आपस की बात
मज़दूर कुछ करे तो क़ानून, मालिक लूटें तो कोई क़ानून नहीं
लुधियाना से एक मज़दूर
मैं यहाँ एक लोहा प्लांट में काम करता हूँ। मैं खुद लिखना नहीं जानता, यह चिट्ठी मैंने अपने एक साथी से लिखवायी है। पिछले दिनों हमारे कारखाने में एक घटना घटी। हमारे साथ काम करने वाले एक मज़दूर ने लोहे के कुछ पुर्जे जो हम बनाते हैं, अपने जूतों में छिपाकर ले जाने की कोशिश की। हमारे साथ के ही कुछ मज़दूरों को इस बात का पता चल गया और उन्होंने उससे लोहे का सामान छीन लिया। उन्होंने उस मज़दूर को पीटा और सिक्योरिटी वालों के हवाले कर दिया। उन्होंने फिर उस मज़दूर को पीटा और मालिक को बुला लिया। मज़दूर द्वारा चोरी किया गया सामान मुश्किल से 40-50 रुपये का होगा लेकिन मालिक ने मज़दूर के बार-बार माफी माँगने के बावजूद पुलिस को बुला लिया। पुलिस ने चोरी किया सामान उसके हाथों में पकड़ा कर तस्वीर ली और थाने ले जाकर बन्द कर दिया जहाँ वो एक सप्ताह से बन्द है। इस घटना के बाद मुझे बहुत बेचैनी रही। मैं सोचता हूँ कि एक मज़दूर द्वारा एक छोटी सी चोरी करने पर, वह भी पता नहीं किस मज़बूरी में की होगी, पुलिस तुरन्त पहुँच गयी और कानून अपना काम फुर्ती से करने लग पड़ा। जबकि मालिक रोज मज़दूरों को लूटते हैं और गाली-गलौज करते हैं, मज़दूरों को राह में अक्सर लूट लिया जाता है, कारखानों में रोज मालिकों की मुनाफे की हवस के कारण मज़दूरों के हाथ-पैर कट जाते हैं या वे मौत के मुँह में धकेल दिये जाते हैं। मालिक सभी श्रम कानूनों को कुछ नहीं समझते लेकिन पुलिस और कानून कभी किसी मज़दूर की मदद के लिए नहीं आते। अगर कभी मज़दूर शिकायत दर्ज करवाने थाने चले भी जायें तो पुलिस उनकी एक नहीं सुनती और कई बार तो उल्टा मज़दूरों को ही हवालात में बन्द कर दिया जाता है। मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ और रिहायश के इलाके बहुत बुरे हैं लेकिन यह किसी कानून को दिखाई नहीं देता। यह कैसा कानून है जो सिर्फ मज़दूरों पर ही लागू होता है, यह कैसा पुलिस-प्रशासन है जिसे सिर्फ मज़दूरों के गुनाह ही दिखते हैं?
मज़दूर बिगुल, मई 2012
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन