चाय बागानों के मज़दूर भयानक ज़िन्दगी जीने पर मजबूर
लखविन्दर
सर्दी हो या गर्मी चाय के बिना ज़्यादातर लोगों का चलता नहीं। जहाँ ग़रीब लोग चालीस-पचास रुपए पाव वाली चायपत्ती से काम चला लेते हैं वहाँ अमीर लोग हज़ारों रुपये किलो वाली उम्दा चाय का स्वाद चखते हैं। पर क्या आपने कभी ये सोचा है कि चाय का ये स्वाद लोगों तक पहुँचाने वाले चाय बागानों के मज़दूरों की ज़िन्दगी है?
चलिए, आपको असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में ले चलते हैं। पहाड़ों की ढलानों पर टाटा, लिप्टन, ब्रुक बॉण्ड, टेटली आदि ब्राण्डों के इन खूबसूरत बागानों में काम करते हैं बदसूरत बस्तियों में रहने वाले वो मज़दूर जिन्हें 12-14 घंटे की मेहनत के बाद 80-90 रुपये दिहाड़ी मिलती है। चाय की पत्तियाँ तोड़ते-तोड़ते इनकी पीठ अकड़ जाती है। सूरज उगने से पहले काम शुरू हो जाता है और सूरज छिपने से पहले वो काम बंद नहीं कर सकते।
इतनी कम मज़दूरी में उनका गुज़ारा कैसे चलता होगा ये सोच कर कँपकँपी होती है। ग़रीबी इतनी है कि माँ-बाप अपनी नाबालिग बेटियों को नौकरी दिलाने वालों के साथ दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में भेजने पर मजबूर होते हैं। ये लड़कियाँ अकसर धोखेबाज़ों का शिकार होती हैं। उनको वेश्यावृत्ति के धन्धे में धकेल दिया जाता है या नाममात्र वेतन पर काम कराया जाता है।
चाय बागानों के मज़दूरों में कुपोषण बड़े पैमाने पर फैला है। बीमारियों ने उनको घेर रखा है। उनको अच्छे भोजन, दवा-इलाज ही नहीं बल्कि आराम की बहुत ज़रूरत है, पर उनको इनमें से कुछ भी नहीं मिलता। सरकारी बाबुओं की रिटायरमेंट की उम्र से पहले-पहले बहुत सारे मज़दूरों की तो ज़िन्दगी समाप्त हो जाती है। चाय बागानों में काम करने वाली 95 प्रतिशत औरतें खून की कमी का शिकार होती हैं। यहाँ औरतों के साथ-साथ बच्चों और बुजुर्गों से बड़े पैमाने पर काम लिया जाता है क्योंकि उनको ज़्यादा पैसे नहीं देने पड़ते और आसानी से दबा के रखा जा सकता है। बीमारी की हालत में भी चाय कम्पनियाँ मज़दूरों को छुट्टी नहीं देतीं। कम्पनी के डॉक्टर से चैकअप करवाने पर ही छुट्टी मिलती है और कम्पनी के डॉक्टर जल्दी छुट्टी नहीं देते। अगर बीमार मज़दूर काम करने से मना कर देता है तो उसको निकाल दिया जाता है। बेरोज़गारी इतनी है कि काम छूटने पर जल्दी कहीं और काम नहीं मिलता, इसलिए बीमारी में भी मज़दूर काम करते रहते हैं। उनकी बस्तियाँ बीमारियों का घर हैं। पर उनके पास इसी नर्क में रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता।
1947 के बाद भारत में चाय की खेती का रकबा चालीस फ़ीसदी बढ़ा है और पैदावार ढाई सौ गुना बढ़ गयी है। भारत में दुनिया की 30 फ़ीसदी चाय की पैदावार होती है और चाय उत्पादन में यह दुनिया में चौथे स्थान पर है। यहाँ चाय का सलाना कारोबार 10 हज़ार करोड़ रुपये का है। चाय उद्योग में 10 लाख से ज़्यादा मज़दूर काम करते हैं जिनमें से आधी गिनती औरतों की है। चाय उद्योग लगातार बढ़ रहा है, चाय कम्पनियों की पाँचों उँगलियाँ घी में है, पर इसके लिए अपना खून-पसीना बहाने वालों की हालत दर्दनाक है, वो सभी सुख-सुविधाओं से वंचित हैं।
प्रबंधकों का रवैया मज़दूरों के प्रति कितना अमानवीय है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब कोलम्बिया कानूनी स्कूल की मानवीय अधिकार संस्था के लोग असम के बोरहट प्लांट में मज़दूरों की हालत की जाँच-पड़ताल करने गये तो प्रबन्धकों ने उनको मज़दूरों से बात करने से रोकते हुए कहा कि मज़दूरों से बात करने की क्या ज़रूरत, उनकी अकल कम है और वो तो बस ढोर-डांगर जैसे हैं। असम के पवई प्लांट में दवा का छिड़काव करते समय एक मज़दूर की मौत का मुआवज़ा और काम में सुरक्षा की माँग पर आपस में सलाह करने जुटे मज़दूरों पर मालिकों के इशारे पर पुलिस गोली चलाकर दो मज़दूरों को मार डालती है। मगर ज़ोर-ज़बर्दस्ती और दमन से मज़दूरों के हक की आवाज़ को दबा पाने में मालिकान नाकाम रहे हैं। भयानक लूट और शोषण को चुनौती देते हुए मज़दूरों के संघर्ष बार-बार उठ खड़े होते हैं। अभी कुछ ही दिन पहले केरल के मुन्नार में चाय बागान मज़दूरों ने पुरानी दलाल यूनियनों को धता बताकर एक जुझारू लड़ाई लड़ी है, जिसमें स्त्री मज़दूरों ने सबसे बढ़-चढ़कर भूमिका निभायी।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर-नवम्बर 2015
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