सिडकुल, हरिद्वार के प्लास्टिक उत्पाद के उद्योग की एक फ़ैक्टरी की रिपोर्ट

फ़ेबियन

हरिद्वार सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में प्लास्टिक उत्पाद के उद्योग की कई कम्पनियाँ हैं जैसे टीपैक पैकेजिंग इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड, एपेक्स इण्डस्ट्रीज, ट्रू ब्लू , फ़्रेश पेट आदि। कई कम्पनियाँ हैं जहाँ मज़दूरों की काम की स्थिति बेहद कठिन और थकाऊ है। यहाँ रोज़गार की सुरक्षा, श्रम अधिकार, कार्यस्थल पर सुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं तक का भयंकर अभाव है।
टीपैक पैकेजिंग इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड ऐसी ही एक कम्पनी है। टीपैक पैकेजिंग इण्डिया प्राइवेट लिमि. थाइलैण्ड की ‘सनपेट कम्पनी’ की भारतीय सबसिडियरी कम्पनी है। सनपेट कम्पनी के दुनियाभर में कुल दस प्रोडक्शन सेण्टर हैं। चार सेण्टर थाइलैण्ड में और छ: कम्पनियाँ भारत में हैं। यह कम्पनी फ़ार्मास्युटिकल, कॉस्मेटिक, परफ़्यूम, खाद्य उत्पाद, पेय पदार्थ, तेल व मोटर वाहन स्नेहक के उद्योगों के लिए प्लास्टिक की बोतल व जार बनाती हैं। यह कम्पनी जॉनसन एण्ड जॉनसन (सैवलॉन), नेस्ले, डाबर, आई.टी.सी, युनिलिवर (ब्रुट परफ़्यूम), पतंजली, आदि की वेण्डर कम्पनी है।
इस कम्पनी में क़रीबन 150 मज़दूर 12 घण्टे की दो शिफ़्टों में काम करते हैं। इस कम्पनी में उत्पादन की प्रक्रिया तीन हिस्सों में बँटी हुई है। पहला विभाग मैन्युफ़ैक्चरिंग का है जहाँ प्लास्टिक के दानों से प्रिफ़ॉर्म बोतल व जार बनाया जाता है। इस कच्चे माल – प्लास्टिक के दानों को रिलायंस इण्डस्ट्रीज़, दहेज, गुजरात से मँगाया जाता है। यह प्लास्टिक के दाने 1150 किलो. के पैक साइज़ में आते हैं। इस एक टन के प्लास्टिक के दानों की क़ीमत 89,000/- रुपये है। कम्पनी में हर रोज़ क़रीबन 25 से 26 टन प्लास्टिक के दानों की खपत होती है। यानी 25 से 26 टन के प्लास्टिक प्रिफ़ॉर्म बोतल व जार रोज़ बनते हैं। इससे कम्पनी के प्रोडक्शन का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
इस विभाग में कुल 26 मोल्डिंग मशीन हैं। इनमें से तीन मशीनें ‘सिंगल स्टेज इंजेक्शन स्ट्रेच ब्लो मोल्डिंग मशीन’ हैं जो प्रिफ़ॉर्म बनाती हैं। प्रिफ़ॉर्म टेस्ट ट्यूब के आकार का प्लास्टिक होता है जिससे फिर एक दूसरे मोल्डिंग मशीन द्वारा बोतल बनाया जाता है। बाक़ी की 23 मशीनें ‘टू स्टेज रि हीट स्ट्रेच ब्लो मोल्डिंग मशीन’ हैं जो बोतल व जार बनाती हैं। कम्पनी अपने ग्राहक की माँग के अनुसार प्रिफ़ॉर्म या बोतल बनाकर देती है। ये 26 मोल्डिंग मशीनें ऑटोमेटिक हैं।
इस विभाग में एक शिफ़्ट में कुल दो मज़दूर काम करते हैं जो ऑपरेटर को मशीन में गड़बड़ी होने पर मदद करते हैं। इसके अलावा वे प्लास्टिक के दानों का टैंक भी चेक करते हैं। प्लास्टिक के दानों के टैंक की क्षमता 20 टन की है। जब टैंक में दानों की मात्रा कम हो जाती है तो एक मज़दूर उस टैंक में उतरकर फावड़े से उन दानों को सक्शन पाइप के पास सेट करता है। उस 20 टन के टैंक की गहराई 20 फीट से ज़्यादा है। उसके अन्दर कोई लाइट भी नहीं है। जब मज़दूर अन्दर जाता है तो उसके के साथ कोई दूसरा मज़दूर भी नहीं होता है। ऐसे में दुर्घटना होने की सम्भावना बनी रहती है।
दूसरा विभाग पैकेजिंग का है। यह विभाग दो उप विभागों में बँटा हुआ है – ‘इंजेक्शन मोल्डिंग सेक्शन’ और ‘ब्लोइंग सेक्शन’। इंजेक्शन मोल्डिंग सेक्शन में प्रिफ़ॉर्म बनते हैं और ब्लोइंग सेक्शन में 10 एम.एल. से लेकर 1 लीटर के बोतल व जार बनते हैं। एक मज़दूर मशीन द्वारा बनाये गये प्रिफ़ॉर्म को चेक करके ख़राब प्रिफ़ॉर्म को छाँटता रहता है। दूसरा मज़दूर प्रिफ़ॉर्म को कट्टों में या बॉक्स में पैक करता है। पैक करने वाले मज़दूर को बताये गये कट्टे या बॉक्स को वज़न करके पैक करना होता है। कट्टों को पैक करने के लिए मज़दूर हैण्ड सिलाई मशीन का इस्तेमाल करते हैं। हैण्ड सिलाई मशीन का वज़न 6 किलो होता है। माल के साइज़ के हिसाब से हर मज़दूर को 55 से 110 कट्टे 12 घण्टे में सिलने पड़ते हैं। बॉक्स की पैकिंग में टेप का इस्तेमाल होता है और मज़दूर को टेप काटने के लिए कोई औज़ार नहीं दिया जाता है। बॉक्स पैकिंग में एक मज़दूर औसतन माल के साइज़ के हिसाब से 100-150 बॉक्स पैक करता है।
दूसरा उप-विभाग ब्लोइंग सेक्शन है। पूरे कम्पनी में सिर्फ़ इस सेक्शन में स्त्री व पुरुष मज़दूर दोनों काम करते हैं। यहाँ एक मशीन पर एक ही मज़दूर बोतल चेक करता है और उन बोतलों को ट्रे में सेट करता है। एक या दो मज़दूर इन सभी मशीनों के ट्रे में रखे बोतल व जार को प्लास्टिक में सील करते हैं। उसके बाद चार मज़दूरों द्वारा हीटर मशीन से बोतलों की इन सीलों को ठोस करके बॉक्स में पैक किया जाता है। इन दोनों विभाग में जब माल पूरा पैक हो जाता है तो उसे स्टोर में भेज दिया जाता है। जहाँ से वे लोड होकर ऑर्डर देने वाली कम्पनी को भेज दिया जाता है।
इन दोनों उप-विभागों में मज़दूरों की काम की गति ऑटोमैटिक मशीन द्वारा निर्धारित होती है। यह मशीन लगातार बोतल, जार व प्रिफ़ॉर्म उगलती रहती है। सामान्य मोल्डिंग मशीन में एक ऑपरेटर उस मशीन को लगातार चलाता है। लेकिन इन ऑटोमैटिक मशीन को एक बार सेट करने पर वे लगातार चलती रहती हैं जब तक कोई ख़राबी न आये या इसे रोका न जाये। यानी जहाँ सामान्य मोल्डिंग मशीन की गति को मज़दूर कण्ट्रोल कर सकता है, वहीं ऑटोमैटिक मशीन मज़दूर के काम की गति को कण्ट्रोल करती है। मज़दूर को ऑटोमैटिक मशीन की गति के अनुसार काम करना पड़ता है। ऐसे में अगर किसी मज़दूर को बाथरूम जाना हो या खाना खाने जाना हो तो उसे दूसरे मज़दूर को अपनी जगह काम करने के लिए बोलना पड़ता है। जब वह मज़दूर वापस आयेगा, तब ही मशीन पर बैठा मज़दूर खाना खाने जा सकता है। इसलिए ब्रेक पर गये मज़दूर को जल्दी से अपना काम निपटाकर मशीन पर जाना पड़ता है। मज़दूरों को लगातार हाथ चलाना पड़ता है। उन्हें आराम का थोड़ा भी मौक़ा नहीं मिल पाता। ऐसे में मज़दूर सोचता है कि ये 24 घण्टे लगातार बोतल उगलने वाली मशीन की वजह से उनका काम थकाऊ और कठिन है। वह इस काम के बोझ के लिए टेक्नोलॉजी को ज़िम्मेदार मानते हैं। लेकिन यह सोच ग़लत है।
विकसित टेक्नोलॉजी के चलते पहले जो उत्पादन 12 घण्टे में होता था आज वह उत्पादन 5 से 6 घण्टे में ही हो जाता है। इसका मतलब है कि आज मज़दूरों के काम के घण्टे कम करने के साथ उनके बेहतर जीवन जीने के लिए वेतन को बढ़ा दिया जाना चाहिए। लेकिन होता इसका ठीक उल्टा है।
कम्पनी अपने मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए मज़दूरों के काम के घण्टों को बढ़ाती है और कम समय में ज़्यादा उत्पादन करवाने की कोशिश में रहती है। कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा काम लेने के लिए कम्पनी ज़्यादा स्पीड से चलने वाली मशीन इस्तेमाल करती है। मशीनों की स्पीड बढ़ाकर पूँजीपति मज़दूरों से 8 घण्टे में 10 से 12 घण्टे का प्रोडक्शन लेती है। मुनाफ़े के नींव पर टिके समाज में विज्ञान व टेक्नोलॉजी से लोगों का जीवन स्तर उन्नत करने के बदले उससे मुनाफ़ा कमाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। काम के घण्टे कम करने के बदले उसे लगातार बढ़ाया जाता है।
तीसरा विभाग स्टोर सेक्शन है जहाँ बोतल, जार व प्रिफ़ॉर्म को स्टोर किया जाता है और यहीं से लोडिंग भी होती है। इस सेक्शन में 9-10 मज़दूर कैज़ुअल के तौर पर काम करते हैं। जब ज़्यादा मज़दूरों की ज़रूरत होती है तब दिहाड़ी पर मज़दूरों को रखा जाता है। स्टोर सेक्शन में बॉक्स में रखे माल को सीढ़ी जैसी संरचना में सेट किया जाता है। इस संरचना की ऊँचाई 35 से 40 फीट होती है। बॉक्स के गत्ते कमज़ोर होते हैं। उन पर बार-बार चढ़ने-उतरने से वे नरम पड़ जाते हैं। ऐसे में मज़दूरों के सन्तुलन खोकर गिरने की सम्भावना बनी रहती है। सुरक्षा के नाम पर उन्हें निर्माण क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाला हेलमेट दिया जाता है जिसकी स्थिति ख़राब होती है। किसी का बेल्ट टूटा हुआ होता है तो कोई हेलमेट किसी के सिर पर फिट ही नहीं हो पाता। झुकने पर वह हेलमेट नीचे गिर जाता है। इसलिए मज़दूर उसे नहीं पहनते हैं। स्टोर में कोई खिड़की नहीं है। इस कारण से स्टोर में घुटन-भरा माहौल बना रहता है। मज़दूरों को गर्मियों में बहुत गर्मी और जाड़ों में बहुत ठण्ड सहन करके काम करना पड़ता है। पूरे स्टोर के लिए सिर्फ़ एक हैलोजन लाइट है। मज़दूरों को स्टोर में इसी कम रोशनी में काम करना पड़ता है। इस कम्पनी में कोई लोडिंग प्लेटफ़ॉर्म नहीं है। इसलिए मज़दूरों को ज़मीन से बॉक्स उठाकर ट्रेलर में लोड करना पड़ता है। जब ज़्यादा वज़न का काम होता है या कट्टों को लोड करना होता है, तब फ़ोर्क मशीन का इस्तेमाल किया जाता है। हाल ही में इस कम्पनी में एक मज़दूर को फ़ोर्क मशीन से सीने पर चोट लगी। उसके सीने की पसली फ़्रैक्चर हुई। उसके बाद वह गेट पास लेकर घर चला गया। कम्पनी ने न तो उसका दवा इलाज किया, ना ही उसे इलाज के लिए पैसे दिये। जितने दिन वह इलाज के लिए छुट्टी पर रहा उसे वेतन भी नहीं दिया गया। इस कम्पनी में ई.एस.आई. की सुविधा भी नहीं है। सिडकुल में आये दिन जो मज़दूरों के साथ दुर्घटनाएँ होती हैं, उसे इसी तरीक़े से निपटाया जाता है। कम्पनी के लिए मज़दूर एक काग़ज़ के ग्लास के समान है, जिसके इस्तेमाल होने पर या ख़राब हो जाने पर फेंक दिया जाता है। मशीन ख़राब होने पर उसकी मरम्मत कर ठीक किया जाता है लेकिन मज़दूर को सीधे बाहर का रास्ता दिखाया जाता है।
इतने कठिन काम के लिए यहाँ के मज़दूरों को कितना वेतन मिलता है? पैकेजिंग डिपार्टमेण्ट के मज़दूरों को 12 घण्टे 30 दिन के लिए पी.एफ़. के पैसे काटकर 11,500/- दिया जाता है। लोडिंग डिपार्टमेण्ट के मज़दूर को पी.एफ़. के पैसे काटकर 12,500/- मिलता है। पैकेजिंग के मज़दूरों को खाना खाने का 30 मिनट का ब्रेक और 10 मिनट चाय का ब्रेक भी पूरा नहीं मिल पाता है। कई बार माल चेक करने वाला मज़दूर मशीन से फ़्री नहीं हो पाता है जिसके चलते उसे चाय भी नसीब नहीं हो पाती है। इस कम्पनी में वेतन कैश में दिया जाता है और पे-स्लिप या वेतन स्लिप नहीं दी जाती। बैंक के काग़ज़ जमा करने के बावजूद रजिस्टर पर दस्तख़त करा कर वेतन दिया जाता है।
इतने कठिन काम की परस्थिति के चलते यहाँ मज़दूर बहुत लम्बे टाइम के लिए काम नहीं करते हैं। लेकिन इस कम्पनी में 8 से 10 साल से काम करने वाले कुछ मज़दूर हैं जिनको कम्पनी ने आज तक पर्मानेण्ट नहीं किया है। वे अपनी बढ़ती उम्र के चलते या किसी मजबूरी के चलते काम नहीं छोड़ते हैं। श्रम क़ानून के तहत अगर कोई मज़दूर 240 दिन किसी कम्पनी में लगातार काम करता है तो उसे पर्मानेण्ट करना चाहिए। लेकिन यहाँ पर्मानेण्ट करना तो दूर उनके वेतन में भी कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। वे ठेकेदार के तहत कैज़ुअल मज़दूर के तौर पर ही काम कर रहे हैं। यह श्रम क़ानूनों का खुला उल्लंघन है।
इस कम्पनी में अगर प्रोडक्शन कम होता है तब मज़दूरों को ब्रेक दिया जाता है। फ़ैक्टरी गेट पर खड़ा ठेकेदार बोलता है कि ‘लड़के पूरे हो गये हैं’। उसे काम से नहीं निकाला जाता है बस उस दिन के लिए उसे काम देने से मना कर दिया जाता है। मज़दूर फिर लेबर चौक पर काम की तलाश में जाता है कि कहीं आज के दिन बिना कमाये घर ना लौट जाना पड़े। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि वह मज़दूर कितने सालों से उस कम्पनी में काम कर रहा है। इसलिए इस कम्पनी के मज़दूर काम शुरू होने के आधे घण्टे पहले ही कम्पनी गेट पर आकर ठेकेदार को अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जो देर से आते हैं उन पर ख़तरा मँडराता है कि अगर आज मज़दूरों की ज़रूरत कम होगी तो उन्हें वापस कर दिया जायेगा।
इस कम्पनी में काम की दो शिफ़्ट चलती हैं। डे शिफ़्ट सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक और नाइट शिफ़्ट रात के 8 बजे से सुबह 8 बजे तक चलती है। मज़दूरों की शिफ़्ट सप्ताह में बदलती है। यानी एक सप्ताह डे शिफ़्ट और अगला सप्ताह नाइट शिफ़्ट। लेकिन होता यह है कुछ मज़दूरों को महीनेभर या उससे ज़्यादा समय के लिए नाइट शिफ़्ट करना पड़ता है तो किसी को लगातार डे शिफ़्ट। हर शिफ़्ट में कुछ पूराने मज़दूरों का होना ज़रूरी होता है। जो नये मज़दूरों को काम सिखायें और उन पर नज़र रखें व काम ठीक से करवायें। अगर काम ख़राब होता है तो सुपरवाइज़र साथ काम कर रहे पुराने मज़दूर को डाँटता है। धान कटाई के समय में मज़दूरों की संख्या कम हो जाती है। ऐसे में जो पुराने मज़दूर काम पर होते हैं ठेकेदार उन्हें डबल शिफ़्ट भी करने को बोलता है। मज़दूर मना कर सकता है लेकिन अपने आर्थिक मजबूरी के चलते 24 घण्टे काम करता है।
इस कम्पनी में काम करने वाले मज़दूर रोज़ाना कितना समय अपनी आजीविका कमाने में ख़र्च करते हैं? कम्पनी में काम के 12 घण्टे के अलावा आधे घण्टे पहले रिपोर्ट करके फ़ैक्टरी गेट पर ख़ाली बैठना, आने-जाने का समय और टिफ़िन के लिए खाना बनाने का समय। कुल समय जोड़ा जाये तो अपनी रोज़ाना की आजीविका कमाने के लिए एक मज़दूर 24 घण्टे में से लगभग 15 से 16 घण्टे ख़र्च करता है।
टीपैक कम्पनी में मज़दूरों से बहुत ख़राब तरीक़े से बात की जाती है। सुपरवाइज़र मज़दूरों को डाँटकर, हड़काकर या गाली देते हुए बात करते हैं। इस कम्पनी के इतिहास में लोडिंग सेक्शन में मज़दूर को गाली देने पर सुपरवाइज़र को पीटने की घटना घट चुकी है। कई दिहाड़ी मज़दूर इसी ख़राब व्यवहार के चलते काम छोड़कर चले जाते हैं। इसी वजह से लेबर चौक पर यह कम्पनी बदनाम है और इस इलाक़े के पुराने दिहाड़ी मज़दूर काम नहीं मिलने पर भी इस कम्पनी में जाने को तैयार नहीं होते हैं।
हरिद्वार सिडकुल में ऐसी और भी प्लास्टिक की वेण्डर कम्पनियाँ हैं जिनमें टीपैक कम्पनी से कम मज़दूर काम करते हैं। उनमें भी इसी प्रकार से मज़दूरों को निचोड़कर काम लिया जाता है। जैसे ट्रू ब्लू कम्पनी, फ़्रेश पेट कम्पनी, एपेक्स प्राइवेट लिमिटेड आदि। टीपैक पैकेजिंग कम्पनी की यह रिपोर्ट एक झलक है, जो आज के तमाम औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों की दुर्दशा को दर्शाती है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022


 

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