Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

बस फ़ैक्ट्री ही दिखाई पड़ती है

मैं दिल्ली के बादली इण्डस्ट्रियल एरिया के पास राजा विहार बस्ती में रहता हूँ। इसके पास से पंजाब जाने वाली रेल लाइन गुज़रती है। इस पर गाड़ियों का ताँता लगा रहता है। एक दिन सुबह ड्यूटी जाते समय मैंने देखा कि पटरी के किनारे ख़ून गिरा है। काफ़ी भीड़ थी। पता लगा कि एक मज़दूर की ट्रेन की वजह से दुर्घटना हो गयी। मज़दूर का शरीर एम्बुलेंस में पड़ा था। पुलिस वाले खाना-पूर्ति के लिए जाँच-पड़ताल कर रहे थे। मज़दूर का सिर कान के ऊपर से फट चुका था। काफ़ी ख़ून निकल रहा था। मज़दूर बेहोश पड़ा था। लोगों ने बताया कि ड्यूटी जाने की देर हो रही थी। पटरी पार करते समय राजधानी एक्सप्रेस से बचने के लिए जल्दी में भागा। जाकर खम्भे से सिर टकरा गया। मज़दूर वहीं गिर पड़ा। पुलिस एम्बुलेंस लेकर आयी, मज़दूर को लिटा दिया। मगर अस्पताल आधे घण्टे बाद ले गयी। तब तक वह फटे हुए सिर के साथ ऐसे ही बेहोश पड़ा रहा। अगर कोई पैसे वाला होता तो उसकी इतनी दुर्दशा कभी न होती। आज म़जदूर दो वक़्त की रोटी में इतना चिन्तित है कि उसे राह चलते हुए भी बस कम्पनी ही दिखायी पड़ती है कि कहीं देर न हो जाये और पैसे न कट जायें। और आये दिन मज़दूर यूँ ही सड़क दुर्घटना व ट्रेन दुर्घटना का शिकार होते रहते हैं।

पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत

पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत मोती, दिल्ली दिल्ली के बादली, समयपुर, लिबासपुर आदि इलाक़ों में प्लास्टिक की पन्नी बनाने के अनेक छोटे-छोटे कारख़ाने हैं। बड़े उद्योगों में पैकिंग की…

अनजान बचपन

सुबह ड्यूटी जा रहा था तो एक लड़का मेरे साथ-साथ चल रहा था। मुझे उसने देखा, मैंने उसे देखा। लड़के की उम्र करीब 12 साल थी। मैंने पूछा कहाँ जा रहे हो। उसने कहा ड्यूटी। कहाँ काम करते हो? लिबासपुर! क्या काम है? जूता फ़ैक्टरी! कितनी तनख्वाह मिलती है? आठ घण्टे के 3500 रुपये। मैंने पूछा, आठ घण्टे के 3500 रुपये? बोला हाँ। मैंने पूछा सुबह कितने बजे जाते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा शाम कितने बजे आते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा तो 12 घण्टे हो गये। कहा नहीं… आठ घण्टे के 3500 रुपये।

मुनाफाख़ोर मालिक, समझौतापरस्त यूनियन

मज़दूरों के पास जानकारी का अभाव होने और संघर्ष का कोई मंच नहीं होने के कारण, उन्होंने सीटू की शरण ले ली। मज़दूरों का कहना है कि हम लड़ने को तैयार हैं, लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है इसलिए हमें किसी यूनियन का साथ पकड़ना होगा। जबकि सीटू ने मज़दूरों से काम जारी रखने को कहा है और लेबर आफिसर के आने पर समझौता कराने की बात कही है। आश्चर्य की बात यह है कि संघर्ष का नेतृत्व करने वाले किसी भी आदमी ने यह स्वीकार नहीं किया कि वे संघर्ष कर रहे हैं। सीटू की सभाओं में झण्डा उठाने वाले फैक्ट्री के एक व्यक्ति का कहना था कि हमारी मालिक से कोई लड़ाई नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि जहाँ मालिक को सीटू के नेतृत्व में आन्दोलन चलने से कोई समस्या नहीं है, वहीं सीटू के लिए यह संघर्ष नहीं ”आपस की बात” है।

बेकारी के आलम में

मज़दूरों की ज़िन्दगी तबाह और बर्बाद है। बेरोज़गारी का आलम यह है कि लेबर चौक पर सौ में से 10 मज़दूर ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हें महीने भर से काम नहीं मिला। ऐसे में, जब कोई रास्ता नहीं बचता, तो ज़िन्दगी बचाने के लिए वो उल्टे-सीधे रास्ते अपना लेते हैं। ऐसे ही एक तरीक़े के बारे में बताता हूँ — भारत सरकार ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए नसबन्दी अभियान चलाया है। इसी अभियान में लगे दो एजेण्ट यहाँ के लेबर चौक पर लगभग हर रोज़ आते हैं और नसबन्दी कराने पर 1100 रुपये नकद दिलाने का लालच देकर हमेशा कई मज़दूरों को ले जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि भूख से मरते लोग कोई रास्ता नहीं होने पर इसके लिए भी तैयार हो जाते हैं।

इस जानलेवा महँगाई में कैसे जी रहे हैं मज़दूर

टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।

दिहाड़ी मज़दूरों की जिन्दगी!

मैं एक भवन निर्माण मज़दूर हूँ। मैं बिहार प्रदेश से रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आया हूँ। यहाँ मुश्किल से 30 दिनों में 20 दिन ही काम मिल पाता है। जिसमें भी काम करने के बाद पैसे मिलने की कोई गारण्टी नहीं होती है। कहीं मिल भी जाते हैं तो कहीं दिहाड़ी भी मार ली जाती है। कोई-कोई मालिक तो जबरन पूरा काम करवाकर (ज़मींदारी समय के समान) ही पैसे देते हैं और अधिक समय तक काम करने पर उसका अलग से मज़दूरी भी नहीं देते हैं। कई जगह मालिक पैसे के लिए इतना दौड़ाते हैं कि हमें लाचार होकर अपनी दिहाड़ी ही छोड़नी पड़ती है। यहाँ करावल नगर में लेबर चौक भी लगता है। जहाँ न बैठने की जगह है न पानी पीने की। चौक से जबरन कुछ मालिक काम पर ले जाते हैं नहीं जाने पर पिटाई भी कर देते हैं। दूसरी तरफ दिहाड़ी मज़दूरों की बदतर हालात सिर्फ काम की जगह नहीं बल्कि उनकी रहने की जगह पर भी है जहाँ हम तंग कमरे में रहते हैं।

हमारी कमज़ोरी का ईनाम है — ग़ालियाँ और मारपीट!

मालिक ने कारीगर को दफ्तर में बुलाया जहाँ माल लेने आयी पार्टी के भी 3-4 लोग बैठे थे। माँ-बहन की गालियाँ देते हुए उसने पूछा कि ये क्या है। कारीगर ने कहा बाबूजी, ज़रा सा पेण्ट छूटा है, अभी सही कर देता हूँ। इस पर मालिक ने पहले तो कान पकड़कर उसे बुरी तरह झिंझोड़ा और फिर दो थप्पड़ भी लगा दिये। फिर सारे मज़दूरों को गालियाँ बकने लगा। मज़दूरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसे निकालना ही था तो मारा क्यों। दो दिन से गालियाँ दे रहे हो, फिर भी हम चुप हैं। इसके जवाब में उसने अगले ही दिन 22 लोगों को बाहर कर दिया। हमें चुपचाप चले आना पड़ा।

मज़दूरों में मालिक-परस्ती कम चेतना का नतीजा है

इन सब स्थितियों के बाद भी मज़दूर कहते हैं, ‘मालिक बहुत दिलदार है।’ इसका कारण यह है कि उन्हें न तो अपने अधिकारों की जानकारी है और न ही इस बात की चेतना है कि इंसाफ और बराबरी किस चिड़िया का नाम है। इसीलिए मालिकों से छोटे-छोटे टुकड़े पाकर ही मज़दूर ख़ुश हो जाते हैं। हमें मज़दूरों में फैली इस सोच के ख़िलाफ भी लड़ना होगा, क्योंकि यह मानसिकता मज़दूरों को संगठित होने में बाधक है।

तनख्वाह उतनी ही, मगर काम दोगुना

मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि एक जगह काम छोड़कर दूसरी जगह काम पकड़ लेने से इस लूट से उनका पीछा नहीं छूटेगा। क्योंकि भारत तो क्या दुनिया भर में कोई कारख़ाना ऐसा नहीं होगा जहाँ पर पूँजीपति मज़दूरों की मेहनत की लूट के लिए ऐसे हथकण्डे न अपनाते हों। और न ही मशीनें ख़राब करने से यह लूट ख़त्म हो सकती है। 200 साल पहले, जब मज़दूर अपने शोषण का कारण नहीं समझ पाते थे तो वे अपना गुस्सा मशीन पर निकालते थे। लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे उनकी हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला। कुछेक मशीनें ख़राब होने से मालिक की सेहत पर ज्यादा असर नहीं होगा और कैमरे आदि के ज़रिए जब कुछ मज़दूर पकड़ लिये जायेंगे तो यह सिलसिला अपने आप ही ख़त्म हो जायेगा।