यहाँ मज़दूर की मेहनत की लूट के साथ ही उसकी आत्मा को भी कुचल दिया जाता है
लुधियाना की एक होज़री मज़दूर
मैं लुधियाना के फोकल प्वाइण्ट स्थित नाहर फैक्टरी में काम करती हूँ। यहाँ सिलाई का काम होता है। कमीजें, पैंटें, जींसें, निकरें, मैक्सियाँ, टी-शर्ट आदि यहाँ सिली जाती हैं। ‘कॉटन काउण्टी’ के नाम से इनका खुद का शोरूम है। यहाँ अनेक अन्य ब्राण्डों के लिए भी सिलाई का काम होता है। मोंटे कार्लो, पीटर इंग्लैण्ड, मैक्स आदि इनमें प्रमुख हैं।
एक कमीज या एक पैंट या फैक्टरी की भाषा में कहें तो प्रोडक्शन के पीस पर 30 से 50 सिलाई मशीनों पर काम होता है। इस तरह प्रोडक्शन की एक लाइन तैयार की जाती है। प्रोडक्शन लाइन में मशीनों की संख्या पीस के डिजाइन से तय होती है। अगर किसी लाइन पर 40 मशीनें हैं तो उसके लिए 40 टेलर, निशान आदि लगाने के लिए लगभग 15 हेल्पर लगाये जाते हैं। कुल मिलाकर कारखाने में तीन से चार हज़ार मज़दूर काम करते हैं जिनमें अधिक संख्या स्त्रियों की है।
मज़दूरों से अधिक से अधिक काम लेने के लिए इंचार्जों, सुपरवाइजरों, चेकरों और लग्गु-भग्गुओं का टोला अपने मुँहों में हण्टर रूपी जुबान लेकर तैनात रहते हैं जो सड़ासड़ हम पर बरसते रहते हैं। माँ-बहन की गालियाँ देते हुए, बात-बेबात ज़लील करते हुए हमारे सिर पर सवार रहते हैं। मशीन धागा तोड़ रही है, मशीन आवाज़ कर रही है, उसमें तेल खत्म हो गया है, पेंसिल को छीलना है, चॉक खत्म हो गया है, फैब्रिक में कोई डिफेक्ट है, धागा खत्म हो गया है आदि सभी छोटी-छोटी बातों के लिए माँ-बहन की गालियों के साथ हमें ज़लील किया जाता है।
नाहर में कौन-से श्रम कानून लागू होते हैं — यह हमें नहीं पता। आपकी तनख्वाह से कितने पैसे काट लिये गये, क्यों काट लिये गये — कहीं कोई सुनवाई नहीं। यहाँ पीएफ़, बोनस, ईएसआई, ग्रेच्युटी के बारे में क्या नियम हैं — हमें नहीं मालूम। 8-10 साल से काम करने वाले लोगों को भी नहीं मालूम। कोई कुछ पूछ नहीं सकता। जो पूछने की हिमाकत करता है, उसका हिसाब कर दिया जाता है।
रोज दो से लेकर चार घण्टे तक ओवरटाइम लगता है। लेकिन ओवरटाइम के पैसे डबल के बजाय सिंगल रेट से दिये जाते हैं। एक सेलरी स्लिप जैसी कोई पर्ची हमारे दस्तखत करवाकर देखने के लिए दी जाती है जो 5-10 मिनट बाद फिर वापिस ले ली जाती है। इसमें भी सब गड़बड़ घोटाला होता है। ओवरटाइम का भुगतान इसमें मेडिकल वाली एक मद में लिखा होता है।
अगर यहाँ मज़दूरों को कारख़ाना परिसर में दी जाने वाली सुविधाओं की बात करें, तो वे हमारे साथ मज़ाक करती सी लगती हैं। यहाँ हम औरतों की संख्या कोई दो-ढाई हज़ार के आस-पास है। लेकिन शौचालय हैं सिर्फ दो, जिनमें चार-चार टॉयलेट हैं यानि कुल आठ टॉयलेट इतनी औरतों के लिए हैं। इनमें से चार में पानी नहीं आता। इनमें नल को स्थाई रूप से बन्द कर दिया गया है। ये आठों टॉयलेट इतने गन्दे होते हैं कि सड़ाँध मार रहे होते हैं। दोनों शौचालयों के लिए सिर्फ एक-एक टयूब लाइट लगी है। सीलन का साम्राज्य तो, छत, दीवारों को पार करके फर्श तक फैला है। फर्श पर कीचड़ ही कीचड़ होता है। इन कीचड़ भरे, सड़ाँध मारते, सीलन भरे अँधेरे शौचालयों से हम औरतें क्या-क्या बीमारियाँ अपने शरीरों में पाल रही हैं — हमें ख़ुद नहीं पता।
पीने वाले पानी की टोटियों की जगहों पर भी दो-दो इंच काइयाँ जमी हैं। एक अन्दाज़ा ही हम लगा सकते हैं कि जहाँ से इनमें पानी आता है, उन टंकियों की क्या हालत होगी। एक टंकी जो मैंने देखी जिसका गटर के मुँह जितना बड़ा मुँह है और उस पर कोई ढक्कन नहीं है।
मज़दूरों के शोषण, दमन और लूट के जितने तरीके हो सकते हैं — वे सब नाहर में अपनाये जाते हैं। कारख़ाने में जिस तरफ़ नज़र उठाओ — मज़दूरों पर धक्केशाही का एक वीभत्स नज़ारा देखने और सुनने को मिलेगा।
नाहर में दिये जाने वाले ‘गेटपास’ की भी कहानी बेमिसाल है। किसी ने सुपरवाइजर से बहस की — लीजिये गेटपास। प्रोडक्शन नहीं दे पा रहे — लीजिये गेट पास। पानी, शौचालय आदि कारण से लंच टाइम से 10-15 मिनट देर से सीट पर पहुँचे — लीजिये गेट पास। महीने में एक बार से ज्यादा नागा किया — लीजिये गेट पास। उपरोक्त किसी भी कारण से 5 दिन, 7 दिन, महीना, दो महीने मतलब कितनी भी समयावधि के लिये गेटपास दिया जायेगा। मतलब हम बिना तनख्वाह घर बैठें। दरअसल प्रोडक्शन लाइन सेट करने के हिसाब से जितने लोगों की ज़रूरत नहीं होती, उन्हें यह ‘गेटपास’ दे दिया जाता है।
मुझे यहाँ टेलर के रूप में भरती किया गया था। काम के पहले दिन ही मुझे यहाँ की परिस्थितियों का अन्दाज़ा हो गया था। मुझे दूसरी मंज़िल के एक हॉल की एक लाइन के सुपरवाइजरों के हवाले कर दिया गया। लाइन के असेम्बली हिस्से के सुपरवाइज़र ने मुझसे पीस बनवाये — तीन चार लग्गू-भग्गू मेरी मशीन को घेरे रहे। बहुत अच्छी सिलाई करने के बावजूद सुपरवाइज़र ने मुझे लाइन से बाहर खड़ा कर दिया। फिर मुझसे दूसरी लाइन पर काम करने के लिए कहा। वहाँ भी मैंने बड़ी जल्दी पीसों को बढ़िया तरीके से तैयार किया। लेकिन यहाँ से भी सुपरवाइज़र ने मुझे बाहर खड़ा कर दिया। थोड़ी देर बाद इस सुपरवाइज़र ने पीछे वाले यानी बैक मेकिंग वाले सुपरवाइज़र के पास इन शब्दों से ज़लील करते हुए भेज दिया कि ”ऐ, चल पीछे जा, सिलाई करना सीख! तेरे लिए मेरे पास काम नहीं है।”
मैं इतने सालों से सिलाई का काम करती आ रही थी। मुझे अपने हाथ की सफाई और बारीकियों से किये गये काम पर नाज़ था। लेकिन यहाँ यह सुपरवाइज़र क्यों ऐसा बोल रहा था, मुझे समझ नहीं आया। खैर, मैं पीछे वाले सुपरवाइज़र के पास गयी उसने भी मशीनों पर बिठाने, फिर खड़ा करने का अपमानजनक नाटक मुझसे करवाया। दो-तीन दिनों तक मशीनों पर बैठाने, खड़ा करने, आगे भेजने, पीछे भेजने का खेल ये मेरे साथ करते रहे। फिर मुझे पीस पर निशान लगाने के काम में लगा दिया गया।
मुझे टेलर के रूप में भर्ती किया गया था। पहचान पत्र पर भी मुझे टेलर ही लिखा गया है। लेकिन मुझे ट्रेनी का वेतन दिया गया। अपने वेतन के बारे में पूछने पर हमारे हॉल के इंचार्ज और भर्ती इंचार्ज (जिसे लोग नाहर का बन्दर कहते हैं) से जवाब मिला ‘आम खाने से मतलब रखो! गुठलियाँ गिनना छोड़ दो। तुम्हें यहाँ काम करना है कि नहीं।’ मज़दूरों को टाइम आफिस में जाने का अधिकार भी नहीं है। बाद में मुझे पता चला कि यहाँ अधिकतर मज़दूरों को नहीं मालूम कि उनकी तनख्वाह कितनी है, बस एक अन्दाज़ा है कि इतनी होगी। ओवरटाइम के कितने मिले, ईएसआई, पीएफ आदि के कितने कटे — बस एक अन्दाज़ा ही लगाना पड़ता है। वेतन स्लिप के नाम पर जो पर्ची हमारे हाथ में 5-10 मिनट के लिए थमायी जाती है उसमें भी इन चीजों का कोई ब्यौरा नहीं होता। मज़दूरों के लूट-शोषण के जितने तरीके हो सकते हैं — वे सब नाहर में अपनाये जाते हैं। कारखाने में जिस तरफ नज़र उठाओ — मज़दूरों पर धक्केशाही का नज़ारा देखने और सुनने को मिलेगा।
मज़दूरों के शोषण और दमन का हर रूप ऐसा लगता है जैसे कि फोड़ा हो, जिसे छेड़ते ही मवाद बह निकलेगी। हमारी मजबूरियों, बेबसियों, हमारे आँसुओं और घुटन पर, हमारी इच्छाओं और सपनों को कुचलकर बना मालिकों और अमीरों का यह साम्राज्य इन्सानों के रहने लायक नहीं रह गया है।
मज़दूर बिगुल, मई 2012
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