अपराध-सम्बन्धी क़ानूनों में बदलाव के पीछे मोदी सरकार की असल मंशा क्या है?
अपनी बढ़ती हुई अलोकप्रियता से बौखलाये फ़ासिस्ट हुक्मरान अब हर प्रकार के प्रतिरोध को
और भी सख़्त क़ानूनों का सहारा लेकर कुचलना चाहते हैं!
शिवानी
मोदी सरकार द्वारा आनन-फ़ानन में इस बार संसद सत्र के आख़िरी दिन भारतीय दण्ड संहिता (आयीपीसी), दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट) की जगह इन विषयों से सम्बन्धित तीन नये विधेयक प्रस्तुत किये गये। जो तीन विधेयक पेश किये गये हैं वे हैं- भारतीय न्याय संहिता, 2023 (अपराधों से सम्बन्धित प्रावधानों को समेकित और संशोधित करने के लिए), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (दण्ड प्रक्रिया से सम्बन्धित क़ानून को समेकित और संशोधित करने के लिए) और भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 (सुनवाई के लिए साक्ष्य के सामान्य नियमों और सिद्धान्तों को समेकित करने और प्रदान करने के लिए)।
गृह मंत्री अमित शाह ने इन विधेयकों के मसौदे को पेश करते हुए दावा किया कि मौजूदा क़ानून “उपनिवेशवाद की विरासत” हैं और “ग़ुलामी की मानसिकता” के प्रतीक हैं इसलिए इन्हें आज की स्थितियों के अनुकूल बनाये जाने की आवश्यकता है। वैसे तो अमित शाह के इस दावे को हलक़ से नीचे उतार पाना किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए काफ़ी मशक्क़त वाला काम है क्योंकि “औपिवेशिक विरासत” की बात ऐसे लोगों के मुँह से सुनना थोड़ा अजीब लगता है जिनका पूरा इतिहास ब्रिटिश औपिवेशिक शासकों से प्रेम-प्रसंग चलाने का रहा हो, उनके सामने माफ़ीनामे लिखने का रहा हो, उनके लिए मुखबिरी तक करने का रहा हो। इसलिए अमित शाह के इस दावे को किनारे रखते हुए सोचने वाली अहम बात यह है कि मोदी सरकार द्वारा अचानक इतनी हड़बड़ी में इन क़ानूनों में बदलाव क्यों प्रस्तावित किये जा रहे हैं, जिनके साल के अन्त तक क़ानूनी रूप ले लेने की सम्भावना है। दरअसल, इन क़ानूनों के आधुनिकीकरण या “भारतीयकरण” के नाम पर फ़ासीवादी मोदी सरकार अपने ख़िलाफ़ उठने वाले हर प्रतिरोध से और सख़्ती से निपटने की तैयारी में है।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत में अपने वर्तमान स्वरूप में मौजूद आपराधिक दण्ड संहिताएँ किसी भी दृष्टि से जनपक्षधर या जनवादी नहीं हैं और उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय राज्यसत्ता द्वारा, मूलतः और मुखयतः, चन्देक बदलावों के साथ औपनिवेशिक सत्ता से उधार ले ली गयी थीं। इनका ग़ैर-जनवादी दमनकारी चरित्र आज़ादी के तत्काल बाद ही स्पष्ट होता चला गया। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये सभी क़ानून पूर्णतः संविधान-सम्मत भी हैं। लेकिन जिस संविधान को बनाने वाली संविधान सभा का चुनाव उस वक़्त की कुल वयस्क आबादी के मात्र 11.5 प्रतिशत हिस्से से बने निर्वाचन मण्डल ने किया हो, जो अधिकतर सम्पत्तिधारी वर्गों के ही प्रतिनिधि थे, उससे जनवादी होने की उम्मीद करना ही बेमानी है। इसलिए ऐसा कोई मुग़ालता पालना कि मौजूदा आपराधिक क़ानून किसी भी मायने में जनता के अधिकारों की हिफ़ाज़त करते थे, बहुत बड़ी भूल होगी। तो फिर मोदी सरकार पहले से ही पर्याप्त जन-विरोधी इन दण्ड संहिताओं को बदलने क्यों जा रही है?
इसका कारण मोदी सरकार की बढ़ती हुई अलोकप्रियता है जो बेरोज़गारी से लेकर महँगाई और भ्रष्टाचार से लेकर साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा बढ़ाने के मामले में पिछले नौ सालों में अब तक के सभी कीर्तिमान ध्वस्त करके अव्वल साबित हुई है और इस कारण से 2024 में अपनी सम्भावित चुनावी हार से बौखलाई भी हुई है। इसीलिए यह अनायास नहीं है कि 2024 के चुनावों के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी चन्द्रयान-3 की सवारी गाँठकर अपना चेहरा चमका रहे हैं तो कभी ऐन रक्षा बन्धन के मौक़े पर “बड़े भाई होने का कर्तव्य निभाते हुए” सिलेंडर की क़ीमत 200 रुपये कम करके “अपनी बहनों” को राखी का तोहफ़ा दे रहे हैं! इसके अलावा साम्प्रदायिक उन्माद और अन्धराष्ट्रवाद की लहर उठाकर भी जनता को आपस में ही लड़वा मारने की साज़िशें रची जा रही हैं जिसका ताज़ा उदाहरण हरियाणा के नूंह-मेवात समेत अन्य इलाक़ों में संघियों द्वारा साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की कोशिश थी। लेकिन अब देश की आम मेहनतकश आबादी और मध्य वर्ग का एक हिस्सा भी इस बात को समझ रहा है कि इस पूरी मशक्क़त के पीछे असल में 2024 का लोकसभा चुनाव है जिसमें अपनी पक्की जीत को लेकर भाजपा और संघ परिवार काफ़ी सशंकित है। तो एक तरफ़ मोदी सरकार कुछेक खैराती कल्याणवादी क़दम उठाकर अपनी बढ़ती हुई अलोकप्रियता को एक हद तक नियंत्रित करना चाह रही है, लेकिन दूसरी तरफ़ वह यह भी समझती है कि यह “कल्याणवाद” वह ज़्यादा कर नहीं पायेगी और न ही कर सकती है। आख़िर देश के पूँजीपतियों और धन्ना-सेठों ने भाजपा और मोदी को यह करने के लिए तो सत्ता में बिठाया नहीं था!
इसलिए ही देश की क़ानून व्यवस्था को फ़ासीवादी हुक्मरान अब और चाक-चौबन्द करने पर आमादा हैं ताकि किसी भी क़िस्म के जनाक्रोश को पनपने से पहले ही कुचल देने के इन्तज़ामात पहले से ही मौजूद हों। हालाँकि भारतीय फ़ासीवादी अब तक पूँजीवादी जनवाद के दायरे और बुर्जुआ संवैधानिक फ्रेमवर्क के भीतर ही अपने फ़ासीवादी मंसूबों को पूरा करने में सफल रहे हैं और इसलिए उन्हें “जनतंत्र” और “संविधान” के खोल को उतार फेंकने की ज़रूरत अब तक नहीं पड़ी, जोकि इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवादी उभार की ख़ासियत भी है। बुर्जुआ जनतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था अन्दर से ख़ुद ही इतनी क्षरित और विघटित हो चुकी है कि फ़ासीवादियों को भी उसे दरकिनार करने की ज़रूरत आम तौर पर महसूस नहीं होती है। हालाँकि इस बात की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि जैसे-जैसे मोदी सरकार और भाजपा की अलोकप्रियता बढ़ रही है और जैसे-जैसे इन्हें अपनी चुनावी हार की आशंका सच में तब्दील होते दिखेगी, वैसे-वैसे फ़ासीवादी भाजपा को इस “जनवादी” खोल को भी उतार फेंकने में शायद ही कोई गुरेज़ हो। आयीपीसी, सीआरपीसी व एविडेंस एक्ट में प्रस्तावित बदलावों को हमें इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
प्रस्तावित क़ानूनी बदलावों में जो सबसे अहम बदलाव है और जिसकी सबसे ज़्यादा चर्चा हो रही है वह है राजद्रोह (धारा 124 ए आयीपीसी) के क़ानून का निरस्त किया जाना। लेकिन यदि आप इस बात पर ख़ुशी मनाने का विचार कर रहे हैं तो थोड़ा ठहर जायें क्योंकि इसकी जगह जो क़ानून आ रहा है वह मौजूदा राजद्रोह के क़ानून से भी बदतर है! यानी नयी बोतल में सिर्फ़ पुरानी शराब नहीं उड़ेली गयी है बल्कि उससे कहीं ज़्यादा ज़हरीली और ख़तरनाक शराब पेश की जा रही है! नये क़ानून के मुताबिक़ “भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालना” अपराध होगा। आयीपीसी को प्रतिस्थापित करने वाले भारतीय न्याय संहिता, 2023, के भाग VII का शीर्षक ही है “राज्य के विरुद्ध अपराध” जिसकी धारा 150 “भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालने वाले कृत्यों” को अपराध मानती है।
धारा 150 में कहा गया है-
“जो कोई भी, उद्देश्यपूर्वक या जानबूझकर, बोले गये या लिखे गये शब्दों से, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा या वित्तीय साधनों के उपयोग से, या अन्यथा, अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियों को उत्तेजित करता है या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करता है या भारत की सम्प्रभुता या एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालता है; या ऐसे किसी भी कार्य में शामिल होता है या करता है, उसे आजीवन कारावास या कारावास से दण्डित किया जायेगा, जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।»
अब ज़रा इसकी तुलना आयीपीसी की धारा 124 ए, जो वर्तमान में राजद्रोह के अपराध को परिभाषित करती है, से करें। धारा 124 ए निम्न प्रावधान करती है :
“जो कोई भी बोले गये या लिखे गये शब्दों से, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना लाता है या लाने का प्रयास करता है, या उत्तेजित करता है या असन्तोष पैदा करने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास से दण्डित किया जायेगा, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है, या कारावास, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है, या जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है।”
आप देख सकते हैं कि नये क़ानून के अन्तर्गत “अलगाव उकसाना”, “सशस्त्र विद्रोह”, “विध्वंसक गतिविधियाँ” और “अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करने” जैसे कृत्यों का ज़िक्र स्पष्ट तौर पर किया गया है। साथ ही, यह उन कृत्यों को भी सन्दर्भित करता है जो “भारत की सम्प्रभुता या एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालते हैं”, हालाँकि यह वाक्यांश ही पारिभाषिक रूप से इतना व्यापक और अस्पष्ट है कि इसकी कई व्याख्याएँ सम्भव है और इस रूप में राज्य या सरकार अपने ख़िलाफ़ होने वाले किसी भी प्रकार के विरोध को इस श्रेणी में रखने का प्राधिकार रखती है। इसका किस हद तक फ़ासीवादी सत्ता द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ दुरुपयोग किया जा सकता है, हम सहज अनुमान लगा सकते हैं। जहाँ तक सज़ा का सवाल है तो नये क़ानून में इसे और अधिक कठोर बना दिया गया है।
इसके अलावा नये क़ानून में अपने जायज़ अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन करना या उनके लिए एकजुट होकर आवाज़ उठाना तक आंतकवादी गतिविधि घोषित किये जाने के प्रावधान मौजूद हैं। आम तौर पर ही नये बदलाओं ने राज्य द्वारा सज़ा दिये जाने के दायरे को विस्तारित कर दिया गया है। मसलन, धारा 111 के अन्तर्गत यह लिखा गया है कि किसी व्यक्ति ने आंतकवादी कृत्य किया है यदि वह भारत में या विदेश में भारत की एकता, अखण्डता और सुरक्षा को धमकी देने, जनसाधारण या उसके किसी भी हिस्से को डराने, धमकाने या सरकारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने की मंशा से निम्नलिखित कोई कार्य करता है, या किसी सम्पत्ति की क्षति या विनाश के कारण क्षति या हानि, समुदाय के जीवन के लिए आवश्यक किन्हीं आपूर्तियों या सेवाओं का विनाश, सरकारी या लोक सुविधा, लोकस्थान या निजी सम्पत्ति का विनाश करता है। यानी अब कहीं भी, देश में या देश के बाहर, सरकार की आलोचना आतंकवादी कार्यवाई घोषित की जायेगी!
याद दिला दें कि आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के लिए भारतीय क़ानून व्यवस्था में पहले ही कई अलग क़ानून और प्रावधान हैं, इसलिए इसे एक नयी धारा के तहत शामिल करने का कोई तुक नहीं बनता था। निश्चित तौर पर, यह प्रावधान जन प्रतिरोध और राजनीतिक विरोध को ही लक्षित करता है और विरोध प्रदर्शनों को क्रिमिनलाइज़ (अपराधीकृत) करता है और इन्हें ही “आंतकवाद” की क्षेणी में रखता है। साथ ही, नये क़ानून के तहत आवश्यक सेवाओं में लगे कर्मचारी जैसे डॉक्टर, नर्स, रेलवे कर्मचारी, आंगनवाड़ीकर्मी, आशाकर्मी आदि अब हड़ताल या प्रदर्शन तक नहीं कर पायेंगे क्योंकि इन्हें आंतकवादी गतिविधि घोषित किया जा सकेगा! दरअसल एक बौखलायी हुई फ़ासिस्ट सत्ता हर क़िस्म के विरोध को भ्रूण में ही ख़त्म कर देने के क़ानूनी इन्तज़ाम कर रही है।
नये क़ानूनों के अन्तर्गत हिरासत सम्बन्धी प्रावधान 15 दिन की वर्तमान सीमा से परे जाकर ‘पुलिस कस्टडी’ को 60 से 90 दिन तक बढ़ाये जाने की इजाज़त देते हैं। यह एक प्रकार से पुलिस प्रशासन को असीमित शक्तियाँ देने के समान है जो पुलिस को किसी भी व्यक्ति को 3 महीने तक हिरासत में रखने का अधिकार देती है। अभी ही वर्तमान क़ानूनों के तहत पुलिस हिरासत की जो असलियत है, वह बेहद चिन्ताजनक है; नये क़ानूनों के अमल में आने के बाद तो यह और भयंकर साबित होगी और अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए फ़ासीवादी सत्ता द्वारा इसका जमकर इस्तेमाल किया जायेगा। ज़ाहिरा तौर पर, अब पुलिस हिरासत में ज़मानत मिलना और भी मुश्किल हो जायेगा। ज़रा सोचिए! जब अभी ही सालों तक बिना ज़मानत के लोगों को जेलों के भीतर रखा जाता है, तो नये प्रावधानों के बाद स्थिति कितनी भीषण होगी?
वैसे तो इन तीनों ही नये आपराधिक क़ानूनों में “औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त करने” के नाम पर शाब्दिक अर्थों में ज़्यादा नया कुछ पेश नहीं किया गया है और अधिकतर स्थानों पर पुराने क़ानूनों की भाषा और शब्दावली ही बरक़रार रखी गयी है, लेकिन जहाँ कहीं भी कुछ नया जोड़ा गया है वह कहीं अधिक दमनकारी और जनविरोधी है और राज्य द्वारा खुले तौर पर दुरुपयोग किया जा सकता है। मसलन, नये क़ानून में धारा 195, जो आयीपीसी की धारा 153 बी के समतुल्य है, वह “भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता या सुरक्षा को क्षति पहुँचाने वाली झूठी या भ्रामक सूचना” निर्मित करने या प्रकाशित करने को दण्डनीय अपराध बनाती है। यानी सरकार की नीतियों की तर्कसंगत आलोचना लिखना भी अब दण्डनीय अपराध घोषित किया जायेगा!
यही नहीं, धारा 255 के अन्तर्गत मोदी सरकार ने इस बात के पुख्ता इन्तज़ाम भी कर दिये हैं कि अब मजिस्ट्रेट से लेकर उच्च न्यायालयों के जज भी सरकार के ख़िलाफ़ कोई फ़ैसला देने से पहले हज़ार बार सोचें क्योंकि यदि कोई फ़ैसला “क़ानून के विपरीत” पाया गया (जिसका फ़ैसला ज़ाहिरा तौर पर ख़ुद मोदी सरकार ही करेगी!) तो ऐसे न्यायाधीशों को 7 साल की सज़ा हो सकती है! वैसे तो अभी ही न्यायालयों से ऐसी कोई ख़ास उम्मीद बची नहीं है कि वे फ़ासीवादी मोदी सरकार के विरुद्ध आम तौर पर कोई फ़ैसला दें लेकिन जब क़ानूनी तौर पर ही इसे दण्डनीय बना दिया जायेगा तो इसकी ज़रा-सी सम्भावना को भी ख़त्म किया जा रहा है। ‘मॉब लिंचिंग’ और ‘संगठित अपराध’ (हालाँकि इससे जुड़े क़ानून भी पहले से मौजूद हैं, मसलन मकोका) की नयी धाराएँ जोड़ी तो गयी हैं, लेकिन ‘नफ़रती भाषण’ (हेट स्पीच) को किसी भी प्रावधान के तहत दण्डनीय नहीं बनाया गया है। ज़ाहिरा तौर पर, यदि ऐसा किया जाता तो कम से कम औपचारिक तौर पर तो संघ और भाजपा से जुड़ा सम्भवतः हर व्यक्ति ही सज़ा के घेरे में आता!
कुलमिलाकर, इन नये क़ानूनों के ज़रिये मोदी सरकार अपनी फ़ासीवादी तानाशाही को एक क़ानूनी जामा पहनाने का काम कर रही है। जन प्रतिरोध के सभी रूपों को कुचल देने की मंशा से ही ये नये जनविरोधी क़ानून तैयार किये गये हैं। साथ ही, इन नये क़ानूनी बदलावों के ज़रिये पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले अन्य निकायों जैसे कि न्यायपालिका, नौकरशाही, पुलिस, फ़ौज इत्यादि की भी क़ानूनी रास्ते से नकेल कसने की तैयारी की जा रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय फ़ासीवादियों द्वारा लम्बे समय से इन सभी बुर्जुआ संस्थानों के भीतर घुसपैठ जारी थी और आज भी है, जिसके ज़रिये इनके द्वारा अपने लोग हर निकाय में व्यवस्थित तरीक़े से बैठाये भी गये हैं और इसलिए एक हद तक इन सभी निकायों का भीतर से फ़ासीवादीकरण करने में भारतीय फ़ासिस्ट सफल भी रहे हैं। हालाँकि अब क़ानूनी तौर पर भी इन संस्थानों का फ़ासीवादियों द्वारा अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किये जाने का रास्ते साफ़ किया जा रहा है। लेकिन इन नये बदलावों का सबसे गम्भीर और बुरा प्रभाव इस देश के मज़दूरों और आम मेहनतकाश आबादी पर पड़ने वाला है इसलिए मज़दूर वर्ग को इन बदलावों के निहितार्थ समझने होंगे और अपनी लामबन्दी इसके अनुसार करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2023
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