ई.एस.आई. आदि हक़ों से भी वे वंचित हैं।
सफ़ाईकर्मियों को ना तो हादसों से सुरक्षा के इन्तज़ाम ही हासिल हैं और ना ही बीमारियों से बचाव के इन्तज़ाम। हर दिन देश में गटरों में गैस चढ़ने या काम के दौरान और दुर्घटनाओं से सफ़ाईकर्मियों की मौत होती है। सफ़ाईकर्मियों की यूनियन के अनुसार पिछले दो दशकों में हज़ार से भी ज़्यादा कर्मियों की मौत इन हादसों में हो चुकी है। हमेशा कार्बन मोनोआक्साइड, हाइड्रोजन सल्प़फ़ाइड और मीथेन जैसी ज़हरीली गैसों के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण कई तरह की साँस की और दिमाग़ी बीमारियाँ होती हैं। इसके अलावा दस्त, टाइफ़ाइड और हेपेटाइटिस-ए जैसी बीमारियाँ आमतौर पर होती हैं। ई. कौली नामक बैक्टीरिया पेट सम्बन्धी बहुत गम्भीर रोगों का जन्मदाता है और क्लोस्ट्रीडम टैटली नामक बैक्टीरिया खुले ज़ख़्मों के सीधे सम्पर्क में आने के साथ ही टिटनेस का कारण बनता है। ये सारे बैक्टीरिया गन्दे पानी में आमतौर पर पाये जाते हैं और चमड़ी के रोग तो इतने होते हैं कि गिनती करना मुश्किल है।
सफ़ाईकर्मियों की ज़िन्दगी हद से ज़्यादा बदतर हो चुकी है। उन्हें क़दम-क़दम पर बेइन्साफ़ी झेलनी पड़ती है। सरकारी ढाँचे के किसी भी हिस्से से वे भलाई की आस नहीं कर सकते। ना तो उनकी सुनवाई ठेकेदार-कम्पनियाँ करते हैं, ना सरकार, ना अफ़सरशाही। सफ़ाई कर्मियों की हालत एकजुट जुझारू आन्दोलन के साथ ही बदल सकती है। सफ़ाईकर्मियों के अलग-अलग संगठन तो बने हुए हैं पर वे वोटबटोरू पार्टियों और लीडरों के जाल में फँसे हुए हैं। समझौतापरस्त, दलाल, ग़द्दार लीडर सफ़ाईकर्मियों के किसी भी सच्चे आन्दोलन के आगे बढ़ने में दीवार बनकर खड़े हैं। सफ़ाईकर्मियों को इस दीवार को गिराने के लिए ज़ोरदार हमला करना पड़ेगा और एक सच्ची लीडरशिप आगे लानी पड़ेगी। इसके बिना उनका आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सकता।
दूसरी बात जब तक पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम है, तब तक सफ़ाईकर्मियों को काम के बदतर हालात, सामाजिक अपमान, ग़रीबी, बदहाली और अन्याय से छुटकारा नहीं मिल सकेगा। मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था की राजसत्ता से सफ़ाईकर्मियों को भलाई की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सफ़ाईकर्मियों को अपना सच्चा पेशागत संगठन तो बनाना ही पड़ेगा और अन्य पेशों के मज़दूरों-मेहनतकशों के साथ भी एका बनाना पड़ेगा। यही एक रास्ता है जिसके ज़रिये सारे मेहनतकशों का जीवन बेहतर बन सकता है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2013
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