विकास के शोर के बीच भूख से दम तोड़ता मेहनतकश
नवमीत
रजनी एक चार साल की बच्ची है। इस उम्र के अन्य बच्चों की तरह उसका वज़न भी कम से कम 15 किलो होना चाहिए। जानते हैं रजनी का वज़न कितना है? 5 किलो। धँसी हुई आँखें, हड्डियों के ढाँचे पर बेजान सूखी हुई त्वचा व रूखे बेजान बालों और पतले-पतले हाथ पैरों वाली रजनी ज़ोर लगाकर खड़ा होने की कोशिश तो करती है लेकिन पैरों में जान न होने की वजह से खड़ी नहीं हो पाती है। रोने की कोशिश करती है तो रो भी नहीं पाती है। सिर्फ़ रजनी ही नहीं उसके तीन और भाई-बहन भी इसी तरह से भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं। उसके माता-पिता जलपाईगुड़ी के एक चाय बागान में काम करते थे। कुछ महीने पहले मालिक ने बिना किसी नोटिस और मुआवजे़ के इनको बाहर का रास्ता दिखा दिया और अब ये बेरोज़गार हैं और सड़क पर हैं। कुछ दिन तक तो उधार पर राशन आता रहा और यह परिवार दो दिन छोड़कर एक दिन खाना खाता रहा लेकिन यह भी कब तक चलता? कुछ दिन बाद दुकान वाले ने भी उधार देना बन्द कर दिया। अब न रोज़गार है, न उधार और न ही राशन। बच्चे ही नहीं बल्कि उनके माता-पिता की हालत भी वैसी ही है। पूरा परिवार भुखमरी और कुपोषण का शिकार है। और यह सिर्फ़ एक रजनी और उसके परिवार की बात नहीं है। हमारे देश में हर रोज़ लगभग बीस करोड़ लोग भूखे सोते हैं। यह पूरी दुनिया में रोज़ भूखे सोने वाले लोगों का एक तिहाई है। भारत में हर रोज़ 7000 और हर साल 25 लाख से ज़्यादा लोग भूख की वजह से मर जाते हैं। इतना ही नहीं, भारत में 50 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे अंडरवेट यानि अपनी आयु के हिसाब से कम वज़न वाले हैं और 70 प्रतिशत से ज़्यादा औरतें और बच्चे किसी न किसी गम्भीर पोषण की कमी का शिकार हैं। हमारे देश में 30 प्रतिशत नवजात शिशु कम वज़न के साथ पैदा होते हैं, 3 साल तक के 79 प्रतिशत बच्चों और 56 प्रतिशत विवाहित महिलाओं में आयरन की कमी से होने वाली ख़ून की कमी है। बच्चों में होने वाली आधी से ज़्यादा मौतें कुपोषण या कम पोषण होने की वजह से होती हैं। क्या आप जानते हैं भुखमरी की तालिका में भारत दुनिया में कौन से स्थान पर है? 97वें स्थान पर। बहुत सारे छोटे-छोटे देशों से भी नीचेा। आपको ये आँकड़े भयावह लग रहे होंगे लेकिन भारत की एक बड़ी आबादी के लिए यह रोज़मर्रे की बात है।
लेकिन ऐसा इसलिए नहीं है कि भारत में खाद्यान्न की कमी है। भारत गेहूँ की सबसे ज़्यादा पैदावार करने वाले देशों में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आता है और यहाँ हर साल 940.3 लाख मीट्रिक टन गेहूँ पैदा होता है। चावल की पैदावार में भी भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर आता है और यहाँ हर साल 1550.6 लाख मीट्रिक टन चावल पैदा किया जाता है। और फिर क्या होता है? पिछले साल भारत में 210 लाख मीट्रिक टन गेहूँ गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ गया था। इतना गेहूँ पूरे देश का पेट भरने के लिए पर्याप्त था। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार भारत में कुल पैदावार का चालीस प्रतिशत गेहूँ हर साल बर्बाद हो जाता है। लेकिन गाय की पूजा से देशभक्ति को जोड़ने वाली सरकार को देश के भूखे मरते लोगों की चिन्ता क्यों होने लगी? बहरहाल सरकार का कहना है कि यह अनाज ख़राब भण्डारण और परिवहन की वजह से ख़राब होता है। लेकिन सवाल ये है कि भण्डारण और परिवहन की ज़िम्मेवारी किसकी है? इस सम्बन्ध में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें कहा गया था कि देश की बड़ी आबादी भूखों मरती है और अनाज गोदामों में सड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए कहा था कि “भोजन का अधिकार” असल में “जीवन के अधिकार” से ही सम्बन्धित है। सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था कि “भारतीय खाद्य निगम” यह सुनिश्चित करे कि अनाज गोदामों में न सड़े और हर ज़रूरतमंद को भोजन उपलब्ध हो। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है फ़ैसले के इतने सालों के बाद आज भी गोदामों में यूँ ही अनाज सड़ रहा है और लोग भूख से मर रहे हैं। पूँजीवाद का यह मुख्य लक्षण होता है। व्यापक आबादी भूखों मरती है, अनाज गोदामों में सड़ता है या सड़ा दिया जाता है, सरकारें और न्यायपालिका मगरमच्छ के आँसू बहाती हैं और सब कुछ यूँ ही चलता जाता है।
कहने को तो सरकार ने महिलाओं और बच्चों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए स्कीमें भी चला रखी हैं। एक स्कीम है मिड डे मील योजना। इसके तहत सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों को दिन का खाना उपलब्ध करवाया जाता है। लेकिन यहाँ समस्या ये है कि अधिकतर बच्चे स्कूल ही नहीं जा पाते तो भोजन कहाँ से कर पायेंगे? दूसरा उस भोजन में भी इतनी अनियमितताएँ मिलती हैं कि इसी साल के हर महीने में देश के विभिन्न हिस्सों से मिड डे मील खाने के बाद बच्चों के बीमार होने की खबरें आती रही हैं। पिछले ही दिनों छत्तीसगढ़ के कोरबा में 60 बच्चे मिड डे मील खाने के बाद बीमार हो गये थे। ज़ाहिर है समस्या इस योजना में नहीं बल्कि कार्यान्वयन की नीयत में है। स्कूलों में आने वाले राशन को इतने ख़राब तरीके से रखा जाता है कि उसके दूषित होने की सम्भावना शत प्रतिशत होती है। कई जगहों पर इसकी ज़िम्मेदारी ऐसे एनजीओ को दी गयी है जो पैसे बनाने के लिए घटिया सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता और बच्चे यूँ ही बीमार पड़ते रहते हैं। इन स्कूलों में ग़रीबों के बच्चे ही जाते हैं इसलिए भी किसी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं बनती। उधर सरकार से लेकर सम्बन्धित अधिकारी तक अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं कि सबको भोजन उपलब्ध करवा दिया गया है। एक अन्य स्कीम है जो सरकार ने “समन्वित बाल विकास परियोजना” के नाम से चलायी हुई है जिसके अन्तर्गत छ: वर्ष तक के उम्र के बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा स्तनपान कराने वाली महिलाओं को स्वास्थ्य, पोषण एवं शैक्षणिक सेवाओं का एकीकृत पैकेज प्रदान करने की योजना है। इसके अन्तर्गत इन सबके लिए एक समय के पूरक आहार का प्रबंध आँगनवाड़ी केंद्र में होता है। कहने को तो यह योजना पिछले 41 सालों से चल रही है लेकिन आज भी इस देश के 50 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे कुपोषित हैं और भूख से मर रहे हैं।
असल में पूँजीवाद में सरकारें दिखावे के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएँ चलाती रहती हैं लेकिन यह सिर्फ़ दिखावा ही होता है और जमीनी स्तर पर ये योजनाएँ बरसाती बुलबुले से ज़्यादा प्रभाव नहीं डालती। बच्चे सड़ा हुआ अनाज खाकर बीमार हो रहे हैं, जो यह भी नहीं खा पा रहे वे भूख से मर रहे हैं और सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। प्रभाव डालें भी तो कैसे? एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 45 करोड़ लोग ग़रीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं। लेकिन ग़रीबी की रेखा का यह मानदंड भी हास्यास्पद है। भारत सरकार के अनुसार शहर में रहने वाला कोई व्यक्ति रोज़ अगर 33 रुपये से ज़्यादा और गाँव में रहने वाला कोई व्यक्ति अगर 27 रुपये से ज़्यादा कमाता है तो वह ग़रीब नहीं है। अब कोई व्यक्ति इतनी कम आमदनी के साथ जीने योग्य भी साधन भी नहीं जुटा पायेगा, पेट भरकर खाना तो दूर की बात है। फिर ग़रीबी की रेखा से नीचे आने वाले लोग तो इतने भी नहीं कमा पाते तो वे कहाँ ज़िन्दा रहने की भी सोच सकते हैं? एक तरफ तो ऐसे लोगों की संख्या बढती जा रही है और दूसरी तरफ देश में पैदा होने वाली सम्पदा और पूँजी समाज के एक बहुत छोटे से हिस्से के कब्जे़ में आती जा रही है। भारत में दुनिया के सबसे ज़्यादा ग़रीब लोग रहते हैं और दूसरी तरफ फ़ोर्ब्स पत्रिका द्वारा जारी की गयी दुनिया के 61 देशों में अरबपतियों की संख्या की सूची में भारत का स्थान चौथा है। अमीर और ग़रीब की बढती इस खाई के बीच देश में तमाम नीतियाँ इसी धनपशु पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के लिए बनायी जाती हैं। कुछ कल्याणकारी योजनाएँ सिर्फ़ इसलिए चला दी जाती हैं ताकि यह दिखाया जा सके कि सरकार को ग़रीबों की भी चिन्ता है। लेकिन अन्ततः ग़रीब के हिस्से में आती है लूट, शोषण और भुखमरी।
तो इस सब के लिए ज़िम्मेदार कौन है? सरकार की ही तर्ज़ पर कुछ लोग कहेंगे कि अनाज का भंडारण सही नहीं है, योजनाओं को ढंग से कार्यान्वित नहीं किया जाता, अधिकारी पैसे खा जाते हैं, भ्रष्टाचार है आदि आदि। लेकिन यह तो तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है। समस्या का कारण सरकार की लापरवाही और भ्रष्टाचार तो है लेकिन सिर्फ़ यही एक कारण नहीं है। सरकार लापरवाह क्यों है और भ्रष्टाचार का कारण क्या है यह देखने के लिए तो हमको इस व्यवस्था की मूल प्रणाली में देखना होगा। हमारे देश की व्यवस्था यानि पूँजीवाद के अन्तर्गत हर चीज़ की तरह अनाज भी मुनाफ़े के लिए पैदा किया जाता है। और पूँजीवाद में कोई भी सरकार मुनाफ़े पर आधारित व्यवस्था को बनाये रखने व मज़बूत बनाने के अलावा कुछ और नहीं करेगी। सरकार की तमाम योजनाएँ और कार्यनीतियाँ इन्हीं अरबपतियों के मुनाफ़े को ध्यान में रख कर बनायी जाती हैं। ऐसे में चाहे कोई कल्याणकारी स्कीम आ जाये या सुप्रीम कोर्ट के हज़ारों फ़ैसले आ जायें, जब तक मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी तब तक अनाज सड़ता रहेगा, लोग भूख से मरते रहेंगे और पूँजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ते रहेंगे। रूस में जब अक्टूबर क्रान्ति हुई तो उस समय रूस सहित रूसी साम्राज्य के तमाम देश भयंकर अकाल और भुखमरी से जूझ रहे थे। लेकिन क्रान्ति के बाद जब मेहनतकश ने सत्ता अपने हाथ में ली तो अगले दस साल में सोवियत संघ से भुखमरी का नामोनिशान ख़त्म किया जा चुका था। ऐसा भारत में भी किया जा सकता है, ज़रूरत है कि पूँजीवाद को ख़त्म करके मेहनतकश का लोक स्वराज कायम किया जाये।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर-नवम्बर 2016
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