क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 18 : पूँजी का संचय
अध्याय – 15 (जारी)
अभिनव
बेशी- मूल्य का पूँजीकरण, पूँजी का संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन
साधारण पुनरुत्पादन पूँजीवाद का आम नियम नहीं होता है। पूँजीवाद का आम नियम होता है विस्तारित पुनरुत्पादन। हमने देखा कि साधारण पुनरुत्पादन की सूरत में पूँजीपति समूचे बेशी मूल्य का व्यक्तिगत उपभोग कर लेता है। यानी, वह पूरा का पूरा उसकी आमदनी (revenue) में तब्दील हो जाता है और उसके किसी भी हिस्से को पूँजीपति वापस उत्पादन में नहीं लगाता, यानी फिर से उसका उत्पादक निवेश नहीं करता है। लेकिन पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में यह केवल अपवादस्वरूप ही होता है। पूँजीवादी व्यवस्था का आम नियम है बेशी मूल्य के एक हिस्से का पूँजी में तब्दील किया जाना, पूँजी का संचय किया जाना और उसे वापस निवेश करके उत्पादन को पहले से बड़े पैमाने पर करना, यानी विस्तारित पुनरुत्पादन करना। वजह यह है कि पूँजीपति का लक्ष्य पैसे से पैसा बनाना होता है, मुनाफ़े से और अधिक मुनाफ़ा बनाना होता है। उसकी यह अन्धी हवस कभी नहीं मिटती।
इससे पहले की उत्पादन व्यवस्थाओं में शासक वर्गों, यानी उत्पादन के साधन के स्वामी वर्ग का आम तौर पर यह लक्ष्य नहीं होता था। उसका लक्ष्य होता था अधिक से अधिक उपभोग, ऐशो-आराम, शान और ऐय्याशी। लेकिन पूँजीपति वर्ग अपने पहले के शासक वर्गों से इस मायने में भिन्न है। ऐसा नहीं है कि उसके उपभोग और ऐशो-आराम में पहले के शासक वर्गों के मुकाबले कोई कमी आयी है। लेकिन यह उसके द्वारा मुनाफ़े से मुनाफ़ा बनाने की प्रक्रिया का उपजात है, या उसके साथ स्वत: होने वाली प्रक्रिया है। साथ ही, पूँजीपति के पास और कोई चारा भी नहीं होता है। वजह यह है कि अगर वह पूँजी संचय नहीं करेगा, उत्पादन के पैमाने का विकास नहीं करेगा, नयी तकनोलॉजी में निवेश करके श्रम की उत्पादकता को नहीं बढ़ायेगा, तो अन्य पूँजीपतियों से प्रतिस्पर्द्धा में वह पिछड़ जायेगा और कालान्तर में तबाह हो जायेगा। यह प्रतिस्पर्द्धा होती है अपने माल को कम-से-कम कीमत पर बेचने की। यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि पूँजीपति प्रति इकाई लागत को कम कर सके। उत्पादन की लागत को कम तभी किया जा सकता है, जबकि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया जाय व उत्पादन के पैमाने को विस्तारित किया जाय। इसलिए पूँजीपति सतत् प्रयासरत रहता है कि वह बेशी मूल्य की अधिकतम सम्भव मात्रा को पूँजी में तब्दील करे, यानी पूँजी का संचय करे और उसका निवेश कर उत्पादन को विस्तारित पैमाने पर शुरू करे। यही पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति होती है।
इसलिए मार्क्स कहते हैं कि पहले हमने यह देखा कि पूँजी से बेशी मूल्य पैदा होता है और अब हम देखेंगे कि बेशी मूल्य से पूँजी कैसे पैदा होती है। बेशी मूल्य का पूँजी में तब्दील किया जाना, यानी उसे फिर से उत्पादन में लगाया जाना, पूँजी का संचय कहलाता है। पूँजी के संचय का अर्थ यह है कि अब समूचे बेशी मूल्य का पूँजीपति द्वारा व्यक्तिगत उपभोग नहीं किया जा रहा है, बल्कि वह आय (revenue) और पूँजी (capital) में बँट रहा है। यानी उसके एक हिस्से को पूँजी में तब्दील किया जा रहा है।
मान लें, एक पूँजीपति रु. 2000 का उत्पादन में निवेश करता है। ज़ाहिर है, इसका एक हिस्सा उत्पादन के साधनों, यानी मशीनों, कच्चे माल, आदि पर लगेगा, जबकि दूसरा हिस्सा मज़दूरों को काम पर रखने, यानी श्रमशक्ति ख़रीदने पर लगेगा। मान लेते हैं कि पूँजीपति ने रु. 1600 उत्पादन के साधनों को ख़रीदने पर ख़र्च किये, जबकि रु. 400 उसने श्रमशक्ति ख़रीदने पर ख़र्च किये। यानी उसकी रु. 2000 की पूँजी में से रु. 1600 स्थिर पूँजी है, जबकि रु. 400 परिवर्तनशील पूँजी है। मान लेते हैं कि बेशी मूल्य की दर 100 प्रतिशत है। लिहाज़ा, रु. 400 की परिवर्तनशील पूँजी रु. 400 के बराबर बेशी मूल्य पैदा करती है। जब उत्पादन हो जाता है, तो यह बेशी मूल्य पूँजीपति के पास अभी मुद्रा-रूप में नहीं मौजूद होता है, बल्कि माल-रूप में यानी बेशी उत्पाद (surplus product) के रूप में मौजूद होता है। निश्चय ही, वह अपने बेशी मूल्य के किसी भी हिस्से को पूँजी में तभी तब्दील कर सकता है, जब बेशी उत्पाद बिके और वह उसके पास मुद्रा-रूप में वापस आये। अभी हम मान लेते हैं कि वह अपना माल उसके मूल्य पर बेचने में सफल होता है। ऐसे में, उसके पास रु. 2400 वापस आयेंगे। यानी, रु. 2000 का मूल निवेश और रु. 400 का बेशी मूल्य। अगर वह पूरे रु. 400 अपने खाने-पीने, ऐशो-आराम और ऐय्याशी पर ख़र्च कर देता है, तो उसे हम साधारण पुनरुत्पादन कहेंगे क्योंकि इस मामले में पुनरुत्पादन पहले के समान उसी स्तर पर होगा। लेकिन पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन के मामले में ऐसा नहीं होता। मसलन, इस सूरत में ऐसा होगा कि पूँजीपति रु. 200 अपने उपभोग पर ख़र्च करेगा, लेकिन बाकी बेशी मूल्य को वापस पूँजी में तब्दील करेगा और उसे फिर से उत्पादन में लगायेगा। यानी अगले चक्र में वह रु. 2000 लगाने के बजाय रु. 2200 उत्पादन में निवेश करेगा।
अगर वह पहले के ही समान अपनी पूँजी को 8:2 के अनुपात में स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी में तब्दील करता है, तो इसका अर्थ होगा कि अब रु. 200 का पूँजीकृत बेशी मूल्य (capitalized surplus value) भी उसी अनुपात में स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी में विभाजित होगा। यानी, रु. 160 स्थिर पूँजी और रु. 40 परिवर्तनशील पूँजी। यानी, अगले चक्र में जो रु. 2200 उत्पादन में लगाये जायेंगे उसमें से रु. 1760 स्थिर पूँजी के रूप में उत्पादन के साधनों को ख़रीदने पर ख़र्च होंगे, जबकि रु. 440 परिवर्तनशील पूँजी के रूप में श्रमशक्ति को ख़रीदने के लिए लगाये जायेंगे। जब पूँजीकृत बेशी मूल्य उसी अनुपात में स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी में विभाजित होता है, जिस अनुपात में मूल पूँजी स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी में विभाजित होती है, तो उसे साधारण संचय (simple accumulation) कहा जाता है। यानी पूँजी संचय हो रहा है, लेकिन वह साधारण चरित्र का है, जिसमें कि पूँजी का आवयविक संघटन (organic composition of capital) यानी कि स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। यानी, उसी पैमाने पर संचय हो रहा है। अगर हमारे उदाहरण में यह प्रक्रिया इसी रूप में जारी रहती है, तो रु. 2200 निवेश करने पर पूँजीपति को बेशी मूल्य की दर समान रहने पर रु. 440 बेशी मूल्य के रूप में प्राप्त होंगे, यानी अपना माल पूरा बेचने पर उसे कुल रु. 2640 प्राप्त होंगे। उसी दर से संचय करने पर, यानी बेशी मूल्य को आमदनी व पूँजी में उसी अनुपात में बाँटने की सूरत में, अगली दफ़ा वह फिर से रु. 220, यानी आधे बेशी मूल्य को अपने व्यक्तिगत उपभोग करेगा और रु. 220 का संचय करेगा। इस सूरत में वह तीसरे चक्र में रु. 2420 का निवेश करेगा। दूसरे शब्दों में, साधारण पूँजी संचय की यह प्रक्रिया निरन्तर जारी रह सकती है।
हम साधारण पुनरुत्पादन के मामले में ही देख चुके हैं कि यदि पूँजीपति समूचे बेशी मूल्य का व्यक्तिगत उपभोग कर लेता है, तो भी कुछ उत्पादन चक्रों के बाद उसकी समूची पूँजी वास्तव में मज़दूरों के बेगार श्रम से पैदा हुई बन चुकी होती है, यानी बेशी श्रम से, जिसके बदले में पूँजीपति मज़दूर को कुछ नहीं देता। विस्तारित पुनरुत्पादन के मामले में यह बात और भी ज़्यादा लागू होती है। हमारे उदाहरण के अनुसार, यदि पूँजीपति यह दावा करे कि उसके पास जो शुरुआती रु. 2000 थे, वह उसके और उसके पूर्वजों के व्यक्तिगत श्रम से एकत्र हुए थे (हालाँकि समूचे पूँजीपति वर्ग की बात करें, तो ऐसा अपवादों को छोड़कर कभी नही होता और पूँजीपतियों के बहुलाँश के पास आरम्भिक पूँजी उत्पादकों को उत्पादन के साधनों से अलग करके, लूटपाट के ज़रिये ही आती है) और हम इस दावे को फिलहाल मान भी लें तो भी जो रु. 400 बेशी मूल्य में पैदा हुए और उसके बाद इस बेशी मूल्य के पूँजीकृत होकर निवेश होने के कारण जो बेशी मूल्य पैदा हुआ, वह पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग के उस श्रम का नतीजा है, जिसके बदले में पूँजीपति ने मज़दूरों को कोई भी मेहनताना नहीं दिया। कुछ ही समय बाद पूँजीपति के पास अपने पूर्वजों की मेहनत के फल का (अगर वास्तव में ऐसा है तो भी!) एक कण भी नहीं बचा होता है और उसकी समूची पूँजी मज़दूरों के उस श्रम का नतीजा भर होती है, जिसके लिए मज़दूरों को कोई भुगतान नहीं किया गया है। मज़दूर वर्ग तार्किक तौर पर पूरे वैधीकरण के साथ हर चीज़ पर अपना क़ब्ज़ा स्थापित कर सकता है।
मार्क्स याद दिलाते हैं कि पूँजी संचय की दो पूर्वशर्तें होती हैं। यह जो रु. 200 के बराबर बेशी मूल्य पूँजी में तब्दील किया जा रहा है, वह अपने मुद्रा-रूप में ही उत्पादन में तो जा नहीं सकता है। इस रु. 200 से उत्पादन के साधन व श्रमशक्ति का ख़रीदा जाना अनिवार्य है। केवल तभी विस्तारित पैमाने पर उत्पादन हो सकता है। श्रमशक्ति को ख़रीदने के लिए जो अतिरिक्त पूँजी लगायी जाती है और उससे अतिरिक्त मज़दूर आते हैं, वे इस परिवर्तनशील पूँजी से, जो कि उनके हाथ में मज़दूरी है, उनकी आय है, अपने उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदते हैं। यानी, जब समूचे पूँजीवादी समाज के पैमाने पर पूँजी का संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन पूँजीपति वर्ग द्वारा किया जाता है, तो यह तभी सम्भव है, जब न सिर्फ पिछले उत्पादन चक्र में ख़र्च हुए उत्पादन व उपभोग के साधनों की भरपाई हो, बल्कि अतिरिक्त उत्पादन व उपभोग के साधन तथा अतिरिक्त श्रमशक्ति की आपूर्ति समाज में भी मौजूद हो। मार्क्स बताते हैं कि अराजकतापूर्ण तरीके से ही सही पर आम तौर पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से इन दोनों ही शर्तों को पूरा करती है। एक ओर वह बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी को निरन्तर पैदा करती रहती है और उसे क़ायम रखती है, वहीं दूसरी ओर वह विस्तारित पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक भौतिक तत्वों, यानी अतिरिक्त उत्पादन के साधनों व उपभोग के साधनों को भी पैदा करती है। वजह यह कि जो अतिरिक्त या बेशी उत्पाद बेशी मूल्य में तब्दील होता है, वह केवल पूँजीपतियों के व्यक्तिगत उपभोग व उत्पादक उपभोग के सामानों के रूप में ही नहीं होता, बल्कि वह मज़दूरी-उत्पादों के रूप में भी होता है। यानी, शुद्ध उत्पाद (net product) केवल पूँजीपतियों के ऐशो–आराम के सामानों व उत्पादन के साधनों के रूप में ही अस्तित्वमान नहीं होता है, बल्कि उसमें मज़दूरी–उत्पाद, यानी मज़दूरों के उपभोग के साधन भी शामिल होते हैं। विस्तारित पुनरुत्पादन की पूर्वशर्तें पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से ही पूरी करती है। मार्क्स लिखते हैं:
“संचय के लिए यह आवश्यक होता है कि बेशी उत्पाद का एक हिस्सा पूँजी में तब्दील हो। लेकिन चमत्कार को छोड़ दें, तो हम उन वस्तुओं के अलावा किसी अन्य चीज़ को पूँजी में तब्दील नहीं कर सकते, जो या तो श्रम प्रक्रिया में लगायी जा सकती हों (यानी कि उत्पादन के साधन), या जो मज़दूर की आजीविका के लिए उपयुक्त हों (यानी, जीविका के साधन)। नतीजतन, वार्षिक बेशी श्रम के एक हिस्से को अनिवार्यत: अतिरिक्त उत्पादन व उपभोग के साधनों के उत्पादन में लगाया जाता है, जो कि इन चीज़ों की उस मात्रा के अतिरिक्त हो, जो मूलत: लगायी गयी पूँजी की भरपाई करने के लिए आवश्यक होती हैं। एक शब्द में कहें, तो बेशी मूल्य को पूँजी में सिर्फ इसीलिए तब्दील किया जा सकता है, क्योंकि बेशी उत्पाद में, जिसका मूल्य वह है, पहले से ही पूँजी की नयी मात्रा के भौतिक तत्व शामिल हैं।” (कार्ल मार्क्स. 1990. पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन बुक्स, लन्दन, पृ. 726-727)
जब पूँजी का संचय साधारण संचय के रूप में हो रहा हो, जिसमें कि स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी का अनुपात, यानी कि पूँजी का आवयविक संघटन समान ही रहता है, तो वह श्रमशक्ति की माँग में उसी दर से वृद्धि करता है, जिस दर से पूँजी का संचय व विस्तारित पुनरुत्पादन हो रहा होता है। यह समझना आसान है। यदि पूँजी में तब्दील होने वाला बेशी मूल्य उसी अनुपात में स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी में तब्दील हो रहा है, जिसमें कि मूल पूँजी में वह विभाजित था, तो यह श्रमशक्ति की माँग में उसी दर से वृद्धि करेगा, जिस दर पूँजी बढ़ रही है। यानी, यह रोज़गार की दर को बढ़ायेगा और मज़दूरों की सक्रिय सेना (active army of labour) में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी होगी और साथ ही सापेक्ष तौर पर भी उसमें बढ़ोत्तरी होगी। हम आगे देखेंगे कि पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक गतिकी यह सुनिश्चित करती है कि पूँजी का संचय उसी पैमाने पर जारी नहीं रहता, बल्कि बढ़े हुए पैमाने पर, प्रगतिशील संचय के रूप में होता है। यानी, संचित पूँजी में स्थिर पूँजी का हिस्सा परिवर्तनशील पूँजी के हिस्से के सापेक्ष बढ़ता जाता है। ऐसे में यह बिल्कुल मुमकिन है कि निरपेक्ष तौर पर परिवर्तनशील पूँजी की राशि भी बढ़े। लेकिन कुल पूँजी में स्थिर पूँजी की तुलना में उसका सापेक्षिक हिस्सा घटता जाता है। लेकिन उस पर हम बाद में आयेंगे।
पहले हम यह समझते हैं कि किस प्रकार शुरुआती पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्रियों, जैसे कि एडम स्मिथ व डेविड रिकार्डो तक ने, अपनी वैज्ञानिक खोजों व उपलब्धियों के बावजूद, पूँजी के संचय की प्रवृत्ति के बारे में क्या ग़लत नतीजे निकाले और किस प्रकार वे नतीजे वस्तुगत तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के पक्ष में क्षमायाचना में तब्दील हो गये।
पूँजीवाद के पक्षपोषण के लिए पूँजीवादी क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र का पहला तर्क: ‘पूँजी संचय मज़दूरों के लिए फ़ायदेमन्द है’
क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने यह दावा किया कि पूँजीपति बेशी मूल्य को पूँजी में तब्दील कर जो पूँजी संचय करता है, वह तो वास्तव में मज़दूर वर्ग को ही फ़ायदा पहुँचाता है। उनका कहना था कि जो भी पूँजी संचय होता है, वह अन्तत: मज़दूरी में ही तब्दील होता है। एडम स्मिथ ने इस भ्रम की शुरुआत की। उनके भ्रम के दो बुनियादी कारण थे। पहला यह कि जो अचल पूँजी होती है, यानी कि मशीनें, इमारतें, आदि जो उत्पादन के एक ही चक्र में ख़र्च नहीं हो जातीं, एक ही बार में अपना मूल्य उत्पाद में स्थानान्तरित नहीं करती, और उत्पादन के कई चरणों के दौरान काम करती रहती हैं, एडम स्मिथ के अनुसार, वे अपना मूल्य उत्पाद में स्थानान्तरित ही नहीं करती। यानी, स्मिथ का मानना था कि अचल पूँजी के ये तत्व मानो मुफ्त में पूँजीपति को अपनी सेवा देते रहते हैं। हम जानते हैं कि ऐसा नहीं होता और अचल पूँजी का हर तत्व अलग-अलग समय के लिए ही उत्पादन में लग सकता है, उन सबकी एक उम्र होती है और उनकी उम्र और उनके मूल्य के अनुसार ही हर उत्पादन चक्र में उनके मूल्य का एक निश्चित हिस्सा मज़दूर की मेहनत के ज़रिये उत्पाद में स्थानान्तरित हो जाता है।
स्मिथ का दूसरा भ्रम यहाँ से पैदा होता है कि वह स्थिर पूँजी के तत्वों की हर ख़रीद को पहले स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी में तोड़ते हैं, फिर इस दूसरी स्थिर पूँजी के तत्व की ख़रीद को दोबारा स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी में तोड़ते हैं, और यह प्रक्रिया तब तक चलाते हैं जब तक कि उसे पूरी तरह से मज़दूरी में और प्राकृतिक संसाधनों में समाधित न कर दें। यानी, वह कहते हैं कि हर उत्पादन का साधन भी कुछ उत्पादन के साधनों व श्रम से पैदा होता है, ये दूसरे उत्पादन का साधन भी कुछ अन्य उत्पादन के साधनों व श्रम से पैदा होता है और यदि हम इस प्रकार जड़ तक जाएँ तो हमें केवल प्रकृति और श्रम मिलेगा और इसी तरह से समूची संचित पूँजी को हम मज़दूरी में तोड़ सकते हैं। स्मिथ यहाँ दो चीज़ों में भ्रमित होते हैं: पहला, वे यह नहीं समझते कि अपने इस तर्क के ज़रिये वह इससे ज़्यादा कुछ नहीं कह रहे हैं कि समस्त समृद्धि, यानी समस्त उपयोग-मूल्यों के केवल दो ही स्रोत हो सकते हैं: श्रम और प्रकृति; लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि पूँजीवादी उत्पादन के हर चक्र में हमें समूचे उत्पाद को उत्पादन के साधनों और उपभोग के साधनों में विभाजित नहीं करना होगा। इसके बिना हमारा विश्लेषण किसी नतीजे पर पहुँचेगा ही नहीं। दूसरी बात, जो स्मिथ नहीं समझ पाये, वह यह कि इस प्रकार समूची पूँजी को मज़दूरी में विसर्जित नहीं किया जा सकता है क्योंकि हर चरण में एक व्यक्ति की पूँजी दूसरे व्यक्ति की आय होती है। मसलन, परिवर्तनशील पूँजी पूँजीपति के हाथ में पूँजी ही होती है लेकिन जब मज़दूरी के रूप में उसका भुगतान कर दिया जाता है, तो वह मज़दूर की आय/आमदनी (revenue) होती है। उसी प्रकार एक लग्ज़री उत्पाद के उत्पादन में निवेश करने वाले पूँजीपति के लिए उसका माल और कुछ नहीं बल्कि उसकी माल-पूँजी है, लेकिन जो पूँजीपति उसे ख़रीदता है, उसके लिए वह उपभोग का साधन है, जबकि उसने जिस धनराशि, यानी अपनी आमदनी (revenue) के एक हिस्से से उसे ख़रीदा, वह लक्ज़री उत्पादन वाले पूँजीपति के हाथ में पूँजी है। यानी, एक व्यक्ति की आमदनी दूसरे व्यक्ति की पूँजी हो सकती है और इसका उल्टा भी हो सकता है। संचित पूँजी का एक हिस्सा मज़दूरी में, यानी आय में तब्दील होकर उपभोग की सामग्रियों में बदलता है, जबकि उसका बाकी हिस्सा यानी स्थिर पूँजी में तब्दील होने वाला हिस्सा उत्पादन के साधनों में तब्दील होता है। उसी प्रकार, बेशी मूल्य का वह हिस्सा जो पूँजीपति अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए रखता है, यानी पूँजीपति की अपनी आमदनी (revenue) या उपभोग-निधि, उपभोग के उत्पादों में तब्दील होती है। उत्पादन के हर चरण में आय और पूँजी को, उपभोग के साधनों व उत्पादन के साधनों को, स्थानापन्न उत्पाद व शुद्ध उत्पाद को अलग करना अनिवार्य है। इसके बिना मार्क्स के शब्दों में आपका विश्लेषण “मारा-मारा फिरता रहेगा”। मार्क्स लिखते हैं:
“संचय को बेशी उत्पाद के उत्पादक मज़दूरों द्वारा उपभोग मात्र बनाकर पेश किये जाने को एडम स्मिथ ने एक चलन बना दिया है। ऐसा कहने का पर्याय यह होगा कि बेशी मूल्य के पूँजीकरण का अर्थ महज़ समूचे बेशी मूल्य को श्रमशक्ति में तब्दील करना है। इस बिन्दु पर रिकार्डो की सुनें: ‘यह समझना अनिवार्य है कि किसी देश के सभी उत्पादनों का उपभोग होता है; लेकिन इस तथ्य से अधिकतम अन्तर पड़ जाता है जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं, कि उनका उपभोग उनके द्वारा किया जा रहा है जो किसी नये मूल्य का पुनरुत्पादन करते हैं, या उनके द्वारा किया जा रहा है जो कोई पुनरुत्पादन नहीं करते। जब हम कहते हैं कि आय की बचत की गयी है, और उसे पूँजी में जोड़ा गया है तो हमारा मतलब यह होता है कि आय के उस हिस्से का, जिसे पूँजी में जोड़ा गया है, उपभोग उत्पादक मज़दूरों द्वारा किया जा रहा है, न कि अनुत्पादक मज़दूरों द्वारा। यह कल्पना करने से बड़ी और कोई ग़लती नहीं है कि पूँजी उपभोग न करने से बढ़ती है। ‘लेकिन इससे बड़ी कोई ग़लती नहीं हो सकती जिसे एडम स्मिथ के बाद रिकार्डो और उनके बाद आने वाले सभी राजनीतिक अर्थशास्त्रियों द्वारा दुहराया गया, यानी यह विचार कि ‘आय का वह हिस्सा जो पूँजी में जोड़ा गया है, उसका उपभोग उत्पादक मज़दूरों द्वारा किया जाता है। ‘इसके अनुसार, समूचा बेशी मूल्य जिसे पूँजी में तब्दील किया जाता है, वह परिवर्तनशील पूँजी में बदल जाता है। लेकिन, वास्तविक तथ्य यह है कि बेशी मूल्य, मूलत: निवेश किये गये मूल्य के ही समान, स्थिर और परिवर्तनशील पूँजी में, उत्पादन के साधनों और श्रमशक्ति में तब्दील होता है।” (वही, पृ. 736)
मार्क्स इस भ्रम के मूल को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:
“इस निहायत ही अनर्गल विश्लेषण के अन्त में, एडम स्मिथ, इस बेतुके नतीजे पर पहुँचते हैं कि हालाँकि हर पूँजी को स्थिर और परिवर्तनशील पूँजी में विभाजित किया जाता है, समाज की पूँजी को पूर्ण रूप से परिवर्तनशील पूँजी में विभक्त किया जा सकता है, यानी उसे पूरी तरह से मज़दूरी के भुगतान में लगाया जाता है…स्पष्ट है कि इस दलील का पूरा ज़ोर ‘और इसी प्रकार से’ में है, जो हमारे विश्लेषण को मारा-मारा फिरने पर मजबूर कर देता है। दरअसल, एडम स्मिथ वहीं अपना विश्लेषण रोक देते हैं, जहाँ से जटिलताएँ शुरू होती हैं।
“जब तक हम साल भर के उत्पादन के कुल योग भर को देखते हैं, तो पुनरुत्पादन की वार्षिक प्रक्रिया को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन इस वार्षिक उत्पाद के हर तत्व को बाज़ार में एक माल के रूप में ख़रीदा जाना होता है, और वहीं पर दिक़्क़तें शुरू हो जाती हैं। अलग-अलग पूँजियों और व्यक्तिगत आमदिनयों की गतियाँ एक दूसरे को काटती हैं, आपस में मिलती हैं, और अवस्थितियों की सामान्य रूप में हो रही अदला-बदली में खो जाती हैं, यानी कि समाज की समृद्धि के संचरण की समूची प्रक्रिया में खो जाती हैं। यह देखने वाले को भ्रमित कर देता है और उसकी जाँच को हल करने के लिए कुछ बेहद जटिल समस्याएँ दे देता है।” (वही, पृ. 737)
मार्क्स इसके आगे बताते हैं कि आय और पूँजी की अदला-बदली, उनके उपभोग के साधनों व उत्पादन के साधनों के साथ विनिमय, स्थानापन्न उत्पाद व शुद्ध उत्पाद के संचरण की समस्याओं का समाधान वह ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में करते हैं जहाँ वे समूचे समाज के स्तर पर संचरण की प्रक्रिया (process of circulation) का अध्ययन करते हैं। अभी इतना समझ लेना पर्याप्त है कि एडम स्मिथ व डेविड रिकार्डो का यह नतीजा कि समूची पूँजी अन्तत: मज़दूरी में विभक्त हो जाती है, मूलत: आय व पूँजी के संचरण व उनके उपभोग के साधनों व उत्पादन के साधनों में तब्दील होने की प्रकिया को नहीं समझता, न ही यह उत्पादन सम्बन्धों की समस्या को समझता है। यह सिर्फ़ एक स्थापित तथ्य का दुहरावपूर्ण तरीके से फिर से दुहराव कर देता है, यानी यह कि समस्त समृद्धि का स्रोत केवल श्रम और प्रकृति है। हालाँकि इस तथ्य को भी, कि समस्त समृद्धि का स्रोत श्रम और प्रकृति हैं, मार्क्स ने ही उद्घाटित किया क्योंकि उपयोग मूल्य व मूल्य के बीच के भ्रम के कारण एडम स्मिथ ने तो समूची समृद्धि को श्रम की रचना बता दिया था, जबकि मार्क्स ने बताया कि समस्त मूल्य केवल श्रम से ही पैदा होता है, लेकिन समस्त समृद्धि के दो स्रोत हैं: प्रकृति और श्रम।
बहरहाल, हम देख सकते हैं कि यह तर्क कि समूची पूँजी व उसके संचय को अन्तत: मज़दूरी में विभक्त किया जा सकता है, किस प्रकार से पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। इसके अनुसार, मज़दूर वर्ग का हित भी पूँजीपति द्वारा अधिकतम बेशी मूल्य निचोड़े जाने और उसके अधिकतम सम्भव हिस्से के पूँजी में तब्दील किये जाने में है। क्योंकि समूचे पूँजीकृत बेशी मूल्य को तो अन्तत: मज़दूरी में ही विभक्त हो जाता है। माने कि अधिकतम बेशी मूल्य का निचोड़ा जाना और उसके अधिक से अधिक बड़े हिस्से का पूँजी में तब्दील किया जाना श्रम की माँग को बढ़ायेगा, मज़दूरी को बढ़ायेगा और चूँकि समस्त संचित पूँजी अन्तत: मज़दूरी में ही लगती है, इसलिए रोज़गार व औसत मज़दूरी दोनों को ही बढ़ायेगा। मार्क्स ने बताया कि यह बात न तो ऐतिहासिक तौर पर सही ठहरती है और न ही तार्किक तौर पर। पूँजीवाद के इतिहास का वास्तविक अनुभव बताता है कि संचित पूँजी का प्रगतिशील रूप से बड़ा हिस्सा स्थिर पूँजी में तब्दील होता है और यह बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना को रोज़गारशुदा मज़दूरों की सक्रिय सेना के सापेक्ष बढ़ाता जाता है, चाहे निरपेक्ष रूप से श्रम की सक्रिय सेना बढ़ ही क्यों न रही हो। इसके बारे में हम अगले अध्याय में पढ़ेंगे।
भोंड़े पूँजीवादी अर्थशास्त्र द्वारा पूँजीपति वर्ग के पक्षपोषण का तर्क: ‘पूँजी संचय का कारण पूँजीपति का संयम है!’
पूँजी का संचय करने का अर्थ है कि पूँजीपति समूचा बेशी मूल्य अपने व्यक्तिगत उपभोग पर ख़र्च नहीं करता है, बल्कि उसका एक हिस्सा बचाता है और उसे वापस उत्पादन में लगाता है। ज़ाहिर है, वह कितनी पूँजी का संचय करेगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि वह कितना उपभोग करेगा। वह जितनी अधिक पूँजी संचित करेगा, उतना ही वह पूँजीपति की अपनी भूमिका का निर्वाह करेगा, जिसका सार है पैसे से अधिक पैसे बनाना और फिर अधिक पैसे से और अधिक पैसे बनाना। वास्तव में, उसकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता ही पूँजी को अधिक से अधिक संचित करने में है। स्वयं पूँजीवाद की एक उत्पादन व्यवस्था के रूप में ऐतिहासिक प्रासंगिकता इसी से पैदा होती है। और जैसा कि हम जानते हैं, पूँजीपति पूँजी की सवारी नहीं करता है, बल्कि पूँजी पूँजीपति की सवारी करती है। इसलिए इस रूप में पूँजीपति और कुछ नहीं बल्कि व्यक्ति-रूप में पूँजी (capital personified) ही है। उसकी भूमिका ही है श्रमशक्ति का अधिकतम सम्भव बड़े पैमाने पर शोषण कर अधिक से अधिक बेशी मूल्य निचोड़ना और उस बेशी मूल्य के अधिकतम हिस्से को पूँजी में तब्दील करना। इसके लिए ही समूची मानव जाति को ही उत्पादन की ख़ातिर अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए बाध्य करता है। लेकिन इसी प्रक्रिया में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था उत्पादक शक्तियों का विकास उस स्तर तक करती है, जो कि एक नयी, ज़्यादा उच्चतर सामाजिक व्यवस्था का आधार बनता है। लुब्बेलुआब यह कि पूँजीपति नामक व्यक्ति और पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की ऐतिहासिक प्रासंगिकता ही पूँजी संचय में है। संचय की ख़ातिर संचय।
यह बचत करने की आदत उसे एक मध्यकालीन या प्राक्-पूँजीवादी दौर के कंजूस जैसा दिखा सकती है, लेकिन यह तुलना प्रतीति के स्तर पर ही समाप्त हो जाती है। कंजूस की बचत करने की प्रवृत्ति एक व्यक्ति के पागलपन की अभिव्यक्ति होती है। लेकिन पूँजीपति के मामले में यह एक समूची व्यवस्था द्वारा आरोपित प्रवृत्ति होती है। पूँजीपति यदि पूँजी संचय नहीं करेगा, श्रम की उत्पादकता को नहीं बढ़ायेगा, उत्पादन के स्तर को विस्तारित नहीं करेगा तो वह अपने माल के उत्पादन की लागत को भी कम नहीं कर पायेगा और वह पूँजीपतियों के बीच जारी प्रतिस्पर्द्धा में बरबाद हो जायेगा। यहाँ हम एक उत्पादन पद्धति की एक समूची सामाजिक प्रणाली को देख रहे हैं, जिसमें स्वयं एक व्यक्तिगत पूँजीपति भी एक दाँता-पेंच ही है। मार्क्स लिखते हैं :
“पूँजी के व्यक्ति-रूप में ही पूँजीपति सम्माननीय है। यूँ देखें, तो वह एक कंजूस के समान ही आत्म-समृद्धि के प्रति एक असीमित प्रबल प्रेरणा रखता है। लेकिन एक कंजूस में जो चीज़ एक व्यक्ति के उन्माद के रूप में प्रकट होती है, वह एक पूँजीपति में एक सामाजिक तन्त्र का प्रभाव होता है, जिस तन्त्र में वह एक दाँता मात्र ही है।इसके अलावा, पूँजीवादी उत्पादन का विकास किसी भी औद्योगिक उपक्रम में लगायी गयी पूँजी की मात्रा को लगातार बढ़ाते जाने को अनिवार्य देती है, और प्रतिस्पर्द्धा हर पूँजीपति को पूँजीवादी उत्पादन के अन्तर्भूत नियमों के मातहत कर देता है, बाह्य और जबरन थोपे गये नियमों के रूप में। यह उसे मजबूर कर देता है कि वह अपनी पूँजी का विस्तार करता जाये, ताकि वह उसे बचा सके, और वह लगातार संचय के ज़रिये ही उसका विस्तार कर सकता है।” (वही, पृ. 739)
यही वजह है कि एक पूँजीपति के रूप में उसका व्यक्तिगत उपभोग एक घाटे या लूटपाट के रूप में प्रकट होता है क्योंकि पूँजीवादी समाज में वैयक्तिकता, स्वतन्त्रता, स्वायत्तता पूँजी के पास होती है, पूँजीपति के पास नहीं। एक पूँजीपति के रूप में वह केवल पूँजी का अहलकार है, उसका प्रतिनिधि है, उसका व्यक्ति-रूप है। यही वजह है कि बहीखातों में पूँजीपति के उपभोग को भी उधार पासे में या डेबिट पक्ष में लिखा जाता है! क्यों? क्योंकि यह पूँजी संचय से कटौती है। लेकिन पूँजीपति भी आखिर ठहरा इन्सान! तो उसके दिल में भी मज़दूरों के श्रम की लूट से जमा धन-दौलत से कुछ ऐय्याशी करने की उमंगें और तरंगें उठती हैं। नतीजतन, वह अपनी शान भी दिखाना चाहता है, उम्दा उपभोग की वस्तुओं का उपभोग करना चाहता है, यानी लग्ज़री के सामानों का। यह दुविधा उसके भीतर हमेशा निवास करती है: ‘ज़्यादा खाऊँ या ज़्यादा बचाऊँ’। मार्क्स लिखते हैं :
“लेकिन मूल पाप हर जगह सक्रिय रहता है। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के साथ, संचय और समृद्धि की वृद्धि के साथ, पूँजीपति महज़ पूँजी का अवतरण मात्र नहीं रह जाता। वह अपने भीतर के आदम के प्रति एक मानवीय ऊष्मा महसूस करने लगता है, और उसकी शिक्षा धीरे-धीरे उसे अपने पुराने वैराग्य भाव पर मुस्कराना सिखाती है, मानो वह किसी पुराने ज़माने के कंजूस का पूर्वाग्रह हो। जहाँ क्लासिकी किस्म का पूँजीपति व्यक्तिगत उपभोग को अपने प्रकार्य के विरुद्ध एक पाप मानता है, संचय करने से ‘परहेज़’ मानता है, वहीं आधुनिकीकृत पूँजीपति संचय को आनन्द के ‘त्याग’ के रूप में देखने में सक्षम होता है। ‘हाय, उसके दिल में बसती हैं दो आत्माएँ; और एक की दूसरे से नहीं बनती।‘” (वही, पृ. 741, आखिरी पंक्तियाँ जर्मन महाकवि गोयठे की कालजयी रचना ‘फाउस्ट’ से हैं, जिन्हें मार्क्स ने यहाँ उद्धृत किया है)
मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के प्रादुर्भाव के बाद के शुरुआती दौर में हर पूँजीपति ‘कंजूसी’ के उस दौर से गुज़रता है, जिसकी हमने ऊपर बात की है। वास्तव में, हर व्यक्तिगत पूँजीपति भी एक पूँजीपति के तौर पर अपने जीवन में शुरू में इस दौर से गुज़रता है। लेकिन जैसे-जैसे पूँजीवाद का उत्तरोत्तर विकास होता है, सामाजिक समृद्धि का अभूतपूर्व विस्तार होता है, उसके उत्तरोत्तर विकास की आवश्यकता के आधार पर एक ऋण व्यवस्था (credit system) पैदा होता है, वैसे-वैसे संचय के साथ उपभोग को बढ़ाना भी पूँजीपति वर्ग के लिए मुमकिन और वांछनीय हो जाता है। मार्क्स बताते हैं:
“जब विकास की एक निश्चित अवस्था आ जाती है, तो अपव्यय का एक पारम्पारिक स्तर, जो कि समृद्धि की नुमाइश भी है, और इस प्रकार ऋण का एक स्रोत भी है, ‘अभागे’ पूँजीपति के लिए धन्धे की एक ज़रूरत भी बन जाता है। ऐशो-आराम पूँजी के दिखावे के ख़र्चों में शामिल हो जाता है। इसके अलावा, पूँजीपति कंजूस की तरह अमीर नहीं होता, यानी अपने व्यक्तिगत श्रम और सीमित उपभोग के अनुपात में, बल्कि वह उस दर से अमीर होता है जिस दर से वह दूसरों की श्रमशक्ति को निचोड़ता है, और मज़दूरों को जीवन के समस्त आनन्दों का त्याग करने के लिए बाध्य करता है। इस प्रकार, हालाँकि पूँजीपति द्वारा ख़र्च करना कभी भी एक दिखावटी सामन्ती महाप्रभु की शाहख़र्ची जैसा प्रामाणिक चरित्र नहीं अपनाता, बल्कि, उसके विपरीत, यह हमेशा पृष्ठभूमि में मँडरा रहे नीच किस्म के लोभ और बेचैन हिसाब-किताब से बाधित होता है, लेकिन फिर भी उसके संचय के साथ यह ख़र्च भी बढ़ता है, और यह संचय को अनिवार्यत: बाधित किये बिना बढ़ता है।” (वही, पृ. 741)
पूँजीपति वर्ग की इस बढ़ती ऐय्याशी को हम मज़दूर देखते ही हैं। हम यह भी देखते हैं कि जिस दर से हमारी मेहनत की लूट बढ़ती है, जिस दर से हम पूँजीपति के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पैदा करते हैं, उसी दर से हमारे काम और जीवन के हालात नर्क जैसे होते जाते हैं। ‘ज़्यादा खाऊँ या ज़्यादा बचाऊँ’ की शाश्वत दुविधा के बावजूद, पूँजी का संचय भी लगातार बढ़ती दर से बढ़ता जाता है और पूँजीपति वर्ग की ऐय्याशी भी बढ़ती है। लेकिन यह बढ़ता उपभोग बढ़ते संचय का उपजात (by-product) है, न कि इसका उल्टा। पूँजीवाद का शाश्वत नारा तो यही है: ‘संचय करो, संचय करो!’ आनन्द और संचय के बीच के द्वन्द्व का माल्थस ने यह हल बताया था कि समाज में परजीवी वर्गों का बना रहना ज़रूरी है, मसलन, राजे-रजवाड़ों का और ज़मीन्दारों का; मज़दूर तो बेशी मूल्य पैदा करने का यन्त्र है, लेकिन पूँजीपति भी स्वयं पूँजी का संचय करने यानी उस बेशी मूल्य के बड़े से बड़े हिस्से को वापस पूँजी में तब्दील करने का यन्त्र मात्र ही है; वह अधिक उपभोग करेगा तो अधिक संचय कैसे करेगा और समाज की समृद्धि में अधिकतम सम्भव गति से बढ़ोत्तरी कैसे होगी! इसलिए इन परजीवी वर्गों का यह सामाजिक प्रकार्य है कि वे उपभोग करें, इससे आधिक्य का संकट नहीं पैदा होगा! लेकिन औद्योगिक पूँजीपतियों के प्रतिनिधि राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने इस ‘अन्याय’ पर बहुत शोर मचाया और कहा कि इस निठल्ले और ठलुआ परजीवी वर्गों को पालना पूँजीपतियों का काम नहीं! ऊपर से, उनकी वजह से संचय की दर भी कम होगी। लेकिन इन बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने मज़दूर के शोषण और उसके अतिरिक्त श्रम के बिना किसी भुगतान के हड़प लिये जाने पर कोई शोर नहीं मचाया क्योंकि उन्हें यह बिल्कुल न्यायसंगत लगा! उन्हें मज़दूर की मज़दूरी को एकदम उसके भौतिक पुनरुत्पादन की आवश्यकता तक घटा दिये जाने, यानी जीने की ख़ुराक तक घटा दिये जाने में कुछ भी अन्यायपूर्ण नज़र नहीं आया क्योंकि यह तो पूँजीपति का काम ही है कि वह मज़दूर को आलसी न होने दे, उसे मेहनती बनाये रखे!
मार्क्स इन दोहरे मापदण्डों की खूब खिल्ली उड़ाते हैं। वह यह भी बताते हैं कि भूस्वामी वर्ग और औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के बीच जो विवाद था, वह उस समय एकदम से शान्त पड़ गया जब फ्रांस में 1830 की जुलाई क्रान्ति का दौर आया या उसके ठीक बाद ल्योन में मज़दूरों ने विद्रोह का बिगुल फूँका। मज़दूर वर्ग के शोषण की आवश्यकता पर शासक वर्ग के ये दोनों ही धड़े एकजुट थे। इस तुलना आप आज हमारे देश में आज जारी धनी फार्मरों और औद्योगिक वित्तीय पूँजीपतियों के आपसी विवाद से भी कर सकते हैं, जो महज़ इस बात पर है कि मज़दूरों से निचोड़े गये बेशी मूल्य के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा किसका हो। लेकिन खेतिहर सर्वहारा को श्रम कानूनों द्वारा प्रदत्त अधिकार न मिलें, इस पर दोनों एक हैं। औद्योगिक मज़दूरों को ठेकाकरण और कैजुअलीकरण से मुक्ति मिले, जो उनसे अधिक से अधिक बेशी मूल्य निचोड़ने के लिए अपनाये गये तरीके मात्र हैं, यह सवाल दोनों में से कोई नहीं उठाता।
मार्क्स बताते हैं कि 1830-40 के दशक के इस दौर के ठीक बाद ही भोंड़े बुर्जुआ अर्थशास्त्र का दौर शुरू होता है, जो उन वैज्ञानिक खोजों का भी परित्याग करना शुरू कर देता है, जो विलियम पेटी, फिजियोक्रैट अर्थशास्त्रियों, एडम स्मिथ व डेविड रिकार्डो जैसे क्लासिकी बुर्जुआ अर्थशास्त्र की परम्पारा की उपलब्धियाँ थीं। इस भोंड़े बुर्जुआ अर्थशास्त्र के एक जाने-माने नाम थे नासाऊ सीनियर। इनका मानना था कि मज़दूर के पूरे कार्यदिवस का जो आखिरी घण्टा होता है, केवल वह उसी में पूँजीपति के लिए मुनाफ़ा पैदा करता है! हम मज़दूरी पर केन्द्रित अध्याय में देख चुके हैं कि ऐसा नहीं होता है। अगर कोई मज़दूर 4 घण्टे ही काम कर रहा है, और बेशी मूल्य की दर 100 प्रतिशत है, तो वह 2 घण्टे मुफ्त में पूँजीपति के लिए ही काम करता है। अगर वह 8 घण्टे काम करेगा, तो भी यही समीकरण लागू होगा। इसी अर्थशास्त्री ने दावा किया कि उसकी एक खोज यह है कि पूँजी की जगह हमें ‘संयम’ शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए! उसकी पूँजी उसके संयम का ही तो परिणाम है! अगर मुनाफ़े को वह पूरा हजम नहीं कर जाता और कुछ बचा लेता है जिस अगली बार फिर निवेश करता है, तो यह संयम ही तो है! यह बेशी मूल्य कहाँ से आ रहा है, यह नासाऊ सीनियर के लिए कोई सवाल ही नहीं है! हम समझ सकते हैं कि पूँजीवाद के पक्षपोषण के लिए भोंड़ा बुर्जुआ अर्थशास्त्र मज़ाकिया दलील पेश कर रहा है, जिसका न तो कोई सिर है और न पैर। इसके बाद के दौर से समूचा बुर्जुआ अर्थशास्त्र पूँजी संचय की व्याख्या इस संयम के सिद्धान्त से करता है। आपको आज की अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में भी यह सिद्धान्त मिल जायेगा। इसके खण्डन में भी बहुत शब्द ख़र्च करने की आवश्यकता नहीं है। बेशी मूल्य का स्रोत मज़दूर का वह श्रम है, जिसके लिए उसे कोई मेहनताना नहीं मिलता, यानी मुफ्त में दिया गया अतिरिक्त श्रम। यही बेशी मूल्य पूँजी के रूप में संचित होता है। नतीजतन, उसका मूल भी श्रम ही है, न कि पूँजीपति का संयम। वैसे भी संयम की व्याख्या दोनों प्रकार से ही की जा सकती है। मसलन, उपभोग करना निवेश करने के मामले में संयम दिखाना है और निवेश करना उपभोग करने के मामले में संयम दिखाना है; बैठे रहना चलने के मामले में संयम दिखाना है और चलना बैठे रहने के मामले में संयम दिखाना है, इत्यादि। यह किसी चीज़ की व्याख्या नहीं करता और एक मूर्खतापूर्ण तर्क है, जो भोंडे़ पूँजीवादी अर्थशास्त्र ने पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग के पक्षपोषण के लिए गढ़ा है।
(अगले अंक में अध्याय-15 जारी)
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