लॉकडाउन में गुड़गाँव के मज़दूरों की स्थिति
– अनन्त
गुड़गाँव के सेक्टर 53 में, ऊँची-ऊँची इमारतों वाली हाउसिंग सोसायटियों के बीच मज़दूरों की चॉल है। छोटे से क्षेत्र में दो से तीन हज़ार मज़दूर छोटे-छोटे कमरों में अपने परिवार के साथ रहते हैं। उसी चॉल में अपने परिवार को भूख, गर्मी, बीमारी से परेशानहाल देख मुकेश ने खु़दकुशी कर ली। तीस वर्षीय मुकेश बिहार के रहने वाले थे, और यहाँ पुताई का काम करते थे। लॉकडाउन का पहला चरण किसी तरह खींचने के बाद जब दूसरा चरण शुरू हुआ तो मुकेश की हिम्मत जवाब दे गयी। पिछले कुछ दिनों से परिवार फाका झेल रहा था, बच्चे गर्मी और भूख से तड़प रहे थे। मुकेश ने अपना मोबाइल फ़ोन सस्ते में बेचकर, परिवार वालों के लिए पंखा और राशन ख़रीदा, और बचा पैसा पत्नी को सौंपकर खु़दकुशी कर ली। उस चॉल के दूसरे अनेक कमरों में भी भोजन और जीवन की दूसरी ज़रूरी चीज़ों की सख़्त कमी है। गुड़गाँव की अनेक मज़दूर बस्तियों में न जाने कितने मुकेश अन्दर ही अन्दर रोज़ मर रहे हैं।
राजधानी दिल्ली से सटा गुड़गाँव उत्तर भारत के सबसे बड़े औद्योगिक केन्द्रों में एक है। यहाँ गारमेंट उद्योग, भवन निर्माण, ऑटोमोबाइल सेक्टर, चमड़ा, पेपर, रसायन आधारित उद्योग समेत अन्य उद्योगों में लाखों श्रमिक काम करते हैं। इसके अलावा एक बहुत बड़ी आबादी रेहड़ी-पटरी लगाने, फल-सब्जी बेचने, छोटे-मोटे अन्य रोज़गार-धन्धों में लगी हुई है। गुड़गाँव शहर में स्थित औद्योगिक इलाक़ा उद्योग विहार के नाम से जाना जाता है। उद्योग विहार क़रीब 798 एकड़ क्षेत्र में, छह फे़ज में, फैला हुआ है। गुड़गाँव का औद्योगिक क्षेत्र उद्योग विहार, फे़ज 1 से 6 के अलावा सेक्टर18, सेक्टर 34-35, कादीपुर औद्योगिक क्षेत्र जैसे छोटे-छोटे पॉकेट्स में 1150 एकड़ से भी अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है। गुड़गाँव ज़िले की बात करें तो यहाँ क़रीब 4000 एकड़ में फैले आईएमटी मानेसर, 1500 एकड़ में फैले नये बने आईएमटी सोहना समेत बिनोला, बिलासपुर, सिधरावली क्षेत्रों में कई हज़ार औद्योगिक इकाइयाँ फैली हुई हैं। सात साल पुराने सरकारी आँकड़े के मुताबिक़ गुड़गाँव में 25 हज़ार से अधिक औद्योगिक इकाइयाँ हैं। जिसमें पाँच लाख के क़रीब श्रमिक कार्यरत हैं। आज एक अनुमान के मुताबिक़ गुड़गाँव में मज़दूरों की ‘रिज़र्व आर्मी’ समेत औद्योगिक मज़दूरों की संख्या 10 से 12 लाख के क़रीब है। इसके अलावा भवन निर्माण क्षेत्र से जुड़े दिहाड़ी मज़दूर, छोटे-छोटे वर्कशॉप, गोदामों, दुकानों में काम करने वाले श्रमिक, रेहड़ी-पटरी, ठेला-खोमचा लगाने वाले – उनकी संख्या भी कई लाख में है।
कोविड-19 के मद्देनज़र सरकार द्वारा आनन-फानन में बिना किसी तैयारी के पहले 21 दिन फिर अगले 19 दिनों के लिए किये गये लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा बुरा असर मज़दूर-मेहनतकश आबादी के ऊपर पड़ा है। मज़दूरों के सामने एक तरफ़ कोविड-19 बीमारी का ख़तरा है तो दूसरी तरफ़ आर्थिक तंगी, बेकारी, भूख तथा अन्य बीमारियों का संकट है। लॉकडाउन के साथ केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने कई घोषणाएँ, दिशा-निर्देश जारी किये। लेकिन सरकारी भोंपू जो कहते हैं, उसकी हक़ीक़त क्या है, यह एक मज़दूर अपने जीवन के अनुभव से जानता है।
यही कारण है कि लाखों-लाख मज़दूर पैदल ही अपने घर की ओर चल देने के लिए मजबूर हो गये। केन्द्र सरकार बाहर फँसे अमीरज़ादों को वापस लाने के लिए हवाई जहाज़ भेज सकती है, राज्य सरकारें खाते-पीते मध्य वर्ग के छात्रों को वापस लाने के लिए एसी बसें भेज सकती हैं, किन्तु मज़दूरों को पैदल जाने के लिए भी रास्ता मुहैया नहीं कराती हैं। रास्ते में मज़दूरों को मारा-पीटा गया। जगह-जगह से घर जा रहे मज़दूरों को पकड़कर अस्थाई जेलों में ठूँस दिया गया जिन्हें ‘क्वारंटाइन सेंटर’ कहा जा रहा है। आज भी लाखों मज़दूर जगह-जगह फँसे हैं।
गुड़गाँव से भी मज़दूरों का पलायन 25 मार्च से ही, यानी लॉकडाउन के पहले ही दिन से, शुरू हो गया था, जोकि अगले तीन दिनों तक, जब तक सरकार द्वारा हाईवे सील नहीं कर दिया गया, जारी रहा। गुड़गाँव में हर उद्योग में काम करने वाले श्रमिक पैदल, साइकिल, रिक्शा, ठेला, मोटर साइकिल जिसे जो साधन उपलब्ध हुआ उसी से उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान के दूरदराज़ इलाक़ों के लिए निकल पड़े। पहले दिन जाने वालों में भवन निर्माण क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों की संख्या ज़्यादा रही।
भवन निर्माण क्षेत्र से जुड़ी श्रमिक आबादी ऊँची-ऊँची निर्माणाधीन इमारतों के परिसर में, या वहीं कहीं आसपास,बने रिहायशी लॉज में रहती है। गगनचुंबी इमारतों को बनाने वाले मज़दूर ख़ुद टीन की चादरों से बने माचिस के डिब्बे जैसे छोटे-छोटे कमरों में रहते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, मध्य प्रदेश के सुदूर गाँवों से आयी यह आबादी बेहद मामूली दिहाड़ी पर किसी ठेकेदार के नीचे कई-कई महीने एक इमारत को खड़ा करने का काम करती है। इस मामूली दिहाड़ी के अलावा ठेकेदार मज़दूरों के प्रति किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी का कोई भागी नहीं होता है। भयंकर परिस्थितियों में रह रहे मज़दूर अक्सर बीमार पड़ जाते हैं, या कार्यस्थल पर सुरक्षा के पुख्ता इन्तज़ाम ना होने के कारण हादसे में जान गँवा देते हैं, ऐसे में ठेकेदार या बिल्डर साफ़ अपना पल्ला झाड़ लेता है। उल्टा बाक़ी मज़दूरों का ही एक या दो दिन का वेतन काटकर पीड़ित मज़दूर के लिए राशि जुटाई जाती है। डीएलएफ़, रहेजा डेवलपर्स, अंसल, पारसनाथ, ओमैक्स आदि देशभर के तमाम नामी-गिरामी रियल एस्टेट डेवलपर और बिल्डर मज़दूरों के भयंकर शोषण-उत्पीड़न के ज़रिये ही अपना मुनाफ़ा कूटते हैं। श्रमिक बेहद असुरक्षित वातावरण में काम करते और रहते हैं। मालिक और ठेकेदार जब काम चलते रहने पर उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते, तो काम बन्द होने के बाद भला वे क्यों ऐसा करते! मज़दूर इस बात को अच्छी तरह जानते हैं और इसीलिए वे अपने-अपने घरों के लिए निकल पड़े।
जो यहाँ रह गये, उनके सामने दूसरे-तीसरे दिन से ही राशन की समस्या आ खड़ी हुई। गुड़गाँव के सेक्टर 18 में निर्माणाधीन शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में काम कर रहे क़रीब 400 मज़दूरों के सामने राशन की दिक्कत थी। उनके ठेकेदार ने मज़दूरों के राशन के लिए कोई इन्तज़ाम नहीं किया। मज़दूर-संगठनों, नागरिकों, एनजीओ आदि की मदद से वहाँ मज़दूरों के खाने-पीने का इन्तज़ाम किया गया। ऐसा ही हाल बाक़ी निर्माण स्थलों का भी है।
सरकार ने बदहाल, पलायन के लिए मजबूर, इन निर्माण मज़दूरों के राशन-पानी, मास्क, सेनिटाइज़र आदि ज़रूरी वस्तुओं का इन्तज़ाम करने के बजाय बिल्डरों के नाम महज़ “एडवाइज़री” जारी कर अपना पल्ला झाड़ लिया। इसी तरह केन्द्र सरकार ने घरों को लौट रहे मज़दूरों के लिए राज्य सरकारों को भोजन तथा आश्रय प्रदान करने की “एडवाइज़री” जारी कर दी। हरियाणा सरकार की तरफ़ से टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग द्वारा हरियाणा नगरीय क्षेत्र विकास तथा विनियमन अधिनियम,1975 के प्रावधानों का हवाला देते हुए बिल्डरों से मज़दूरों को रोकने के लिए कहा गया। ज़िला प्रशासन तथा एनजीओ की सहायता से श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए, जहाँ वे हैं वहीं पर, आश्रय, राशन, भोजन व अन्य ज़रूरी वस्तुओं का प्रबन्ध करने के लिए कहा गया। हक़ीक़त में ना जिला प्रशासन ने, ना ही बिल्डरों ने मज़दूरों के भोजन, राशन, आश्रय का कोई ठोस प्रबन्ध किया। चौतरफ़ा जिस बदइन्तज़ामी में मज़दूरों को श्रमिक रखा जा रहा है, उसके लिए आज तक किसी भी बिल्डर पर कोई कार्रवाई भी नहीं की गयी।
इमारत का काम पूरा होने के बाद, इन इमारतों को बनाने वाली श्रमिक आबादी का एक हिस्सा, अगर उसके ठेकेदार को काम मिला तो, दूसरी इमारत को खड़ा करने के काम में लग जाती है, या फिर जब इन इमारतों में खाते-पीते मध्यवर्ग की आबादी बस जाती है तो उन्हीं के बीच घरेलू कामगार, माली, सफ़ाई कर्मचारी, ड्राइवर आदि का काम पकड़ लेती है या लेबर चौक से फुटकर भवन निर्माण के कार्यों, बेलदारी, पुताई, पुट्टी आदि के कामों में लग जाती है।
ऐसी बस्तियों में सरकारी मदद के नाम पर दो से तीन दिन में एक बार खाना पहुँचता है। घटिया स्तर का खाना लोगों की संख्या के लिहाज़ से भी कम रहता है। एक परिवार को एक या बमुश्किल दो सदस्यों का पेट भरने लायक़ खाना दिया जाता है। आसपास दो-तीन बस्तियों में किसी एक बस्ती में मज़दूरों को खाना पहुँचता है, बाक़ी बस्ती के मज़दूरों तक कोई सुविधा नहीं पहुँचती है। सेक्टर 62 स्थित एक झुग्गी में सरकार द्वारा राशन उपलब्ध कराने के लिए बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार दबाव बनाने पर पहले यह झूठ कहा गया कि वहाँ राशन पहुँच रहा है। लेकिन जब कार्यकर्ताओं द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि उक्त झुग्गी नहीं बल्कि पास की दूसरी झुग्गियों में दो से तीन दिन में एक बार खाना आ रहा है, तब प्रशासन की तरफ़ से यह जाँच करने के लिए दो पुलिस वाले आये कि मज़दूरों को वास्तव में राशन की ज़रूरत है या नहीं । उन्होंने 150 कमरों में मात्र एक कमरे में जाँच की और वहाँ थोड़ा आलू-प्याज, थोड़ा आटा देखकर मज़दूरों को यह “समझाया” कि जबतक एक दिन का भी राशन है तब तक भोजन की कमी के लिए कॉल ना करें। प्रशासन खुद राशन, फ़ण्ड की कमी झेल रहा है, और अभी प्राथमिकता में उन्हें राशन पहुँचाया जायेगा जिनके पास एक भी दिन का राशन नहीं है। इसके बाद कई बार सरकारी हेल्पलाइन नम्बर पर दबाव बनाने के बाद उस बस्ती में खाना भिजवाने की शुरुआत हुई।
सरकार की घोषणाएँ हवा-हवाई हैं। सरकारी हेल्पलाइन नम्बर, मोबाइल ऐप, सोशल मीडिया हैंडल आदि महज़ नाम के हैं। गुड़गाँव प्रशासन सोशल मीडिया पर वाहवाही लूट रहा है, लेकिन असल ज़मीन पर उसने हाथ खड़े कर दिये हैं। बस्तियों में जो खाना मिलता है, वह उस वार्ड में रहने वाली आबादी के लिहाज़ से काफ़ी कम होता है। लोग लाइन में लगने के लिए काफ़ी पहले ही आ जाते, काफ़ी समय इन्तज़ार करते, तब जाकर थोड़ा बहुत खाना मिलता था, जबकि कईयों को ख़ाली हाथ निराश लौटना पड़ता था। वहाँ भीड़ इकट्ठी हो जाती थी, जो बीमारी फैलने की वजह बन सकती थी। दूसरा, कई जगहों पर ये वितरण केन्द्र आम मज़दूरों से कई-कई किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पुलिस और सड़क पर घूम रहे गुण्डों से बचकर खाने के लिए उतनी दूर जाना ही सम्भव नहीं हो पाता है। तीसरा, खाना घटिया दर्जे का होता है, जिसे लगातार नहीं खाया जा सकता। अब कई जगह मात्र ब्रेड और केला ही बाँटा जा रहा है।
हरियाणा सरकार ने पूँजीपतियों के नाम जारी एडवाइज़री में उन्हें श्रमिकों को काम से ना निकालने तथा वेतन में कटौती ना करने की “सलाह” दी थी। उस “सलाह” पर थैलीशाहों ने ऐसे अमल किया कि मज़दूरों को मार्च महीने का, यानी जबतक उन्होंने कारख़ाने में काम किया था, उसका भी वेतन नहीं दिया। गारमेंट सेक्टर, ऑटोमोबाइल सेक्टर में काम कर रहे अधिकांश मज़दूरों को मार्च के महीने का पैसा नहीं मिला है। कईयों को मात्र आधा या उससे भी कम हिस्सा मिला है। ऐसे में साफ़ है कि अप्रैल के पैसे भी मज़दूरों को नहीं मिलने वाले हैं। सरकार का मकान मालिकों द्वारा श्रमिकों, छात्रों से किराया ना वसूलने का आदेश भी खोखला साबित हुआ। हर तरफ़ मज़दूरों पर कमरे के किराये के लिए दबाव बनाया जा रहा है। मज़दूरों के हाथ ख़ाली हैं, वे मास्क, सेनिटाइज़र जैसी ज़रूरी चीज़ों को भी ले पाने में असमर्थ हैं।
मज़दूर जिन लॉजों या चॉलों में रहते हैं, वहाँ एक छोटे कमरे में तीन से चार मज़दूर रहते हैं। एक लॉज में तीस चालीस से लेकर सौ-सौ कमरे तक होते हैं, जहाँ 50 लोगों पर एक साझा शौचालय होता है। अगर इन परिस्थितियों में कोरोना फैलता है तो यह कितना भयंकर रूप लेगा इसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती है।
लॉकडाउन के समय मज़दूर इलाक़ों में पुलिसिया दमन के अलावा लोकल बाउंसर गुण्डों की गुण्डागर्दी भी बढ़ गयी है। मानेसर में स्थानीय दबंगों ने मज़दूर लॉज के अन्दर घुसकर मारपीट की। गुड़गाँव में राशन लेकर लौट रहे मज़दूरों के ऊपर गुण्डों ने हमला बोल दिया। राशन, दवा, सब्जी जैसी ज़रूरी चीज़ें लेने निकले मज़दूरों पर गुण्डे ताक लगाकर हमला कर रहे हैं।
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