Category Archives: ग़रीबी / कुपोषण

विकास के शोर के बीच भूख से दम तोड़ता मेहनतकश

भारत में कुल पैदावार का चालीस प्रतिशत गेहूँ हर साल बर्बाद हो जाता है। लेकिन गाय की पूजा से देशभक्ति को जोड़ने वाली सरकार को देश के भूखे मरते लोगों की चिन्ता क्यों होने लगी? बहरहाल सरकार का कहना है कि यह अनाज ख़राब भण्डारण और परिवहन की वजह से ख़राब होता है। लेकिन सवाल ये है कि भण्डारण और परिवहन की ज़ि‍म्मेवारी किसकी है? इस सम्बन्ध में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें कहा गया था कि देश की बड़ी आबादी भूखों मरती है और अनाज गोदामों में सड़ता है।

अमेरिका : बच्चों में बढ़ती ग़रीबी-दर

अमेरिका के 4 करोड़ 65 लाख बच्चे भोजन की अपनी ज़रूरतों के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा चलाए जाने वाले अनाज सहायता योजना, स्नैप (सप्लीमेंट न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) पर निर्भर हैं। इस योजना का ख़र्च सरकार उठाती है, मगर आर्थिंक संकट के चलते अब अमेरिकी सरकार इन फंडों में लगातार कटौती करती जा रही है। 2016 में ही सरकार द्वारा इस राशि में की गयी कटौती से 10 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।

महाराष्ट्र में 2 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार

गरीबी घटाकर दिखाने के इस हेरफ़ेर के बावजूद सरकार के ही आकड़ों के हिसाब से महाराष्ट्र में कुल आबादी का 30 फ़ीसद हिस्सा ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे और नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार राज्य के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और एक तिहाई वयस्क भी सामान्य से कम वज़न के हैं। इसी सर्वे के अनुसार महाराष्ट्र में हर साल कुपोषण से करीब 45,000 बच्चे मर जाते हैं यानी हर रोज 124 बच्चे। इतनी भयानक तस्वीर के बावजूद सत्ता में आने वाली हर सरकारें एक तो इनपर पर्दा डालने की कोशि‍श करती हैं इसके अतिरिक्त कुछ छोटी-मोटी स्कीमें चलाकर अपना पल्ला झाड़ लेती रही हैं।

मज़दूरों की कत्लग़ाह बने चाय बागान

बागान मज़दूरों के श्रम को निचोड़कर मालिक जो बेहिसाब म़ुनाफ़ा कमाते हैं उसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चाय उत्पादन से होने वाला सालाना कारोबार 10,000 करोड़ रुपये का है। एक बड़े चाय बागान मकईबाड़ी ने तो हाल में चाय की नीलामी में 4 लाख 30 हज़ार रुपये किलो के भाव से चाय बेची! चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा बड़ा चाय उत्पादक है। भारत में वर्ष 2010 में चाय का उत्पादन 1.44 लाख टन था जो वर्ष 2014 में बढ़कर 1.89 लाख टन हो गया। ज़ाहिर है कि चाय उत्पादन की इस बढ़ोतरी में असंख्य बागान मज़दूरों का खून मिला हुआ है।

ये मौतें बीमारी की वजह से हैं या कारण कुछ और है?

अब अगर स्वास्थ्य सेवाओं की बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हेल्थ सिस्टम की रैंकिंग में भारत का स्थान पूरी दुनिया में 112वाँ है। गृहयुद्ध की मार झेल रहा लीबिया भी इस क्षेत्र में भारत से आगे है। भारत में हर तीस हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाले सामान्य अस्पताल का प्रावधान है। आज की मौजूदा हालत में ये प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरा ही हैं लेकिन असल में होता क्या है कि जनता तक ये प्रावधान भी नहीं पहुँच पाते हैं। मतलब नौबत ये है कि ऊंट के मुंह में जीरा तक नहीं है। भारत में आज के समय में 381 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें एक एमबीबीएस डॉक्टर को तैयार करने में 30 लाख से ज्यादा का खर्चा आता है। जाहिर है यह सब मेडिकल कॉलेज बनाने में और डॉक्टरों की पढ़ाई का सारा पैसा देश की जनता द्वारा दिए गए टैक्स से ही आता है, लेकिन यहाँ से डिग्री लेने के बाद अधिकतर डॉक्टर बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में या फिर निजी व्यवसाय में उसी जनता की जेब काटने में जुट जाते हैं। जो थोड़े से डॉक्टर सरकारी नौकरी करना भी चाहते हैं तो उनके लिए जन स्वास्थ्य सेवाओं या सरकारी अस्पतालों में वैकेंसी नहीं निकलती। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। दूसरे देशों से तुलना की जाये तो क्यूबा में प्रति दस हजार आबादी 67 डॉक्टर हैं, रूस में 43, स्विट्ज़रलैंड में 40 और अमेरिका में 24 डॉक्टर हर दस हजार की आबादी पर हैं।

चाय बागानों के मज़दूर भयानक ज़ि‍न्दगी जीने पर मजबूर

चाय बागानों के मज़दूरों में कुपोषण बड़े पैमाने पर फैला है। बीमारियों ने उनको घेर रखा है। उनको अच्छे भोजन, दवा-इलाज ही नहीं बल्कि आराम की बहुत ज़रूरत है, पर उनको इनमें से कुछ भी नहीं मिलता। सरकारी बाबुओं की रिटायरमेंट की उम्र से पहले-पहले बहुत सारे मज़दूरों की तो ज़ि‍न्दगी समाप्त हो जाती है। चाय बागानों में काम करने वाली 95 प्रतिशत औरतें खून की कमी का शिकार होती हैं। यहाँ औरतों के साथ-साथ बच्चों और बुजुर्गों से बड़े पैमाने पर काम लिया जाता है क्योंकि उनको ज़्यादा पैसे नहीं देने पड़ते और आसानी से दबा के रखा जा सकता है। बीमारी की हालत में भी चाय कम्पनियाँ मज़दूरों को छुट्टी नहीं देतीं। कम्पनी के डॉक्टर से चैकअप करवाने पर ही छुट्टी मिलती है और कम्पनी के डॉक्टर जल्दी छुट्टी नहीं देते। अगर बीमार मज़दूर काम करने से मना कर देता है तो उसको निकाल दिया जाता है। बेरोज़गारी इतनी है कि काम छूटने पर जल्दी कहीं और काम नहीं मिलता, इसलिए बीमारी में भी मज़दूर काम करते रहते हैं। उनकी बस्तियाँ बीमारियों का घर हैं। पर उनके पास इसी नर्क में रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता।

मज़दूरों की कलम से दो पत्र

यहाँ रोज़ 12-13 घण्टे से कम काम नहीं होता है। जिस दिन लोडिंग-अनलोडिंग का काम रहता है उस दिन तो 16 घण्टे तक काम करना पड़ता है। हफ्ते में 2-3 बार तो लोडिंग-अनलोडिंग भी करनी ही पड़ती है। मुम्बई जैसे शहर में महँगाई को देखते हुए हमें मज़दूरी बहुत ही कम दी जाती है। अगर बिना छुट्टी लिये पूरा महीना हाड़तोड़ काम किया जाये तो भी 8-9 हज़ार रुपये से ज़्यादा नहीं कमा पाते हैं। हम चाहकर भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। यहाँ किसी भी फ़ैक्टरी का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है और श्रम-क़ानूनों के बारे में किसी भी मज़दूर को नहीं पता है। बहुत से मज़दूरों को फ़ैक्टरी के अन्दर ही रहना पड़ता है क्योंकि मुम्बई में सिर पर छत का इन्तज़ाम कर पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे मज़दूरों का तो और भी ज़्यादा शोषण होता है। हमें शुक्रवार को छुट्टी मिलती है लेकिन उन्हें तो रोज़ ही काम करना पड़ता है।

झुग्गियों में रहने वालों की ज़िन्दगी का कड़वा सच: विश्व स्तरीय शहर बनाने के लिए मेहनतकशों के घरों की आहुति!

आम जनता में भी यही अवधारणा प्रचलित है कि झुग्गीवालों की ज़िम्मेदारी सरकार की नहीं है जबकि सच इसके बिलकुल उलट है। झुग्गियों में रहने वाले लोगों को छत मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी राज्य की होती है, अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार हर साल खरबों रुपया आम मेहनतकश जनता से वसूलती है, इस पैसे से रोज़गार के नये अवसर और झुग्गीवालों को मकान देने की बजाय सरकार अदानी-अम्बानी को सब्सिडी देने में ख़र्च कर देती है। केवल एक ख़ास समय के लिए झुग्गीवासियों को नागरिकों की तरह देखा जाता है और वो समय होता है ठीक चुनाव से पहले। चुनाव से पहले सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ ठीक वैसे ही झुग्गियों में मँडराना शुरू कर देती है जैसे गुड़ पर मक्खि‍याँ।

हमें आज़ाद होना है तो मज़दूरों का राज लाना होगा।

ट्रेन से उतरकर मैं सुस्ताने के लिए प्लेटफ़ार्म पर बैठा ही था कि एक आदमी मुझसे पूछने लगा कि मैं कहाँ जाऊँगा और मेरे जवाब देने पर उसने बताया कि वह मुझे यहीं पास में ही काम पर लगवा देगा। उसके साथ 3 और लोग थे। मैं उस पर विश्वास कर उसके साथ चल दिया, सोचा कमाना ही तो है चाहे वज़ीरपुर या यहाँ और लगा कि जो बात गाँव में सुनी थी वह सही है कि शहर में काम ही काम है। ये आदमी मुझे एक बड़ी बिल्डिंग में पाँचवीं मंज़िल की एक फ़ैक्टरी में ले गया और बोला कि यहाँ जी लगाकर काम करो और महीने के अन्त में मालिक से पैसे ले लेना। फ़ैक्टरी में ताँबे के तार बेले जाते थे। फ़ैक्टरी के अन्दर मेरी उम्र के ही बच्चे काम कर रहे थे। सुपरवाइज़र दिन में जमकर काम करवाता था और होटल का खाना खाने को मिलता था। फ़ैक्टरी से बाहर जाना मना था। एक महीना गुज़र गया पर मालिक ने पैसा नहीं दिया। महीना पूरा होने के 10 दिन बाद मैं मालिक के दफ्तर पैसे माँगने लगा तो उसने कहा कि मुझे तो वह ख़रीद चुका है और मुझे यहाँ ऐसे ही काम करना होगा। यह बात सुनकर मैं घबरा गया। मैं फ़ैक्टरी में गुलामी करने को मजबूर था। मैंने जब और लड़कों से बात की तो पता चला कि वे सब भी बिके हुए थे और मालिक की गुलामी करने को मजबूर हैं। 5-6 महीने मैं गुलामों की तरह काम करता रहा। पर मैं किसी भी तरह आज़ाद होना चाहता था। मैं भागने के उपाय सोचने लगा। पर दिनभर सुपरवाइज़र बन्द फ़ैक्टरी में पहरा देता था। रात को ताला बन्द कर वह सोने चला जाता था। कमरे में दरवाज़े के अलावा एक रोशनदान भी था जिस पर ताँबे के तार बँधे थे।

अमीरज़ादों के लिए स्मार्ट सिटी, मेहनतकशों के लिए गन्दी बस्तियाँ

मोदी सरकार स्मार्ट शहर बनाने की योजना को पूँजीवादी विकास को द्रुत गति देने एवं विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ावा देने की अपनी मंशा के तहत ही ज़ोर-शोर से प्रचारित कर रही है। ग़ौरतलब है कि ये स्मार्ट शहर औद्योगिक कॉरिडोरों के इर्द-गिर्द बसाये जायेंगे। इन स्मार्ट शहरों में हरेक नागरिक को एक पहचान पत्र रखना होगा और उसमें रहने वाले हर नागरिक की गतिविधियों पर सूचना एवं संचार उपकरणों एवं प्रौद्योगिकी की मदद से निगरानी रखी जायेगी। इस योजना के पैरोकार खुलेआम यह बोलते हैं कि निजता का हनन करने वाली ऐसी केन्द्रीयकृत निगरानी इसलिए ज़रूरी है ताकि किसी भी प्रकार की असामान्य गतिविधि पर तुरन्त क़दम उठाये जा सकें। स्पष्ट है कि इस तरह की निगरानी रखने के पीछे उनका मक़सद आम मेहनकश जनता की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखना है ताकि वो अमीरों की विलासिता भरी ज़िन्दगी में कोई खलल न पैदा कर सके। इसके अलावा ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि इन शहरों में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी की मदद से सुविधाएँ प्रदान की जायेंगी, वे इतनी ख़र्चीली होंगी कि उनका इस्तेमाल करने की कूव्वत केवल उच्च वर्ग एवं उच्च मध्यवर्ग के पास होगी। निम्न मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग इन स्मार्ट शहरों में भी दोयम दर्जे के नागरिक की तरह से नगर प्रशासन की कड़ी निगरानी में अलग घेट्टों में रहने पर मज़बूर होगा।