जनता के एक सच्चे लेखक एदुआर्दो गालिआनो की स्मृति में

लातिन अमेरिका के लेखक एदुआर्दो गालिआनो दुनिया की मेहनतकश और संघर्षरत जनता के हक़ में उठी एक सशक्त आवाज़ के रूप में पूरी दुनिया में जाने जाते थे। उनकी किताब ‘ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका’ (लातिन अमेरिका की खुली नसें) साम्राज्यवादी लूट और तबाही का पर्दाफ़ाश करने वाली एक अद्भुत रचना है। पिछली 13 अप्रैल को यह आवाज़ हमेशा के लिए शान्त हो गयी। बिगुल के पाठकों के लिए हम यहाँ उनके लेखन के दो छोटे अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। जल्द ही हम उनकी कुछ और ताक़तवर रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत करेंगे। – सं.

दुनिया

कोलम्बिया के सागर तट पर, नेगुआ शहर का एक आदमी आसमान में ऊपर चढ़ जाने में कामयाब हो गया।

वापस लौटने पर उसने अपनी यात्रा का वर्णन किया। उसने बताया कि ऊँचाई से कैसे उसने मानव जीवन का अवलोकन किया। उसने बताया कि हम छोटी-छोटी लपटों के सागर हैं।

उसने यह रहस्योदघाटन किया, “यह दुनिया लोगों का एक ढेर है, छोटी-छोटी लपटों का सागर है।”

हर व्यक्ति अपनी ख़ुद की रोशनी से चमकता है। कोई भी दो लपटें एकसमान नहीं होतीं। छोटी लपटें हैं और बड़ी लपटें हैं, हर रंग की लपटें हैं। कुछ लोगों की लपटें इतनी स्थिर हैं कि वे हवा में फड़फड़ाती तक नहीं, जबकि कुछ की उग्र लपटें हैं जो हवा को स्फुलिंगों से भर देती हैं। कुछ गावदी लपटें हैं जो न जलती हैं न रोशनी देती हैं, लेकिन कुछ दूसरी इतनी प्रचण्डता के साथ जिन्दगी से धधकती रहती हैं कि कोई बिना पलक झपकाये उनकी ओर देख नहीं सकता और अगर कोई उनके पास जाता है तो आग में चमकने लगता है।

साहित्य को इस गुलाम समाज की आज़ादी की लड़ाई की उम्मीद बनना होगा

Eduardo_Galeano_2009तो लोगों को झकझोर कर जगा देने और उन्हें आस-पास की सच्चाई से रू-ब-रू करने का काम कैसे किया जाए? जब दुनिया इस दौर के कठिन हालातों से रू-ब-रू है तो क्या साहित्य हमारे काम आ सकता है? संस्कृति का जो रूप सरकारें लेकर आती हैं वह तो सत्ता में बैठे चन्द लोगों के लिए ही है- यह सरकारी संस्कृति बर्बर व्यवस्था को ‘विकास’ और ‘मानवता’ का चेहरा देकर लोगों को गुमराह करती और व्यवस्था का गुलाम बना देती है- ऐसे में अपनी कलम से नई दुनिया का राह बनाने वाला लेखक ‘सब ठीक है’ जैसे झूठे दावों पर टिकी व्यवस्था से कैसे लड़े? ऐसे समय में जब हम अपनी अलग-अलग इच्छाओं और सपनों के साथ एक-दूसरे को सिर्फ फ़ायदे और नुकसान के नज़रिये से देख-समझ और परख पा रहे हैं तब सबको साथ लेकर चलने और दुनिया की तस्वीर बदलने का ख़्वाब संजोने वाले साहित्य की क्या भूमिका हो? हमारे आस-पास के हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि लिखना और कुछ नहीं बल्कि एक के बाद दूसरी समस्याओं की बात करना और उनसे भिड़ना हो गया है- तब हमारा लिखना किन लोगों के ख़ि‍लाफ़ और किनके लिये हो? लातिन अमेरिका में हम जैसे लेखकों की किस्मत और सफ़र बहुत हद तक बड़े सामाजिक बदलावों की ज़रूरत से सीधे-सीधे जुड़ा है- लिखना इस बदलाव के लिए लड़ना ही है क्योंकि यह तो तय है कि जब तक गरीबी, अशिक्षा और टी.वी तथा बाकी संचार माध्यमों के फैलते जाल पर बैठी सत्ता का राज कायम रहेगा तब तक हमारी सबसे जुड़ने और सबके साथ लड़ने की सभी कोशिशें बेकार ही रहने वाली हैं।

जब किसानों-मज़दूरों सहित आबादी के बड़े हिस्से की आज़ादी ख़त्म की जा रही है तब सिर्फ लेखकों के लिए कुछ रियायतों या सुविधाओं की बात से मैं सहमत नही हूँ। व्यवस्था में बड़े बदलावों से ही हमारी आवाज़ अभिजात महफिलों से निकल कर खुले और छिपे सभी प्रतिबन्धों को भेद कर उस जनता तक पहुँचेगी जिसे हमारी ज़रूरत है और जिसकी लड़ाई का हिस्सा हमें बनना है। अभी के दौर में तो साहित्य को इस गुलाम समाज की आज़ादी की लड़ाई की उम्मीद ही बनना है।

(अनुवाद: पी. कुमार मंगलम)

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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