अपने बच्चों को बचाओ व्यवस्था के आदमख़ोर भेड़िये से!
लता
पिछली 16 जुलाई को बिहार के सारन ज़िले में गंडमान प्राथमिक स्कूल के 23 मासूम बच्चे दोपहर का भोजन (मिड डे मील) खाने के बाद हमेशा की नींद सो गये। करीब 30 बच्चे अब भी अस्पताल में मौत से जूझ रहे हैं। अब पता चल रहा है कि बच्चों को परोसे जाने वाले खाने में तेज़ ज़हर मिलाया गया था। फॉरेन्सिक जाँच करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि मिलाये गये ज़हर में कीटनाशकों से पाँच ग़ुना अधिक तेज़ जहर था। ज़हर की घातकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि बचे हुए बच्चों में ज़हर का असर कम करने के लिए चार दिनों में डॉक्टर दवा के 12000 एम्पुल इस्तेमाल कर चुके हैं।
इस दिल दहलाने वाली घटना ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हम आख़िर किस तरह के समाज में रह रहे हैं। कैसा है यह समाज जो ऐसे वहशी दरिन्दों को पैदा कर रहा है जो अपने मुनाफ़े के लिए छोटे-छोटे मासूम बच्चों को दर्दनाक मौत के हवाले कर दे रहे हैं। अभी तक मिले साक्ष्यों से ऐसे आरोपों की पुष्टि होती लग रही है कि बिहार में चुनावी राजनीति के तहत वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए इस घिनौनी साज़िश को अंजाम दिया गया है। चुनावी राजनीति की सारी राहें ख़ून के दलदल से होकर ग़ुज़रती हैं, लाशों के ढेर पर ही सत्ता के सिंहासन सजते हैं, मगर अपने चुनावी मंसूबों के लिए नन्हे बच्चों की बलि चढ़ाने की यह घटना बताती है कि पूँजीवादी राजनीति पतन के किस गटर में डूब चुकी है।
पिछली 16 जुलाई को स्कूल में मिलने वाला भोजन करने के बाद लगभग 50 बच्चों को उल्टी और पेट दर्द की शिकायत होने पर स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र और निजी अस्पतालों में इलाज के लिए ले जाया गया। बच्चों ने खाने में दाल, चावल, आलू और सोयाबीन खाया था। अभी तक उपलब्ध तथ्यों के अनुसार यह भोजन में ज़हर मिलाने का मामला है। बच्चों के यह शिकायत करने पर कि खाना नीम जैसा कड़वा लग रहा है प्राचार्या ने भोजन करने के लिए बच्चों पर दबाव डाला। भोजन सम्बन्धी सारा सामान प्राचार्या के घर पर ही रहता था। इस पूरी घटना से स्कूल में काम कर रही दोनो रसोइयाँ अनभिज्ञ थीं। दोनों में से एक मंजू कुमारी ने खाना चखा था जो अभी अस्पताल में है और दूसरी रसोइया पानू देवी ने इस हादसे में अपने दोनों बच्चों को खो दिया। मंगलवार को जब बच्चों की हालत बदतर होने लगी तो उन्हें प्राथमिक उपचार केन्द्र ले जाया गया। वहाँ डॉक्टर उपस्थित नहीं था और न ही पानी था। बीमार बच्चों के परिजनों को कहा गया कि वे अपना इन्तज़ाम स्वयं कर लें। वहाँ मात्र एक एम्बुलेंस उपलब्ध था जिसके ड्राइवर ने पहले तो एक बार में कई बच्चों को ले जाने से मना कर दिया और बाद में बच्चों को इसी में छपरा सदर अस्पताल ले जाया गया। वहाँ के इन्तज़ाम प्राथमिक उपचार केन्द्र से भी बेहाल थे। डॉक्टरों के पास सुइयाँ नहीं थीं और न ही पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन। अस्पताल में रोशनी तक नहीं थी। राकेश नामक व्यक्ति ने अपनी बहन के शरीर को दो बार ऐंठते देखकर जब डाक्टर को बुलाया तो डॉक्टर ने राकेश के मोबाइल की रोशनी से देखकर बताया कि उसकी बहन अब नहीं रही। कई बच्चों की जान इस लिए गयी क्योंकि उनका इलाज चार-पाँच घण्टे बाद शुरू हो सका। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में ठेके पर नौकरी कर रहे डॉक्टर ए.आर. अन्सारी और उसकी पत्नी सिर्फ़ हाज़िरी के लिए अस्पताल आते हैं और अपना खुद का नर्सिंग होम चलाते हैं। डा. अन्सारी से पूछने पर उसने बेशर्मी से कहा कि स्वास्थ्य केन्द्र में कोई कमी नहीं है।
सच तो यह है कि अगर स्कूल के पास प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में ही बच्चों को तुरन्त इलाज मिला होता तो अधिकांश बच्चों की जान बचायी जा सकती थी। बच्चों की उल्टियों से जैविक फॉस्फोरस की तेज़ गन्ध आ रही थी। जिन बच्चों की भी जानें गयी हैं उनके शरीर में इस ज़हर की मात्रा काफी अधिक पायी गयी है। अगर समय से उनका इलाज शुरू कर दिया गया होता और डॉक्टरों के पास सही जानकारी और दवाएँ होतीं तो इतने बच्चे मौत के मुँह में नहीं जाते।
मगर यह शर्मनाक सच्चाई है कि विकास के बड़े-बड़े दावों के बावजूद सरकारी अस्पताल मौत के घर बने हुए हैं। उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि अगर ये बच्चे अमीरों के या खाते-पीते मध्यवर्गीय घरों के होते तो न तो उन्हें ज़हर मिला खाना पड़ता और न ही वे इलाज के अभाव में तड़प-तड़प कर दम तोड़ते। आज़ादी के 66 सालों में देश ने बहुत तरक्की की है, मगर उसका फल ऊपर की 12-15 प्रतिशत आबादी को ही मिल रहा है। जिन ग़रीब मेहनतकशों की जीतोड़ मेहनत और कुर्बानी की बदौलत यह तरक्की हुई है, वे आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। उनके बच्चे कभी भूख से दम तोड़ देते हैं तो कभी ज़हरीला खाना खाकर।
इस त्रासद घटना ने एक बार फिर ग़रीबों के लिए चलायी जाने वाली योजनाओं के ख़ोखले दावों का पर्दाफाश किया है। सरकारी घोषणाओं के मुताबिक मिड डे मील योजना का उद्देश्य बच्चों के शरीर में पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए पोषक आहार उपलब्ध कराना है। निश्चित ही पोषक तत्वों की कमी खाते-पीते घरों के बच्चों को तो होगी नहीं। इसीलिए आये दिन देश के विभिन्न हिस्सों से इसके तहत परोसे भोजन को खाकर बीमार पड़ने वाले बच्चों की ख़बरें आती रहती हैं। इस घटना के तीसरे ही दिन 19 जुलाई को गोवा में मध्याह्न भोजन खाकर 20 बच्चे बीमार पड़ गये। कुछ समय पहले दिल्ली के त्रिलोकपुरी के प्राथमिक स्कूल में 120 बच्चे इस भोजन को खाकर बीमार हुए थे। मध्य प्रदेश के एक स्कूल में खाने में मरी छिपकली पायी गयी।
माता-पिता शिकायत करते हैं कि बच्चों के खाने में कभी लकड़ी के टुकड़े तो कभी बीड़ी निकलती है। 2012-13 के सेम्पल सर्वे के अनुसार दिल्ली के सरकारी स्कूलों से एकत्र 83 प्रतिशत भोजन के नमूनों में पोषक तत्वों की कमी पायी गयी और इनमें साफ-सफाई की हद दर्जे की कमी पायी गयी है। अगर यह हाल देश की राजधानी का है तो अन्य जगहों की कल्पना रोंगटे खड़े कर देती है।
जिस व्यवस्था में मुनाफ़े या चुनावी फायदे के लिए मासूम बच्चों की बलि चढ़ायी जा सकती है, उसे जल्द से जल्द ख़त्म करने के बारे में अगर हम नहीं सोचते तो इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा। क्या हम अपने बच्चों को एक ऐसे ही समाज में जीने के लिए बड़ा कर रहे हैं जो बच्चों का ख़ून पीकर ज़िन्दा है?
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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