फ़ासिस्ट झूठ-उत्पादन कारख़ाना और संघी साइबर गुण्डों के गाली-गलौज के बारे में कुछ बातें
कविता कृष्णपल्लवी
यूट्यूब पर अगर बीजेपी आईटी सेल लिखकर खोजा जाये तो दर्जनों ऐसे वीडियो मिलेंगे जिनसे पता चलेगा कि किस तरह हज़ारों भाड़े के लोगों को बैठाकर भाजपा सैकड़ों फ़र्ज़ी वेबसाइट चलाती है (इनमें से कई भारतीय सेना के नाम पर हैं) और फे़सबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप आदि के ज़रिये अफ़वाहें और झूठी ख़बरें फैलाने का काम करती है। दिल्ली से लेकर छोटे शहरों तक 30,000 से लेकर 5-10 हज़ार रुपये पगार पर हज़ारों युवाओं को इस काम पर लगाया गया है और केन्द्रीय स्तर पर बड़ी आई.टी. कम्पनियों के विशेषज्ञों की भी सेवाएँ ली जाती हैं। भा.ज.पा. के आई.टी. सेल में काम कर चुके महावीर नाम के व्यक्ति ने ध्रुव राठी से इनकी पूरी कार्य-प्रणाली के बारे में विस्तार से बताया है। आल्ट न्यूज़ की वेबसाइट (Altnews.in) ज़रूर देखें और जानें कि फ़र्ज़ी ख़बरें और तस्वीरें किस तरह और कितने बड़े पैमाने पर हिन्दुत्व फैक्ट्री में तैयार की जाती हैं !
झूठी खबरों से उत्तेजना भड़काने वाली और अफ़वाहें फैलाने वाली संघ की प्रोपेगंडा फैक्ट्री जितने बड़े पैमाने पर नवीनतम आई.टी. तकनोलोजी का सहारा लेकर काम कर रही है, उसके आगे हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स की प्रचार मशीनरी भी बेहद छोटी और कम असरदार थी। कांग्रेस और अन्य बुर्जुआ पार्टियों के भी आई.टी.सेल हैं पर उनकी साइज़, ताक़त, विस्तार और प्रभाविता संघियों के आई.टी.सेल के आगे कुछ भी नहीं है ! गौरतलब है कि आई.टी. सेल के अतिरिक्त अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों और मोहल्ले-मोहल्ले तक फैले शाखाओं के नेटवर्क के ज़रिये काम करने वाली संघ की पारंपरिक प्रचार मशीनरी आज भी उसी प्रभाविता के साथ काम कर रही है।
ज़ाहिर है कि इस विकट अफ़वाह-तंत्र और उत्तेजना-भड़काऊ तंत्र को संगठित करने में पैसे की बहुत बड़ी भूमिका है, पर उससे भी बड़ी भूमिका मानव-उपादान की है। असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त जिस भारतीय पूँजीवाद ने राजनीतिक-सामजिक पटल पर धार्मिक कट्टरपंथी फ़ासिज़्म के इस विकट उभार को जन्म दिया है, उसी ने सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में उस गन्द भरे आत्मिक-सांस्कृतिक महागर्त का निर्माण किया है जिसमें आत्मा और शरीर पर संक्रामक बीमारियों के चकत्ते लिये पीले-बीमार चेहरों वाले मध्यवर्गीय कीड़े बिलबिला रहे हैं। इन कीड़ों को उग्र फ़ासिस्ट नारों की उत्तेजक नशीली खुराक से ही थोड़ा चैन मिलता है। सोशल मीडिया पर जो ट्रोल और साइबर गुण्डे लगातार आकर गाली-गलौज करते रहते हैं, ये सभी वेतनभोगी टट्टू नहीं हैं। इनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जो अपनी ज़िन्दगी की निराशाओं-कुंठाओं-रुग्णताओं में जीते हुए और फ़ासिस्ट प्रचार की नियमित खुराक पर पलते हुए तर्क और विवेक की दुनिया से कोसों दूर जा चुके हैं। ये मनोरोगी किस्म के लोग तर्क, विवेक और सेक्युलर-लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वालों से रोम-रोम से घृणा करते हैं, मुसलमानों से घृणा करते हैं, आज़ादख़याल स्त्रियों से घृणा करते हैं और उन मज़दूरों से घृणा करते हैं जो ग़ुलामों की तरह पीठ झुकाए जीने के बजाय अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाते हैं। जब भी ये भड़क कर उन्माद के रोगियों की तरह प्रलाप शुरू करते हैं तो इनके मुँह से निकालने वाली गालियाँ स्त्रियों के प्रति इनकी मनोरुग्णता को सरेआम उघाड़कर रख देती हैं। अपने रोज़मर्रा के जीवन में किसान भी अक्सर गालियाँ देते हैं, पर ये उनकी आदत-सी होती है जो उनके किसानी जीवन की उबाऊ गतिहीनता और प्रतिगामी सांस्कृतिक माहौल की देन होती है। किसान जब अपने बेटे को भी बेटी की गाली देता है तो उसके शब्दार्थ पर उसका दिमाग़ जाता ही नहीं। गालियाँ उसके लिए डाँटने, अपमानित करने और स्त्रियों और युवाओं को अपनी सत्ता का अहसास दिलाने का माध्यम होती हैं। लेकिन एक फ़ासिस्ट ज़हनियत का मध्यवर्गीय नागरिक जब यौन-हिंसा का अर्थ लिये हुए कोई गाली देता है तो वह शाब्दिक स्तर पर वह हिंसा स्वयं करने का, कल्पना में उसे जीने का रुग्ण परपीड़क आनन्द लेता है। फ़ासिस्ट जब अपने किसी विरोधी पर चुन-चुन कर और रच-रच कर गालियों और तमाम भद्दी बातों की बौछार करता है तो उसके राजनीतिक स्तर के हिसाब से यह उसके राजनीतिक संघर्ष का उच्चतम रूप होता है, और सांस्कृतिक-आत्मिक स्तर के हिसाब से, यह उसका उच्चतम कोटि का मनोरंजन होता है। उसके मनोरंजन का उच्चतम स्तर एक कामोन्माद के रोगी के आत्म-उत्तेजन और एक सड़क के कुत्ते के चरमसुख से अधिक कुछ नहीं हो सकता !
अब यह सवाल कि इन मनोरोगी, कटकटाये कुत्तों जैसे गुण्डों की भीड़ के पीछे चिकने-चुपड़े चेहरों वाले जो शान्तचित्त फ़ासिस्ट नीति-निर्धारक और रणनीतिशास्त्री बैठे हैं, दरअसल वे क्या सोचते हैं। पहली बात, फ़ासिस्ट नेता और बुद्धिजीवी भी विभाजित व्यक्तित्व और विकृत मानसिकता के लोग हुआ करते हैं। बुर्जुआ राजनीति की बाध्यताएँ उन्हें खुलकर गाली-गलौज की भाषा में बात नहीं करने देतीं, पर उनके भाड़े के टट्टू और छुटभैय्ये नेता जब गाली-गलौज और बेहद फूहड़-गन्दी बातें करते हैं तो यह चीज़ उन्हें भी एक किस्म की मानसिक तृप्ति और आत्मिक आनन्द देती है। भूलना नहीं चाहिए कि स्त्रियों को बर्बर, गन्दी गालियाँ देने वाले अनेक साइबर गुण्डों को ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी ख़ुद फ़ॉलो करते हैं। हर गाली में फ़ासिस्ट को अपने विरोधी को पराभूत करने के साथ ही स्त्रियों को अपमानित करने और कुचलने का भी आनन्द मिलता है। इसीलिए, कह सकते हैं कि जो स्त्रियाँ फ़ासिस्टों की नेतृत्व मण्डली में स्थान हासिल करती हैं और उनकी वाहिनियों में पल्लू खोंसकर उन्मादी नारे लगाती हैं, वे दोनों ही अपने व्यक्तिगत इतिहास और वर्ग-पृष्ठभूमि के मिले-जुले कारणों से विघटित और विकृत स्त्री-चेतना वाली स्त्रियाँ होती हैं।
वैज्ञानिक आलोचना अपने सबसे तीखे रूप में भी आक्रामक तर्क के साथ साहित्यिक भाषा में विपक्ष पर प्रहार करती है, व्यंग्य करती है, उसपर चोट करती है, पर किसी भी सूरत में वह व्यक्तिगत गन्दे आक्षेपों और भद्दे-अश्लील, स्त्रियों और पूरी मानवता को अपमानित करने वाले गाली-गलौज तक नहीं उतर सकती। समाज में आप आम तौर पर देखेंगे कि अफ़वाहबाज़ी और गाली-गलौज पर आम तौर पर वही लोग उतारू होते हैं जो या तो वैज्ञानिक मनोवृत्ति के लोग नहीं होते, या फिर ऐसे फ़र्ज़ी भद्रपुरुष होते हैं जिनकी आलमारी में कंकाल बन्द रहते हैं। जैसे, मार्क्सवादी यह मानकर चलते हैं कि राजनीति और सिद्धान्त की बात छोड़कर जब भी कोई व्यक्तिगत आक्षेप और कुत्सा-प्रचार करता है, तो वह कोई भगोड़ा, पतित तत्व या स्टेट-एजेंट होता है। प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चेतना का उन्नततम संगठित रूप होने के नाते, फ़ासिस्ट मानस की संरचना ही ऐसी होती है जो बुनियादी तौर पर वैज्ञानिक तर्कणा का ही विरोधी होता है। फ़ासिस्ट मानस किसी न किसी किस्म की ‘फे़टिश’ (अन्धभक्ति) की ख़ुराक पर जीता है। तर्क और तथ्य की बातें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और इतिहास-बोध की बातें उसके तन-बदन में आग लगा देती हैं। फ़ासिस्ट बुद्धिजीवी के मिथ्याभासी तर्क गढ़े गये तथ्यों की बुनियाद पर खड़े होते हैं। अगर आप उसकी धारणाओं पर चोट करते हैं, तो, चूँकि वह तर्क कर ही नहीं सकता, इसलिए उसके सामने गाली-गलौज के सिवा कोई रास्ता बच ही नहीं जाता। उसका बस चले तो वह ऐसे तमाम लोगों की जान ले ले। लेकिन समस्या यह है कि एक रस्मी ही सही, लेकिन बुर्जुआ संसदीय प्रणाली में काम करने के चलते सारे तर्कशील बुद्धिजीवियों को दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश की तरह मौत के घाट तो नहीं उतारा जा सकता। गाली-गलौज, मारपीट और आतंकित करने से, और सत्ता में होने पर क़ानूनी दबावों के द्वारा ही फ़ासिस्ट लक्ष्य पाने की कोशिश करेंगे। फिर अन्तिम विकल्प, यानी हत्या, तो हाथ में रहेगा ही।
फ़ासिस्ट सोचते हैं कि जब वे भद्दी-भद्दी गालियाँ सड़कों पर या सोशल मीडिया पर देंगे तो शरीफ़ नागरिक, और विशेषकर स्त्रियाँ, सकुचाकर, शरमाकर, हतोत्साहित होकर चुप लगा जायेंगी। इसका एकमात्र जवाब यह है कि उन्हें यह दो-टूक बता दिया जाये कि कुत्तों और मनोरोगियों से भला क्या शरमाना? कुकर्म करो तुम, मानसिक बीमार हो तुम, और शर्मायें हम? अगर वे बरखा दत्त, रवीश कुमार, स्वाति चतुर्वेदी, अभिसार आदि से लेकर साध्वी मीनू जैन और कविता कृष्णपल्लवी पर बेहद अश्लील टिप्पणियों और गालियों की बौछार करते हैं तो इन लोगों को नहीं, बल्कि शर्माना चाहिए सुषमा स्वराज,निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, हेमा मालिनी, वसुंधरा राजे आदि-आदि को, और ऐसी मनोरोगी औलादों के माँ-बाप को।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019
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