बढ़ती बेरोज़गारी के ताज़ा आँकड़े और उसकी वजह

गायत्री भारद्वाज

विकास और वृद्धि के मोदी सरकार के सभी दावों के बावजूद अक्टूबर 2023 में बेरोज़गारी ने कोविड के समय के बाद के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए मोदी सरकार ने तो तमाम विभागों द्वारा आँकड़ों को जुटवाना ही बन्द कर दिया था। इसलिए सरकारी आँकड़ों के ज़रिये आजकल ज़्यादा कुछ पता नहीं चलता। मोदी सरकार और उसके मन्त्री झूठे दावे करने में माहिर हैं। बिना किसी सर्वे आदि के भी वे मनमाने दावे करते रहते हैं कि महँगाई घट गयी, बेरोज़गारी घट गयी, भ्रष्टाचार कम हो गया, आदि। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले 9 वर्षों में महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार सभी ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। अभी हम केवल बेरोज़गारी की ही बात करेंगे। महँगाई और भ्रष्टाचार पर आगे ज़रूर लिखेंगे।

सरकारी आँकड़ों में सबसे भरोसेमन्द आँकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के हुआ करते हैं। लेकिन उसमें भी बेरोज़गारी की दर को परिभाषित करने के लिए तीन पैमानों का इस्तेमाल होता है। पहला, सामान्य स्थिति; दूसरा, साप्ताहिक स्थिति और तीसरा, रोज़ाना स्थिति। ज़ाहिर है, जब तक हम रोज़गार सुरक्षा की बात न करें तो पिछले सप्ताह किसे कितने दिन काम मिला, या किसी दिये गये दिन किसे काम मिला, इसके आधार पर रोज़गार का आकलन करना जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक है। जब तक पक्की नौकरी को परिभाषा का हिस्सा न बनाया जाय, तो अनौपचारिक क्षेत्र में कभी कुछ तो कभी कुछ काम करके किसी तरह पेट पालने वाले आम ग़रीब मेहनतकश-मज़दूर को भी सरकारी आँकड़े रोज़गारशुदा ही दिखा देंगे। वास्तव में, सभी पूँजीवादी सरकारें इसी प्रकार की चार सौ बीसी से बेरोज़गारी के आँकड़ों को कम करके दिखाती हैं। मोदी सरकार तो इसमें सारी पूँजीवादी सरकारों को पीछे छोड़ चुकी है। ऐसे में, ग़ैर-सरकारी आँकड़ों पर ही निर्भर रहा जा सकता है।

ग़ैर-सरकारी स्रोतों में सबसे भरोसेमन्द स्रोत माना जाता है सेण्टर फॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आँकड़ों को। यह संगठन हर हफ्ते अपने सर्वे करता है और लोगों से पूछता है कि सर्वे की तिथि पर उनके पास कोई काम था या नहीं। इसलिए लम्बी दूरी में उनके माहवार आँकड़े पूरी तरह सटीक नहीं, तो भी और स्रोतों से कुछ बेहतर होते हैं। बेरोज़गारी दर को परिभाषित ऐसे किया जाता है कि वे सभी लोग जिनके पास काम नहीं है और वे काम ढूँढ रहे हैं, उनकी संख्या, तथा कुल श्रमशक्ति की कुल संख्या का अनुपात।

अक्टूबर 2023 के लिए सीएमआईई के आँकड़े बेरोज़गारी की एक भयावह तस्वीर पेश करते हैं। इतनी ख़राब परिभाषा के आधार पर भी अक्टूबर 2023 में भारत में बेरोज़गारी दर 10.05 प्रतिशत थी। इसमें ग्रामीण बेरोज़गारी दर 10.82 प्रतिशत थी, जबकि शहरी बेरोज़गारी दर 8.44 प्रतिशत थी। ज़ाहिर है, अगर बेरोज़गारी की परिभाषा में पक्की नौकरी के सवाल को जोड़ा जाये तो यह संख्या 40 प्रतिशत के पार जा सकती है। लेकिन अभी हम इसी परिभाषा को लेकर चलें तो भी भारत की करीब 53 करोड़ श्रमशक्ति (काम करने योग्य जनसंख्या) में से करीब 5.4 करोड़ के पास किसी प्रकार का रोज़गार नहीं है, न दिहाड़ी, न ठेके वाला, न कोई अपना छोटा-मोटा धन्धा…यानी कुछ भी नहीं! ज़ाहिर है, इसमें अनौपचारिक क्षेत्र के दिहाड़ी, ठेका व कैजुअल मज़दूरों की एक बड़ी संख्या को जोड़ दें, जिनके पास कोई रोज़गार सुरक्षा नहीं है, तो यह आँकड़ा 30 करोड़ के ऊपर चला जायेगा। लेकिन बेहद कमज़ोर परिभाषा के आधार पर भी देखें, तो बेरोज़गारी दर भयंकर है।

यह मई 2021 के बाद की उच्चतम बेरोज़गारी दर है, जब कोविड व मोदी सरकार द्वारा थोपे गये अनियोजित लॉकडाउन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी थी। तब से सकल घरेलू उत्पाद में धीमी गति से कुछ रिकवरी हुई है (हालाँकि मोदी सरकार यह झूठा दावा करती रहती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया के सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था है) लेकिन बेरोज़गारी की दर पहले से भयंकर हुई है। पिछले साल इसी महीने इसी स्रोत यानी सीएमआईई के आँकड़ों के अनुसार बेरोज़गारी दर 7.09 प्रतिशत थी। लेकिन आज यह 10.05 प्रतिशत पर पहुँच गयी है। बेरोज़गारी में बढ़ोत्तरी का प्रमुख कारण यह है कि भारत की कार्यशक्ति (जो किसी न किसी प्रकार का काम कर रही है) लगभग 40 करोड़ के आस-पास ठहरावग्रस्त है। श्रमशक्ति (यानी काम करने योग्य आबादी) में बढ़ोत्तरी हुई, जो कि स्वाभाविक है। लेकिन अर्थव्यवस्था में रोज़गार पैदा नहीं हो रहे हैं और जो हैं वे भी अधिक से अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं।

दूसरी तरफ, धीमी गति से ही सही लेकिन 2019 के मुकाबले सकल घरेलू उत्पाद में 16 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इतना भी इसलिए दिख रहा है क्योंकि मोदी सरकार की नोटबन्दी और जीएसटी के कारण सकल घरेलू उत्पाद इतना नीचे चला गया था कि थोड़ी-बहुत रिकवरी होने पर भी वह प्रतिशत में ज़्यादा ही नज़र आयेगा। मोदी सरकार की यह पुरानी चाल रही है कि पहले जनता के हालात बेहद नीचे गिरा दो और फिर कुछ ऊपर लाकर उसका श्रेय बटोरो। ठीक उसी प्रकार जैसे गैस सिलेण्डर को पहले रु. 500 से बढ़ाकर रु. 1200 पर पहुँचा दो और फिर रु. 200 या 300 कम करके जनता पर अहसान जताओ। सकल घरेलू उत्पाद के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। नोटबन्दी और जीएसटी ने उसे लगभग शून्य में पर ला दिया था। उसके बाद कुछ भी बेहतरी होगी तो वह प्रतिशत में तो ज़्यादा ही दिखायी देगी।

बहरहाल, अगर 2019 के मुकाबले सकल घरेलू उत्पाद 16 प्रतिशत बढ़ा है, देश की अर्थव्यवस्था में कुछ वृद्धि हुई है, तो यह रोज़गार में भी नज़र आनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्यों? क्योंकि जो वृद्धि हुई है, वह रोज़गार-विहीन विकास के चलते हुई है। मज़दूरों के कार्यदिवस की लम्बाई और सघनता को बढ़ाकर पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े को बढ़ा रहा है। लेकिन इसके कारण यदि अर्थव्यवस्था में नये पैमाने पर निवेश नहीं हो रहा, यदि पर्याप्त रूप में विस्तारित पुनरुत्पादन नहीं हो रहा है, तो ज़ाहिरा तौर पर बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी में बढ़ोत्तरी होगी।

सवाल यह है कि मोदी सरकार जब पूँजीपतियों को ब्याज़मुक्त ऋण से लेकर, लगभग फ्री बिजली, पानी व ज़मीन और प्रत्यक्ष करों से भारी छूट दे रही है, ताकि वे नये निवेश करें, तो फिर भारत के पूँजीपति पर्याप्त मात्रा में नये निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? वे नये निवेश इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मुनाफ़े की औसत दर बेहद कम है। दूसरे शब्दों में मन्दी अभी भी जारी है। नतीजतन, सरकार से जो छूट और सौगातें पूँजीपतियों को मिल रही हैं, वे उसे उत्पादक कार्रवाइयों में कम और सट्टेबाज़ी आदि में ज़्यादा लगा रहे हैं। नतीजतन, रोज़गार सृजन नहीं हो रहा है। साथ ही, मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाने, श्रम की सघनता को बढ़ाने और ठेका प्रथा द्वारा कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाने के कारण भी रोज़गार सृजन की दर घटती जा रही है। यही वजह है कि सकल घरेलू उत्पाद में तो मामूली गति से वृद्धि दिखायी दे रही है (2019 से हर वर्ष औसतन 5 से 6 प्रतिशत के बीच) लेकिन वह रोज़गार सृजन में प्रतिबिम्बित नहीं हो रही है।

यह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का मुनाफे की गिरती औसत दर का संकट है, जिसे हमारे देश में आर्थिक कुप्रबन्धन और पूँजीपतियों के साथ मिलकर मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार ने और भी ज़्यादा विकराल रूप दे दिया है। गोदी मीडिया बेरोज़गारी की इस स्थिति के बारे में मज़दूरों-मेहनतकशों को कभी सच्चाई नहीं बतायेगा। लेकिन जैसे ही आप ठोस आँकड़ों पर निगाह डालते हैं और उनका वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं, वैसे ही फ़ासीवादी मोदी सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों की सच्चाई आपके सामने आ जाती है। इन सच्चाइयों को समझिये। सब याद रखिये। और हर मौके पर भाजपा और मोदी सरकार को अपने संघर्षों के बूते सबक सिखाइये। फ़ासीवादी मोदी सरकार और संघ परिवार ही भारत में मज़दूरों, मेहनतकशों और निम्न-मध्यवर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2023


 

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