अधिक अनाज वाले देश में बच्चे भूख से क्यों मर रहे हैं?
जसमीत
आज से लाखों वर्ष पहले मानव के पूर्वज वृक्षों से उतरके क़बीलों के समाज में संगठित होकर रहने लगे। इस युग के दौरान कितने ही बच्चे, औरतें और मर्द ठण्ड, बीमारी, भूख या जानवरों द्वारा मरते रहे। प्रकृति के साथ इस संघर्ष से सीखते हुए मानव ने अपनी प्रकृति की रचना शुरू की। उत्पादन के साधन कुछ विकसित होने के साथ ही उत्पादन में वृद्धि हुई तो इसके साथ ही निजी सम्पत्ति पैदा होने लगी और कुछ लोगों ने इस अतिरिक्त उत्पादन को हड़पना शुरू कर दिया। इस तरह वर्गीय समाज अस्तित्व में आया। मानवीय सभ्यता ने क्रमवार गुलामदारी, ज़मींदारी में से निकलते हुए पूँजीवाद तक का सफ़र चुना। भले गुलामदारी और ज़मींदारी भी वर्गीय समाज थे, लेकिन इन समाजों में विज्ञान और तकनीक के पिछड़े विकास के कारण सभी मानवीय ज़रूरतें पूरा हो पाना सम्भव नहीं था। हुक्मरान वर्गों द्वारा लूट, दमन के बिना इन समाजों में अकाल, सूखे के द्वारा पैदा हुई भुखमरी और इलाज न होने के कारण बीमारियों के महामारियाँ बनने के साथ लाखों लोग मरते रहे हैं, यानी साधनों की कमी के कारण लोगों की मौतें होती रही हैं।आज से लाखों वर्ष पहले मानव के पूर्वज वृक्षों से उतरके क़बीलों के समाज में संगठित होकर रहने लगे। इस युग के दौरान कितने ही बच्चे, औरतें और मर्द ठण्ड, बीमारी, भूख या जानवरों द्वारा मरते रहे। प्रकृति के साथ इस संघर्ष से सीखते हुए मानव ने अपनी प्रकृति की रचना शुरू की। उत्पादन के साधन कुछ विकसित होने के साथ ही उत्पादन में वृद्धि हुई तो इसके साथ ही निजी सम्पत्ति पैदा होने लगी और कुछ लोगों ने इस अतिरिक्त उत्पादन को हड़पना शुरू कर दिया। इस तरह वर्गीय समाज अस्तित्व में आया। मानवीय सभ्यता ने क्रमवार गुलामदारी, ज़मींदारी में से निकलते हुए पूँजीवाद तक का सफ़र चुना। भले गुलामदारी और ज़मींदारी भी वर्गीय समाज थे, लेकिन इन समाजों में विज्ञान और तकनीक के पिछड़े विकास के कारण सभी मानवीय ज़रूरतें पूरा हो पाना सम्भव नहीं था। हुक्मरान वर्गों द्वारा लूट, दमन के बिना इन समाजों में अकाल, सूखे के द्वारा पैदा हुई भुखमरी और इलाज न होने के कारण बीमारियों के महामारियाँ बनने के साथ लाखों लोग मरते रहे हैं, यानी साधनों की कमी के कारण लोगों की मौतें होती रही हैं।लेकिन आज का समाज (पूँजीवादी समाज) एक ऐसा समाज है, जहाँ सभी मनुष्यों की भौतिक ज़रूरतें पूरी की जा सकती हैं, यानी आज तकनीक और विज्ञान या समूचे तौर पर मानवीय ज्ञान और क्षमता इतनी विकसित हो गयी है कि आज हर इन्सान को रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ मुहैया की जा सकती हैं। लेकिन विज्ञान, तकनीक के इतने विकास के बावजूद भी मौजूदा समाज कई तरह की त्रासदियों का शिकार है। इन्हीं में से एक त्रासदी है अतिरिक्त अनाज पैदा होने के बावजूद भूख के कारण बच्चों की छोटी आयु में होने वाली मौतें। क्रिकेट की तरह इस मामले में भी भारत पहली क़तार में है। भारत में रोज़ाना 5000 बच्चे भूख और कुपोषण के कारण मर जाते हैं। इसका कारण पूछने पर हुक्मरान इसे ग़रीबों की आबादी या भगवान की करनी पर छोड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनके ये झूठ तर्क के दरबार में एक पल भी नहीं खड़े हो पाते। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़़ भारत में कुल आबादी की ज़रूरतों से ज़्यादा अनाज पैदा हो रहा है और ये अनाज गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ रहा है, तो भुखमरी, कुपोषण जैसी भयानक बीमारियों का कारण भगवान की मर्ज़ी या आबादी नहीं हो सकता। इसके कारण दस्त जैसी बीमारियाँ, जिनके कारण और इलाज कई दशक पहले ही ढूँढ़े जा चुके हैं, वो भी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आज का समाज भी एक वर्गीय समाज है। मतलब कुछ लोग उत्पादन के साधनों पर क़ब्ज़ा किये हुए हैं। बहुसंख्यक आबादी इन साधनों की मुहताज़ है। साधनों के मालिक हर चीज़ मुनाफ़े के लिए पैदा करते और बेचते हैं। इसी कारण साधनों, सम्पत्ति के ये मालिक बिना मुनाफ़े के एक दाना भी किसी के मुँह में नहीं जाने देते। साधनों की मुहताज़ बहुसंख्यक आबादी को इन सम्पत्ति मालिकों ने इतनी ग़रीबी में धकेल दिया है कि उसके लिए दो वक़्त के दाने ख़रीदने भी मुश्किल हैं। भले इसी कारण एक ओर यह अनाज गोदामों में सड़ता रहता है और दूसरी ओर हर रोज़ हज़ारों बच्चे भूख से तड़प-तड़प कर मरते रहते हैं। यह आज के मुनाफ़ाखोर समाज का तर्कशास्त्र है। जहाँ अमीर परिवारों के बच्चे के थोड़ी चोट लगने पर पूरा परिवार फिक्रमन्द हो जाता है वहाँ हज़ारों बच्चे प्रतिदिन सिर्फ़ इस कारण भूख, कुपोषण से मर जाते हैं क्योंकि उनके पास पैसे की कमी है। इस तरह मुनाफ़ाखोरी की यह दौड़ न सिर्फ़ हज़ारों बच्चों का बेरहमी से क़त्ल कर रही है बल्कि धन कमाने का लालच रखने वालों को भी असंवेदनशील मशीनों में बदलती जाती है जिनके लिए नोटों की गिणती बच्चों की लाशों की गिणती से अधिक महत्व रखती है। ऐसे समाज की चाल चलना, मुनाफ़ा कमाने की इस मशीनी दौड़ में एक पुर्जा बनकर ज़िन्दगी जीना किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। ऐसे समाज के विरूद्ध चलना, निजी सम्पत्ति पर टिके इस मुनाफ़ाखोर समाज को ख़त्म करने के संघर्ष में अपना योगदान डालते हुए जीना ही आज के समय में इंसानों की तरह जीने का एक तरी़क़ा है। ऐसा समाज बनाना होगा यहाँ ऐसी त्रासदियों का अन्त किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, जून 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन