मैगपाई की गुण्डागर्दी के खि़लाफ़ मज़दूरों का जुझारू संघर्ष
प्रसेन
सोनीपत के कुण्डली में 215/213, एचएसआईडीसी एस्टेट स्थित मैगपाई इण्टरनेशनल लिमिटेड में हाल ही में हुई घटना से पता चलता है कि पूँजीपति अपने मुनाफ़े के लिए मज़दूरों की हड्डियों तक का चूरा बना कर बेच सकते हैं। एचएसआईडीसी एस्टेट में मसाला, बफ़र, बीयर, कपड़ा, चप्पल, जूता, इलेक्ट्रिक पार्टस तथा बर्तन इत्यादि की फ़ैक्ट्रियाँ हैं। यहाँ बना अधिकतर माल विदेशों में भेजा जाता है। यहाँ फ़ैक्ट्रियों में अधिकतर ठेके पर तथा पीस रेट पर काम करने वाले असंगठित मज़दूर हैं जबकि कुछ बड़ी फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरों का जॉब कार्ड, ईएसआई कार्ड बना है, और पीएफ कटता है। ऐसे मज़दूरों को यहाँ 8 घण्टे के 3500-3600 रुपये मिलते हैं बाक़ी को वही 2000-2500 रुपये।
मैगपाई इण्टरनेशनल लिमिटेड में बर्तन बनते हैं जिनकी विदेशों में सप्लाई की जाती है। इस फ़ैक्ट्री में अधिकतर मज़दूरों का ईएसआई कार्ड, जॉब कार्ड बना था तथा पीएफ कटता था। हालाँकि, इसके वेल्डिंग डिपार्टमेण्ट में ठेके पर भी मज़दूर रखे गये थे। यहाँ हेल्परों को 8 घण्टे का 3665 रुपये मिलता है। स्टाफ को छोड़कर यहाँ पर मज़दूरों की संख्या 500-600 के क़रीब है। कम्पनी का मालिक कैलाश जैन तथा जनरल मैनेजर एस.एस.गुप्ता है। मुनाफ़ा बटोरने में कोई रुकावट न हो और यूनियन आदि के झमेले से बचा सके इसके लिए बड़ी कम्पनी होने के चलते सामान्य स्थिति में मज़दूरों 3665/- रुपये दिये जा रहे थे। लेकिन अन्य फ़ैक्ट्रियों में कम वेतन होने के कारण यहाँ काम करने की मज़दूरों की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर उनको खूब निचोड़ा जा रहा था। यहाँ अन्य फ़ैक्ट्रियों जैसी ही हालत थी। कम्पनी स्टाफ द्वारा गाली-गलौज, ज़बर्दस्ती ओवरटाइम लेना, ओवरटाइम का सिंगल रेट देना इत्यादि। हालाँकि मज़दूर इसे बर्दाश्त कर रहे थे। यह स्थिति सम्भवतः अभी चलती ही रहती परन्तु इसी बीच मन्दी के कारण इस इलाक़े में अन्य फ़ैक्ट्रियों में, ख़ासतौर पर कपड़ा बनाने की फ़ैक्ट्रियों में जहाँ ठेका-पीस रेट पर काम कर रहे असंगठित मज़दूरों की संख्या अधिक थी, काफ़ी छँटनी हुई। बर्तन बनाने की अन्य कम्पनियाँ मज़दूरों को आठ घण्टे के 2000-2200/- रुपये दे रही हैं।
इस स्थिति में मैगपाई के मालिक की भी जीभ लपलपाने लगी और मज़दूरों की छँटनी करके कम रेट पर मज़दूरों को रखने के लिए छटपटाने लगा। श्रम क़ानूनों के हिसाब से फ़ैक्ट्री मालिक को अपनी तरफ़ से मज़दूरों को निकालने पर तीन माह का अतिरिक्त वेतन देना पड़ता। जबकि मालिक अतिरिक्त वेतन के अलावा पीएफ के पैसे भी हड़प जाना चाहता है। लेकिन यूँ ही निकाल देने पर दिक़्क़त होती इसलिए उसने अलग रास्ता चुना। मज़दूरों को बार-बार अपमानित किया जाने लगा। रात में ओवरटाइम लगाने पर जो 55/- रुपये मिलते थे उसे घटाकर 25/- रुपये कर दिया गया। कटिंग, वेल्डिंग तथा पंचिंग डिपार्टमेण्ट के मज़दूरों ने विरोध किया तो इन डिपार्टमेण्टों से करीब 15-20 मज़दूरों को निकाल दिया गया और जबरन सबका हिसाब चुकता किया जाने लगा। मज़दूरों ने हिसाब लेने से मना कर दिया और संघर्ष पर उतर आये। निकाले गये मज़दूरों में 10 साल से काम करने वाले मज़दूर भी हैं।
निकाले गये रामराज, सलाउद्दीन, जोगिन्दर, गजेन्द्र, मिण्टू, प्रेमपाल, पप्पू महतो और रिषपाल आदि मज़दूरों के समर्थन में इसी फ़ैक्ट्री के तथा कुछ अन्य फ़ैक्ट्रियों के 50-60 मज़दूरों ने एकजुट होकर फ़ैक्ट्री गेट के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। मामले को बढ़ता देखकर 6-7 दिन बाद मालिक ने 26 दिसम्बर 2008 को संजय तथा सन्तोष को बात करने के लिए बुलाया। अन्दर आने पर कारख़ाने का गेट बन्द करके मालिक के गुण्डे सन्तोष और संजय को मारने-पीटने और धमकाने लगे कि ज़्यादा नेता बनोगे तो भट्ठी में ज़िन्दा जला देंगे। संजय तो किसी तरह फ़ैक्ट्री की दीवार लाँघकर बाहर भाग आया जबकि सन्तोष को मालिक के गुण्डे पकड़ कर अन्दर मारपीट करने लगे। संजय द्वारा घटना की जानकारी मिलते ही मज़दूर नारे लगाते हुए पहले गेट पर इकट्ठे हुए फिर पास के थाने में एफआईआर दर्ज कराने भागे। वहाँ पुलिस वालों ने इसे दिखावटी रजिस्टर पर दर्ज कर लिया और मज़दूरों को धमकी के अन्दाज़ में हिदायत दी कि “शोर न करें” और फ़ैक्ट्री के पास जाकर चुपचाप खड़े हो जायें। मज़दूरों के पुनः फ़ैक्ट्री पहुँचने के बाद पुलिस वाले आये और मालिक के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय मसीहाई अन्दाज में यह कहते हुए फ़ैक्ट्री के अन्दर घुस गये कि शोर-शराबा मत करो और कि वे (पुलिसवाले) मालिक की कोई मदद नहीं करेंगे। मामले को उग्र होता देख मालिक के गुण्डों ने खुद ही सन्तोष को छोड़ दिया।
इस घटना के बाद मज़दूर ज़्यादा मजबूती से एकजुट हो गये और मालिक के खि़लाफ़ संघर्ष के लिए कमर कसते हुए अपनी इन माँगों को दुहराया-
1. निकाले गये मज़दूरों को वापस काम पर लिया जाये।
2. ओवरटाइम का डबल रेट दिया जाये।
3. खाना खाने के लिए फिर से 55/- रुपये दिये जाये।
4. मज़दूरों के साथ गाली-गलौज तथा अपमानजनक बर्ताव बन्द किया जाये।
5. किसी भी डिपार्टमेण्ट का सुपरवाइजर अन्य किसी डिपार्टमेण्ट में मज़दूरों पर रोब गाँठने के लिए न जाये।
इसमें सीटू की यूनियन सक्रिय है, जिसके नेता आनन्द शर्मा इस पूरी घटना के बाद घटना-स्थल पर पहुँचे। सीटू शान्तिपूर्ण संघर्ष करते हुए श्रम क़ानून के अनुसार हिसाब दिलवाने के लिए मज़दूरों पर जोर डाल रही है।
ऐसी घटनाएँ भोरगढ़, बवाना तथा कुण्डली के फ़ैक्ट्री इलाकों में हो रही है। इस स्थिति में, आज जिन मज़दूरों का ईएसआई कार्ड, जॉब कार्ड है तथा पीएफ कटता है उनको यह समझना होगा कि 3665/- रुपये में उनको कोई खुशहाली नहीं मिल सकती। क्योंकि तेज़ी से बढ़ती महँगाई के दौर में 3665/- रुपये में तो ढंग से पेट भी नहीं भरा जा सकता। आज मज़दूरों को इस भ्रम से निकलना होगा कि उनका कार्ड बना है या वे कम से कम 2500/- वाले से तो बेहतर स्थिति में हैं। उन्हें तुलना इससे करनी चाहिए कि इस 3665/- देने के बाद उनसे किस अमानवीय तरीके से काम लिया जाता है और मालिक कितने गुना अधिक मुनाफ़ा बटोरता है। यहाँ बहुत सारी फ़ैक्ट्रियाँ 2000-2200 रुपये पर मज़दूरों को काम पर रखते समय लालच देती हैं कि छह महीने बाद जब उनका कार्ड बन जायेगा तो उनको 3665/- रुपये मिलने लगेंगे। जबकि होता यह है कि 5 महीने काम करवाने के बाद मालिक उसे फ़ैक्ट्री से निकाल बाहर करता है।
इसलिए काम के घण्टे कम करने, वेतन बढ़ाने, श्रम क़ानूनों द्वारा प्राप्त सुविधाओं की लड़ाई लड़ते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिये कि मज़दूरों की सच्ची आज़ादी पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे से ही सम्भव है। मज़दूरों को इस बात को ध्यान में रखते हुए मालिक वर्ग के खि़लाफ़ व्यापक क्रान्तिकारी एकजुटता और संगठनबद्धता की तरफ बढ़ना ही होगा।
बिगुल, जनवरी 2009
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