नेपाल में युवाओं की बग़ावत के बाद केपी शर्मा ओली की भ्रष्ट सत्ता का पतन
नेपाल की क्रान्तिकारी ताक़तों के सामने इस विद्रोह को क्रान्ति की दिशा में मोड़ने की चुनौती

आनन्द

नेपाल में गत 8-9 सितम्बर को हुई युवाओं की बग़ावत से वहाँ की राजनीति में भूचाल-सा आ गया है। इस भूचाल में केपी शर्मा ओली की पूँजीवादी निरंकुश सत्ता औंधे मुँह गिर पड़ी। पुलिस द्वारा इस आन्दोलन का बर्बर दमन करने की वजह से कुल मिलाकर 70 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी और 500 से ज़्यादा लोग घायल हो गये। 9 सितम्बर को युवाओं की इस बग़ावत में नेपाली समाज की अन्य ताक़तें भी शामिल हो गयीं और उस दिन संसद भवन, प्रधानमन्त्री निवास, सचिवालय सहित शहर की कई इमारतों में आग लगा दी गयी। इस आगजनी में युवा आन्दोलनकारियों के अलावा कई अन्य ताक़तों के शामिल होने की वजह से नेपाल और भारत के कई हलक़ों में इस पूरे घटनाक्रम को षडयन्त्र के रूप में देखा जा रहा है और क़िस्म-क़िस्म के षडयन्त्र सिद्धान्तों का बाज़ार गर्म है। भारत की गोदी मीडिया ने भी षडयन्त्र की कहानी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस घटना के कुछ दिनों के भीतर ही नेपाली सेना ने हालात को क़ाबू में कर लिया और सेनाध्यक्ष ने आन्दोलनकारी युवाओं के साथ मध्यस्थता करके पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार बनवा दी। इस प्रकार नेपाल के शासक वर्ग ने इस युवा विद्रोह को जनक्रान्ति में तब्दील होने से रोकने में फ़िलहाल सफलता प्राप्त कर ली है। हालाँकि आने वाले दिनों में वहाँ राजनीतिक अनिश्चितता बनी रहने वाली है। भारत के मज़दूरों को भी हमारे पड़ोसी देश में हुए इस नाटकीय घटनाक्रम को गहराई से समझने की ज़रूरत है।

8 सितम्बर को काठमांडू, बिराटनगर, पोखरा, बुटवल, चितवन सहित नेपाल के कई शहरों और क़स्बों में नेपाली युवा ओली सरकार द्वारा फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, यूट्यूब, व्हाट्सऐप सहित 26 सोशल मीडिया ऐप्स पर प्रतिबन्ध लगाने के विरोध में और भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद एवं बढ़ती आर्थिक असमानता के विरोध में सड़कों पर थे। इस स्वत: स्फूर्त आन्दोलन का काठमांडू पुलिस द्वारा बर्बर दमन किया गया और शाम तक पुलिस की गोली से 19 छात्रों व युवाओं की मृत्यु की ख़बरें मीडिया में आने लगीं। उसी रात सरकार ने सोशल मीडिया पर लगाया गया प्रतिबन्ध वापस ले लिया। ऐसे में सोशल मीडिया पर 19 मासूमों की मृत्यु की ख़बरें और तेज़ी से फैलने लगीं जिसकी वजह से जनाक्रोश की आग और तेज़ी से भड़क उठी। अगले दिन आन्दोलनकारियों और कुछ अन्य तत्वों द्वारा हिंसक प्रदर्शन के बाद ओली सरकार को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर होना पड़ा।

ओली सरकार ने सोशल मीडिया ऐप्स पर प्रतिबन्ध की वजह यह बतायी थी कि इन सोशल मीडिया कम्पनियों ने सरकारी पंजीकरण नहीं कराया था। परन्तु नेपाल के लोगों और ख़ासकर युवाओं ने इसे उनके बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के रूप में लिया और उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि इस प्रतिबन्ध का असली मक़सद ओली सरकार के भ्रष्टाचार तथा नेताओं-मन्त्रियों व उनके परिजनों की विलासिता के ख़िलाफ़ उठ रही आवाज़ों को ख़ामोश करना था। ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से नेपाल में जारी राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक तंगी, लगातार बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार एवं नेताओ की अश्लील विलासिता के ख़िलाफ़ वहाँ के आम लोगों और ख़ासकर युवाओं में ज़बर्दस्त आक्रोश पनप रहा था जो सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय था। मौजूदा आन्दोलन के कुछ दिनों पहले से ही वहाँ सोशल मीडिया पर #Nepokids और #Nepobabies जैसे टैग वाले पोस्ट बहुत वायरल हो रहे थे जिनमें नेपाल के युवा वहाँ के नेताओं व अमीरज़ादों के भ्रष्टाचार और उनके परिजनों की अय्याशी और विलासिता का पर्दाफ़ाश कर रहे थे। 6 सितम्बर को ओली सरकार के एक मन्त्री की कार द्वारा एक लड़की को टक्कर मारने के बाद ओली द्वारा दिये गये बेहद संवेदनहीन बयान के बाद भी वहाँ लोगों में ओली सरकार के ख़िलाफ़ आक्रोश देखने में आया था जो उस सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता का ही संकेत था। ओली सरकार द्वारा सोशल मीडिया पर लगाये गये प्रतिबन्ध ने पहले से ही सुलग रही जनाक्रोश की आग में घी डालने का काम किया।

नेपाल के युवाओं का विद्रोह सिर्फ़ सत्तारूढ़ संशोधनवादी पार्टी या उसके नेताओं के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि उन सभी पार्टियो व नेताओं एवं धन्नासेठों के ख़िलाफ़ था जिन्होंने पिछले 2 दशकों के दौरान सत्ता में भागीदारी की या जो सत्ता के निकट रहे हैं। यही वजह है कि प्रदर्शनकारियों के निशाने पर संसद, प्रधानमन्त्री निवास, शासकीय व प्रशासनिक मुख्यालय, उच्चतम न्यायालय के अलावा तमाम बड़ी पार्टियों के कार्यालय और उनके नेताओं के आवास भी थे जिनमें पाँच बार नेपाल के प्रधानमन्त्री रह चुके शेर बहादुर देउबा और माओवादी नेता व पूर्व प्रधानमन्त्री प्रचण्ड के आवास भी शामिल थे। इसके अलावा प्रदर्शनकारियों ने काठमांडू की कई बहुमंज़िला व्यावसायिक इमारतों और आलीशान होटलों में भी आग लगा दी जो धनाढ्यता का प्रतीक थीं। इस प्रकार यह बग़ावत वस्तुत: समूचे पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ थी।

ज्ञात हो कि युवाओं का यह विद्रोह नेपाल का पहला विद्रोह नहीं है। नेपाल का हालिया इतिहास वहाँ के युवाओं और मेहनतकशों के जुझारू जनान्दोलनों और बग़ावतों का इतिहास रहा है, परन्तु इस बार युवाओं की बग़ावत की विशिष्टता यह है कि यह ऐसे युवाओं का विद्रोह है जिन्होंने अपने होश गणतान्त्रिक नेपाल में सँभाले हैं और उनके ज़ेहन में राजशाही की यादें नहीं हैं। उनकी आकांक्षाएँ और सपने गणतान्त्रिक नेपाल में पैदा हुईं और इन आकांक्षाओं और सपनों को पूरा करने में मौजूदा पूँजीवादी निज़ाम निहायत ही अक्षम साबित हुआ है। ग़ौरतलब है कि नेपाल में माओवादियों के नेतृत्व में एक दशक तक चले जनयुद्ध के नतीजे में 2008 में राजशाही के ख़ात्मे के बाद से वहाँ बहुदलीय बुर्जुआ लोकतान्त्रिक व्यवस्था अस्तित्व में है। लोगों को उम्मीद थी कि सामन्ती राजाशाही के ख़ात्मे के बाद नेपाली समाज बराबरी की दिशा में आगे बढ़ेगा और लोगों की ज़िन्दगी में ख़ुशहाली आयेगी और राजनीतिक पार्टियाँ और ख़ास तौर पर माओवादी जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करेंगे। परन्तु पिछले 17 सालों में माओवादियों सहित सभी पार्टियों के नेता भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूब गये। जहाँ एक ओर जनता ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई और आर्थिक तंगी से त्रस्त है वहीं दूसरी ओर नेता-मन्त्री और अनके परिजन विलासिता भरा जीवन बिताते हैं। इन वजहों से पिछले कई वर्षों से लोगों में आक्रोश पनप रहा था।

आर्थिक धरातल पर भी राजशाही के ख़ात्मे के बाद जनपक्षधर क़दम नहीं उठाये गये। माओवादियों द्वारा रैडिकल भूमि सुधार करने का वायदा संसद के गलियारों में गुम हो गया। औद्योगिकीकरण की दिशा में कोई ठोस प्रयास करने के बजाय नवउदारवादी नीतियों को ही लागू किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि वहाँ की अर्थव्यवस्था में नये रोज़गार पैदा नहीं हो सके। नेपाल में बेरोज़गारी का आलम यह है कि वहाँ हर साल 7-8 लाख युवाओं को काम की तलाश में खाड़ी के देशों, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, अमेरिका और यूरोप के देशों में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। विश्व बैंक के अनुसार नेपाल में बेरोज़गारी दर 20 प्रतिशत है। कहने की ज़रूरत नहीं कि वास्तविक बेरोज़गारी इन आधिकारिक आँकड़ों से कहीं अधिक होगी। नेपाल की कुल आबादी 3 करोड़ है और उसमें से 60 लाख से ज़्यादा लोग देश के बाहर काम करते हैं। चूँकि नेपाल से भारत में पलायन करने वाले लोगों का कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं मौजूद है इसलिए एक अनुमान के मुताबिक़ नेपाल से बाहर काम कर रहे नेपाली लोागों की कुल संख्या नेपाल की कुल आबादी की एक-तिहाई के क़रीब है। नेपाल की अर्थव्यवस्था की लचर हालत का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ के जीडीपी का लगभग एक-तिहाई देश के बाहर काम कर रहे प्रवासी नेपालियों द्वारा अपने परिजनों को भेजे जा रहे पैसे (रेमिटेंस) से आता है। इसके अलावा आयात पर अति-निर्भरता की वजह से वहाँ महँगाई की दर लगातार बहुत अधिक रहती है। ये तंग आर्थिक हालात लोगों के असन्तोष को लगातार बढ़ाते आये हैं। 8 और 9 सितम्बर को नेपाल में हुआ नाटकीय घटनाक्रम इस असन्तोष की ही तार्किक परिणति है।

नेपाल के युवाओं के विद्रोह के वस्तुगत कारकों को समझने के साथ ही साथ उसके मनोगत कारकों को भी समझना ज़रूरी है। 2008 के बाद माओवादियों द्वारा संसद के शरणागत होने और उनके भ्रष्ट व पतित आचरण के बाद नेपाल के आम लोगों और युवाओं का न सिर्फ़ माओवादी पार्टी से मोहभंग हुआ बल्कि उनमें से बड़ी संख्या में लोगों का मार्क्सवाद की विचारधारा से भी मोहभंग हुआ है। इस मोहभंग की परिस्थिति का लाभ वहाँ के समाज में तमाम मार्क्सवाद-विरोधी ताक़तों और विचारधाराओं ने उठाया है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित तमाम एनजीओ और आइएनजीओ नेपाल में फले-फूले हैं जो वहाँ के युवाओं की राजनीतिक चेतना को कुन्द करने को काम करते हैं। ये संगठन लोगों के आक्रोश को व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में ले जाने के बजाय पूँजीवाद के दायरे के भीतर ही किसी “साफ़ छवि वाली” पार्टी या नेता को चुनने की दिशा में ले जाते हैं। 8 सितम्बर को हुए प्रदर्शन में प्रमुखता से शामिल ‘हामी नेपाल’ नामक एनजीओ और उसके नेता सुदन गुरुंग की राजनीति ऐसी ही है। ऐसे में इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है कि इस आन्दोलन की कोई रणनीति या दिशा नहीं थी और वह सत्ता परिवर्तन से आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन की ओर नहीं बढ़ पाया। क्रान्ति से लोगों के मोहभंग की स्थिति का लाभ उठाकर लोगों का अराजनीतिकरण करने वाली राजनीति का बोलबाला हो गया। इसका नतीजा कुछ वर्ष पहले काठमांडू के मेयर के चुनाव में बालेन्द्र शाह जैसे दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी नेता की जीत के रूप में सामने आया था जिसकी राजनीति भ्रष्टाचार-विरोध से आगे नहीं जाती है और वह बेशर्मी से काठमांडू के ठेला-रेहड़ी लगाकर बमुश्किल जीवनयापन कर रहे ग़रीबों पर बेरहमी से कार्रवाई करता है। नेपाल के जेन-ज़ी युवाओं में उसकी लोकप्रियता लगातार बढ़ी है। इसी प्रकार की अराजनीतिक राजनीति की एक अन्य अभिव्यक्ति 2022 के आम चुनावों में पूर्व टेलीविज़न एंकर रबी लामिछाने के नेतृत्व वाली ‘राष्ट्रीय स्वतन्त्र पार्टी’ जैसी दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी पार्टी के उभार के रूप में सामने आयी थी। यह पार्टी भी विचारधारा से मुक्त होने की बात करती है। इसके अतिरिक्त माओवादियों सहित मुख्य धारा की अन्य पार्टियों से लोगों का मोहभंग होने की परिस्थिति में ‘राष्ट्रीय प्रजातान्त्रिक पार्टी’ नामक एक पार्टी भी उभर कर आयी है जो नेपाल में राजशाही की वापसी की बात करती है और उसके भारत के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के साथ भी गहरे सम्बन्ध हैं। युवाओं के विद्रोह के कुछ हफ़्तों पहले इस पार्टी ने नेपाल के कई शहरों में राजशाही की वापसी के लिए आन्दोलन भी किये थे। हालाँकि अभी भी इस पार्टी का कोई ख़ास जनाधार नहीं है। इन सभी ताक़तों ने युवाओं के स्वत:स्फूर्त विद्रोह में घुसपैठ की है।

हाल के वर्षों में अगर नेपाल की राजनीति में इस प्रकार की प्रतिक्रियावादी ताक़तें उभरी हैं तो उसकी एक वजह यह भी है कि वहाँ के क्रान्तिकारी आन्दोलन में बिखराव और भटकाव की स्थिति है। माओवादियों से अलग होकर कई छोटे-छोटे समूह व संगठन अस्तित्व में आये हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश में पहचान की राजनीति और उत्तरआधुनिकतावाद की विचार सरणियों का ज़बर्दस्त असर देखने में आया है। नेपाल के समाज के ठोस अध्ययन पर आधारित एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम तैयार करके उसके इर्द-गिर्द जनता की ठोस माँगों पर जनान्दोलन खड़ा करने के बजाय ऐसे कुछ संगठन मौजूदा व्यवस्था और पार्टी के दायरे में ही विभिन्न जातियों, जनजातियों, जेण्डरों, राष्ट्रीयताओं आदि के प्रतिनिधित्व पर ही ज़ोर देते हैं। इस प्रकार की पहचान की राजनीति भी लोगों की वर्गीय चेतना को कुन्द करने का काम करती है। इसके साथ ही वहाँ के क्रान्तिकारी आन्दोलन में जड़सूत्रवाद और मुक्त चिन्तन के दो छोर भी मौजूद हैं जो जनता को सही मुद्दों पर लामबन्द करने में बाधा पैदा कर रहे हैं। क्रान्तिकारी आन्दोलन में बिखराव और भटकाव की इन परिस्थितियों का ही लाभ क़िस्म-क़िस्म के एनजीओपन्थियों और बीरेन्द्र शाह तथा रबी लामिछाने जैसे नेताओं को हुआ है। नेपाल के जनान्दोलनों में साम्राज्यवादी व बाहरी ताक़तों की घुसपैठ भी क्रान्तिकारी आन्दोलन की इन्हीं कमज़ोरियों की वजह से हुई है।

हालाँकि युवाओं के विद्रोह ने दो दिन के भीतर ही ओली सरकार को ध्वस्त कर दिया, परन्तु मौजूदा व्यवस्था के विकल्प और भविष्य की कोई दिशा न होने की वजह से शासक वर्ग पुराने अलोकप्रिय चेहरों के बदले नये स्वीकार्य चेहरों को आगे करके अपने शासन को बचाने में सफल होता हुआ दिख रहा है। आज नेपाल की बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताक़तों के सम्मुख इस दिशाहीन विद्रोह को क्रान्तिकारी दिशा देकर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने की चुनौती आन खड़ी हुई है। नेपाल में जारी मौजूदा उथल-पुथल ने वहाँ की क्रान्तिकारी ताक़तों के सामने युवाओं के बीच वर्गीय राजनीति के प्रचार-प्रसार का एक ऐतिहासिक अवसर भी पैदा किया है। यह उम्मीद की जा सकती है कि नेपाल की क्रान्तिकारी ताक़तें अपने इस ऐतिहासिक दायित्व को समझते हुए जनता की परिवर्तनकामी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम के तहत मौजूदा क्रान्तिकारी परिस्थिति को व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने के लिए जी-जान से जुटेंगी। अगर ऐसा नहीं होता है और अगर क्रान्तिकारी ताक़तें आत्म चिन्तन व आलोचना-आत्मालोचना के ज़रिये अपने भटकावों को दूर नहीं करती हैं तो श्रीलंका व बांग्लादेश की ही भाँति नेपाल में भी मनोगत ताक़तों की कमज़ोरी की वजह से सत्ता परिवर्तन व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में नहीं बढ़ सकेगा और समाज में प्रतिक्रियावादी ताक़तें हावी हो जायेंगी।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025

 

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन