क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 12 : मुद्रा का पूँजी में रूपान्तरण और पूँजीवादी माल उत्पादन
अध्याय-11
अभिनव
अब तक हम साधारण माल उत्पादन का अध्ययन कर रहे थे। माल क्या होता है, उसके मूल्य का निर्धारण कैसे होता है, मूल्य-रूप का विकास किस प्रकार अपने उच्चतम स्तर यानी मुद्रा के विकास तक पहुँचता है, मालों का संचरण और मुद्रा का संचरण क्या होता है, और साधारण माल उत्पादन क्या होता है; ये सारी बातें समझे बिना हम पूँजीवादी माल उत्पादन और पूँजी के विषय में कोई समझदारी नहीं बना सकते हैं। साधारण माल उत्पादन वह होता है जिसमें अलग-अलग माल उत्पादक अपने-अपने मालों का उत्पादन करते हैं अन्य मालों के साथ बाज़ार में आम तौर पर मुद्रा के माध्यम से उनका विनिमय करते हैं। वे अपने माल का उत्पादन और विनिमय इसलिए करते हैं, ताकि बदले में अपनी आवश्यकता के माल (वस्तुएँ तथा सेवाएँ) प्राप्त कर सकें। अभी ये माल उत्पादक किसी अन्य व्यक्ति के श्रम का शोषण नहीं करते हैं और अपने व अपने पारिवारिक श्रम से ही उत्पादन करते हैं। यानी, अभी उजरती श्रम किसी विचारणीय पैमाने पर समाज में मौजूद नहीं होता है और न ही श्रमशक्ति व्यापक सामाजिक पैमाने पर माल में तब्दील हुई होती है।
फिर पूँजीवादी माल उत्पादन की शुरुआत कैसे होती है? यानी, ऐसा माल उत्पादन जिसमें मालों का उत्पादन उजरती मज़दूरों द्वारा किया जाता है, जो कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से वंचित होते हैं और उनके पास अपनी श्रमशक्ति के अलावा कुछ भी नहीं होता है, जबकि पूँजीपतियों का वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है और वह मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदता है और उनके उजरती श्रम का शोषण करता है। उत्पादन हेतु श्रमशक्ति और उत्पादन के साधनों का साथ आना अनिवार्य है। इसलिए पूँजीपति मज़दूरों से उनकी श्रमशक्ति (यानी, दिये गये कार्यदिवस में काम करने की क्षमता) ख़रीदता है और उनके उत्पादक उपभोग (productive consumption), यानी उत्पादन की प्रक्रिया में उसे ख़र्च करके, मालों का उत्पादन करता है। इस प्रकार उत्पादित मालों का मूल्य उनमें लगे उत्पादन के साधनों के मूल्य और श्रमशक्ति के मूल्य से ज़्यादा होता है क्योंकि किसी भी उजरती मज़दूर की श्रमशक्ति अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में उससे ज़्यादा मात्रा में श्रम देती है, जितना श्रम स्वयं उस श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक होता है। यानी, श्रमशक्ति अपने उत्पादक उपभोग की प्रक्रिया में अपने मूल्य (यानी अपने पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक वस्तुओं व सेवाओं के मूल्य) से ज़्यादा मूल्य पैदा करती है। उत्पादन के दौरान मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के मूल्य से जितना ज़्यादा मूल्य पैदा करता है, उसे ही हम अतिरिक्त मूल्य (surplus value) या बेशी मूल्य कहते हैं और यही समूचे पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का स्रोत होता है। इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। लेकिन अभी पहले यह समझना ज़रूरी है कि आखिर यह पूँजीवादी माल उत्पादन शुरू कैसे हुआ और वह अर्थव्यवस्था में प्रधान प्रवृत्ति कैसे बन गया? पूँजीवादी उत्पादन कोई अनादि अनन्त उत्पादन प्रणाली नहीं है। इसका एक इतिहास है। इसका एक आरम्भ है और ठीक इसीलिए इसका एक अन्त भी है। तो आइये पहले समझते हैं कि साधारण माल उत्पादन के दौर से पूँजीवादी माल उत्पादन का दौर कैसे शुरू हुआ।
साधारण माल उत्पादन से पूँजीवादी माल उत्पादन की ओर संक्रमण: एक संक्षिप्त व सामान्य ऐतिहासिक ब्यौरा
सबसे पहले तो यह जान लेना चाहिए माल उत्पादन की शुरुआत प्राक्-पूँजीवादी व्यवस्थाओं के गर्भ में ही हो गयी थी। वर्ग समाज के जन्म लेते ही, यानी दास समाज व अन्य आरम्भिक वर्ग समाजों के दौर से ही विनिमय हेतु उत्पादन की, यानी माल उत्पादन की शुरुआत हो चुकी थी। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ समाज में श्रम विभाजन का विकास होता है और सामाजिक श्रम विभाजन के विकास के साथ ही उत्पादों के विनिमय और माल उत्पादन का आरम्भ हो जाता है। हम शुरुआती अध्याय में ही इसके बारे में पढ़ चुके हैं।
माल उत्पादन दास समाज व अन्य आरम्भिक वर्ग समाजों के गर्भ में ही पैदा हुआ और सामन्ती समाज के दौरान भी मौजूद रहा, लेकिन इन प्राक्-पूँजीवादी समाजों में वह उत्पादन का प्रधान रूप या पद्धति नहीं था। वह किसी अन्य उत्पादन पद्धति के मातहत था और उनमें सहयोजित था, जैसे कि दास उत्पादन पद्धति, सामन्ती उत्पादन पद्धति, आदि। श्रम के अधिकांश उत्पाद अभी माल नहीं बने थे। मसलन, सामन्ती समाज में श्रम के समस्त उत्पादों का बड़ा हिस्सा अभी माल नहीं बना होता है। भूदास व निर्भर किसान इस समय सामन्त की भूमि या सामन्त द्वारा आवण्टित भूमि पर खेती करते थे और उनके उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा उनसे बेशी उत्पाद (surplus product) के तौर पर या उनका बेशी श्रम सामन्तों द्वारा हड़प लिया जाता था। यही सामन्ती लगान था जो कि श्रम, उत्पाद या मुद्रा के रूप में वसूल लिया जाता था। यह उत्पाद का विनिमय नहीं था, बल्कि आर्थिकेतर उत्पीड़न व ज़ोर-जबर्दस्ती द्वारा प्रत्यक्ष उत्पादकों से, यानी भूदासों व निर्भर किसानों से, उनके बेशी उत्पाद या कई बार बेशी उत्पाद से भी बड़े हिस्से को शासक वर्ग, यानी सामन्त वर्ग, द्वारा हड़प लिया जाना था। इस रूप में यह आर्थिक शोषण (economic exploitation) के ज़रिये नहीं, बल्कि मुख्यत: आर्थिकेतर उत्पीड़न (extra-economic coercion) द्वारा बेशी उत्पाद को हड़प लिया जाना था। यहाँ समतुल्यों का विनिमय, यानी समान मूल्यों वाले मालों का दो स्वतन्त्र उत्पादकों के बीच विनिमय नहीं हो रहा था, जैसा कि माल उत्पादन का आम नियम है।
लेकिन सामन्ती समाज में ही माल उत्पादन भी एक गौण प्रवृत्ति के तौर पर दस्तकारों, कारीगरों, तमाम प्रकार के सेवा-प्रदाताओं द्वारा जारी था और सामन्तवाद के पहले की दास व्यवस्था व अन्य वर्ग समाजों में भी माल उत्पादन एक विचारणीय गौण प्रवृत्ति के तौर पर मौजूद रहा था। सामन्ती समाज में उनके उत्पादों का भी एक हिस्सा कई बार सामन्तों द्वारा ट्रिब्यूट के तौर पर वसूला जाता था, लेकिन मुख्य तौर पर, वे अपने उत्पादों को मालों के रूप में बाज़ार में बेचा करते थे। साथ ही, गिल्ड व्यवस्था, जिसे मार्क्स ने ‘उद्योग की सामन्ती व्यवस्था’ कहा था, किसी भी माल उत्पादक को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता नहीं देती थी और श्रम की स्थितियाँ, उत्पादों की कीमत, आदि सभी गिल्ड व्यवस्था द्वारा संचालित होते थे। इस प्रकार माल उत्पादन सामन्ती स्थितियों के मातहत था और उनसे अवरुद्ध था। लेकिन माल उत्पादन निश्चय ही सामन्ती युग में हो रहा था।
ज़ाहिरा तौर पर, अगर माल उत्पादन होगा तो उसके विकास के साथ वाणिज्य और व्यापार भी विकसित होते हैं। सभी माल उत्पादक बाज़ार तक पहुँच नहीं रखते। एक अन्य वजह यह है कि यदि माल उत्पादक अपने माल को स्वयं बाज़ार में बेचते हैं तो वे अपने माल के बड़े हिस्से के बिकने तक अपना पुनरुत्पादन शुरू नहीं कर सकते। ज़ाहिर है, यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है। ऐसे में, किसी एक व्यापारी द्वारा माल उत्पादक के मालों को एक बार में ख़रीद लिये जाने से माल उत्पादक अपने पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को बिना व्यवधान के जारी रख सकते हैं। इसलिए तमाम माल उत्पादक किसी ऐसे व्यक्ति को अपना माल मूल्य से कम दाम पर बेचते हैं, जिसके पास मुद्रा का संचय होता है। यह मुद्रा का संचय किसी भी वजह से उसके पास हो सकता है। वह उसे उत्तराधिकार में प्राप्त हो सकती है, या किसी माल उत्पादक के पास ही बाज़ार में उसके मालों के दाम उनकी माँग ज़्यादा होने के कारण और उसके माल के मूल्य से ऊँचे दाम पर बिकने के कारण हो सकता है। मुद्रा का संचय रखने वाला यह व्यक्ति ही व्यापारी की भूमिका निभा सकता है।
यह व्यापारी माल उत्पादक से उसके माल को माल के मूल्य से कम दाम पर ख़रीदता है और उसे उसके मूल्य बराबर दाम पर या, माँग-आपूर्ति के समीकरण के अनुकूल होने पर, उसके मूल्य से ज़्यादा दाम पर बेच सकता है। माल उत्पादक से जिस दाम पर व्यापारी माल को ख़रीदता है और माल का जो मूल्य होता है, उसका अन्तर उस व्यापारी का व्यापारिक मुनाफ़ा होता है। प्राक्-पूँजीवादी युग में इस प्रकार के मुनाफ़े का आधार असमान विनिमय (unequal exchange) होता है और इसे अलगाव पर आधारित मुनाफ़ा (profit upon alienation) कहा जाता है। क्योंकि यह माल उत्पादक से माल के मूल्य से कम दाम पर माल के अलग किये जाने या अलगाव या ले लिये जाने पर आधारित होता है। अभी हम मुनाफ़े को उत्पादन में पैदा होने वाली एक निर्धारित मात्रा वाली श्रेणी यानी बेशी मूल्य के उत्पादन के तौर पर नहीं देख सकते हैं। ऐसा केवल पूँजीवादी उत्पादन में होता है, जब मुनाफ़ा और कुछ नहीं बल्कि मज़दूर द्वारा, दिये गये कार्यदिवस में, पैदा मूल्य और उसकी श्रमशक्ति के मूल्य का अन्तर होता है, जो कि एक निर्धारित मात्रा वाली श्रेणी है। यह पूँजीवादी उत्पादन में बेशी मूल्य का उत्पादन है और यह व्यापारी और स्वतन्त्र उत्पादक के बीच असमान विनिमय पर आधारित नहीं होता है।
पूँजीवादी व्यवस्था में एक पूँजीपति मज़दूर के साथ आम तौर पर कोई असमान विनिमय नहीं करता है। चूँकि श्रमशक्ति एक विशिष्ट माल होती है जिसका गुण ही यही होता है कि वह अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने से ज़्यादा मूल्य पैदा कर सकती है, इसलिए पूँजीपति औपचारिक तौर पर बाज़ार में मज़दूर के साथ समतुल्यों का विनिमय (यानी मज़दूरी और श्रमशक्ति का विनिमय) करने के बावजूद बेशी मूल्य को प्राप्त करता है। यदि वह पूँजीपति खुद ही व्यापारी की भूमिका में भी है और अपने माल को स्वयं ही बेचता है, तो वह पूरे बेशी मूल्य को मुनाफ़े के रूप में अपनी जेब के हवाले करता है। अगर वह स्वयं अपना माल नहीं बेचता तो वह उसे बेचने के लिए किसी व्यापारी को देता है और बदले में बेशी मूल्य का एक हिस्सा उस व्यापारी को व्यापारिक मुनाफ़े (commercial profit) के तौर पर देता है, जबकि उद्यम के मुनाफ़े (profit of enterprise) को अपने पास रखता है। यह असमान विनिमय नहीं बल्कि दो अलग प्रकार के पूँजीपतियों के बीच मज़दूरों के श्रम से पैदा बेशी मूल्य का बँटवारा (distribution of surplus value) है। ऐसा करने में औद्योगिक या उद्यमी पूँजीपति का क्या फ़ायदा है, इस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन अभी इतना समझ लेना चाहिए कि पूँजीवादी माल उत्पादन से पहले के दौर में, यानी साधारण माल उत्पादन के दौर में माल उत्पादकों और व्यापारियों के बीच असमान विनिमय होता है और व्यापारी को जो मुनाफ़ा प्राप्त होता है, वह अलगाव पर आधारित मुनाफ़ा होता है, न कि बेशी मूल्य का उत्पदन। अभी उत्पादन व उत्पादन के साधनों पर किसी पूँजीपति का नियन्त्रण नहीं होता है, बल्कि स्वतन्त्र माल उत्पादक का नियन्त्रण होता है जो अपने माल को उसके मूल्य से कम दाम पर व्यापारी को देता है, क्योंकि या तो बाज़ार तक उसकी पहुँच नहीं होती या फिर उसे अपने मालों के मूल्य का एक हिस्सा तत्काल ही मुद्रा के रूप में प्राप्त हो जाता है और उसे अपने समस्त मालों के बिकने की प्रक्रिया का इन्तज़ार नहीं करना पड़ता। इसके चलते वह पुनरुत्पादन की प्रक्रिया तत्काल शुरू कर सकता है। व्यापारी के पास जो संचित मुद्रा होती है, जिसका इस्तेमाल वह स्वतन्त्र माल उत्पादक से माल ख़रीदने के लिए करता है उसे व्यापारिक पूँजी (mercantile capital) कहा जाता है। विशेष तौर पर प्राक्-पूँजीवादी उत्पादन पद्धतियों के दौर में, व्यापारिक पूँजी असमान विनिमय के ज़रिये स्वतन्त्र माल उत्पादकों को लूटती है और स्वतन्त्र माल उत्पादकों के उजड़ने, अपने उत्पादन के साधनों से वंचित होने और उजरती मज़दूरों तब्दील होने में व्यापारिक पूँजी की एक अहम भूमिका होती है। आज भी, यानी पूँजीवादी दौर में भी किसी साधारण माल उत्पादक के साथ व्यापारिक पूँजी का यही सम्बन्ध होगा। लेकिन उद्यमी पूँजीपति से व्यापारिक पूँजीपति का सम्बन्ध असमान विनिमय नहीं बल्कि बेशी मूल्य के उनके बीच बँटवारे से ही समझा जा सकता है और आज यही प्रधान प्रवृत्ति है।
इसी प्रकार, सूदख़ोर पूँजी (usurious capital) भी साधारण माल उत्पादन के ही दौर में स्वतन्त्र माल उत्पादकों को सूद के ज़रिये लूटती है। माल उत्पादन की व्यवस्था एक अराजक व्यवस्था होती है। कोई भी माल उत्पादक पहले से नहीं जानता कि उसके मालों को बाज़ार में ख़रीदार मिलेंगे या नहीं। वह इस अपेक्षा के आधार पर उत्पादन करता है कि उसके मालों को पर्याप्त मात्रा में ख़रीदार मिलेंगे। उसे पहले से सामाजिक आवश्यकता का कोई सटीक ज्ञान नहीं होता है। यही हालत सभी माल उत्पादकों की होती है। उनका व्यक्तिगत श्रम सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के रूप में तभी मान्यता पाता है, जबकि उसके माल को ख़रीदार मिलते हैं। ज़ाहिर है, ऐसी अराजक उत्पादन व्यवस्था में कुछ माल उत्पादक अपना माल बेच पाते हैं, कुछ आंशिक तौर पर बेच पाते हैं और कुछ तो बेच ही नहीं पाते। ऐसे में, यदि कोई माल उत्पादक अपने मालों को नहीं बेच पाता है या पर्याप्त मात्रा में नहीं बेच पाता है तो अपने पुनरुत्पादन को शुरू करने और अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसे मुद्रा की आवश्यकता होती है, जो कि उधार के तौर पर उसे सूदख़ोर देते हैं, जो व्यापारी के ही समान ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनके पास मुद्रा का संचय मौजूद होता है। कई माल उत्पादक निरन्तर सूद पर उधार लेने की स्थिति में फँस जाते हैं और कालान्तर में वे तबाह हो जाते हैं और उजरती मज़दूर में तब्दील हो जाते हैं। इस प्रकार व्यापारिक पूँजी और सूदख़ोर पूँजी दोनों ही साधारण माल उत्पादकों के तबाह होने की प्रक्रिया में योगदान करती हैं और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की ओर संक्रमण को गति प्रदान करती हैं।
व्यापारी बाज़ार में तमाम मालों की माँग-आपूर्ति की स्थितियों की अपनी जानकारी के आधार पर और मुद्रा के अपने हाथों में संचित होने के आधार पर कई बार माल उत्पादकों के उत्पादन-सम्बन्धी निर्णयों पर नियन्त्रण भी स्थापित करने लगते हैं, हालाँकि उनकी इसमें दिलचस्पी नहीं होती कि मालों का उत्पादन कैसे होता है और न ही वे उत्पादन के साधनों के प्रत्यक्ष तौर पर स्वामी होते हैं। कई सूदख़ोर भी ऐसा करने लगते हैं क्योंकि अक्सर ये व्यापारी व सूदख़ोर अलग-अलग व्यक्ति नहीं होते थे, बल्कि एक ही व्यक्ति हुआ करते हैं। ऐसे में, ये व्यापारी माल उत्पादकों को बताने लगते हैं कि क्या पैदा किया जाय और किस मात्रा में पैदा किया जाय। आरम्भिक मध्यकाल से ही ऐसी प्रक्रिया दुनिया के कई देशों में देखी गयी। अक्सर व्यापारी ही माल उत्पादकों को मालों के उत्पादन के लिए कच्चे माल भी बेचने लगते थे। इसमें भी वह बुनियादी व्यापारिक उसूल पर अमल करते थे: ‘सस्ता ख़रीदो और महँगा बेचो!’ चूँकि ऐसे व्यापारी की उत्पादन व उसकी प्रक्रिया में कोई दिलचस्पी नहीं होती इसलिए उसे लगता है कि उसका मुनाफ़ा उसकी इसी चालाकी और कुशलता पर निर्भर करता है कि वह सस्ता ख़रीद सकता है और महँगा बेच सकता है! उसे लगता है कि मुनाफ़ा विनिमय में पैदा होता है, यानी बेचने-ख़रीदने में!
बहरहाल, एक क्रमिक प्रक्रिया में कई व्यापारी कई माल उत्पादकों को कच्चा माल भी बेचने लगे और उनसे उत्पादित माल लेने लगे। इसे ‘पुटिंग आउट’ व्यवस्था कहा जाता है। लेकिन इस व्यवस्था में भी अभी उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया व्यापारी के मातहत नहीं होती है, वह केवल कच्चे माल को माल उत्पादकों को बेचता है और उससे उत्पादित माल ख़रीदता है। अभी पूँजी ने श्रम का केवल औपचारिक मातहतीकरण (formal subsumption of labour) किया होता है। इसी प्रक्रिया के विकास का अगला चरण यह था कि कई व्यापारियों ने उजड़ने वाले माल उत्पादकों के उत्पादन के साधनों को ख़रीद लिया, अपनी वर्कशॉप लगा ली और उसमें वे उजरती मज़दूरों की श्रमशक्ति का शोषण करने लगे। इसके साथ, व्यापारी एक औद्योगिक पूँजीपति में तब्दील होने लगता है। कदम-दर-कदम श्रम प्रक्रिया पूँजी के मातहत आती जाती है और श्रम का वास्तविक मातहतीकरण (real subsumption of labour) होता है। यह मातहतीकरण साधारण सहकार, तकनीकी श्रम विभाजन व मैन्युफ़ैक्चरिंग से होते हुए फ़ैक्टरी व्यवस्था (यानी मशीनीकरण या मशीनोफ़ैक्चर) के आने के साथ ही अपनी पूर्णता पर पहुँचता है। बहरहाल, जैसे-जैसे वह उत्पादन की प्रक्रिया और श्रम की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से अपने नियन्त्रण में लेता जाता है, यानी श्रम को पूर्ण रूप से अपने मातहत करता जाता है, जो कि पहले स्वतन्त्र माल उत्पादक के अपने नियन्त्रण में था, वैसे-वैसे औद्योगिक पूँजीपति में उसका रूपान्तरण पूरा होता जाता है। मार्क्स ने व्यापारियों के वर्ग के एक हिस्से के इस प्रकार से पूँजीपति में तब्दील होने की प्रक्रिया को ‘ऊपर से पूँजीवाद’ (‘capitalism from above’) कहा था।
इसी के साथ, कुछ माल उत्पादक भी अपने पास मुद्रा पूँजी के संचय होने के साथ अपने उत्पादन के स्थल पर उजरती मज़दूरों को रखने लगते हैं। शुरुआत में, उस्ताद कारीगर के तौर पर, वे स्वयं भी उत्पादक श्रम करते रहते हैं, शागिर्दों का प्रशिक्षण भी करते रहते हैं और साथ ही उजरती मज़दूरों की श्रमशक्ति का शोषण कर मुनाफ़ा भी विनियोजित करते रहते हैं। कालान्तर में, इनमें से कुछ अपने आपको पूर्ण रूप से एक पूँजीपति में तब्दील कर लेते हैं, अपने आपको उत्पादक श्रम से काट लेते हैं और केवल बही-खाते व प्रबन्धन की देखरेख करने लगते हैं। औद्योगिक पूँजीपति वर्ग का यह हिस्सा जो कि माल उत्पादकों के एक छोटे-से हिस्से से पैदा हुआ, उसकी सामन्तवाद के ख़िलाफ़ विशेष तौर पर एक क्रान्तिकारी भूमिका थी और उसने एक दौर में क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग की भूमिका अदा की थी। इस प्रकार से पूँजीपति वर्ग के पैदा होने की प्रक्रिया को मार्क्स ने ‘नीचे से पूँजीवाद’ (‘capitalism from below’) कहा था और इस रास्ते को ‘वास्तविक क्रान्तिकारी रास्ता’ (‘the really revolutionary way’) कहा था। इन दोनों रास्तों को खेती में पूँजीवाद के विकास पर भी लागू किया जा सकता है। पहले वाले रास्ते, यानी ‘ऊपर से पूँजीवाद’ के विकास में मुख्य तौर पर भूस्वामी ही पूँजीवादी फ़ार्मर में तब्दील हो जाते हैं, जबकि दूसरे रास्ते यानी ‘नीचे से पूँजीवाद’ में मुख्य तौर पर काश्तकार व भूमिहीन मज़दूर पूँजीवादी फ़ार्मरों के वर्ग के तब्दील होते हैं।
इस प्रकार से व्यापार व वाणिज्य ने पूँजीवादी माल उत्पादन के पैदा होने की ज़मीन तैयार की थी। लेकिन इस प्रकार पूँजीवादी माल उत्पादन के प्रधान प्रवृत्ति बनने की केवल ज़मीन तैयार होती है। पूँजीवादी माल उत्पादन के प्रधान प्रवृत्ति बनने की प्रक्रिया स्वतन्त्र माल उत्पादकों (जिनमें कि किसान भी शामिल हैं) को व्यापक सामाजिक पैमाने पर उनके उत्पादन के साधनों व ज़मीन से जबरन उजाड़े जाने की लम्बी प्रक्रिया के साथ ही पूरी होती है, जिसे मार्क्स ने आदिम संचय (primitive accumulation) कहा था। लेकिन इस पर हम आगे के एक अध्याय में बात करेंगे।
फिलहाल हम साधारण माल उत्पादन के युग पर ही वापस लौटते हैं। माल उत्पादन के विकास के साथ दुनिया के अलग-अलग देशों के बाज़ार जुड़ जाते हैं। एक विश्व बाज़ार (world market) अस्तित्व में आने लगता है। यूँ तो वैश्विक व्यापार प्राचीन काल से ही मौजूद था। चीन और भारत में पैदा होने वाले मसालों, कपड़ों, खाद्य फसलों की माँग यूरोप, मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में थी और उसी प्रकार यूरोप में पैदा होने वाले कई मालों की माँग भारत, चीन, मध्य-पूर्व के क्षेत्रों में थी। लेकिन ज़्यादा ठोस रूप में एक अधिक समेकित आधुनिक विश्व बाज़ार के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया मध्यकाल के उत्तरार्द्ध और आरम्भिक आधुनिक काल में शुरू हुई। व्यापारिक पूँजी अपने देशों/राज्यों के बाज़ार के सन्तृप्त होने के साथ अन्य बाज़ारों व कच्चे मालों की स्रोत की तलाश में नये देशों व महाद्वीपों को खोजने की प्रक्रिया को वित्तपोषित भी करती थी। इसी प्रक्रिया में 15वीं-16वीं सदी में यूरोप के कई देशों से औपनिवेशिक यात्राएँ हुईं, जिनका नतीजा अमेरिका और एशिया के कई देशों का औपनिवेशीकरण था। औपनिवेशीकरण के साथ विश्व बाज़ार के समेकित और विस्तारित होने की प्रक्रिया ने पूँजी के संचय को और भी बढ़ाया, माल उत्पादकों के उजड़ने की दर को तेज़ किया, एक विचारणीय आकार के पूँजीपति वर्ग को पैदा किया और इस रूप में यूरोप में पूँजीवादी उत्पादन के प्रधान प्रवृत्ति में तब्दील होने की ज़मीन तैयार की।
मार्क्स ने अपने समय तक के विश्व के आर्थिक इतिहास के अध्ययन के आधार पर दिखलाया कि पूँजीवाद के पैदा होने में माल उत्पादन के विकसित होने के साथ व्यापार व वाणिज्य के विकास तथा एक विश्व बाज़ार के उदय की महती भूमिका थी।
उपरोक्त विवरण से आप एक महत्वपूर्ण नतीजा निकाल सकते हैं। पूँजी का इतिहास पूँजीवाद के इतिहास से पुराना है। व्यापारिक पूँजी और सूदख़ोर पूँजी का उदय दास व्यवस्था के दौर में ही हो चुका था। ये पूँजी के प्रथम रूप थे क्योंकि पूँजी और कुछ नहीं होती बल्कि मुद्रा की वह मात्रा होती है जो निवेशित होने पर अपने आपको संवर्धित करती है या बढ़ाती है, यानी मुनाफ़ा देती है। अब यह मुनाफ़ा उजरती श्रम के शोषण के ज़रिये पूँजीवादी उत्पादन में बेशी मूल्य के उत्पादन के द्वारा पैदा होता है या फिर वह व्यापारिक व सूदख़ोर पूँजी द्वारा स्वतन्त्र माल उत्पादकों से असमान विनिमय और माल के मूल्य से कम दाम पर स्वतन्त्र माल उत्पादक से उनके माल के अलगाव, या फिर सूद के रूप में आता है जो कि अप्रत्यक्ष तौर रूप में असमान विनिमय ही है; यह अलग मसला है। सामान्य तौर पर, पूँजी मुद्रा की वह मात्रा है जो निवेश पर अपने आपको संवर्धित करती है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पूँजी इतिहास के रंगमंच पर सर्वप्रथम मुद्रा के रूप में ही प्रकट होती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि पूँजी केवल मुद्रा के रूप में ही अस्तित्वमान रह सकती है। पूँजीवादी उत्पादन के दौर में पूँजीपति द्वारा उत्पादित माल जो अभी बिका नहीं है, वह उसकी माल पूँजी (commodity capital) है। उसने जो उत्पादन के साधन ख़रीदे हैं जिन्हें उत्पादन में लगाया जाता है, वह माल के पैदा होने के पूर्व उत्पादक पूँजी (productive capital) है। उसके हाथ में जो मुद्रा है, जिससे वह श्रमशक्ति व उत्पादन के साधन ख़रीदता है वह उसकी मुद्रा पूँजी (money capital) है। पूँजी इन तीनों रूपों में ही अस्तित्वमान रह सकती है। लेकिन ये तीन रूप औद्योगिक पूँजी द्वारा उत्पादन की प्रक्रिया को चिह्नित करते हैं, न कि सूदख़ोर पूँजी या व्यापारिक पूँजी को। लेकिन, जैसा कि हम उपरोक्त ब्यौरे से समझ सकते हैं, पूँजी सर्वप्रथम व्यापारिक पूँजी और सूदख़ोर पूँजी के रूप में पैदा होती है, औद्योगिक पूँजी के रूप में नहीं और वह इस रूप में केवल मुद्रा के रूप में ही इतिहास में अवतरित हो सकती है।
इस सामान्य ऐतिहासिक विवरण के बाद हम साधारण माल उत्पादन व संचरण तथा पूँजी के बीच के तार्किक अन्तर पर आ सकते हैं। एक सुसंगत समझदारी के लिए यह विवरण अनिवार्य था।
साधारण माल उत्पादन व संचरण तथा पूँजी
साधारण माल उत्पादन व संचरण तथा पूँजी का अन्तर मालों व मुद्रा के आपसी रूपान्तरण की प्रक्रिया का अध्ययन करते ही स्पष्ट हो जाता है। दूसरे शब्दों में, जैसे ही हम साधारण माल उत्पादन के सामान्य सूत्र (general formula of simple commodity production) और पूँजी के सामान्य सूत्र (general formula of capital) को देखते हैं, उनके बीच का अन्तर साफ़ हो जाता है। साधारण माल उत्पादन का सामान्य सूत्र होता है:
माल – मुद्रा –माल (मा – मु – मा)
Commodity – Money- Commodity (C-M-C)
यह एक माल के उत्पादन के साथ शुरू होता है, जिसका उत्पादक, यानी स्वतन्त्र माल उत्पादक, मुद्रा के साथ उस माल का विनिमय करता है यानी उसे बेचता है और प्राप्त मुद्रा से वह अपने लिए आवश्यक माल ख़रीदता है। यह सर्किट माल के साथ ही शुरू होता है और माल के साथ ही ख़त्म होता है। लेकिन ये गुणात्मक रूप से भिन्न माल होते हैं। ज़ाहिर है, कोई जूता बनाने वाला माल उत्पादक अपने माल को बेचकर जूता ही नहीं ख़रीदेगा! इसलिए साधारण माल उत्पादन के इस आम सूत्र के दोनों छोरों पर जो उपयोग-मूल्य मौजूद होते हैं, वे भिन्न होते हैं, यानी वे गुणात्मक रूप से अलग माल होते हैं। लेकिन जहाँ तक मूल्य का प्रश्न है, तो इन दोनों मालों का मूल्य समान होता है। यानी, इसके दोनों छोरों पर जो मूल्य होते हैं, वे समान होते हैं। दूसरे शब्दों में, दोनों छोरों पर जो माल मौजूद होते हैं, वे उपयोग–मूल्य के रूप में भिन्न होते हैं, लेकिन समान मूल्य के होते हैं।
यहाँ मुद्रा मालों के एक क्षणिक या अस्थायी (transient) रूप के तौर पर प्रकट होती है। यानी, वह बस मालों के विनिमय के माध्यम के रूप में प्रकट होती है और उसका काम बस इस विनिमय को अंजाम देना होता है। मक़सद होता है एक विशिष्ट उपयोग-मूल्य को प्राप्त करके एक मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति। मसलन, माल उत्पादक ‘क’ अपने जूते को बाज़ार में बेचता है, उसके बदले मुद्रा प्राप्त करता है और उस मुद्रा से अपने लिए आवश्यक रोटी, कपड़ा, अन्य सेवाएँ आदि ख़रीदता है। जिस माल उत्पादक ‘ख’ ने वह जूता बाज़ार में व्यापारी से या सीधे जूता बनाने वाले माल उत्पादक ‘क’ से ख़रीदा, वह उसने मुद्रा की उस राशि से ख़रीदा है, जो उसे अपने द्वारा उत्पादित माल (मान लें, हथौड़े) बेचकर प्राप्त हुई थी और उसने जूता इसलिए ख़रीदा क्योंकि उसे उसकी आवश्यकता थी। यानी, यह सूत्र दिखलाता है कि यहाँ माल उत्पादक ख़रीदने के लिए बेचता (selling to buy) है। इस प्रकार, मुद्रा की मध्यस्थता के ज़रिये अलग-अलग माल उत्पादक अपने मालों का विनिमय करते हैं। साधारण माल उत्पादन का जो आम सूत्र है उसे देखते ही हम समझ जाते हैं कि इसका सर्किट माल से शुरू होकर माल पर ख़त्म हो जाता है क्योंकि जिस माल उत्पादक को जिस माल की आवश्यकता है, वह माल उसके हाथ में जाने के बाद संचरण की प्रक्रिया से ग़ायब हो जाता है और उसका उपभोग कर लिया जाता है। इसलिए, साधारण माल उत्पादन का सर्किट माल से शुरू होकर माल पर ही समाप्त हो जाता है।
अब आते हैं पूँजी के सामान्य सूत्र पर। यह इस प्रकार होता है:
मुद्रा – माल – मुद्रा’ (मु – मा – मु’)
Money – Commodity – Money’ (M-C-M’)
जैसा कि इस सूत्र से स्पष्ट है, यहाँ पूँजीपति बेचने के लिए ख़रीदता (buying to sell) है। यहाँ प्रक्रिया मुद्रा के साथ शुरू होती है और मुद्रा के साथ ही उसका एक चरण समाप्त होता है। शुरू में मौजूद मुद्रा और अन्त में मौजूद मुद्रा परिमाणात्मक तौर पर भिन्न होती है, लेकिन गुणात्मक तौर पर, दोनों एक ही चीज़ हैं: मुद्रा। ज़ाहिर है, कोई यदि बेचने के लिए ख़रीद रहा है और वह अगर 25 रुपये में कोई माल ख़रीदता है, तो वह उससे ज़्यादा दाम पर यानी 25 रुपये से ज़्यादा दाम पर बेचने के लिए ही ख़रीद रहा है, वरना इस पूरी क़वायद का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। इसलिए अन्त में प्राप्त होने वाली मुद्रा परिमाण में शुरू में निवेश की जा रही मुद्रा से ज़्यादा होनी चाहिए और पूँजीपति इसी इरादे और अपेक्षा से निवेश कर रहा है। इसीलिए सूत्र के अन्त में मुद्रा को प्राइम (‘) चिह्न से दिखाया गया है, जो यह दिखलाता है कि अन्त में प्राप्त हुई मुद्रा शुरू में निवेशित मुद्रा की मात्रा से अधिक होनी चाहिए। अन्त में चिह्नित मुद्रा’ (M’) और कुछ नहीं है, बल्कि मूलत: निवेशित मुद्रा + मुनाफ़ा (M + m) है। यहाँ m मुनाफ़े का प्रतिनिधित्व कर रहा है। लेकिन याद रखें, मुनाफ़े का प्राप्त होना केवल एक अपेक्षा है जो कि मुद्रा का निवेश करने वाला पूँजीपति रखता है, जैसा कि हमने ऊपर बताया। उसकी यह अपेक्षा पूरी हो सकती है या नहीं भी हो सकती है। हो सकता है कि उसके माल को पर्याप्त ख़रीदार न मिलें और उसकी कीमत उसके मूल्य से नीचे गिर जाये। इस सूरत में उसे 0 मुनाफ़ा भी मिल सकता है, या उसका मुनाफ़ा नकारात्मक भी हो सकता है, यानी उसे घाटा भी हो सकता है।
बहरहाल, परिभाषात्मक तौर पर, पूँजी मुद्रा की वह मात्रा है जो अपने आपको बढ़ाती है। यहाँ पर सर्किट M – C – M’ के साथ ख़त्म नहीं होता है। निवेशित मुद्रा (M) मुनाफ़ा (m) देती है, लेकिन यह मुनाफ़ा फिर से पूँजी के साथ एकीकृत होता है और पूँजी की कुण्डलाकार पथ में चलने वाली प्रक्रिया को फिर से शुरू कर देता है। नतीजतन, यह M – C – M’ साधारण माल उत्पादन के C – M – C के समान एक बन्द सर्किट नहीं होता बल्कि एक स्पाइरल (कुण्डलाकार पथ) के समान होता है।
ध्यान रहे कि M – C – M’ पूँजी का आम सूत्र है और यह समान रूप से औद्योगिक पूँजी और व्यापारिक पूँजी पर लागू होता है। लेकिन मुद्रा को अपने आपको बढ़ाने के लिए माल का रूप लेना ही पड़ता है। मसलन, कोई भी 100 रुपये के बदले सीधे आपको 120 रुपये नहीं दे देगा! यानी, मुद्रा की किसी मात्रा का विनिमय मुद्रा की उसी मात्रा से होना एक बेतुकी बात है और ऐसी मूर्खतापूर्ण कसरत कोई पागल ही करेगा। केवल सूदख़ोर पूँजी के मामले में ऐसा दिखता है कि वह 100 रुपये उधार देता है और कर्ज़दार व्यक्ति कुछ समय बाद उसे सूद के साथ, मिसाल के तौर पर, 120 रुपये वापस करता है। लेकिन यह सिर्फ दिखता है, ऐसा वास्तव में होता नहीं है क्योंकि कर्ज़दार के हाथ में आने के बाद मुद्रा का क्या इस्तेमाल होता है, या कर्ज़दार व्यक्ति कहाँ से सूद देता है, यह सीधे नज़र नहीं आता। वस्तुत:, जो उधार लेता है, वह या तो अपने मुनाफ़े में से एक हिस्सा सूद के तौर पर देता है, जो कि स्वयं कुल उत्पादित मूल्य के एक हिस्से बेशी मूल्य का ही एक अंग है, जो स्वयं मालों के उत्पादन में ही पैदा होता है; या फिर कर्ज़दार स्वयं अपने वेतन/मज़दूरी में से सूद देता है, जिस सूरत में वह अपने श्रमशक्ति की एवज़ में मिलने वाली मज़दूरी से एक हिस्सा दे रहा है, जो कि स्वयं मज़दूर द्वारा उपभोग किये जाने वाले आवश्यक मालों का ही मौद्रिक रूप है। इसलिए सूदख़ोर के लिए M – M’ नज़र आने वाला सूत्र यह छिपा देता है कि पूँजीवादी व्यवस्था में बेशी मूल्य का उत्पादन ही आम तौर पर सूद का भी स्रोत है और वह वास्तविक उत्पादन में ही पैदा हो सकता है। लेकिन इस पर और विस्तार से हम आगे बात करेंगे।
पूँजी को मिलने वाला यह मुनाफ़ा दो प्रकार से आ सकता है, जैसा कि हमने ऊपर ज़िक्र किया है। व्यापारिक पूँजी की सूरत में वह अलगाव के आधार पर मुनाफ़ा (सस्ता ख़रीदकर महँगा बेचना) से आ सकता है जिसमें व्यापारी और स्वतन्त्र माल उत्पादक के बीच असमान विनिमय हो रहा है, या, औद्योगिक पूँजी की सूरत में वह बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा हो सकता है। लेकिन अभी मार्क्स इस पर विचार नहीं करते और पाठक से आग्रह करते हैं कि पहले वह पूँजी का सामान्य सूत्र (General Formula of Capital) समझें, यानी पैसे से और ज़्यादा पैसे पैदा होना, यानी, M – C – M’।
लेकिन यदि विनिमय में समतुल्यों का ही विनिमय हो रहा है और यहाँ कोई असमान विनिमय नहीं शामिल है, तो फिर यह मुनाफ़ा कहाँ से आया? मुनाफ़े का स्रोत क्या है? यहीं हमें इस सामान्य सूत्र के अन्तरविरोध स्पष्ट रूप में दिखलायी पड़ते हैं।
पूँजी के सामान्य सूत्र में मौजूद अन्तरविरोध
जैसा कि हमने ऊपर चिह्नित किया, यह अन्तरविरोध मूलत: यह है कि यदि आम तौर पर माल उत्पादन में समतुल्यों का विनिमय हो रहा है, तो फिर M से शुरू हुई प्रक्रिया C से होते हुए M’ (M + m) पर कैसे समाप्त होती है? यह m यानी मुनाफ़ा कहाँ से आता है? ऐसा कैसे होता है कि पूँजीपति कम मुद्रा से ख़रीदता है और ज़्यादा मुद्रा के बदले बेचता है? वाणिज्यवादी (mercantilist) कहा करते थे कि मुनाफ़ा विनिमय की प्रक्रिया में ही सस्ता ख़रीदने और महँगा बेचने से पैदा होता है। लेकिन तब हर मुनाफ़ा किसी न किसी का घाटा होगा, है न? क्योंकि एक व्यक्ति माल को उसके मूल्य से सस्ता ख़रीद रहा है और दूसरा व्यक्ति माल को उसके मूल्य से सस्ता बेच रहा है! इसमें और उस स्थिति में कोई अन्तर नहीं है जिसमें कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कुछ रुपये चोरी कर ले रहा है! समूचे पूँजीवादी समाज में मुनाफ़े की व्याख्या ऐसी चोरी या चालाकी से किये गये असमान विनिमय से नहीं की जा सकती है। साथ ही, ऐसी व्याख्या कभी यह नहीं बता सकती कि समूची अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादित व संचरित मूल्य निरपेक्ष रूप से बढ़ कैसे रहा है, क्योंकि यदि हर मुनाफ़ा किसी और का घाटा है, तो कुल संचरित हो रहे मूल्य में बढ़ोत्तरी की व्याख्या नहीं की जा सकती जो कि पूँजीवादी समाज में सामान्य तौर पर होता है।
इसलिए स्पष्ट है कि मूल्य न तो संचरण की प्रक्रिया में पैदा होता है और न ही नष्ट होता है। संचरण में तो यह केवल माल-रूप से मुद्रा-रूप और मुद्रा-रूप से माल-रूप में रूपान्तरित होता है। इसे हम मूल्य का संरक्षण सिद्धान्त (Law of Conservation of Value) कहते हैं। इसलिए हमें मूल्य और मुनाफ़े के सृजन को समझने के लिए संचरण, यानी मालों के विनिमय या बेचे-ख़रीदे जाने, के क्षेत्र के बाहर देखना होगा। असल में, मुद्रा संचरण में पूँजी बनती है लेकिन संचरण से पूँजी नहीं बनती है। इसलिए मुद्रा पूँजी किस प्रकार बनती है, यानी वह अधिक मुद्रा पैदा करने में सक्षम कैसे बनती है, यह समझने के लिए हमें उत्पादन के क्षेत्र में जाना होगा।
यहाँ केन्द्रीय मुद्दा इस बात को समझना है कि पूँजीवाद में श्रमशक्ति स्वयं एक माल में तब्दील हो जाती है। मार्क्स कहते हैं कि संचरण का क्षेत्र ‘समानता और स्वतन्त्रता’ का क्षेत्र है। आप किसी को अपना माल बेचने के लिए बाध्य नहीं कर सकते और वहाँ समतुल्यों का विनिमय होता है। यह संचरण के क्षेत्र की ख़ासियत होती है। यानी, M – C – M’ में M – C भी समतुल्यों का विनिमय है और C – M’ भी समतुल्यों का विनिमय है। अभी हम मूल्य व दाम में वैयक्तिक स्तरों पर आने वाले अन्तरों को छोड़ दें, तो सामाजिक तौर पर, पूँजीपति वर्ग जिन मालों को ख़रीदता है, यानी उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति, वह उनके मूल्य पर ख़रीदता है। सामाजिक तौर पर, वह अपने मालों को उनके मूल्य पर ही बेचता है। यानी, M – C और C – M’, दोनों में ही समतुल्यों का विनिमय हो रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि C के मूल्य में बढ़ोत्तरी हो रही है। लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब पूँजीपति जो माल ख़रीदता है उनमें कोई ऐसा विशिष्ट माल हो जिसका गुण ही यह हो कि वह अपने उपभोग की प्रक्रिया में अपने से ज़्यादा मूल्य पैदा कर सकता हो। वह विशेष माल है : श्रमशक्ति।
श्रमशक्ति उत्पादन की प्रक्रिया में ख़र्च होती है, यानी उसका उत्पादक उपभोग होता है। श्रमशक्ति का ख़र्च और कुछ नहीं है बल्कि जीवित श्रम (living labour) है। और यह जीवित श्रम ही मूल्य का एकमात्र स्रोत होता है। श्रमशक्ति अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में लगने वाले श्रम से ज़्यादा जीवित श्रम देती है। दूसरे शब्दों में, श्रमशक्ति अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा नया मूल्य पैदा करती है। यानी, पहले वह अपने मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करती है और उसके बाद वह उससे अधिक या बेशी मूल्य पैदा करती है। यह बेशी मूल्य ही समस्त पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े, लगान, सूद व वाणिज्यिक मुनाफ़े का स्रोत होता है।
चूँकि श्रमशक्ति स्वयं एक माल बन चुकी है, इसलिए उसका मूल्य भी उसी प्रकार निर्धारित होता है जिस प्रकार सभी मालों का मूल्य निर्धारित होता है : यानी उनमें लगने वाले सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम की मात्रा से। श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन का अर्थ क्या है? श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन का अर्थ है मज़दूर के सामान्य जीवन के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं और सेवाओं का मज़दूर द्वारा उपभोग। यानी, मज़दूर वर्ग द्वारा उपभोग किये जाने वाले वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन, यानी उसके गुज़ारे हेतु आवश्यक मालों के उत्पादन में लगने वाला सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त श्रम श्रमशक्ति के मूल्य को निर्धारित करता है। दूसरे शब्दों में, भोजन, वस्त्र, न्यूनतम शिक्षा, दवा-इलाज तथा अन्य मज़दूरी-उत्पाद (wage-goods) की वह मात्रा जिसकी आवश्यकता एक मज़दूर को अपने और अपने परिवार के जीवन के लिए ज़रूरी है, उनका मूल्य ही श्रमशक्ति के मूल्य को निर्धारित करता है। इसमें मज़दूर परिवार के जीवन–यापन योग्य मज़दूरी–उत्पादों को आकलित किया जाता है क्योंकि पूँजीपति वर्ग के लिए यह ज़रूरी होता है कि मज़दूरों की नस्ल जारी रहे और मज़दूरों की अगली पीढ़ियाँ भी आम तौर पर मज़दूर परिवारों में तैयार होती रहे। मज़दूर की किसी कुशलता के उत्पादन का ख़र्च भी उसके श्रमशक्ति के मूल्य में शामिल हो जाता है, हालाँकि एक कुशल मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य ठीक इसीलिए ज़्यादा होता है क्योंकि वह उत्पादन की प्रक्रिया में सिर्फ़ अपनी श्रमशक्ति के साथ भागीदारी नहीं करता बल्कि उन मज़दूरों की श्रमशक्ति के साथ भागीदारी करता है जिनका श्रम कुशलता के उत्पादन में ख़र्च हुआ है। ऐसे कुशल मज़दूर का श्रम साधारण श्रम (simple labour) नहीं है, बल्कि जटिल श्रम (complex labour) है। मालों के मूल्य के निर्धारण के समय हम जटिल श्रम को साधारण श्रम में परिवर्तित करते हैं। इसके लिए कुशलता के उत्पादन की लागत के आधार पर एक कोफिशियेंट का इस्तेमाल किया जाता है जिसके आधार पर आप जटिल श्रम के एक घण्टे को, मिसाल के तौर पर, साधारण श्रम के 3 घण्टे में परिवर्तित कर सकते हैं। लेकिन इस पर हम बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी इतना समझ लेना पर्याप्त है कि मज़दूर के श्रमशक्ति का मूल्य ठीक उसी प्रकार निर्धारित होता है जिस प्रकार किसी भी माल का मूल्य निर्धारित होता है। यह मज़दूरी-उत्पादों की उस टोकरी (basket of wage-goods) के मूल्य से निर्धारित होता जिसका इस्तेमाल आम तौर पर एक औसत मज़दूर अपने और अपने परिवार के जीवन के पुनरुत्पादन के लिए करता है।
मिसाल के लिए, अगर मज़दूर को अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए 500 रुपये प्रतिदिन की आवश्यकता होती है और कार्यदिवस की लम्बाई 8 घण्टे है, तो वह 500 रुपये के बराबर मूल्य, यानी अपनी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य 8 घण्टे से कम समय में ही, मसलन, 4 घण्टे में ही पैदा कर लेता है और उसके बाद के 4 घण्टे वह जो श्रम करता है, उससे पैदा होने वाला मूल्य, यानी अतिरिक्त 500 रुपये, बेशी मूल्य होता है, जो पूँजीपति के मुनाफ़े का स्रोत है। ज़ाहिर है, मज़दूर उत्पादन के दौरान अपनी श्रमशक्ति के बराबर मूल्य और जो बेशी मूल्य पैदा करता है, वह उत्पाद के रूप में होता है। ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधनों का मूल्य श्रम प्रक्रिया में संरक्षित होता है और ज्यों का त्यों उत्पाद में स्थानान्तरित होता है। यानी, पूँजीपति को बेशी मूल्य यहाँ बेशी उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है, जिसे बेचकर वह उसे मुद्रा-रूप में रूपान्तरित करता है।
आगे हम पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया को श्रम प्रक्रिया और मूल्य-संवर्धन प्रक्रिया के रूप में समझेंगे। इससे हमें श्रम की दोहरी भूमिका स्पष्ट होगी और हम मूल्य तथा बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया और उपयोग-मूल्य के रूप में मालों के उत्पादन को और गहराई से समझ पायेंगे।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2023
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