मुनाफ़े के गोरखधन्धे में बलि चढ़ता विज्ञान और छटपटाता इन्सान
नवमीत
कहने को तो विज्ञान मानव का सेवक है लेकिन पूँजीवाद में यह मात्र मुनाफ़ा कूटने का एक साधन बनकर रह गया है। मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली भूख से ग्रस्त यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव के साथ-साथ मानवीय मूल्य और मानवीय संवेदनाओं को भी निरन्तर निगलती जा रही है। विज्ञान की ही एक विधा चिकित्सा विज्ञान का उदाहरण हम देख सकते हैं। विज्ञान की किसी भी अन्य विधा की तरह चिकित्सा विज्ञान ने भी पिछले कुछ दशकों में अभूतपूर्व तरक़्क़ी की है और इसकी बदौलत हमने अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल की हैं और अनेक बीमारियों पर विजय पायी है तथा अनेक बीमारियों से लड़ने में हम सक्षम हुए हैं। लेकिन विज्ञान की अन्य धाराओं की तरह ही चिकित्सा विज्ञान भी पूँजीवाद के चंगुल में इस तरह से जकड़ा हुआ है कि उच्चतम मानवीय मूल्यों पर आधारित यह विज्ञान भी मात्र मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया बनकर रह गया है। इस व्यवस्था में मरीज़ को मरीज़ नहीं बल्कि ग्राहक माना जाता है जिसको दवाएँ और इलाज बेचा जाता है। डॉक्टरों से लेकर दवा कम्पनियाँ और यहाँ तक कि इस व्यवसाय से जुड़े अधिकतर लोग मुनाफ़े की इस दलदल में बुरी तरह से धँसे हुए हैं।
इसी सन्दर्भ में कुछ दिन पहले की ख़बर है कि अमेरिका की एक दवा कम्पनी टूरिंग फ़ार्मा ने “डैराप्रिम” नामक एक दवा को बनाने और बेचने के अधिकार ख़रीदे हैं। यह दवा “टोक्सोप्लाज्मोसिस” नामक एक बीमारी व कुछ अन्य दवाओं के साथ एड्स के इलाज में इस्तेमाल की जाती है। लाखों एड्स पीड़ितों के लिए यह दवा संजीवनी की तरह काम करती है। इस दवा के अधिकार ख़रीदते ही इस कम्पनी ने पहला काम यह किया कि इस दवा की क़ीमत, जो पहले प्रति टेबलेट 13.50 डॉलर थी, अगले ही दिन बढ़ाकर 750 अमेरिकी डॉलर प्रति टेबलेट कर दी। मरीज के इलाज पर होने वाला ख़र्चा जो पहले महज़ 1130 डॉलर था, बढ़कर 63000 डॉलर हो गया है। इस हिसाब से अगर एक साल के इलाज का ख़र्चा देखें तो यह अब 600000 डॉलर यानी तकरीबन 39000000 रुपये हो जाता है। कम्पनी के सीईओ मार्टिन श्क्रेली ने इस बढ़ोत्तरी के बारे में बेशर्मी से कहा कि उसको अपनी कम्पनी के शेयरहोल्डर्स के हितों का ध्यान रखना है। ज़ाहिर है कि लोगों के इलाज से इनको कोई मतलब नहीं है। बहरहाल 20%, 50%, 100% या 200% तक भी क़ीमतों में बढ़ोतरी अक्सर होती रहती हैं लेकिन इस बार तो इतनी बढ़ोत्तरी की गयी है कि इसका विरोध पूँजीवादी मीडिया में भी देखने को मिल रहा है। चौतरफ़ा थू-थू होने पर इतनी भारी-भरकम बढ़ोत्तरी को तो शायद यह कम्पनी कम भी कर दे, लेकिन बात सिर्फ़ एक कम्पनी या एक दवा की नहीं है। असल में यह वा़कया पानी में डूबे हुए हिमखण्ड का बहुत थोड़ा-सा दिखने वाला हिस्सा मात्र है। पूरा हिमखण्ड तो बहुत बड़ा है जो दिखायी ही नहीं देता। हाँ हम यह ज़रूर कह सकते हैं कि यह घटनाक्रम मुनाफ़े पर आधारित इस व्यवस्था को नंगा करने वाला एक क्लासिकीय उदाहरण है।
सर्वविदित है कि ये कम्पनियाँ नयी दवाओं की सिर्फ़ मार्केटिंग और बिज़नेस करती हैं कोई आविष्कार नहीं। इस तरीक़े से इन कम्पनियों को लगातार फ़ायदा ही हुआ है। इनका यह फ़ायदा ज़ाहिर है मेहनतकश जनता की जेब पर बहुत भारी पड़ता है। लेकिन विश्वव्यापी आर्थिक संकट के चलते दवा कम्पनियों के मालिक भी मुनाफ़ा घटने से परेशान हैं। आर्थिक संकट में बाज़ार मालों से अटे पड़े होते हैं और व्यापक जनता की सापेक्षिक क्रय शक्ति नहीं के बराबर होती है जिसकी वजह से अधिकतर माल बिक नहीं पाते, नतीजा पूँजीपति को मुनाफ़ा नहीं मिल पाता। पूँजी के फँसने के चलते व्यापक रूप से बेरोज़गारी फ़ैल जाती है जिससे संकट और ज़्यादा बढ़ जाता है। इसको दवा उद्योग से जोड़कर देखें तो हम पाते हैं कि किसी भी अन्य उत्पाद की तरह दवा भी एक माल होती है। जब आर्थिक संकट आता है तो हर क्षेत्र की तरह यह इसको भी चपेट में ले लेता है। आज के समय में दवा उद्योग भी संकट से गुज़र रहा है। दूसरी तरफ़ अगले एक दशक के अन्दर अधिकतर दवाओं के पेटेण्ट भी ख़त्म होने वाले हैं, तो एकाधिकार ख़त्म होने पर इनको अरबों डॉलर का अतिरिक्त नुक़सान भी होगा। इसलिए ये अब अपना ध्यान कम इस्तेमाल होने वाली दवाओं पर केन्द्रित कर रहे हैं जिनमें प्रतियोगिता बहुत कम है। साफ़ है कि इस क्षेत्र में मनमाने दाम बढ़ाकर मुनाफ़े को बरकरार रखने की कोशिश की जा रही है। टूरिंग फ़ार्मा का यह क़दम भी इसी बात को साबित करता है।
दवा के दामों में बढ़ोत्तरी का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश करते हुए श्क्रेली कह रहा है कि क़ीमतों में यह वृद्धि दरअसल मरीजों के ही “फ़ायदे” के लिए है। श्क्रेली ने दलील दी है कि इस एक्स्ट्रा मुनाफ़े का इस्तेमाल “मेडिकल रिसर्च” के लिए किया जायेगा जिससे आगे चिकित्सा विज्ञान और मरीजों को ही फ़ायदा होगा। लेकिन जिस तरह का रिसर्च पूँजीपति करते हैं, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। एड्स एक लाइलाज बीमारी है जिसकी अभी तक कोई भी ऐसी दवा नहीं बनी है जो इसको पूरी तरह से ख़त्म कर दे और न ही इसकी कोई वैक्सीन अभी तक ईजाद हो पायी है। इस दिशा में जो भी रिसर्च शुरू होता है वो कभी भी पूरा नहीं हो पाता क्योंकि या तो बड़े दवा निर्माता लॉबिंग करके उसको रुकवा देते हैं या फिर पैसे की कमी के चलते वह आगे बढ़ ही नहीं पाता। इसके पीछे कारण यह है कि अगर कोई वैक्सीन या ऐसी दवा ईज़ाद हो गयी जो इस बीमारी को जड़ से ख़त्म कर दे तो इन कम्पनियों का मुनाफ़ा कम हो जायेगा जो ये मरीज़ को सालों तक दवा बेच कर कमाती हैं।
यह सिर्फ़ एड्स की दवा की बात नहीं है। 2007 में अल्बर्टा यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया था कि “डीसीए” नाम का एक यौगिक कैंसर की कोशिकाओं को प्राकृतिक रूप से ख़त्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्रयोगशाला में किये गये प्रयोगों में यह रसायन कई तरह के कैंसर से लड़ने में कारगर पाया गया था। कैंसर के अलावा भी माइटोकॉन्ड्रिया से सम्बन्धित कई बीमारियों में यह यौगिक लम्बे समय से प्रयोग किया जाता रहा है। इसके मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव भी वैज्ञानिकों को पता थे। लेकिन इस यौगिक के साथ एक दिक्कत थी। इसका पेटेण्ट नहीं करवाया जा सकता था। ज़ाहिर है बिना पेटेण्ट के इसमें मुनाफ़ा बहुत कम होना था तो इसके आगे रिसर्च के लिए किसी कम्पनी ने पैसा नहीं दिया। कुछ समय तक तो शोधकर्ताओं ने खु़द के पैसे से शोध को जारी रखने की कोशिश की लेकिन पैसे की गम्भीर कमी के चलते पिछले दो साल से इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं हो पाया है। खु़द के रिसर्च के नाम पर बड़ी (यहाँ तक कि मध्यम श्रेणी की भी) दवा कम्पनियाँ सिर्फ़ इतना करती हैं कि छोटी बायोटेक कम्पनियों से मूल रिसर्च फ़ार्मूले ख़रीद लेती हैं और उनका पेटेण्ट करवा कर मनमानी क़ीमत पर बेचती हैं।
इन बातों से यह बिलकुल साफ़ दिखता है कि ये दवा कम्पनियाँ इलाज के लिए न तो कुछ ख़ास रिसर्च ही कर रही हैं और न ही रिसर्च पर पैसा लगा रही हैं। इनका मुख्य लक्ष्य जानलेवा बीमारियों के इलाज की दवा बनाना नहीं है बल्कि ऐसी दवाओं की मार्केटिंग करना और बेचना है जिनसे बीमारी लम्बी खिंचे। 1975 से 1997 के बीच में बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने 1233 नयी दवाएँ बाज़ार में उतारी थीं जिनमें से सिर्फ़ 1 प्रतिशत यानी 13 दवाएँ ही ऐसी थीं जो विकासशील देशों में लाखों लोगों की जानें लीलने वाले उष्णकटिबन्धीय रोगों के निदान में काम आती थीं। ज़ाहिर है इन देशों की मेहनतकश जनता की जान की कोई क़ीमत नहीं है क्योंकि वे लोग महँगी दवाओं को ख़रीदने की क्षमता नहीं रखते। असल में इन कम्पनियों की रिसर्च का मुख्य लक्ष्य “लाइफ़ स्टाइल डिज़ीज़” यानी मेहनत से दूर, आरामतलबी की ज़िन्दगी की वजह से होने वाली बीमारियों जैसे मोटापा और सौन्दर्य व विलासिता से सम्बन्धित रोगों जैसे गंजापन, झुर्रियाँ और नपुंसकता का इलाज ढूँढ़ना होता है। “मर्क” नामक एक बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनी का भूतपूर्व प्रमुख रॉय वेज्लस इस बात को खुलेआम स्वीकार करता है कि स्टॉकहोल्डरों वाली कोई भी कम्पनी अपने रिसर्च को तीसरी दुनिया के देशों में होने वाली बीमारियों के इलाज को ढूँढ़ने पर नहीं लगा सकती क्योंकि इससे उसका “दीवाला” पिट जायेगा। एक दवा कम्पनी में काम करने वाले शोधकर्ता ए.जे. स्लेटर ने “रॉयल सोसाइटी ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन एण्ड हाइजीन” नामक एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपे एक पर्चे में निष्कर्ष निकाला था कि किसी नयी एण्टीबायोटिक को बनाना बहुत महँगा पड़ता है और तीसरी दुनिया के देशों में उस दवा को बेचकर बहुत मुनाफ़ा नहीं कमाया जा सकता। साफ़ है कि इनके लिए मानवीय ज़िन्दगी से ज़्यादा क़ीमत मुनाफ़े की है।
अब अगर पेटेण्ट की बात करें तो विश्व व्यापार संगठन का एक समझौता है जो “बौद्धिक सम्पदा अधिकार के व्यापार-सम्बन्धी सम्बन्धी पहलुओं” पर आधारित है। अंग्रेज़ी में इसको TRIPS कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सभी सदस्यों के लिए इसको मानना अनिवार्य है। इस समझौते के अनुसार किसी भी कम्पनी को अपने पेटेण्ट का अधिकार 20 वर्ष तक मिलता है। मतलब सम्बन्धित दवा बनाने और बेचने के सर्वाधिकार उस कम्पनी के पास 20 साल तक रहते हैं। कहने को तो इस समझौते में एक अनुच्छेद यह भी डाला गया है कि आपातस्थिति में कोई सरकार उस देश में व्यापार करने वाली किसी भी कम्पनी को किसी पेटेण्ट दवा का फ़ॉर्मूला देने के लिए बाध्य कर सकती है और अमेरिका सहित यूरोप के तमाम विकसित पूँजीवादी देशों ने इस पर सहमति भी जतायी थी। लेकिन ये सभी साम्राज्यवादी देश भारत सहित एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों पर लगातार दबाव बनाये रखते हैं ताकि इस अनुच्छेद का कभी प्रयोग ही न हो सके। ज़ाहिर है इस तरह का कोई भी प्रस्ताव, जो साम्राज्यवादियों के हितों के प्रतिकूल हो, कभी भी प्रयोग में आ ही नहीं सकता। 2001 में दक्षिण अफ़्रीका की सरकार ने जब एड्स की दवा सस्ती करने के लिए ऐसा करने की कोशिश की थी तो अमेरिका ने दक्षिण अफ़्रीका को आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की धमकी देते हुए “व्यापार निगरानी सूची” में डाल दिया था। ज़ाहिर है कि अमेरिका या कोई भी साम्राज्यवादी देश पूँजीपतियों के मुनाफ़े की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता है।
इस प्रकार साफ़ देखा जा सकता है कि पूँजीवाद के लिए मुनाफ़ा ही एकमात्र मकसद होता है और पूँजीपति जो भी करते हैं, मुनाफ़े के लिए करते हैं। यह एक खुला रहस्य है कि मुनाफ़े के लिए दवा कम्पनियाँ किसी बीमारी के इलाज की बजाय उसको लम्बा खींचने के लिए पैसा लगाती हैं। दवाओं के दामों में बढ़ोत्तरी, पेटेण्ट के लिए कुत्ताघसीटी और नये रिसर्च को रोकने जैसी चीज़ें तो बहुत पहले से लगातार होती रही हैं लेकिन आज के समय में ये अपने नंगे और वीभत्स रूप में सबके सामने हैं। हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि इसका कारण पूँजीपतियों के मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली हवस है। शुरुआती कुछ समय को छोड़ दिया जाये तो पूरे इतिहास में पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग एक परजीवी की तरह समाज से चिपटा रहा है जो समाज का ख़ून चूसकर ज़िन्दा रहता है और बदले में बीमारी के अलावा कुछ नहीं देता। इसकी एवज में हम अगर समाजवादी रूस और चीन के उदाहरण देखें तो हम पायेंगे कि योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था के द्वारा किसी भी अन्य क्षेत्र के साथ ही चिकित्सा विज्ञान और जन स्वास्थ्य में भी अद्भुत चमत्कार किये जा सकते हैं। इन देशों के उदाहरणों से सिद्ध होता है कि अगर हम मुनाफ़े की बजाय इलाज पर ध्यान केन्द्रित करें तो क्या कुछ नहीं हासिल किया जा सकता। लेकिन उसके लिए ज़रूरी है कि गली-सड़ी इस परजीवी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाये और समता पर आधारित मेहनतकश के लोक स्वराज यानी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये। समाजवाद में मुनाफ़े पर टिकी कम्पनियों का राष्ट्रीकरण करके उनको मेहनतकश वर्ग के नियन्त्रण में कर दिया जायेगा। मानवीय मूल्यों पर आधारित चिकित्सा व्यवसाय और रिसर्च को पूँजी के चंगुल से छुड़ाकर मुक्त कर दिया जायेगा। तब विज्ञान की अन्य धाराओं की तरह चिकित्सा विज्ञान भी किसी के मुनाफ़े का गुलाम न रहकर मानव का सेवक बन जायेगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016
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