Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

पहले अद्धा दो फिर होगा इलाज

मैं एक मज़दूर हूँ और लुधियाना में करीब 10-11 साल से काम कर रहा हूँ। मेरा छोटा भाई जगन्नाथ सात-आठ साल से यहाँ काम कर रहा है। पिछले नौ महीने से वह न्यू शन फैक्टरी, फोकल प्वाइण्ट, फेस-8 में काम कर रहा था। इसी वर्ष 21 जनवरी को अचानक काम के दौरान उसके बायें हाथ की एक उँगली टूट गयी। फैक्टरी वाले उसे एक नज़दीकी प्राईवेट अस्पताल में भर्ती करवा दिये। मालिक की इस अस्पताल से साँठ-गाँठ थी। दो दिन तक उसी अस्पताल में इलाज करवाकर उसे छुट्टी दे दी गयी। चार दिन घर पर दवाई हुई। 27 जनवरी को मेरे छोटे भाई का ई.एस.आई. कार्ड बनाया गया लेकिन उसे 30 जनवरी को ही दिया गया। मेरे भाई को कहा गया कि अब वो अपना इलाज ई.एस.आई. से करवाये। ई.एस.आई. डिस्पेंसरी में पर्ची बनवाने के लिए लम्बी लाइन लगी थी। पर्ची बनाने वाला बार-बार उठकर इधर-उधर घूम रहा था। मैंने कहा सर जी जल्दी पर्ची बना दीजिये मेरे छोटे भाई की उँगली बहुत दर्द कर रही है। लेकिन उस समय 1 बज गया था। पर्ची बनाने वाले ने कहा कि अब तो वो खाना खाने जायेगा। वो करीब ढाई बजे आया और बोला अब नहीं बनेगा क्योंकि उनके स्टाफ के किसी व्यक्ति का रिटायरमेंट पार्टी है। तुम लोग अगले दिन आना। मैंने कहा कि सर जी डॉक्टर साहब से मिलना बहुत ज़रूरी है नहीं तो उँगली ख़राब हो जायेगी। करीब 10 मिनट तक हमको रोके रखने के बाद पर्ची बनाने वाले ने कहा कि अगर आज ही पर्ची बनवाना है तो एक अंग्रेजी अधिया लाकर देना होगा। वो पहले ही दारू पी रखा था। मैंने कहा कि आप तो पहले ही पिये हुए हो कल पी लीजियेगा। मेरी बात पर वो गुस्से में बोला कि आज तेरी पर्ची नहीं मिलेगी, कल सुबह आकर ले लेना। हम दोनों अगली सुबह 9 बजे वहाँ पहुँचे। करीब 11 बजे कोई दूसरा व्यक्ति पर्ची बनाने के लिए आया। चार बजे डॉक्टर आया। उसने एक हफ़्ते की दवा लिख दी। ई.एस.आई. स्टोर में दवा लेने गये तो वहाँ हमें पूरी दवा नहीं दी गयी। बाकी दवा हमें बाहर मेडिकल स्टोर से लेने के लिए कहा गया। अब हमें दवाइयाँ बाहर से लेनी पड़ रही हैं और इलाज भी बाहर से कराना पड़ रहा है। हमारा दो हफ्ते में करीब दो हज़ार रुपये खर्चा हो चुका है। जो छुट्टी का पैसा मिलना था उसके लिए आज-कल करके दौड़ाया जा रहा है। लगभग एक महीना होने वाला है लेकिन पैसा नहीं मिल रहा। पूछो तो कहते हैं कि जल्दी है तो पहले दो सौ रुपया महीना देना पड़ेगा। हमने कहा कि हमारे पास तो दवा करवाने के लिए पैसा नहीं है आपको कहाँ से दें। इस बात को सुनकर हमें कहा गया कि यहाँ नेतागिरी नहीं चलेगी। फिर कहा गया कि इलाज यहाँ पर नहीं अब पुलिस चौकी में होगा।

मज़दूरों की लूट के लिए मालिकों के कैसे-कैसे हथकण्डे

यहीं पर मैंने देखा कि पीस रेट पर काम करने वाले कारीगरों को लूटने के लिए मालिक कैसी-कैसी तिकड़म करते थे। कारीगर सुबह जल्दी आकर लूम पर जुट जाते थे कि ज़्यादा पीस बना लेंगे तो ज़्यादा कमा लेंगे। लेकिन मालिक के चमचे फ़ोरमैन और मैनेजर आख़िर किसलिये थे? कारीगर अगर 9 या 10 चादर तैयार कर लेता था तो उसमें से 3-4 चादर मामूली फाल्ट निकाकर रिजेक्ट कर देते थे। उसका एक भी पैसा मज़दूर को नहीं मिलता था हालाँकि मालिक तो उसे बेच ही लेता था। लम्बाई में आध-पौना इंच की कमी-बेशी हो जाये तो माल रिजेक्ट। अगर बहुत हिसाब से कारीगर लम्बाई का ध्यान रखे, तो वज़न में 10-20 ग्राम कमी-बेशी निकालकर रिजेक्ट कर देते। यही हाल कढ़ाई के कारीगरों का होता था। कुछ न कुछ नुक्स निकालकर रोज़ पैसे काट लेते थे। ‘हरीसन्स एंड हरलाज’ नाम की इस कम्पनी में 3000 मज़दूर थे। जोड़ लीजिये कि अगर रोज़ 30-35 रुपये की औसत कटौती हो तो महीने में मालिक की कितनी बचत होती होगी। यहीं पर शीना एक्सपोर्ट कम्पनी में तो कुल मिलाकर 20 हज़ार से ऊपर आदमी काम करते हैं। हरीसन्स और शीना दोनों कम्पनियों का सारा माल एक्सपोर्ट के लिए जाता है। मैंने सुना है कि कोई-कोई कढ़ाईदार चादर विदेश में 3-3 लाख रुपये में बिकती है। लेकिन एक चादर पर काम करने वाले सारे कारीगरों को मिलाकर 250 रुपये भी नहीं मिलते।

क़ानून गया तेल लेने, यहाँ तो मालिक की मर्ज़ी ही क़ानून है!

ऐसे उदाहरण तो ढेरों हैं, लेकिन मेरा मक़सद उदाहरण गिनाना नहीं बल्कि यह है कि लोगों को पता चले कि चमचमाती इमारतों, महँगी लम्बी गाड़ियों, चौड़ी सड़कों, आलीशान होटलों, कोठियों वाले देश में हम जैसे मज़दूरों की क्या औक़ात है। और यह भी, कि सरकार कितने ही क़ानून बना ले लेकिन मालिकों के लिए उन क़ानूनों का कोई मतलब नहीं। क़ानून का पालन भी हम जैसे मज़दूरों और ग़रीबों को ही करना पड़ता है!

मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है!

हमारे आसपास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनमें स्त्रियों ने मजबूरी में फ़ैक्ट्री जाना शुरू किया या अपनी आज़ादी के लिए गर्व से यह रास्ता चुना। मज़दूर मुक्ति के लिए ज़रूरी है कि स्त्रियाँ आत्मनिर्भर हों, और पुरुषों के कन्धे से कन्ध मिलाकर चलें। यदि हम आधी आबादी को क़ैद करके रखेंगे या ग़ुलाम बनाकर रखेंगे तो हम भी पूँजीवाद की बेड़ियों से आज़ाद नहीं हो पायेंगे। इसलिए मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है।

मालिक की मिठास के आगे ज़हर भी फेल

यह हालत हर फ़ैक्ट्री की है। मेरी उम्र ज़्यादा तो नहीं है, लेकिन पिछले 4 सालों में करीब 15 फ़ैक्ट्री में काम का अनुभव है। हर फ़ैक्ट्री का मालिक बड़ा मृदुभाषी मीठा दिखता है, मगर इनकी मिठास के आगे ”विष फेल” है।

संघर्ष ईमानदार-बहादुराना होगा तो समाज के अन्य तबके भी मज़दूरों का साथ देंगे

बहादुराना संघर्ष लड़ने वाले मज़दूरों के समर्थन में जिस तरह देश के अलग-अलग हिस्सों से तथा अन्य देशों से मज़दूर संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों ने समर्थन किया, प्रशासन के खिलाफ़ मुखर हुए उससे यह साबित होता है कि हक और इंसाफ़ की लड़ाई ईमानदारी और बहादुरी से लड़ने वालों के साथ देश-दुनिया के सभी इंसाफ़पसंद लोग होते हैं। अपनी लड़ाई के लिए एक बार तो मज़दूरों को खुद आगे आना ही होगा। जब संघर्ष ईमानदार और बहादुराना होगा तभी दूसरे लोग उनका साथ देंगे।

फ़ैक्ट्रियों का कुछ न बिगड़ा और मज़दूरों की बस्तियाँ भी उजाड़ दीं

इसी के उलट जब ग़रीबों-मज़दूरों की ज़िन्दगी भर की ख़ून-पसीने की कमाई से बनाये गये घरों-दुनिया को उजाड़ना होता है तब कोई दया नहीं बख्शी जाती है। एक दिसम्बर 2009 को कड़ाके की ठण्ड में सूरजपार्क (समयपुर बादली, दिल्ली) की झुग्गियों को तुड़वाने के लिए, उन निहत्थे मज़दूरों के वास्ते 1500 सौ पुलिस और सीआरपीएफ़ के जवान राइफ़ल, बुलेट प्रूफ़ जैकेट, आँसू गैस के साथ तैनात थे। चारों तरफ़ से बैरिकैड बनाकर डी.डी.ए. के आला अफ़सर, स्थानीय नेता, आस-पास के थानों की पुलिस पूरी बस्ती में परेड करते हुए मज़दूरों में दहशत पैदा कर रहे थे। सारे मज़दूर डरे-सहमे हुए, कोई किसी पुलिस वाले का पैर पकड़ रहा है, तो कोई किसी अफ़सर या नेता आगे हाथ जोड़ रहा है। कड़ाके की ठण्ड में उनका दुख देखकर किसी का भी दिल नहीं पसीजता और फिर शुरू होता है तबाही का मंज़र। पाँच इधर से पाँच उधर से बुलडोज़र धड़ाधड़-धड़ाधड़ झुग्गियाँ टूटना शुरू हो गयीं। उन डरे-सहमे मज़दूरों ने अपनी दुनिया को अपने सामने उजड़ते देखा। भगदड़ में कोई आटा घर से निकालकर ला रहा है, कोई चावल, कोई गैस— 3 घण्टे की इस तबाही ने क़रीब 5 हज़ार लोगों की दुनिया उजाड़ कर उनको सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया।

अण्णा हज़ारे जी के नाम कुछ मज़दूर कार्यकर्ताओं की खुली चिट्ठी

भ्रष्टाचार का सामना हम आम ग़रीब लोग अपनी रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी में सबसे अधिक करते हैं। कदम-कदम पर छोटे से छोटे काम के लिए जो रिश्वत हमें देनी पड़ती है, वह रकम खाते-पीते लोगों को तो कम लगती है, मगर हमारा जीना मुहाल कर देती है। भ्रष्टाचार केवल कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी ही नहीं है। सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो यह है कि करोड़ों मज़दूरों को जो थोड़े बहुत हक़-हकू़क श्रम क़ानूनों के रूप में मिले हुए हैं, वे भी फाइलों में सीमित रह जाते हैं और अब उन्हें भी ज़्यादा से ज़्यादा बेमतलब बनाया जा रहा है। अदालतों से ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता। पूँजी की मार से छोटे किसान जगह-ज़मीन से उजाड़कर तबाह कर दिये जाते हैं और यह सब कुछ एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है! जिस देश में 40 प्रतिशत बच्चे और 70 प्रतिशत माँएँ कुपोषित हों, 40 प्रतिशत लोगों का बाँडी मास इण्डेक्स सामान्य से नीचे हो, 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हों और 18 करोड़ बेघर हों, वहाँ सत्ता सँभालने के 64 वर्षों बाद भी सरकार यदि जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी नहीं उठाती (उल्टे उन्हें घोषित तौर पर बाज़ार की शक्तियों के हवाल कर देती हो), तो इससे बड़ा विधिसम्मत सरकारी भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा? इससे अधिक अमानवीय ”कानूनी” भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा कि मानव विकास सूचकांक में जो देश दुनिया के निर्धनतम देशों की पंगत में (उप सहारा के देशों, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि के साथ) बैठा हो, जहाँ 70 प्रतिशत से अधिक आबादी को शौचालय, साफ पानी, सुचारु परिवहन, स्वास्थ्य सेवा तक नसीब न हो, वहाँ संविधान में ”समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य” होने का उल्लेख होने के बावजूद सरकार ने इन सभी ज़िम्मेदारियों से हाथ खींच लिया हो और समाज से उगाही गयी सारी पूँजी का निवेश पूँजीपति 10 फीसदी आबादी के लिए आलीशान महल, कारों बाइकों-फ्रिज-ए.सी. आदि की असंख्य किस्में, लकदक शाँपिंग माँल और मल्टीप्लेक्स आदि बनाने में कर रहे हों तथा करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हो।

मालिक बनने के भ्रम में पिसते मज़दूर

बादली औद्योगिक क्षेत्र एफ 2/86 में अशोक नाम के व्यक्ति की कम्पनी है जिसमें बालों में लगाने वाला तेल बनता है और पैक होता है। पैकिंग का काम मालिक ठेके पर कराता है। इस कम्पनी में काम करने वाले आमोद का कहना है कि ये तो 8 घण्टे के 3000 रु. से भी कम पड़ता है। और उसके बाद दुनियाभर की सरदर्दी ऊपर से कि माल पूरा पैक करके देना है। अब उस काम को पूरा करने के लिए आमोद और उसका भाई प्रमोद और उमेश 12-14 घंटे 4-5 लोगों को साथ लेकर काम करता है। आमोद का कहना है कि कभी काम होता है कभी नहीं। जब काम होता है तब तो ठीक नहीं तो सारे मजदूरों को बैठाकर पैसा देना पड़ता है। जिससे मालिक की कोई सिरदर्दी नहीं है। जितना माल पैक हुआ उस हिसाब से हफ्ते में भुगतान कर देता है। अगर यही माल मालिक को खुद पैक कराना पड़ता तो 8-10 मजदूर रखने पड़ते। उनसे काम कराने के लिए सुपरवाइजर रखना पड़ता और हिसाब-किताब के लिए एक कम्प्यूटर ऑपरेटर रखना पड़ता। मगर मालिक ने ठेके पर काम दे दिया और अपनी सारी ज़ि‍म्मेदारियों से छुट्टी पा ली। अगर ठेकेदार काम पूरा करके नहीं देगा तो मालिक पैसा रोक लेगा। मगर आज हम लोग भी तो इस बात को नहीं सोचते हैं। और ठेके पर काम लेकर मालिक बनने की सोचते हैं। काम तो ज्यादा बढ़ जाता है मगर हमारी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं होता। इसलिए आज की यह जरूरत है कि हम सब मिलकर मालिकों के इस लूट तन्त्र को खत्म कर दें।

यहाँ-वहाँ भटकने से नहीं, लड़ने से बदलेंगे हालात

मैंने महाराष्ट्र जाकर सीखा कि हमें यहाँ-वहाँ भागकर अच्छे काम की तलाश करने के बजाय वहीं लड़ना होगा जहाँ हम काम करते हैं। भागने से हमारी समस्या हल नहीं होगी। सारे देश में ही सभी मज़दूरों की समस्या तो एक जैसी ही है। कहीं कुछ कम बुरी है तो कहीं कुछ ज़्यादा। अगर हमारी समस्याएँ साझी हैं तो निदान भी साझा ही होगा।