देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?
सनी सिंह
इस साल भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने सालाना त्योहार की तरह केन्द्र सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियों के खि़लाफ़ आम हड़ताल की घोषणा की और 8-9 जनवरी को औद्योगिक क्षेत्रों से लेकर सर्विस सेक्टर व यातायात विभाग में काम प्रभावित रहा। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ही आकलन के अनुसार कुल मिलाकर 20 करोड़ मज़दूरों ने इस हड़ताल में भागीदारी की। अरुण जेटली ने भी इस हड़ताल के बाद मजबूरन बयान दिया। देश-भर में मज़दूरों को अपनी ताक़त का अहसास हुआ परन्तु इससे पहले कि इस ताक़त से कुछ ठोस हासिल होता मज़दूर वापस फ़ैक्टरियों में जा चुके थे और फिर से शोषण के चक्के में अपना हाड़-माँस गला रहे हैं। तो हम क्या सिर्फ़ इस बात से सन्तोष कर लें कि हड़ताल में इतने मज़दूरों ने भागीदारी की और अपनी ताक़त दिखायी! क्या एक दिन मज़दूरों द्वारा फ़ैक्टरियों के गेट पर लाठी बजाने से, कुछ जगह मालिकों और दलालों की पिटाई और एक बड़ी रैली निकाल लेने से मज़दूर वर्ग और मालिक वर्ग के बीच संघर्ष में कोई निर्णायक अन्तर आयेगा? इस हड़ताल के दौरान ही कई जगह लाठीचार्ज और गिरफ़्तारियाँ भी हुईं, परन्तु कहीं पर भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेतृत्व ने इन गिरफ़्तारियों या मज़दूरों पर हुए लाठीचार्ज के खि़लाफ़ इस हड़ताल को आगे बढ़ाने या किसी भी कि़स्म के इण्डस्ट्रियल एक्शन का आह्वान नहीं किया। क्या यह सब इसलिए ही नहीं था कि मज़दूर एक दिन अपनी भड़ास निकालें और व्यवस्था विरोधी क़दम न उठायें और दूसरी तरफ़ तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन और उनकी आका संसदमार्गी सामाजिक जनवादी पार्टी सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखें! हमें लगता है कि ये दो दिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है। तो फिर इस हड़ताल के प्रति मज़दूरों का क्या रवैया होना चाहिए? हमारा मानना है कि हमें दो दिवसीय हड़ताल का अनालोचनात्मक समर्थन नहीं करना चाहिए और ना ही इससे दूर रहना चाहिए, बल्कि इस हड़ताल में भागीदारी कर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हड़ताल के इस्तेमाल को बेपर्द करने के लिए हमें इसमें जमकर भागीदारी करनी चाहिए। इसमें भागीदारी कर हमें केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के हाथों से नेतृत्व को छिन लेना चाहिए, क्योंकि हड़ताल सरीखे किसी भी एक्शन में अगर ये संशोधनवादी नेता मज़दूरों को नेतृत्व देंगे तो यह मज़दूर आन्दोलन में भी मज़दूरों के नेतृत्व पर अपनी दावेदारी मज़बूत करते हैं।
हमें एक या दो दिन की हड़ताल के ज़रिये सामाजिक जनवादियों द्वारा मज़दूर वर्ग के औज़ार को बेकार करने की साजि़श को बेनकाब करना होगा
क्या इस हड़ताल के बाद राज्य सरकारें तय न्यूनतम वेतन लागू करने लगेंगी? या बढ़े हुए रेट से वेतन मिलने लगेगा? ठेका प्रथा ख़त्म हो जायेगी? फ़ैक्टरियों के हालात सुधार जायेंगे? नहीं! ऐसा नहीं होने वाला है। यह बात हम और आप अपनी ज़िन्दगी के हालात को देखकर अच्छी तरह समझते हैं। ठेका प्रथा का दंश झेल रहे मज़दूरों के एक सशक्त आन्दोलन को खड़ा करने या मज़दूरों के अधिकारों को हासिल करने के लिए कोई प्रोग्राम लेने की बजाय ऐसी ग़द्दार ट्रेड यूनियनें एक दिन की हड़ताल की नौटंकी से मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की क़वायद में जुटी हुई हैं। 1990 में नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से केवल दिल्ली राज्य के स्तर पर नहीं बल्कि क़रीब 20 बार देश के स्तर पर ‘भारत बन्द’, ‘आम हड़ताल’, ‘प्रतिरोध दिवस’ का आह्वान ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें देती आयी हैं, परन्तु ये अनुष्ठानिक हड़तालें महज़ मज़दूरों के गुस्से के फटने से पहले प्रेशर को कम करने वाले सेफ़्टी वाल्व का काम कर इस व्यवस्था की ही रक्षा करती हैं। वैसे जब मोदी सरकार संसद में बैठकर श्रम क़ानूनों को तोड़ने-मरोड़ने का काम कर रही होती हैं, तब ये यूनियनें चूँ तक नहीं करतीं। तब इनकी शिकायत महज़ यह होती है कि इनसे इस बात की सहमति नहीं ली गयी! मतलब अगर सहमति ली जाती तो मज़दूर विरोधी क़ानूनों को लागू होने में इन्हें कोई परेशानी नहीं थी!
यह हड़ताल किन यूनियनों द्वारा आयोजित करवायी जा रही है? सीटू, एटक, एक्टू से लेकर एचएमएस व अन्य केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के साथ कुछ अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी संगठन मज़दूर सहयोग केन्द्र या इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र, जो इनकी पूँछ पकड़कर चलते हैं, इस तरह की एक दिन की हड़ताल आयोजित करवाने में अपनी पूरी ताक़त झोंक देते हैं। जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और विधानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? पश्चिम बंगाल में टाटा का कारख़ाना लगाने के लिए ग़रीब मेहनतकशों का क़त्लेआम हुआ तो सीपीआई व सीपीएम से जुड़ी ट्रेड यूनियनों ने इसके खि़लाफ़ कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी? जब कांग्रेस और भाजपा की सरकारें मज़दूरों के हक़ों को छीनती हैं तो भारतीय मज़दूर संघ, इण्टक आदि जैसी यूनियनें चुप्पी क्यों साधे रहती हैं? ज़्यादा से ज़्यादा चुनावी पार्टियों से जुड़ी ये ट्रेड यूनियनें इस तरह रस्मी प्रदर्शन या विरोध की नौटंकी ही करती हैं। साथियो, केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इस व्यवस्था की रक्षक हैं जो इस तरह के प्रदर्शनों से व्यवस्था को संजीवनी प्रदान करती हैं। दूसरी बात यह कि 5 करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ये यूनियनें इन मज़दूरों के हक़ों को ही सबसे प्रमुखता से उठाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँग इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। देश की 51 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में 84 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हैं, परन्तु ये न तो उनके मुद्दे उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है। तीसरी बात अगर यह वाक़ई न्यूनतम वेतन को नयी दर से लागू करवाना चाहती हैं और केन्द्र व राज्य सरकार के मज़दूर विरोधी संशोधनों को सच में वापस करवाने की इच्छुक हैं तो क्या इन्हें इस हड़ताल को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाना चाहिए? यानी कि तब तक जब तक सरकार मज़दूरों से किये अपने वादे पूरे नहीं करती और उनकी माँगों के समक्ष झुक नहीं जाती है। मज़दूर इसके लिए तैयार हैं, परन्तु ये यूनियनें ऐसा कभी नहीं करेंगी! रिको से लेकर मारुति के मज़दूरों के संघर्षों में ये लोग क्यों नहीं हड़ताल पर उतरे और 5 करोड़ सदस्यता को काम बन्द करने को क्यों नहीं कहा? वज़ीरपुर के मज़दूरों की 2014 में हुई हड़ताल के समर्थन में इन्होंने हड़ताल क्यों नहीं की? क्योंकि इनका मक़सद मज़दूरों के हक़-अधिकार जीतना नहीं, बल्कि मज़दूरों का गुस्सा हद से ज़्यादा बढ़ने से रोकना है। इनके साथ ही इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र और मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन भी हैं, जो वैसे ख़ुद को क्रान्तिकारी घोषित करते हैं और इन केन्द्रीय यूनियन को दलाल बताते हैं, लेकिन इन एक दिन की हड़तालों में इनकी पूँछ पकड़ कर चलते हैं और रस्म अदायगी में हिस्सेदारी करते हैं। इनके भी इस दोगलेपन को मज़दूरों को समझना चाहिए।
हमारा मानना है कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एक दिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो।
हम यह देख चुके हैं कि केवल एक दिन या दो दिन की हड़ताल के ज़रिये ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें पूँजीवादी व्यवस्था को संजीवनी बूटी देती हैं। परन्तु इस हड़ताल में मज़दूर का सबसे उन्नत हिस्सा भी फ़ैक्टरियाें को बन्द करवाने में और हड़ताल के दौरान निकाल रही रैली में शामिल होता है। इसलिए मज़दूर वर्ग के हिरावल को भी इन हड़तालों में शामिल होकर इस हड़ताल का इस्तेमाल केन्द्रीय ट्रेड यूनियन और अराजकता संघाधिपत्यवादी राजनीति का भण्डाफोड़ हेतु करना चाहिए। दिल्ली के इण्डस्ट्रियल इलाके़ वजीरपुर में पिछले तीन साल से मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियन ‘दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन’ ऐसे सभी एक या दो दिवसीय आह्वानों का भण्डाफोड़ हड़ताल में भागीदारी के बरक्स हड़ताल की रैलियों में पर्चा बाँटकर करती थी, परन्तु यूनियन की प्रत्यक्ष अवस्थिति हड़ताल का विरोध करने की बनती थी। इस साल केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर दिल्ली के वजीरपुर इलाके़ में हमने केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों से अलग फ़ैक्टरी इलाके़ में हड़ताल की जिसके ज़रिये केन्द्रीय ट्रेड यूनियन को बेहतर ढंग से नंगा किया जा सका। निश्चित ही अलग मज़दूर इलाक़ों और ट्रेड यूनियनों की ताक़त के अनुसार यह हर जगह अलग किस्म से लागू होगा, परन्तु इस अनुभव से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें इन संघर्षों में भागीदारी कर मज़दूरों के बीच संशोधनवादी राजनीति को नंगा करना चाहिए और मज़दूरों को इन सामाजिक जनवादियों के नेतृत्व में एक दिन भी अकेले नहीं छोड़ना है। नीमराना में डाइकिन कम्पनी के मज़दूरों ने 8 जनवरी को हड़ताल के समर्थन में रैली निकाली, जिसके बाद डाइकिन कम्पनी गेट पर पुलिस और कम्पनी बाउंसरों ने मज़दूरों पर लाठीचार्ज किया और पत्थरबाजी की। इस घटना के विरोध में तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और अपने को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का विकल्प बताते परन्तु उनकी पूँछ में कँघा करने वाले अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ और ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने केवल क़ानूनी दाँवपेंच लड़े और अपने को सिर्फ़ ज्ञापन देने और तथ्यान्वेषण टीम तक ही सीमित रखा। अगर इस लाठीचार्ज के विरोध में गुड़गाँव धारूहेड़ा मानेसर से लेकर नीमराना में हज़ारों की सदस्यता वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें अनिश्चितकालीन हड़ताल का ऐलान कर देतीं, तो प्रशासन मज़दूरों के खि़लाफ़ दर्ज किये झूठे मुक़दमे वापस लेता और दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्यवाही करता इसकी सम्भावना अधिक थी, परन्तु इस माँग को लेकर केवल आटोमोबाइल इण्डस्ट्रियल काण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन अभियान चलाती रही जिसे मज़दूरों में भारी समर्थन मिला, लेकिन किसी भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन ने और ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ और ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने ऐसा आह्वान नहीं दिया। इस घटनाक्रम से भी यह निष्कर्ष निकलता है कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाने को हमें शिद्दत से बेपर्द करना होगा और इसके लिए हमें केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा दिये आम हड़ताल के आह्वान में मज़दूर वर्ग का नेतृत्व देकर यह करना होगा, जब तक कि इस राजनीति को मज़दूर आन्दोलन से ख़त्म न किया जा सके। साथ ही इनकी पूँछ पकड़कर मज़दूर आन्दोलन की सवारी करने निकले अराजकतावादी संगठनों की राजनीति की पोल खोलनी होगी।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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