सब मज़दूरों के हित एक जैसे हैं, और मालिकों के एक जैसे!

प्रवेश शर्मा, पानीपत, हरियाणा

मज़दूर भाइयो, मैं हरियाणा के पानीपत शहर में रहता हूँ। मेरी उम्र तेईस साल है और यहाँ तीन साल से एक रेडीमेड कपड़े की दुकान पर नौकरी कर रहा हूँ। मेरा जन्म ग्रामीण क्षेत्र में हुआ और वहीं मेरा बचपन बीता। मेरा जन्म एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ लेकिन मेरे पिताजी पूजापाठ और कर्मकाण्ड की बजाय हमारी छोटी सी ज़मीन पर खेती ही करते थे। कुछ ज़मीन तो हमारी अपनी थी और कुछ ठेके पर लेते थे लेकिन पानी की दिक्कत थी, खेती से गुजारा नहीं हो रहा था हर साल नुकसान ही उठाना पड़ता था।
लगभग 2003 में पिताजी अपनी थोड़ी सी ज़मीन को ठेके पर देकर पानीपत आ गये और एक फैक्टरी में नौकरी करने लगे। और थोड़े दिनों बाद हमारा पूरा परिवार ही पानीपत आ गया। तब तक मैं सातवीं कक्षा में हो चुका था। घर के हालात के कारण पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा था। देर-सबेर हमें भी पिताजी के साथ लगना ही था जिससे कि परिवार को आर्थिक मदद मिल सके। बड़े भाई उस समय नौवीं कक्षा में थे उन्होंने उसी समय से फैक्टरी में काम करना शुरू कर दिया था और पढ़ाई ओपन से जारी थी। पैसे की दिक्कत के कारण वे बड़ी मुश्किल से दसवीं कर पाये। जैसे ही मैं स्कूल से आता तो घर पर होने वाले पीस रेट के काम में हाथ बँटाता जैसे कि धागे की गाँठों को सुलझाना या चद्दर की गाँठें बाँधना। मेरी माँ भी लगी रहती और उन्हें घर के काम भी करने पड़ते थे।
मैंने भी आर्थिक तंगी के चलते 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़कर काम करना शुरू कर दिया। काम के दबाव के कारण हमारा परिवार अधिकतर समय बीमार ही रहता था। मेरे पिताजी को फैक्टरी में जबरन ओवरटाइम करना पड़ता था। 10 घण्टे की शिफ्ट होती थी और दो घण्टे अतिरिक्त काम के कोई पैसे भी नहीं मिलते थे। यहाँ पर अब भी यही हाल है। फैक्टरी भी 13 किलोमीटर दूर थी जहाँ उन्हें साइकिल से जाना पड़ता। अपना मकान बनाने के चक्कर में हम कर्ज़ में डूब गये जिस कारण हमें दिन-रात मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी और फैक्टियों में खटना पड़ा। हम दोनों भाइयों की शादियों में परिवार पर फिर कर्ज़ चढ़ गया। अब मैं, मेरा भाई और पिताजी तीनों काम करते हैं और फिर भी ढंग से खर्च नहीं चला पाते। लेकिन शहर में रहकर और जीवन के लिए संघर्ष करके मुझे यह एहसास ज़रूर हुआ कि काम करने वालों के हक़-अधिकार एक जैसे होते हैं और मालिकों के हित एक जैसे होते हैं चाहे फिर वे किसी भी जाति और धर्म के क्यों न हों। खान-पान को लेकर बनी सोच और ऊँच-नीच के तमाम विचार अब मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते। मुझे दुकान पर जहाँ काम करते हैं वहीं एक साथी के माध्यम से भगतसिंह के विचारों के बारे में और मज़दूरों के अधिकारों के बारे में जानकारी मिली।
‘मज़दूर बिगुल’ आज मज़दूरों के लिए बहुत बढ़िया काम कर रहा है यह मज़दूरों को उनके हक़-अधिकारों के लिए सही ढंग से लड़ने की प्रेरणा देता है, एकता कायम करने की बात करता है और देश-दुनिया के मज़दूरों के हालात की जानकारी देता है और मज़दूरों के शोषण से रहित व्यवस्था कायम करने की बात करता है। मुझे बिगुल अख़बार का बेसब्री से इन्तजार रहता है और अपने दोस्तों के दायरे में भी मैं अखबार के बारे में बताता हूँ। मैं अपनी मार्किट के सेल्समैनों से भी बात करता रहता हूँ पर आमतौर पर वे अपनी कम चेतना के चलते, और नौकरी छूट जाने के चलते आगे नहीं आ पाते। किन्तु लगातार बातचीत के कारण और अपने काम करने के हालात के चलते कुछ-कुछ चीज़ों को समझने भी लगे हैं तथा धीरे-धीरे जागृति आ रही है। मुझे उम्मीद है बिगुल अखबार इसी तरह से देश के मज़दूरों को शिक्षित करता रहेगा।

मज़दूर बिगुल, मई 2016


 

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