पंचकूला हिंसा और राम रहीम परिघटना : एक विश्लेषण
कविता कृष्णपल्लवी
बलात्कारी और हत्यारे बाबा राम रहीम की गिरफ्तारी और सज़ा के समय पंचकूला तथा हरियाणा व पंजाब के कई शहरों में हुई हिंसा और राम रहीम परिघटना की सच्चाई को समझने के लिए पंजाब-हरियाणा में डेरों की राजनीति के इतिहास और वर्तमान को समझना ज़रूरी है।
पंजाब में डेरों की राजनीति का एक लम्बा इतिहास रहा है। यूँ तो पंजाब में डेरों का इतिहास काफ़ी पुराना रहा है, लेकिन आज़ादी के बाद के वर्षों में सिख धर्म के गुरुद्वारों पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के माध्यम से जाट सिखों के ख़ुशहाल मालिक किसान वर्ग का राजनीतिक-सामाजिक वर्चस्व मज़बूत होने के बाद और उनके अकाली दल की राजनीति का मुख्य सामाजिक अवलम्ब बनने के बाद अलग-अलग डेरे दलित और पिछड़ी जातियों की सिख और हिन्दू आबादी को एकजुट करने वाले केन्द्र बनते चले गये। यूँ तो पंजाब-हरियाणा में ऐसे कुल 9000 डेरे हैं। इनमें से कुछ के अनुयायी लाखों हैं तो कुछ के सैकड़ों में। इन डेरों में राधा स्वामी (ब्यास), सच्चा सौदा, निरंकारी, नामधारी, सतलोक आश्रम, दिब्य ज्योति जागरण संस्थान (नूरमहल), डेरा सन्त भनियारवाला, डेरा सचखण्ड (बल्लान), डेरा सन्त फुरीवाला, डेरा बाबा बुध दल, डेरा बेगोवाल नानकसर वाले आदि प्रमुख हैं। ये डेरे सिख गुरुओं के अतिरिक्त कबीर, रविदास आदि को भी महत्व देते हैं, दसवें गुरु को अन्तिम मानने की जगह जीवित गुरुओं की परम्परा को मानते रहे हैं तथा कबीर-रविदास से लेकर अपने जीवित गुरुओं तक की वाणी को गुरुग्रन्थ साहिब के बराबर महत्व देते रहे हैं। इसके चलते जाट सिखों के साथ इन डेरों का प्राय: टकराव होता रहा है। लेकिन इस धार्मिक टकराव की अन्तर्वस्तु अतीत में मुख्यत: जाट मालिक किसानों और भूमिहीन दलित और पिछड़ी जातियों के बीच के अन्तरविरोध में निहित थी। कालान्तर में पंजाब की इन दलित व पिछड़ी जातियों के बीच से भी एक ख़ुशहाल मध्यवर्गीय तबक़ा पैदा हुआ जो सामाजिक-राजनीतिक दायरे में अपनी दख़ल बढ़ाने के लिए कोशिशें करने लगा। नतीजतन डेरों और जाट सिखों के वर्चस्व वाले गुरुद्वारों के बीच के टकराव का चरित्र बदल गया। ज़्यादातर डेरे अब दलितों-पिछड़ों के बीच से उभरे नये बुर्जुआ और निम्न बुर्जुआ वर्ग की राजनीतिक आकांक्षाओं के केन्द्र और नये ‘पावर सेण्टर’ बन गये। धार्मिक भावनाओं के सहारे जहाँ कुलक जाट सिख ग़रीब जाट सिखों को अपने साथ जोड़ लिया करते थे, वहीं इसी हथकण्डे के सहारे दलित और पिछड़ी जातियों के बुर्जुआ और निम्न बुर्जुआ इन जातियों के ग़रीबों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाते थे। इस तरह पंजाब में वर्गीय अन्तरविरोध जातिगत पहचान की धार्मिक राजनीति की विकृति-विरूपित चेतना के रूप में अभिव्यक्त होते रहे हैं।
पारम्परिक तौर पर पंजाब में जाट सिख मालिक किसानों का बहुलांश अकाली दल का सामाजिक आधार हुआ करता था और हिन्दू और सिख शहरी मध्य वर्ग के साथ गाँवों-शहरों की दलित एवं पिछड़ी जातियाँ मुख्यत: कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करती थीं। मुख्यत: 1990 के दशक में बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के इस परम्परागत वोट बैंक में सीमित सेंध लगायी। गुरुद्वारों की राजनीति का मुकाबला कांग्रेस मुख्यत: डेरा प्रमुखों की सहायता से किया करती थी। फिर डेरों के सामाजिक आधार का लाभ उठाने के लिए अकाली दल के नेताओं ने भी अलग-अलग डेरों के साथ सौदेबाज़ी और जोड़-तोड़ की राजनीति शुरु की और डेरा प्रमुख भी इस सौदेबाज़ी में पीछे नहीं रहे। वस्तुत: यह जाट कुलकों और पूँजीपतियों के साथ दलित और पिछड़ी जातियों के पूँजीपतियों और उच्च मध्यवर्ग की सत्ता के लिए सौदेबाज़ी का ही एक रूप था।
डेरा सच्चा सौदा की स्थापना मस्ताना बलूचिस्तानी उर्फ़ बेपरवाह मस्ताना महाराज ने सिरसा में 1948 में की थी। 1960 में उनकी मृत्यु के बाद शाह सतनाम सिंह ने डेरा प्रमुख की गद्दी सम्हाली। उनकी मृत्यु दिसम्बर 1991 में हुई। इसके पहले ही, सितम्बर 1990 में गुरमीत राम रहीम सिंह डेरा के प्रमुख पद पर नियुक्त हो चुके थे। 1990 तक डेरा पंजाब और हरियाणा के दलित ग़रीबों और पिछड़ी जाति के ग़रीब कारोबारी आबादी के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो चुका था और दोनों राज्यों की राजनीति में कांग्रेस के परोक्ष समर्थक की भूमिका निभाने लगा था, लेकिन राम रहीम ने डेरे की लोकप्रियता और राजनीतिक भूमिका को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने एक सर्वशक्तिमान माॅडर्न गुरु का अनूठा नया कल्ट निर्मित किया। सिरसा स्थित डेरा का मुख्यालय हथियारबन्द निजी सुरक्षाकर्मियों से लैस एक दुर्ग बन गया, जिसके भीतर भोग-विलास और ऐश्वर्य का एक स्वर्ग जगमगा रहा था। डेरे को और राम-रहीम को लेकर बहुतेरे विवाद उठे और यौन उत्पीड़न के आरोप कई बार लगे लेकिन आतंक और राजनीतिक दबाव से उन सबको दबा दिया गया। ऐसे ही आरोपों में दो साध्वियों के साथ बलात्कार का आरोप था, जिसके लिए राम रहीम को कोर्ट ने दोषी ठहराया है। पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति की हत्या का मुक़दमा अभी भी कोर्ट में लम्बित है।
राम रहीम की ख्याति और ग्लैमर बढ़ने के साथ ही दलित और पिछड़ी जातियों के बीच से उभरे मध्य वर्ग और अनिवासी भारतीयों के अतिरिक्त अब अन्य जातियों के छोटे-मोटे कारोबारी और बड़े व्यापारी भी बाबा के शिष्य हो गये और उनकी संख्या करोड़ के आसपास जा पहुँची। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ढेरों निजी कारों के पीछे ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ लिखा हुआ दीखने लगा।
डेरा सच्चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाज़ी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में डेरा सच्चा सौदा ने अकाली दल उम्मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी थी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।
वर्गीय आधार पर यदि देखें तो डेरा सच्चा सौदा के भाजपा के साथ खड़े होने के मूल कारण वही हैं जो ढेरों दलित पार्टियों और नेताओं तथा पिछड़ी जातियों के कुलकों-फ़ार्मरों की क्षेत्रीय पार्टियों के भाजपा के साथ गाँठ जोड़ने के हैं। यह दलित और पिछड़ी जातियों के मध्य वर्ग के बड़े हिस्से, कुलकों-फ़ार्मरों और पूँजीपतियों के फासीवाद और नव-उदारवादी नीतियों के पक्ष में खड़े होने की परिघटना को ही दर्शाता है।
यदि संख्यात्मक रूप से देखें तो अभी भी राम रहीम के अधिकांश अनुयायी आम ग़रीब घरों के लोग – मेहनतकश और छोटे कारोबारी हैं जो ज़्यादातर दलित और अतिपिछड़ी जातियों से आते हैं। ऐसे घरों में थोड़ी-बहुत या पर्याप्त शिक्षा पाये हुए युवाओं की भारी फ़ौज तैयार हुई है, जो बेकार है और जिसे मौजूदा समय में अपना कोई भविष्य नहीं दीखता। किसी क्रान्तिकारी विकल्प या क्रान्तिकारी प्रचार के प्रभाव के अभाव में युवाओं की यह भीड़ गहन अवसाद और दिशाहीन आक्रोश के गर्त में जा गिरती है। यही वह आबादी है जो फासिस्टों के लोकरंजक नारों, धार्मिक कट्टरपन्थी प्रचारों और अन्ध-राष्ट्रवादी जुनूनी चीख़-पुकार के प्रभाव में सबसे आसानी से आ जाती है। यह आबादी किसी चमत्कारी गुरु या किसी फासिस्ट जुनून के वशीभूत होकर सड़कों पर बर्बरता का ताण्डव रच सकती है। पंचकूला में सड़कों पर हिंसा का नंगनाच करने वाले 20 से 25 वर्ष के युवा इसी कि़स्म की आबादी का हिस्सा थे, जो फासिस्ट कि़स्म की ‘मिथ्या चेतना’ के वशीभूत थे।
फासीवाद वित्तीय पूँजी के धुर-प्रतिक्रियावादी चरित्र के वर्गीय हितों की नुमाइन्दगी करता है और साथ ही, वह मध्य वर्ग का धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। केवल मध्य वर्ग ही नहीं, उत्पादन की प्रक्रिया से बाहर धकेल दिये गये विमानवीकृत मज़दूर और उजड़ते छोटे कारोबारी भी फासिस्ट गुण्डों के गिरोहों में जा शामिल होते हैं, विशेषकर उनकी युवा पीढ़ी।
मक्सिम गोर्की ने 1920 के दशक में जो लिखा था वह आज भी प्रासंगिक और ग़ौरतलब है : “जिन्होंने भी फासिस्टों की परेडें देखी हैं, वे जानते हैं कि ये परेडें उन नौजवानों की होती हैं, जिनकी रीढ़ें रोग से सूजी हुई हैं, जिनके शरीरों पर चकत्ते पड़े हुए हैं और जो क्षयग्रस्त हैं, किन्तु जो बीमार आदमियों के उन्माद से जीवित रहना चाहते हैं और जो ऐसी किसी भी चीज़ को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं जो उनके विषाक्त रक्त की सड़ान्ध को बिखेरने की उन्हें आज़ादी देती है। इन हज़ारों कान्तिहीन और रक्तहीन चेहरों में स्वस्थ और चमकते चेहरे दूर से ही नज़र आ जाते हैं, क्योंकि उनकी संख्या इतनी नगण्य है। निश्चय ही ये थोड़े-से चमकते हुए चेहरे सर्वहारा वर्ग के सचेत दुश्मनों के हैं या दुस्साहसी टटपूँजियों के हैं जो कल तक सोशल डेमोक्रेट थे या छोटे व्यापारी थे और अब बड़े व्यापारी बनना चाहते हैं और जिनके वोट, जर्मनी के फासिस्ट नेता मज़दूरों और किसानों के हिस्से की लकड़ी या आलू मुफ़्त में देकर ख़रीद लेते हैं। होटलों के हेड-वेटर चाहते हैं कि वे अपने-अपने रेस्तराँ के मालिक हों, छोटे चोर चाहते हैं कि शासन बड़े चोरों को लूटमार और चोरी करने की जो छूट देता है वह उन्हें भी दी जाये – ऐसे लोगों की पाँत में से फासिज़्म अपने रंगरूट भरती करता है। फासिस्टों की परेड एक साथ ही पूँजीवाद की शक्ति और उसकी कमज़ोरियों की परेड होती है।
हमें आँखें बन्द नहीं कर लेनी चाहिए: फासिस्टों की जमात में मज़दूरों की संख्या भी कम नहीं है – ऐसे मज़दूरों की संख्या जो अभी तक क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की निर्णयकारी शक्ति से बेख़बर हैं। हमें अपनेआप से यह तथ्य भी नहीं छिपाना चाहिए कि संसार का उपजीवी – पूँजीवाद – आज भी काफ़ी मज़बूत है, क्योंकि मज़दूर और किसान अभी भी उसके हाथ में हथियार और भोजन देते जाते हैं और उसे अपने रक्त और मांस से पौष्टिक तत्व प्रदान करते जाते हैं। इस विप्लवी ज़माने का यह सबसे क्षोभजनक और शर्मनाक तथ्य है। जिस विनम्रता से मज़दूर वर्ग अपने दुश्मन को खिलाता-पिलाता है, वह कितनी घृणास्पद है। सोशल डेमोक्रेट नेताओं ने उसके मन में यह विनम्रता पैदा की है। इन नेताओं के नाम हमेशा के लिए शर्म के पीले और चिपचिपे रंग से पुते रहेंगे। कितने आश्चर्य की बात है कि बेकार और भूखे लोग इन तथ्यों को बर्दाश्त करते चले जाते हैं, जैसे मिसाल के लिए, बाज़ार के भाव ऊँचे रखने के लिए बड़ी तादाद में अनाज को नष्ट करना, वह भी ऐसे समय में जब बेरोज़गारी बढ़ रही है, वेतन की दरें गिर रही हैं और मध्यवर्ग के लोगों तक की ख़रीदने की क्षमता घटती जा रही है।” (सर्वहारा वर्ग का मानववाद)
यह मानना एक भारी भूल होगी कि फासिस्टों की क़तारों की भरती व ट्रेनिंग केवल आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठनों में ही होती है। जब असाध्य संकट से ग्रस्त समूचा पूँजीवादी समाज ही फासीवाद के लिए उपजाऊ ज़मीन बन गया है तो फासिस्ट दस्तों की ढेरों फुटकल नर्सरियाँ भी अस्तित्व में आ गयी हैं। हिन्दू युवा वाहिनी, श्रीराम सेने जैसे सैकड़ों प्रशिक्षण केन्द्रों के अतिरिक्त राम रहीम के डेरे जैसी ढेरों ऐसी फुटकल नर्सरियाँ हैं, जहाँ धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवाद की किसिम-किसिम की फ़सलें तैयार की जा रही हैं।
फासीवाद के सरगना राम रहीम, आसाराम, रामपाल जैसे किसी भी बाबा का भरपूर इस्तेमाल करके उसे ठिकाने लगा देंगे और फिर ज़रूरत मुताबिक़ अपने लिए नये-नये बाबे ढूँढ़ लेंगे। और फिर मुख्य काम तो संघ की शाखाओं में हो ही रहा है।
मज़दूर बिगुल,सितम्बर 2017
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