महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है! हमें पूँजीवाद का विकल्प पेश करना होगा!
अभिनव
पिछला वर्ष पूँजीवाद के लिए अच्छा नहीं बीता है। पिछले 5 वर्षों से जारी आर्थिक संकट के भँवर में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था लगातार गहरी फँसती जा रही है। अमेरिका और यूरोपीय संघ का पूँजीपति वर्ग बीच-बीच में संकट से उबरने के दावे करता रहता है। लेकिन इन दावों के बावजूद पूँजीवाद का संकट टलने का नाम नहीं ले रहा है। वास्तव में, पिछले तीस-चालीस साल में पूँजीवाद की आर्थिक सेहत कभी अच्छी नहीं रही है। यह लगातार एक मन्द मन्दी से जूझता रहा है। बीच-बीच में यह मन्द मन्दी भयंकर संकटों के रूप में उपस्थित होती रही है। 1997, 2001, 2005, 2007 और फिर 2010! पहले पूँजीवाद के संकट दो-तीन दशकों पर आते थे; फिर यह दशक भर में आने लगे; और अब पूँजीवाद सतत् संकटग्रस्त ही रहता है। बार-बार, लगातार उपस्थित हो रहे ये संकट साफ़ तौर पर दिखला रहे हैं कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पहले से कहीं ज्यादा कमज़ोर और खोखली हो चुकी है। पूँजीवाद के टुकड़ों पर पलने वाले अख़बारी कलमघसीट बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री लगातार हमें यह यक़ीन दिलाने की कोशिशों में पसीना बहाते रहते हैं कि पूँजीवाद ही मानवता के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है और इसका कोई विकल्प नहीं है। 1990 में रूस में समाजवाद के नक़ली झण्डे के गिरने पर इन लोगों ने समाजवाद की अन्तिम पराजय का काफ़ी शोर मचाया था। उसी समय से ये बुद्धिजीवी और पूँजीवादी राजनीतिज्ञ और चिन्तक यह दावे करते रहे हैं कि पूँजीवाद को चुनौती देने वाली अब कोई ताक़त नहीं बची है और मनुष्यता का अन्तिम पड़ाव पूँजीवाद ही है। लेकिन इन संकटों ने ऐसे दावे करने वाले तमाम कलमघसीटों के मुँह पर बार-बार करारा तमाचा लगाया है। पूँजीवाद न सिर्फ़ आर्थिक संकट के भँवर में अन्तिम तौर पर फँस गया है, बल्कि अब यह संकट राजनीतिक और सामाजिक संकट के रूप में भी सामने आ रहा है।
पूँजीपति वर्ग अपने ”अति-उत्पादन” के संकट का बोझ हमेशा मज़दूर वर्ग पर डालता है। इस बार भी वह ऐसा ही कर रहा है। ”अति-उत्पादन” के संकट, वित्तीय पूँजी के प्रचुरता के संकट और उसके बाद बैंकों को बचाने के लिए अरबों-ख़रबों की मात्रा में जनता के धन को उड़ा देने के कारण पैदा हुई मुद्रा की कमी से निपटने के लिए पूँजीवादी सरकारें पश्चिमी देशों में, ख़ास तौर पर, अमेरिका और यूरोप के देशों में, जनता के शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार पर होने वाले ख़र्च में कटौती कर रही हैं। इसके कारण आम ग़रीब मेहनतकश जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य आदि की जो सुविधाएँ सहज उपलब्ध थीं, वे उनसे छीनीं जा रही हैं। मज़दूरों के लिए अपने बच्चों को शिक्षा दिला पाना, उनके रोज़गार का इन्तज़ाम कर पाना और दवा-इलाज़ करा पाना तक मुश्क़िल हो रहा है। इसके ख़िलाफ़ अमेरिका से लेकर यूरोप तक मज़दूर वर्ग और आम मध्य वर्ग की आबादी सड़कों पर उतर रही है और बैंकों और वित्तीय पूँजी की मुख़ालफ़त कर रही है। पश्चिमी पूँजीवादी देशों में जन्मा संकट एशिया और अफ़्रीका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में अभी अपने आपको पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर रहा है। लेकिन जल्द ही ये साम्राज्यवादी देश अपने संकट का बोझ एशिया और अफ़्रीका के पिछड़े पूँजीवादी देशों की ग़रीब मेहनतकश जनता पर डालेंगे। उस सूरत में यहाँ भी मज़दूरों का शोषण और ज्यादा सघन और व्यापक बनाया जायेगा। यहाँ भी बड़े पैमाने पर छँटनी, तालाबन्दी और बेरोज़गारी बढ़ेगी। देर-सबेर यह संकट, जो आज पूँजीवादी विश्व के स्वर्ग के तलघर में हाहाकार मचा रहा है, एशिया और अफ़्रीका के पिछड़े पूँजीवादी देशों की आम ग़रीब आबादी पर कहर बनकर टूटेगा। ऐसे में, इन देशों में विस्फोटक सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ पैदा होंगी। और पूँजीवाद के चिन्तक, विचारक और राजनीतिक चौधरी इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था का यह संकट इस व्यवस्था के साथ ही क़ब्र में जायेगा।
लेकिन सवाल यह है कि आज जो पूँजीवाद-विरोध अमेरिका और यूरोपीय देशों की सड़कों पर जनता कर रही है, उसमें किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन तक पहुँच पाने की क्षमता है या नहीं? यहाँ पर हम एक समस्या का सामना करते हैं। यह सच है कि आज पूँजीवाद अपने असमाधेय और अन्तकारी संकट से घिरा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इस संकट के कारण पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप धूल में नहीं मिल जायेगी। इस संकट ने उसे जर्जर और कमज़ोर बना दिया है। लेकिन अगर मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में एक संगठित प्रतिरोध मौजूद नहीं होगा, तो पूँजीवादी व्यवस्था जड़ता की ताक़त से टिकी रहेगी। ठीक उसी तरह जैसे अगर कोई बूढ़ा-बीमार आदमी भी कुर्सी को कसकर जकड़ कर बैठ जाये तो उसे वहाँ से हटाने के लिए संगठित बल प्रयोग की ज़रूरत पड़ेगी। आज यही संगठित शक्ति ग़ायब दिखती है।
अमेरिका में ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो’ आन्दोलन के दौरान जनता के अलग-अलग हिस्से अपनी-अपनी माँगों और शिकायतों को लेकर सड़कों पर उतरे। उन्होंने जगह-जगह कब्ज़े किये भी और वहाँ अपना कैम्प डालकर सामुदायिक रसोई आदि चलायी। लेकिन यह पूरा विरोध संगठित तौर पर और सोचे-समझे लक्ष्य को ध्यान में रखकर नहीं किया जा रहा था। लोग बेरोज़गारी, बेघरी और ग़रीबी से तंग आकर सड़कों पर उतर आये थे। आज तक अपनी साम्राज्यवादी लूट के बूते पर अमेरिका ने अपने देश के मज़दूर वर्ग और आम निम्न मध्यवर्ग को भी शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी भत्ता आदि जैसी कुछ सुविधाएँ दी थीं। लेकिन अभूतपूर्व संकट के इस दौर में इन सुविधाओं को जारी रख पाना अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के लिए सम्भव नहीं रह गया था। जब कई दशकों तक इन सुविधाओं के साथ जीने वाले मज़दूर वर्ग को इन सुविधाओं से वंचित किया गया तो उसका सड़कों पर स्वत:स्फूर्त ढंग से उतर पड़ना लाज़िमी था। साथ ही अमेरिकी के निम्न मध्यवर्ग के लिए भी यह एक अभूतपूर्व बात थी कि उसे स्वास्थ्य बीमा, शिक्षा सुविधाओं आदि से वंचित कर दिया जाये। वह भी अपनी समस्याओं को लेकर इन प्रदर्शनों में शामिल हो गया। साथ ही, अमेरिकी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के प्रति भी अमेरिकी जनता में सबप्राइम संकट और आवास संकट के समय से ही एक गुस्सा पनप रहा था, जो कि सरकार द्वारा बैंकों को बेलआउट पैकजों के दिये जाने के साथ भड़क उठा। अलग-अलग निम्न वर्गों के असन्तोषों के स्वत:स्फूर्त तरीक़े से एक ही मौक़े पर फूट पड़ने के साथ ही यह आन्दोलन शुरू हुआ। ज्यादातर मौक़ों पर यह आन्दोलन पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को दीवालिया बताता है, लेकिन अन्त में वह इस पूरी व्यवस्था को एक संगठित प्रयास से उखाड़ फेंकने का आह्वान नहीं करता! अन्त में वह एक माँग करता है, और वह भी उसी पूँजीवादी व्यवस्था से! और वह माँग क्या है? वह माँग है वित्तीय पूँजी की तानाशाही को ख़त्म करके ”कल्याणकारी” पूँजीवादी राज्य की ओर वापस लौटना! यह पूँजी की ही तानाशाही को ख़त्म कर एक समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने का आह्वान नहीं करता। इस तरह से इस आन्दोलन की अव्यक्त चाहत है एक बेहतर मानवोन्मुख कल्याणकारी सन्त पूँजीवाद की, न कि पूँजीवाद के विकल्प की, चाहे यह समाजवादी या क्रान्तिकारी जुमलेबाज़ी कितनी भी करे। यह आन्दोलन वास्तव में अमेरिका के भूतपूर्व केनेडीकालीन ”कल्याणकारी” नीतियों के नॉस्टैल्जिया से संचालित है। ज़ाहिर है कि इसके पीछे कोई क्रान्तिकारी विचारधारा और क्रान्तिकारी पार्टी नहीं है। इस आन्दोलन में जो अराजकतावादी, पार्टी और नेतृत्व का विरोध करने वाली ताक़तें मौजूद थीं, वे इस कमी को पूरा करने की बजाय इसका जश्न मना रही थीं। वे जनता के बीच समाजवाद और मज़दूर सत्ता का विकल्प पेश करने की बजाय रूस और चीन में समाजवाद के प्रयोगों की असफलता का हवाला देकर इस बात का प्रचार कर रही थीं कि नेतृत्व और संगठन का मौजूद न होना एक अच्छी बात है! नतीजतन, विचारधारा और संगठन के अभाव में कुछ समय में ही यह आन्दोलन बिखर गया। समाजवाद के पहले के प्रयोगों के सकारात्मक-नकारात्मक का नीर-क्षीर-विवेक करके समाजवाद और मज़दूर वर्ग की सत्ता के और उन्नत प्रयोगों की ओर आगे बढ़ने की बजाय इस आन्दोलन में जो कुछ समूह सक्रिय थे, वे समाजवाद और पूँजीवाद दोनों की मुख़ालफ़त करने का दावा कर रहे थे! लेकिन वे खुद कौन-सा विकल्प दे रहे थे, यह अन्त तक एक गोपनीय बात बनी रही! जनता अपने गुस्से से लगातार इस आन्दोलन में सक्रिय रही। लेकिन किसी विकल्प, नेतृत्व और संगठन की अभाव में अन्त में वह एक अन्धी गली में पहुँच गयी, जिसके आगे का रास्ता किसी को नहीं मालूम था। अन्तत: स्वत:स्फूर्तता का ईंधन समाप्त हो गया और आन्दोलन बिखर गया।
स्पष्ट है कि पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प देने का काम सिर्फ़ एक विचारधारा ने किया है — मज़दूर वर्ग की विचारधारा, यानी मार्क्सवाद- लेनिनवाद-माओवाद ने। यह क्रान्ति का विज्ञान है। हर विज्ञान की तरह यह विज्ञान भी अपना निषेध करते हुए उन्नत होता है। यानी अपने प्रयोगों की ग़लतियों, कमियों और ख़ामियों को दूर करते हुए ही मार्क्सवादी विचारधारा उन्नत होती है। आज अगर पूँजीवाद का एक कारगर विकल्प पेश करना है, तो अराजकतावादी और सर्वखण्डनवादी रुख़ को छोड़कर मज़दूर वर्ग को उसकी विचारधारा की रोशनी में गोलबन्द और संगठित करना होगा। मज़दूर वर्ग पूँजीवादी समाज का सबसे विशाल, सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है। यही वह वर्ग है जो सामाजिक तौर पर समूचा उत्पादन करता है। आज जो संकट पूँजीवादी व्यवस्था को डाँवाडोल किये हुए है, उसका कारण यही है कि उत्पादन तो पूरा मज़दूर वर्ग सामाजिक तौर पर करता है, लेकिन उसके फल को कुछ निजी मालिक व्यक्तिगत तौर पर हड़प जाते हैं। यह संकट केवल एक तरह से हल हो सकता है — एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण के जरिये जिसमें उत्पादन भी सामाजिक हो और उसका मालिकाना और वितरण भी सामाजिक, यानी, एक समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के जरिये। ऐसी व्यवस्था खड़ी करने का काम महज़ बैंकों का विरोध करने और कल्याणकारी राज्य की वापसी की माँग करने, और महज़ स्वत:स्फूर्त प्रतिरोध आन्दोलनों के जरिये नहीं हो सकता है; ऐसी व्यवस्था निर्मित करने का काम महज़ मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे में कुछ सुधार और बेहतरी की माँग करने से नहीं हो सकता है। ऐसी व्यवस्था तभी खड़ी की जा सकती है जब पूरी की पूरी पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश किया जाये, मज़दूर वर्ग की विचारधारा और उसके संगठन के जरिये इस विकल्प को क्रान्तिकारी रास्ते से लागू किया जाये।
आज दुनिया भर में जो पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन हो रहे हैं उनकी कुछ गम्भीर कमियाँ उन्हें कोई विकल्प नहीं पेश करने देंगी। ये आन्दोलन स्वत:स्फूर्त आन्दोलन हैं, मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में चल रहे सचेतन जनसंघर्ष नहीं। इन आन्दोलनों का कोई सांगठनिक ढाँचा, सदस्यता ढाँचा आदि नहीं है। इनकी कोई अभिव्यक्त विचारधारा नहीं है, और अराजकतावाद का प्रभाव इन पर सबसे ज्यादा है। इन आन्दोलनों का कोई अभिव्यक्त विकल्प नहीं है; जो विकल्प इनके नारों से झलकता है वह भूमण्डलीकरण के दौर के नवउदारवादी वित्तीय इज़ारेदारी वाले पूँजीवादी कारपोरेट राज्य से ”कल्याणकारी” राज्य की ओर वापस जाने का विकल्प है, जो कि अब असम्भव है। वे पूँजीवाद के विकल्प की गाहे-बगाहे बात भर करते हैं, लेकिन कोई विकल्प देते नहीं। इन आन्दोलनों का कोई नेतृत्व नहीं है और ये पूरी तरह स्वत:स्फूर्तता पर टिके हुए हैं। यही कारण है कि अधिकांश जगहों पर अब ये आन्दोलन बिखराव का शिकार हैं।
यह सच है कि इन स्वत:स्फूर्त आन्दोलनों के फूटने की परिघटना ने पूँजीवाद के अजरता-अमरता के दावों का एक बार फिर से मख़ौल बना दिया है। लेकिन आज पहले से ख़ारिज दावों को फिर ख़ारिज करने का वक्त नहीं है। आज मज़दूर वर्ग को उसके हिरावल के नेतृत्व में राजनीति तौर पर गोलबन्द और संगठित करने का समय है। कोई भी प्रयास जो इस पैमाने पर खरा नहीं उतरता वह ज़रूरत से कम ही होगा। मौजूदा आन्दोलन भी पूँजीवाद के स्वत:स्फूर्त विरोध पर जाकर ख़त्म हो जाते हैं। बदहाली से तंग जनता बिलबिलाकर सड़कों पर उतर आयी है। लेकिन जनता के गुस्से के इस विस्फोट को एक रचनात्मक क्रान्तिकारी दिशा देने का काम कोई क्रान्तिकारी पार्टी ही कर सकती है। हमारे देश में भी आने वाले समय में विस्फोट होने वाले हैं, और इससे भी भयंकर विस्फोट। कल भारत का मज़दूर वर्ग ऐसे किसी भी जनविस्फोट को एक सही दिशा दे सके, इसके लिए ज़रूरी है कि पहले वह स्वयं को एक सच्ची क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के तहत संगठित करे। आज ऐसी कोई अखिल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं है। जो बिखरे हुए कम्युनिस्ट समूह और ग्रुप मौजूद हैं, उनमें से ज्यादातर पुरानी घिसी-पिटी सोच पर कवायद किये जा रहे हैं, और भारत को पूँजीवादी देश मानने की बजाय, उसे एक अर्द्धसामन्ती और अर्द्ध-औपनिवेशिक देश मानने की ज़िद पर अड़े हुए हैं। सांगठनिक तौर पर, ये कम्युनिस्ट बोल्शेविक संस्कृति और अनुशासन को खो चुके हैं। इनमें से अधिकांश का नेतृत्व कठमुल्लावादी और अवसरवादी हो चुका है। ऐसे में, आज एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण पर बल देना होगा। यह काम हमें अपने हाथ में तत्काल लेना होगा। मौजूदा अन्तरराष्ट्रीय हालात एक बेहद उथल-पुथल भरे भविष्य की ओर संकेत कर रहे हैं। आने वाले तीन-चार दशक बेहद झंझावाती होने वाले हैं। हम अगर ऐसे मौक़े के लिए तैयार नहीं हो सके, और क्रान्ति की घड़ी हमारे हाथ से निकल गयी, तो हमारी सज़ा होगी — फ़ासीवाद! सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक माओ ने एक बार कहा था, ”धरती पर हर चीज़ भयंकर अराजकता में है। हमारे लिए एक शानदार स्थिति है!” लेकिन ऐसी कोई भी शानदार स्थिति खुद-ब-खुद क्रान्ति में तब्दील नहीं होती। उसे क्रान्ति में तब्दील करने के लिए क्रान्तिकारी विचारधारा, क्रान्तिकारी संगठन और क्रान्तिकारी आन्दोलन की मौजूदगी अनिवार्य है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2012
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