सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक फ़्रेडरिक एंगेल्स को उनके 200वें जन्मदिन (28 नवम्बर) पर याद करते हुए
भारत के नव-नरोदवादी “कम्युनिस्टों” और क़ौमवादी “मार्क्सवादियों” को फ़्रेडरिक एंगेल्स आज क्या बता सकते हैं?
– अभिनव
28 नवम्बर 1820 को सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक और कार्ल मार्क्स के अनन्य मित्र फ़्रेडरिक एंगेल्स का जन्म हुआ था। द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों का कार्ल मार्क्स के साथ विकास करने वाले हमारे इस महान नेता ने पहले कार्ल मार्क्स के साथ और 1883 में मार्क्स की मृत्यु के बाद 1895 तक विश्व सर्वहारा आन्दोलन को नेतृत्व दिया। मार्क्सवाद के सार्वभौमिक सिद्धान्तों को स्थापित करने के अलावा इन सिद्धान्तों की रोशनी में उन्होंने इतिहास, विचारधारा, एंथ्रोपॉलजी और प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे शोध-कार्य किये, जिन्हें पढ़ना आज भी इस क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य है।
आज हमारे देश में मौजूद स्थितियों के मद्देनज़र उनकी कई रचनाएँ विशेष रूप से पढ़ने योग्य हैं, लेकिन जिस रचना का ख़याल आज ख़ास तौर पर मेरे दिमाग़ में आ रहा है, वह है: ‘फ़्रांस और जर्मनी में किसान प्रश्न’। हमारे देश में कुलकों, धनी किसानों, उच्च-मध्यम किसानों के हितों और माँगों की नुमाइन्दगी में व्यस्त तमाम नरोदवादी व क़ौमवादी कम्युनिस्टों को ख़ास तौर पर इस छोटी, लेकिन बेहद अहम रचना का अध्ययन करना चाहिए, जिसने कृषि प्रश्न व किसान प्रश्न पर मार्क्सवादी चिन्तन में एक अहम इज़ाफ़ा किया और आगे चलकर इस प्रश्न पर लेनिन के चिन्तन का आधार बनी।
एंगेल्स के जन्म की द्विशतवार्षिकी पर उसी रचना से कुछ उद्धरण साझा कर रहा हूँ।
गाँवों में सर्वहारा वर्ग के सबसे अहम मित्र वर्ग ग़रीब किसानों के बारे में सबसे पहले एंगेल्स यह बताते हैं कि ग़रीब किसान किसे कहा जाता है। इसे समझना बेहद ज़रूरी है क्योंकि आज के समय में हर किसान को ही ग़रीब किसान क़रार देकर मौजूदा किसान आन्दोलन का रूमानीकरण किया जा रहा है। एंगेल्स ग़रीब किसान की परिभाषा बताते हुए कहते हैं:
“छोटे किसानों से यहाँ हमारा तात्पर्य भूमि के एक ऐसे टुकड़े के मालिक या काश्तकार से है, जो आम तौर पर उतने से बड़ा नहीं, जितना कि वह और उसका परिवार जोत सकता है, और उतने से छोटा भी नहीं, जितने से कि उसके परिवार का भरण-पोषण हो सकता है। अत: यह छोटा किसान छोटे दस्तकार की ही तरह मेहनतकश होता है।” (मार्क्स-एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’ (तीन खण्डों में), खण्ड-3, भाग-2, पृ. 368)
यानी वह किसान ही गाँवों में सर्वहारा वर्ग का मित्र वर्ग है, जो कि नियमित तौर पर उजरती श्रम का शोषण नहीं करता है और उसकी आजीविका का आधार दूसरों के श्रम का शोषण नहीं है। इस किसान आबादी की नियति में आम तौर पर सर्वहाराकरण ही होता है। जैसा कि एंगेल्स कहते हैं:
“संक्षेप में, अतीतकालीन उत्पादन पद्धति के अन्य सभी अवशेषों की भाँति हमारे छोटे किसान का भी विनाश निश्चित है, उसके उद्धार की कोई आशा नहीं है। वह भावी सर्वहारा है।”
लेकिन एंगेल्स याद दिलाते हैं कि इसके बावजूद यह ग़रीब किसान तुरन्त ही कम्युनिस्ट प्रचार को सुनकर सामूहिक खेती की आवश्यकता पर सहमत नहीं हो जाता है। एंगेल्स लिखते हैं:
“इस नाते उसे समाजवादी प्रचार पर तत्परता से कान देना चाहिए था। किन्तु फ़िलहाल सम्पत्ति के प्रति उसका अनुराग उसे ऐसा करने से रोके हुए है। ख़तरे में पड़े ज़मीन के अपने नन्हे से टुकड़े की हिफ़ाज़त करना उसके लिए जितना ही अधिक कठिन होता जाता है, उतना ही अधिक वह उससे जी-जान से चिपटता जाता है, और उतना ही अधिक वह भू-सम्पत्ति को पूरे समाज को हस्तान्तरित करने की बातें करने वाले सामाजिक-जनवादियों को सूदख़ोरों और वकीलों की तरह ख़तरनाक समझने लगता है। सामाजिक-जनवाद इस पूर्वाग्रह को किस प्रकार दूर करे? वह अपने प्रति ईमानदारी बरतते हुए छोटे किसानों को, जिनका विनाश निश्चित है, क्या दिलासा दे?” (वही, पृ. 369)
इसका एंगेल्स निम्न जवाब देते हुए, ग़रीब किसानों को शुरू से ही उनकी अनिवार्य नियति के बारे में सच्चाई से अवगत कराने की वकालत करते हैं:
“आइए, साफ़-साफ़ कह दें: हम छोटे किसानों के आम जन-समुदाय को, उनकी सम्पूर्ण आर्थिक स्थिति, उनकी ख़ास ढंग की शिक्षा-दीक्षा और उनकी अलग-थलग जीवन-विधि से उत्पन्न पूर्वाग्रहों को देखते हुए, जिनको पूँजीवादी अख़बार और बड़े ज़मीन्दार यत्नपूर्वक जीवित रखते और पुष्ट करते हैं, तभी झटपट अपने साथ ला सकते हैं, जबकि उनसे ऐसे वादे करें, जिनके बारे में हम ख़ुद जानते हैं कि हम उनका पालन नहीं कर सकेंगे। यानी, हम उनसे यह वादा करें कि उन्हें आक्रान्त करने वाली सभी आर्थिक शक्तियों से उनकी सम्पत्ति की हर हालत में रक्षा की जायेगी, बल्कि उन्हें उन भारों से भी मुक्त किया जायेगा, जिनसे वे पहले से ही दबे हुए हैं: काश्तकार को स्वतंत्र भूमिधर किसान बना दिया जायेगा और बन्धक के बोझ से दबकर दम तोड़ते हुए खेत के मालिकों के क़र्जे़ भरे जायेंगे। यदि हम ऐसा कर भी सकें, तो हम फिर उस बिन्दु पर पहुँच जायेंगे, जहाँ से वर्तमान स्थिति अनिवार्यत: फिर नये सिरे से उत्पन्न होगी। हम किसान को मुक्ति नहीं, सिर्फ़ मोहलत दिलायेंगे।
“लेकिन हमारा हित इस बात में नहीं है कि किसानों को रातों-रात अपनी ओर कर लें, ताकि अगले ही दिन हमारे अपने वादे पूरे न हो सकने के कारण वे हाथ से निकल जायें। जिस तरह सदा के लिए स्वामी बनने का स्वप्न देखनेवाला छोटा दस्तकार पार्टी सदस्य के रूप में हमारे लिए बेकार है, उसी तरह वह किसान भी बेकार है, जो यह आशा करता है कि हम छोटी जोत-रूपी उसकी सम्पत्ति को स्थायित्व प्रदान करेंगे। ऐसे लोग तो यहूदी-विरोधियों के लिए उपयुक्त हैं। वे उन्हीं के पास जायें और उनसे अपने छोटे-छोटे उद्यमों के उद्धार के वादे हासिल करें। जब उनके भड़कीले शब्दजाल का वास्तविक अर्थ उनको मालूम हो जायेगा और वे देख लेंगे कि यहूदी-विरोधियों के स्वर्गलोक से उनकी ओर कैसी संगीत-लहरी प्रवाहित की जाती है, तो वे अधिकाधिक मात्रा में अनुभव करेंगे कि कम वादे करने वाले तथा बिल्कुल भिन्न दिशा से मुक्ति की आशा करने वाले हम लोग अधिक विश्वसनीय हैं।” (वही, पृ. 381)
जो लोग इस आधार पर उन किसानों की भी सम्पत्ति को बड़ी पूँजी से बचाने की वकालत करते हैं, जो स्वयं उजरती श्रम का शोषण करते हैं, लेकिन साथ में सूदख़ोरों व बिचौलियों द्वारा लूटे भी जाते हैं, उनके लिए एंगेल्स की सलाह बिल्कुल स्पष्ट है। फ़्रांसीसी समाजवादियों के मार्सेई के 1892 के कृषि कार्यक्रम की प्रस्तावना की आलोचना करते हुए एंगेल्स लिखते हैं:
“इस तरह ‘प्रस्तावना’ समाजवाद के ऊपर एक ऐसा काम करने का अनिवार्य कर्तव्य लाद देती है, जिसे वह इसके पहले के अनुच्छेद में असम्भव घोषित कर चुकी थी। वह उस पर छोटी जोतों पर किसानों के स्वामित्व को “बरक़रार” रखने का जिम्मा डालती है, जबकि वह ख़ुद यह घोषित करती है कि स्वामित्व के इस रूप का “विनाश अवश्यम्भावी है”। माल का महकमा, सूदख़ोर और नवोदित बड़े-बड़े ज़मीन्दार वे साधन ही तो हैं, जिनके ज़रिये पूँजीवादी उत्पादन यह अवश्यम्भावी विनाश निष्पन्न करता है। “समाजवाद” इस त्रिमूर्ति से किसानों की रक्षा के लिए क्या उपाय करे, इसे हम आगे देखेंगे।
“पर केवल छोटे किसानों के स्वामित्व की ही रक्षा नहीं करनी है। इसी प्रकार” (मार्सेई कार्यक्रम के अनुसार) “यह संरक्षण उन उत्पादकों को भी प्रदान करना उपयुक्त है, जो काश्तकार या बँटाईदार की हैसियत से दूसरों की ज़मीन जोतते हैं और जो यदि दिहाड़ीदार मज़दूरों का शोषण करते हैं, तो एक हद तक उस शोषण से बाध्य होकर करते हैं, जिसके वे स्वयं शिकार हैं।”
“यहाँ पहुँचकर हमें दंग रह जाना पड़ता है। समाजवाद उजरती श्रम के शोषण का ख़ास तौर पर विरोध करता है। पर यहाँ कहा जाता है कि समाजवाद का यह अनिवार्य कर्तव्य है कि फ़्रांसीसी काश्तकारों की तब भी रक्षा करे, जब वे “दिहाड़ीदार मज़दूरों का शोषण करते हैं”। (ये हूबहू मूलपाठ के शब्द हैं!) और यह इसलिए किया जाये कि वे एक हद तक “उस शोषण से बाध्य होकर ऐसा करते हैं, जिसके वे स्वयं शिकार हैं”!
“लेकिन बर्फ़ की गाड़ी को एक बार ढलान पर छोड़ देने पर नीचे फिसलते जाना बहुत ही सहज और सुखप्रद होता है। जर्मनी के बड़े और मँझोले किसान अगर फ़्रांसीसी समाजवादियों के पास आकर कहें कि ज़रा जर्मन पार्टी की कार्यकारिणी समिति से कहकर हमें अपने फ़ार्मों के सेवक-सेविकाओं का शोषण करने में जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी का संरक्षण दिलवा दीजिये और यह दलील पेश करें कि हम सूदख़ोरों, तहसीलदारों, गल्ले के सट्टेबाज़ों और मवेशियों के व्यापारियों के “शोषण के स्वयं शिकार हैं”, तो ये लोग भला उनको क्या जवाब दे सकते हैं?” (वही, पृ. 374-75)
यह बात आज भारत के नरोदवादी कम्युनिस्टों और क़ौमवादी “मार्क्सवादियों” पर हूबहू लागू होती है। ज़ाहिर है, वे जिस चीज़ पर व्यवहार कर रहे हैं, उसका मार्क्सवाद से कोई लेना-देना नहीं है। वह वास्तव में नव-नरोदवाद है और दूसरे मामले में वह प्रवृत्ति है, जिसे हमने ट्रॉट-बुण्डवाद कहा है, यानी त्रॉत्स्कीपंथ और क़ौमवाद का आश्चर्यजनक रूप से मूर्खतापूर्ण मिश्रण।
एंगेल्स आगे स्पष्ट करते हैं कि पार्टी के भीतर सर्वहारा राजनीतिक अवस्थिति अपनाकर किसी भी वर्ग का व्यक्ति आ सकता है, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी कभी भी एक वर्ग के तौर पर गाँवों में खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों के अलावा किसी भी अन्य वर्ग को मित्र वर्ग नहीं मान सकती है। देखें एंगेल्स क्या कहते हैं:
“मैं इसका स्पष्ट खण्डन करता हूं कि किसी देश की समाजवादी मज़दूर पार्टी का यह कर्तव्य है कि अपने अन्दर खेतिहर मज़दूरों और छोटे किसानों के अलावा, मँझोले तथा बड़े किसानों को और शायद बड़ी-बड़ी जागीरों के काश्तकारों को भी तथा पूँजीवादी पशुपालकों और राष्ट्रीय भूमि के अन्य पूँजीवादी उपयोगकर्ताओं को सूत्रबद्ध करे। सामन्ती भू-स्वामित्व इन सभी को सामान्य शत्रु प्रतीत हो सकता है। ख़ास-ख़ास सवालों पर हम उनके साथ कन्धे से कन्धा मिला सकते हैं और कुछ निश्चित लक्ष्यों के लिए (सामन्ती व्यवस्था होने की सूरत में—लेखक) उनके साथ खड़े होकर लड़ सकते हैं। अपनी पार्टी में हम किसी भी सामाजिक वर्ग के व्यक्ति का उपयोग कर सकते हैं, पर पूँजीवादी, मध्यम-पूँजीवादी या मँझोला किसान हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई भी समूह पार्टी में नहीं हो सकता।” (वही, पृ. 376-77, कुछ जगहों पर ग़लत/अस्पष्ट अनुवाद को मैंने सुधारा है)
इसी लेख में एंगेल्स आगे स्पष्ट करते हैं कि कम्युनिस्ट जब सत्ता में आयेंगे तो ग़रीब किसानों से उनकी ज़मीनें जबरन नहीं ली जायेंगी और उन्हें मिसालों के ज़रिये सहमत किया जायेगा कि उनके जीवन को ग़रीबी, बदहाली, अनिश्चितता और असुरक्षा से निजात केवल और केवल सामूहिक खेती के ज़रिये मिल सकती है। पहले उन्हें सहकारी खेती पर सहमत किया जायेगा और फिर आगे चलकर सामूहिक खेती के अधिक उन्नत रूपों के लिए। एंगेल्स लिखते हैं:
“दूसरे, यह भी उतना ही स्पष्ट है कि जब हमारे हाथों में राज्यसत्ता आयेगी, तब हम बलपूर्वक छोटे किसानों की सम्पत्ति (बामुआवज़ा या बिला मुआवज़ा) छीनने की—जो काम हमें बड़े ज़मीन्दारों के मामले में करना पड़ेगा—बात भी नहीं सोचेंगे। छोटे किसानों के सम्बन्ध में हमारा कार्य प्रथमत: उनके निजी उद्यम और निजी स्वामित्व को सहकारी उद्यम और स्वामित्व में अन्तरित सहायता देकर किया जायेगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि उस समय छोटे किसानों को ऐसे भावी लाभ, जो उन्हें आज भी स्पष्ट होंगे, दिखाने के हमारे पास प्रचुर साधन होंगे।” (वही, पृ. 382)
आगे एंगेल्स लिखते हैं:
“मुख्य बात यह है कि किसानों को साफ़-साफ़ समझा दिया जाये कि उनके घरों और खेतों को सहकारिता के आधार पर संचालित सहकारी सम्पत्ति में परिवर्तित करके ही हम उन्हें उनके लिए बचा सकते और बरक़रार रख सकते हैं। व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित व्यक्तिगत कृषि ही किसानों का विनाश अवश्यम्भावी बनाती है। यदि वे व्यक्तिगत संचालन पर अड़े रहेंगे, तो वे अनिवार्यत: घर-द्वार से निकाल बाहर किये जायेंगे और बड़े पैमाने का पूँजीवादी उत्पादन उनकी पुरानी-धुरानी उत्पादन पद्धति का स्थान ग्रहण कर लेगा। यही वस्तुस्थिति है।
….
“छोटी जोत वाले किसानों को हम न तो आज और न ही भविष्य में कभी यह आश्वासन दे सकते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन की प्रचण्ड शक्ति से उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति और उनके व्यक्तिगत उद्यम की रक्षा की जा सकती है। हम उन्हें इतना ही आश्वासन दे सकते हैं कि (राज्यसत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद—लेखक) हम बलपूर्वक, उनकी इच्छा के विरुद्ध, उनके स्वामित्व सम्बन्धों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इसके अलावा हम इस बात की हिमायत कर सकते हैं कि आइन्दा छोटे किसानों के विरुद्ध पूँजीपतियों और बड़े ज़मीन्दारों का संघर्ष अनुचित साधनों का कम से कम इस्तेमाल करते हुए चले और सीधे-सीधे की जाने वाली लूट-खसोट और ठगी, जो आजकल धड़ल्ले से चलती है, जहाँ तक सम्भव हो, बन्द हो जाये। अपने इस आग्रह में हम कुछ ही मामलों में, जो अपवादस्वरूप ही होंगे, सफल हो सकते हैं। विकसित पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में यह कोई भी नहीं बता सकता कि ईमानदारी और ठगी की सीमारेखा कहाँ पर है।
….
“अत: ऐसे वादे करने से ज़्यादा बड़ा अहित हम पार्टी और छोटे किसानों का नहीं कर सकते हैं, जैसे कि यह कि हम छोटी जोत को स्थायी रूप से बरक़रार रखना चाहते हैं। ऐसा करने का मतलब सीधे-सीधे किसानों की मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध कर देना और पार्टी को हुल्लड़बाज़ यहूदी-विरोधियों के निम्न स्तर पर ले आना होगा। इसके विपरीत, हमारी पार्टी का यह कर्तव्य है कि वह किसानों को बारम्बार स्पष्टता के साथ जताये कि पूँजीवाद का बोलबाला रहते हुए उनकी स्थिति पूर्णतया निराशापूर्ण है, कि उनकी छोटी जोतों को इस रूप में बरक़रार रखना एकदम असम्भव है, कि बड़े पैमाने का पूँजीवादी उत्पादन उनके छोटे उत्पादन की अशक्त, जीर्ण-शीर्ण प्रणाली को उसी तरह कुचल देगा, जिस तरह रेलगाड़ी ठेलागाड़ी को कुचल देती है। ऐसा करके हम आर्थिक विकास की अनिवार्य प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य करेंगे। और यह विकास एक न एक दिन छोटे किसानों के मन में हमारी बात को बैठाये बिना नहीं रह सकता।” (वही, पृ. 383-385, अनुवाद को कहीं-कहीं मैंने सुधारा है)
इसके बाद एंगेल्स मँझोले किसान के प्रश्न पर आते हैं और उसके दोहरे चरित्र के बारे में बात करते हैं। एंगेल्स बताते हैं कि इसका जो हिस्सा ग़रीब किसानों के क़रीब होता है, उसे उपरोक्त बातें जल्दी समझायी जा सकती हैं जबकि इसका वह हिस्सा जो बड़े व धनी किसानों के नज़दीक रहता है, उसका राजनीतिक व्यवहार भी उसी जैसा होता है। यानी निम्न मध्यम किसानों व उच्च मध्यम किसानों में फ़र्क़ करना ज़रूरी है। एंगेल्स लिखते हैं:
“अब हम अपेक्षाकृत बड़े किसानों के विषय पर आते हैं। यहाँ पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे के तथा ऋणग्रस्तता और ज़मीन की मजबूरन बिक्री के परिणामस्वरूप हम छोटी जोत वाले किसान से लेकर अपनी पैतृक सम्पत्ति को अक्षुण्ण रखने, यहाँ तक कि उसे बढ़ाने वाले बड़े भूमिधर किसान तक की दरम्यानी मंज़िलों की एक विविधतापूर्ण तस्वीर पाते हैं। मँझोला किसान जहाँ छोटी जोत वाले किसानों के बीच रहता है, वहाँ उसके हित और विचार उनके हित और विचारों से बहुत अधिक भिन्न नहीं होते। वह अपने तजुरबे से जानता है कि उसके जैसे कितने ही लोग छोटे किसानों की हालत में पहुँच चुके हैं। पर जहाँ मँझोले और बड़े किसानों का प्राधान्य होता है और कृषि के संचालन के लिए आम तौर पर नौकरों और नौकरानियों की आवश्यकता होती है, वहाँ बात बिल्कुल दूसरी ही है। कहने की ज़रूरत नहीं कि मज़दूरों की पार्टी को प्रथमत: उजरती मज़दूरी की ओर से, यानी इन नौकरों-नौकरानियों और दिहाड़ीदार मज़दूरों की ओर से ही लड़ना है। किसानों से ऐसा कोई वादा करना निर्विवाद रूप में निषिद्ध है, जिसमें मज़दूरों की उजरती ग़ुलामी को जारी रखना सम्मिलित हो। परन्तु जब तक बड़े और मँझोले किसानों का अस्तित्व है, वे उजरती मज़दूरों के बिना काम नहीं चला सकते। इसलिए छोटी जोत वाले किसानों को हमारा यह आश्वासन देना कि वे इस रूप में सदा बने रह सकते हैं, जहाँ मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, वहाँ बड़े और मँझोले किसानों को यह आश्वासन देना ग़द्दारी की सीमा तक पहुँच जाना होगा।” (वही, पृ. 385-86)
अब नरोदवादी कम्युनिस्ट और ट्रॉट-बुण्डवादी क़ौमवादी “मार्क्सवादी” इस समय क्या ठीक यही मूर्खता और ठीक यही ग़द्दारी भारत के खेतिहर मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों के साथ नहीं कर रहे हैं, जिसके बारे में एंगेल्स ने यहाँ बात की है? उजरती श्रम का नियमित तौर पर शोषण करने वाले धनी किसानों-कुलकों की लाभकारी मूल्य की प्रतिक्रियावादी माँग का समर्थन करना, वह भी उन लोगों द्वारा जो अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं, क्या सीधे-सीधे वह ग़द्दारी नहीं है जिसकी एंगेल्स ने यहाँ बात की है? चाहे यह ग़द्दारी संघीय अधिकारों के नाम पर की जाये या कारपोरेट पूँजी का ख़तरा दिखा कर, यह फिर भी ग़द्दारी ही कही जायेगी।
बड़े और उच्च मध्यम किसानों के बारे में ही एंगेल्स आगे लिखते हैं:
“यही बात बड़े और मँझोले किसानों पर लागू होती है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि हमारी दिलचस्पी उनसे अधिक उनके नौकरों-नौकरानियों और दिहाड़ीदार मज़दूरों में है। यदि ये किसान यह गारण्टी चाहते हैं कि उनका उद्यम जारी रहे, तो हम ऐसा आश्वासन देने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें तब यहूदी-विरोधियों, किसान संघ वालों और ऐसी ही अन्य पार्टियों में शामिल हो ही जाना चाहिए, जिन्हें सबकुछ वादा करने और एक भी वादा पूरा न करने में मज़ा आता है। हमें आर्थिक दृष्टि से यह पक्का यक़ीन है कि छोटे किसानों की तरह बड़े और मँझोले किसान भी अवश्य ही पूँजीवादी उत्पादन और सस्ते विदेशी गल्ले की होड़ के शिकार बन जायेंगे। यह इन किसानों की भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता और सभी जगह दिखायी पड़ रही अवनति से सिद्ध हो जाता है। इस अवनति का इसके सिवा हमारे पास कोई इलाज नहीं है कि उन्हें भी सलाह दें कि वे अपने-अपने फ़ार्मों को एक में मिलाकर सहकारी उद्यमों की स्थापना करें, जिनमें उजरती श्रम के शोषण का अधिकाधिक उन्मूलन होता जायेगा, और जो धीरे-धीरे उत्पादकों के एक महान राष्ट्रीय सहकारी उद्यम के संघटक अंगों में परिवर्तित किये जा सकते हैं, जिनमें प्रत्येक शाखा के अधिकार और कर्तव्य समान होंगे। यदि ये किसान यह महसूस करें कि उनकी मौजूदा उत्पादन पद्धति का विनाश अवश्यम्भावी है और इससे आवश्यक सबक़ हासिल करें, तो वे हमारे पास आयेंगे और यह हमारा कर्तव्य हो जायेगा कि नयी उत्पादन पद्धति में उनके भी संक्रमण को शक्ति भर सुगम बनायें। अन्यथा हमें उन्हें अपने भाग्य के भरोसे छोड़ देना होगा और उनके उजरती मज़दूरों के पास जाना होगा, जिनके बीच हम सहानुभूति पाये बिना नहीं रह सकते।” (वही, पृ. 386-87, कुछ जगहों पर मैंने ख़राब अनुवाद को दुरुस्त किया है)
जहाँ तक बड़ी-बड़ी ज़मीनें रखने वाले बेहद धनी किसानों और कुलकों का सवाल है, एंगेल्स कहते हैं कि उनके मामले में समाधान बिल्कुल आसान है। एंगेल्स लिखते हैं:
“केवल बड़ी-बड़ी ज़मीन्दारियों का मामला ऐसा है, जो बिल्कुल सीधा और साफ़ है। यहाँ हमारा सामना खुले पूँजीवादी उत्पादन से होता है, इसलिए यहाँ किसी भी तरह के संकोच में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ हमारे सामने ग्रामीण सर्वहारा का विशाल जन-समुदाय है और हमारा कर्तव्य स्पष्ट है। ज्यों ही हमारी पार्टी राज्यसत्ता प्राप्त करती है, उसे बड़े भूस्वामियों की सम्पत्ति उसी तरह से ले लेनी चाहिए, जिस तरह उद्योग में कारख़ानेदारों की सम्पत्ति ले ली जायेगी।” (वही, पृ. 387)
अब एंगेल्स के उपरोक्त दो उद्धरणों की रोशनी में भारत में मौजूदा किसान आन्दोलन में सक्रिय नरोदवादी कम्युनिस्टों और उसका समर्थन कर रहे (क्योंकि उनकी औक़ात इतनी ही है!) ट्रॉट-बुण्डवादियों के राजनीतिक व्यवहार की समीक्षा कीजिये। इनमें से पहले, यानी नरोदवादी कम्युनिस्ट, धनी किसानों-कुलकों की माँगों पर तो एकदम जुझारू तरीक़े से लड़ने को तैयार हैं, लेकिन पंजाब के ग़रीब खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों की माँगों को उठाने की बात तक नहीं करते। अभी जब हाल ही में इन्हीं धनी किसानों व कुलकों ने लॉकडाउन में श्रम आपूर्ति में कमी और खेतिहर मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के मद्देनज़र खेत मज़दूरी की अधिकतम सीमा तय करने और उसे ज़बरन खेत मज़दूरों पर लादने का काम किया था, तो इनके मुँह में दही जमी हुई थी। आज भी किसानों के आन्दोलन में ये धनी किसानों व कुलकों के सामने यह सवाल नहीं उठाते कि अपने लिए लाभकारी मूल्य माँगते हुए, वे अपने खेतों में काम करने वाले खेतिहर मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे के कार्यदिवस, (लम्बे कार्य-अनुबन्ध की सूरत में) साप्ताहिक छुट्टी व अन्य श्रम क़ानून का मुद्दा क्यों नहीं उठाते? एंगेल्स ने किसान प्रश्न पर कम्युनिस्टों के इसी बर्ताव को ग़द्दारी का नाम दिया है, चाहे वह किसी भी नाम पर की जा रही हो, इज़ारेदार पूँजी के विरोध के नाम पर या फिर प्रान्तों के संघीय अधिकारों के नाम पर।
अन्त में यह याद दिलाना ज़रूरी है कि कुछ लोग आन्दोलनों का आकार देखकर रोमांचित हो जाते हैं। आज जो किसान आन्दोलन जारी है, उसमें शामिल किसानों के जनवादी अधिकारों के हनन और राजकीय दमन का हम भी विरोध करते हैं। लेकिन स्पष्ट है कि यह आन्दोलन धनी किसानों, उच्च-मध्यम किसानों, कुलकों व आढ़तियों के हितों की नुमाइन्दगी करता है। इस बात को तथ्यों के साथ सिद्ध किया जा सकता है। ऐसे में, इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र व चार्टर से किसी कम्युनिस्ट के सहमति रखने का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता है। चाहे कोई कुछ भी कहे, हर व्यक्ति जानता है कि मौजूदा आन्दोलन के केन्द्र में एक ही प्रमुख माँग है: लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बचाना और उसे बढ़ाना। यह माँग सीधे-सीधे मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग के विरुद्ध जाती है, जो या तो लाभकारी मूल्य पाते ही नहीं या फिर अपवादस्वरूप स्थितियों में पाते भी हैं, तो उसके बढ़ने से उन्हें नुक़सान ज़्यादा होता है क्योंकि वे मुख्य रूप से खेती के उत्पादों के ख़रीदार होते हैं, विक्रेता नहीं। ऐसे में, इस आन्दोलन में चाहें लाखों की भीड़ जुट जाये, यह कोई सर्वहारा वर्ग व ग़रीब किसान वर्ग का प्रगतिशील आन्दोलन नहीं बन सकता, बल्कि यह बड़े कारपोरेट पूँजीपति वर्ग और ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध है कि गाँव के ग़रीबों के बेशी श्रम को विनियोजित करने का मुख्य अधिकार किसका हो।
किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र और उसकी प्रगतिशीलता या प्रतिगामिता उसके आकार से नहीं तय होती, वरना हमें दुनिया भर में तमाम आन्दोलनों पर पुनर्विचार करना पड़ जायेगा जैसे कि राम मन्दिर आन्दोलन, नात्सी आन्दोलन जैसे खुले तौर पर दक्षिणपंथी/फ़ासीवादी आन्दोलन या छोटे मिल्कियों के तमाम आन्दोलन जो कि सीधे-सीधे दक्षिणपन्थी नहीं थे, लेकिन रूमानीवादी, पश्चद्रष्टा और मिलनैरियन होने के कारण ऐतिहासिक तौर पर प्रतिगामी आन्दोलन ही थे, जिनके हित मज़दूर वर्ग और ग़रीब मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ जाते थे।
एक दूसरी बात की ओर इशारा करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है। मेरा मानना है कि क्रान्तिकारी परिस्थितियों को छोड़कर पूँजीवाद के रोज़मर्रा के वर्ग संघर्षों में तात्कालिक तौर पर उन वर्गों के आन्दोलन में ज़्यादा जल्दी और ज़्यादा बड़ी भीड़ जुटती है और आगे भी जुटेगी, जिन वर्गों ने अभी सबकुछ खोया नहीं है और उनके पास खोने के लिए कुछ या बहुत-कुछ है। मिसाल के तौर पर, ख़ुदरा व्यापार में सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर व्यापारियों के आन्दोलनों में तुरन्त ज़्यादा बड़ी भीड़ जुट जाती है, किसानों के लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर ख़तरे के जवाब में होने वाले आन्दोलनों में भी तत्काल ज़्यादा बड़ी भीड़ जुट जाती है। कारण यह है कि ये आन्दोलन समूची पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती नहीं देते (न लघुकालिक तौर पर, और न ही दीर्घकालिक तौर पर) बल्कि उसी व्यवस्था के भीतर उन वर्गों के आन्दोलन होते हैं, जो कि सर्वहारा वर्ग द्वारा पैदा अधिशेष के विनियोजन में ज़्यादा बड़े हिस्से के लिए कशमकश कर रहे होते हैं।
इन वर्गों के आन्दोलन में इसलिए भी तात्कालिक तौर पर ज़्यादा जुटान होता है क्योंकि इनके पास वे संसाधन होते हैं जो कि उन्हें तत्काल गोलबन्द होने के योग्य बनाते हैं और ज़्यादा जुझारू रूप से लड़ने के योग्य बनाते हैं। मज़दूर वर्ग को अगर दो दिन की हड़ताल भी करनी होती है, तो उन्हें उसके लिए लम्बी तैयारी करनी पड़ती है क्योंकि आम तौर पर इस वर्ग के बड़े हिस्से के पास न तो कोई संचित पूँजी होती है और न ही बचत। उसके लिए छह महीने का राशन लेकर ट्रैक्टरों, ट्रकों, लॉरियों, कारों में लदकर राजधानी की ओर कूच करना सामान्यत: सम्भव नहीं होता है। यह भी एक तथ्य है, जिसे कोई नकार नहीं सकता है। पुलिस द्वारा सड़क पर लगाए गए सीमेण्टेड बोल्डर्स को भी ट्रैक्टरों के बूते धकेलना निश्चित रूप से ज़्यादा आसान हो जाता है, जिसपर एनडीटीवी मार्का लिबरल ही नहीं बल्कि तथाकथित कम्युनिस्ट भी लहालोट हैं! जिन वर्गों के पास अपने मुनाफे़ या सम्पत्ति की रक्षा के लिए आन्दोलन हेतु संसाधन-सम्पन्नता होती है, उनमें गोलबन्दी भी अधिक होती है, तात्कालिक तौर पर जुझारूपन भी अधिक होता है और वे ज़्यादा ‘ज़बरदस्त और धमाकेदार’ दिखते भी हैं। ऐसे आन्दोलनों में तात्कालिक तौर पर व्यक्तिगत नायकत्व की भी कई झलकें मिलती हैं, इसमें भी कोई भी ताज्जुब की बात नहीं है।
आख़िरी बात जिसे छोटे व मँझोले मिल्कियों के सारे आन्दोलनों के विषय में चिह्नित किया जाना चाहिए वह यह है कि इन वर्गों को सत्ता में कनिष्ठ ही सही एक हिस्सेदारी हासिल होती है और पूँजीवादी चुनावी राजनीति के भीतर भी उनकी एक हनक होती है। जब भी धनी किसानों का कोई आन्दोलन होता है तो कुछ मंत्रियों-नेताओं के इस्तीफ़े, विपक्ष की पार्टियों का उनके समर्थन में आ जाना, समस्त क्षेत्रीय कुलक-धनी किसान दलों का उनके साथ आ जाना हमने बार-बार देखा है। क्या आपको एक भी मज़दूर आन्दोलन याद है, जब किसी नेता-मंत्री ने सरकार से इस्तीफ़ा दिया हो? क्या श्रम क़ानूनों में पिछले तीन दशकों में हुए भयंकर संशोधनों पर कभी किसी पूँजीवादी चुनावी दल के मंत्री-नेता ने इस्तीफ़ा दिया है? नहीं! क्यों नहीं?? शहरी और खेतिहर मज़दूर मिलाकर उनकी आबादी क़रीब 57 से 59 करोड़ बैठती है; ग़रीब किसान क़रीब 10 करोड़ के आस-पास हैं। धनी और उच्च-मध्यम किसान तो मुश्किल से 3 से 4 करोड़ हैं। फिर उनके द्वारा अपने मुनाफ़े और विशेषाधिकारों को बचाने और बड़ी इज़ारेदार पूँजी से संरक्षण के लिए होने वाले आन्दोलन से बुर्जुआ संसदीय राजनीति में ऐसा भूचाल क्यों आ जाता है? ग्वालियर में मज़दूरों को गोलियों तक से भून दिया जाता है, तूतीकोरिन में आम मेहनतकश जनता पर गोलियाँ बरसाई जाती हैं, मारूति के मज़दूरों को प्राकृतिक न्याय के सारे तकाज़ों को ताक़ पर रखकर वर्षों तक जेलों में सड़ाया जाता है; तब ऐसा भूचाल क्यों नहीं आता? कल्पना करिए कि यदि कल को दिल्ली के 55 लाख से ज़्यादा मज़दूर राजधानी पर घेरा डाल दें, जैसे कि आज धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन ने डाल रखा है, तो क्या उन पर पानी की बौछारें और आंसू गैस के गोले दागे जायेंगे? नहीं! अगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के मज़दूर श्रम कानूनों में होने वाले बदलाव पर ऐसा कोई एकजुट आन्दोलन कर राजधानी का घेराव करते (जिसकी आज के बिखराव की स्थिति में तत्काल कोई आशा नहीं की जा सकती है), तो अधिक सम्भावना है कि हम अब तक किसी बड़े गोली काण्ड के साक्षी बन चुके होते। हम ऐसा कत्तई नहीं कह रहे हैं कि मौजूदा आन्दोलन के साथ राज्यसत्ता को वैसा ही बर्ताव करना चाहिए। ज़ाहिर है, हम किसी भी रूप में राजकीय दमन के ख़िलाफ़ हैं और मौजूदा आन्दोलन को राजधानी में आने से रोकने के लिए उन पर की गयी पानी की बौछारों व आँसू गैस के गोलों को दागने के भी ख़िलाफ़ हैं। लेकिन बड़ी इज़ारेदार पूँजी की नुमाइन्दगी करने वाली राज्यसत्ता की एक धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन पर प्रतिक्रिया और मज़दूरों के आन्दोलन पर प्रतिक्रिया में जो फ़र्क़ है, वह एक सच्चाई है और हर राजनीतिक व्यक्ति जो चाहे कहीं भी खड़ा हो, अपने दिल से यह सवाल पूछे कि यह सच है या नहीं, तो उसे यही जवाब मिलेगा कि यह सच है।
उपरोक्त सभी कारणों से वे वर्ग जिन्होंने अभी सबकुछ खोया नहीं है, और उनके पास खोने को बहुत-कुछ है, ग़ैर-क्रान्तिकारी परिस्थिति में, यानी पूँजीवादी व्यवस्था व समाज में रोज़मर्रा नियमित तौर पर जारी वर्ग संघर्षों में, तात्कालिक तौर पर ज़्यादा बड़ी गोलबन्दियों वाले आन्दोलन कर सकते हैं, तात्कालिक तौर पर ज़्यादा जुझारू और व्यक्तिगत नायकत्व की झलकियाँ दिखाने वाले आन्दोलन कर सकते हैं, तात्कालिक तौर पर ज़्यादा ‘स्पेक्टैक्युलर’ आन्दोलन कर सकते हैं, पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी अपने कारणों से इनके साथ होता है या इनका इस्तेमाल करता है, बुर्जुआ मीडिया का एक हिस्सा भी इन्हें लेकर भावुक रहता है और राज्यसत्ता भी उनके प्रति वैसा दमनकारी रुख़ नहीं अपनाती है जैसा कि वह मज़दूरों के किसी भी बड़े और जुझारू आन्दोलन के प्रति हमेशा अपनाती है।
क्रान्तिकारी परिस्थिति में और फ़ैसलाकुन वर्ग युद्ध में मज़दूर वर्ग अपने क्रान्तिकारी आन्दोलन में गोलबन्दी, संगठन, नेतृत्व और व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही प्रकार के नायकत्व की मिसालें देने में किसी भी वर्ग से आगे निकल जाता है और इतिहास इस बात का गवाह है क्योंकि यह वह वर्ग है जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पाने को सारी दुनिया है। रोज़मर्रा के आर्थिक संघर्षों में आम तौर पर उसके लड़ने और आन्दोलन के तौर-तरीक़े अलग होते हैं हालाँकि तमाम संसाधनों के अभाव में भी आर्थिक मसलों पर भी हुए कुछ ऐतिहासिक आन्दोलनों में मज़दूर वर्ग ने बहादुरी, क़ुर्बानी, गोलबन्दी और संगठन की ऐसी मिसालें पेश की हैं, जिनका कोई समानान्तर नहीं है।
लुब्बेलुबाब यह कि मौजूदा किसान आन्दोलन के जनवादी अधिकारों की हिमायत और उसके राजकीय दमन की मुख़ालफ़त करते हुए भी कम्युनिस्टों को उन बुनियादी बातों के बारे में नहीं भूलना चाहिए, जिनकी ओर फ़्रेडरिक एंगेल्स ने चिह्नित किया था। किसी आन्दोलन के वर्ग चरित्र का फ़ैसला उसकी नेतृत्वकारी शक्ति, उसके माँगपत्रक और उन हितों से होता है, जिनकी वह नुमाइन्दगी कर रहा होता है, न कि उसके आकार से। पराजयबोध का शिकार एक कम्युनिस्ट समुदाय भारत में है, जो हर आन्दोलन से ही अपने कमरे में बैठकर सोशल मीडिया पर आत्म-रोमांचन करता रहता है। सड़क पर कोई भी भीड़ देखकर उसे फुरफुरी और सुरसुरी होती है। बेहतर होता कि यह काम ये कम्युनिस्ट टटपुँजिया रूमानी क्रान्तिकारियों पर छोड़ देते, लेकिन सम्भवत: ये “कम्युनिस्ट” स्वयं वही हैं: टटपुँजिया रूमानी क्रान्तिकारी, जिनकी दर्जनों प्रजातियाँ इस समय हमारे देश के राजनीतिक जगत में पायी जाती हैं जैसे कि नरोदवादी, नव-नरोदवादी, क़ौमवादी, ट्रॉट-बुण्डवादी, लिबरल लेफ़्ट, लेफ़्ट लिबरल, इत्यादि!
ऐसे में, एंगेल्स की उपरोक्त रचना को एक बार फिर से पढ़ लेना इस प्रकार के संक्रमणों के प्रति एक काफ़ी प्रभावी वैक्सीन का काम कर सकता है, और मुझे एंगेल्स के जन्म की द्विशतवार्षिकी से बेहतर और कोई मौक़ा नहीं लगा कि उपरोक्त शानदार रचना की याद दिलायी जाये।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन