महाराष्ट्र में 2 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार
प्रतिदिन खर्च करने को 12 रुपये भी नहीं

नितेश विमुक्त

महाराष्‍ट्र में 2001 के बाद सबसे ज्यादा किसानों ने 2015 में आत्महत्या की। जनवरी से अक्टूबर 2015 तक 2590 किसानों ने आत्महत्या की यानी तकरीबन हर रोज 9 किसानों ने अपनी ज़ि‍न्दगी समाप्त कर दी। किसानों की आत्‍महत्‍याओं के इन डरा देने वाले आंकड़ों के बीच महाराष्‍ट्र में कुपोषण की हालत पर रिपोर्ट आयी है। इसके अनुसार महाराष्ट्र में करीब 1.98 करोड़ लोगों के पास हर रोज़ खर्च करने के लिए 12 रुपये भी नहीं हैं। महाराष्ट्र में 50 हज़ार परिवार कुपोषित हैं। इनकी हालत ऐसी है कि इन्हें हर शाम भूखे या आधे पेट सोना पड़ता है। जब एक तरफ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस महाराष्ट्र के विकास के लिए बड़े-बड़े प्रोजेक्ट शुरु करने की बात कर रहे हैं, मेक इन इंडिया की तरह मेक इन महाराष्ट्र के नारे देकर बड़े-बड़े सपने दिखाये जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ प्रदेश की 11 करोड़ आबादी में करीब दो करोड़ की आबादी 12 रुपये प्रतिदिन खर्च पर गुज़ारा कर रही है और कुपोषण का शि‍कार है।

वैसे तो सरकार का गरीबी मापने का पैमाना ही बेहद बेशर्मी भरा है जिसके हिसाब से शहरों में 32 रुपये से उपर प्रतिव्यक्ति आय वाले परिवार और गांवों में 26 रुपये से उपर प्रतिव्यक्ति आय वाले परिवार गरीब नहीं हैं। गरीबी घटाकर दिखाने के इस हेरफ़ेर के बावजूद सरकार के ही आकड़ों के हिसाब से महाराष्ट्र में कुल आबादी का 30 फ़ीसद हिस्सा ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे और नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार राज्य के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और एक तिहाई वयस्क भी सामान्य से कम वज़न के हैं। इसी सर्वे के अनुसार महाराष्ट्र में हर साल कुपोषण से करीब 45,000 बच्चे मर जाते हैं यानी हर रोज 124 बच्चे। इतनी भयानक तस्वीर के बावजूद सत्ता में आने वाली हर सरकारें एक तो इनपर पर्दा डालने की कोशि‍श करती हैं इसके अतिरिक्त कुछ छोटी-मोटी स्कीमें चलाकर अपना पल्ला झाड़ लेती रही हैं।

Malnutrition mahaमकुपोषण को रोकने के लिए सबसे जरुरी है कि पैदा होने वाले बच्चों को इससे बचाया जाय। इस मामले में अगर सरकार द्वारा उठाये गये कदमों की बात की जाय तो सरकार ने मुख्यतः दो योजनाएं चलायी हैं- मिड डे मिल, आईसीडीएस यानी इंटिग्रेटेड चाइल्ड डेवलेपमेंट स्कीम और इंटिग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम। पर इन योजनाओं की सच्चाई यह है कि राज्य सरकार अपनी जीडीपी का मात्र 0.8 प्रतिशत ही इन योजनाओं पर खर्च करती है। एक गैर सरकारी संगठन द्वारा किये गये सर्वे के अनुसार सर्वे किये गये विद्यालयों के केवल 12 प्रतिशत में मिड डे मिल मिलता है। और इन 12 प्रतिशत में भी किसी में भी सरकार द्वारा तय मानक यानी प्रतिदिन की खुराक में 300 कैलोरी और 8-12 ग्राम प्रोटीन नहीं मिलता। इसप्रकार यह देखा जा सकता है कि सरकार द्वारा चलायी जाने वाली योजनाएं किस हद तक कुपोषण को दूर कर सकती हैं।

ऐसा भी नहीं है कि कुपोषण की समस्या इतनी बड़ी है कि सरकारें उनको समाप्त ही नहीं कर सकतीं। एक अनुमान के मुताबिक अगर पूरे महाराष्‍ट्र के 5 साल से कम उम्र के बच्चों को भी लिया जाय तो उनको एक साल तक अच्छा पोषण युक्त भोजन देने का खर्च करीब 20 हजार करोड़ आयेगा। ये खर्च महाराष्ट्र के पूरे बच्चों के लिए है जबकि महाराष्ट्र के 50 प्रतिशत बच्चे ही कुपोषित हैं तो जाहिर है ये खर्च भी कम ही आयेगा। फि़र भी सरकार इन पर इतने पैसे खर्च नहीं करना चाहती है। दूसरी तरफ़ अगर पूँजीपतियों को दी गयी आर्थिक मदद की बात करें तो अलग-अलग सरकारों ने जनता के द्वारा चुकाये गये टैक्स से हर साल पूँजीपतियों को बड़ी-बड़ी सौगातें दी हैं। 2010 में 18715 करोड़, 2014 में 24000 करोड़ और 2015 में 28074 करोड़ राज्य सरकारों ने बड़े धान्नासेठों को आर्थिक सहायता दी। इससे समझा जा सकता है कि ये सरकारें किसके लिए काम करती हैं। जाहिर है कि सरकारों के लिए हर साल मरने वाले 45 हजार बच्चे उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं।

इसके अतिरिक्त कुछ एनजीओ वाले इन मुद्दों पर कुछ न कुछ करते रहते हैं। एनजीओ से बकायदा वेतन पाने वाले इनके कार्यकर्ता गरीबों के बीच अनाज, बिस्किट, फ़ुड पैकेट बांट के संतुष्‍ट हो जाते हैं। दरअसल इनमें ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं जो गरीबों को तुच्छ समझते हैं और गरीबों में कुछ खैरात बांटकर खुद के बड़प्पन का दम्भ भरना चाहते हैं। इनके लिए ज़रुरी है कि गरीब हमेशा गरीब ही बने रहें ताकि ये उनको कुछ खैरात बांटकर खुद को मसीहा समझते रहें। इसलिए कभी भी एनजीओ वाले समस्या की जड़ की बात नहीं करते बस ऊपर-ऊपर कुछ करते रहते हैं। दूसरा खतरनाक काम जो ये करते हैं वो ये है कि ये सरकार को उसकी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने का मौका देते हैं ओर जनता का धयान सरकार की लूटेरी नीतियों से हटाते हैं। जनता को ऐसे लोगों से बच कर रहना चाहिए।

कोई भी सरकार जनता द्वारा चुकाये गये टैक्स से चलती है। यह टैक्स सरकार जनता के रोज़-रोज़ की इस्तेमाल की चीजों साबुन, तेल, दाल, कपड़े जैसी हर च़ीजों पर टैक्स बसूलकर कमाती है। इसलिए सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता को शि‍क्षा, चिकित्सा, रोज़गार जैसी मूलभूत सुविधायें मुहैया कराये। अगर सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटती है तो आज यह हमारी जिम्मेदारी बन जाती है कि ऐसी सरकार और ऐसी व्यवस्था को समाप्त कर दें।

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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