नेपाली क्रान्ति: नये दौर की समस्याएँ और चुनौतियाँ, सम्भावनाएँ और दिशाएँ
आलोक रंजन
दिसम्बर, 2008 और जनवरी, 2009 के महीने नेपाली कम्युनिस्ट आन्दोलन और पूरे नेपाल के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रहे। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकता केन्द्र-मसाल) के बीच लम्बे समय से जारी एकता-प्रक्रिया का, विगत 13 जनवरी 2009 को एक जनसभा में एकता की सार्वजनिक घोषणा के बाद, सफल समापन हो गया। नयी पार्टी का नाम एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) रखा गया है।
ने.क.पा. (माओवादी) और ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) के बीच मतभेद के मुद्दों, राजनीतिक वाद-विवाद और क़दम-ब-क़दम एकता की ओर अग्रवर्ती विकास की प्रक्रिया की चर्चा, ‘बिगुल’ के मई और जून 2008 के अंकों में धारावाहिक प्रकाशित लम्बे निबन्ध में हम कर चुके हैं। नेपाली कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर के इन दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटकों की एकता नेपाल में जारी नवजनवादी क्रान्ति की प्रगति के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस महत्त्वपूर्ण घटना के बाद क्रान्तिकारी शिविर में एकता-प्रक्रिया की गति और तेज़ हो गयी है। जल्दी ही कुछ और संगठन एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) में शामिल हो जायेंगे। इसकी चर्चा हम लेख में आगे यथास्थान करेंगे।
नेपाल में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एकता ने क़तारों और आम मेहनतकश जनता के भीतर नये उत्साह और नयी आशाओं का संचार किया है। लेकिन जन समुदाय की नयी क्रान्तिकारी आकांक्षाओं-अपेक्षाओं की कसौटी पर नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी किस हद तक खरे उतरेंगे, इस प्रश्न का उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि एकता के पहले ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर सामाजिक जनवादी भटकाव और “नववामपन्थी मुक्त चिन्तन” की जो रुझानें मौजूद रही हैं (इनकी चर्चा ‘बिगुल’ के मई-जून 2008 के अंकों में प्रकाशित लेख में की जा चुकी है), उनसे छुटकारा पाने में एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) किस हद तक सफल होती है! सकारात्मक बात यह है कि न केवल ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) ज़्यादातर सही अवस्थिति अपनाकर दक्षिणपन्थी अवसरवादी विचलनों का विरोध करती रही है, बल्कि 2008 के अन्तिम तीन-चार महीनों के दौरान ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर भी सामाजिक जनवादी भटकाव की लाइन के विरुद्ध तीखा संघर्ष चलता रहा है। इस संघर्ष में दक्षिणपन्थी अवसरवादी लाइन को काफ़ी हद तक पीछे हटना पड़ा है, हालाँकि यह लाइन अभी भी पार्टी के भीतर मौजूद है। दो लाइनों के इस संघर्ष की चर्चा भी आगे की जायेगी।
संविधान सभा चुनाव के बाद का राजनीतिक घटनाक्रम: एक संक्षिप्त सिंहावलोकन
10 अप्रैल को सम्पन्न हुए संविधान सभा चुनाव में नेपाली कांग्रेस की भारी पराजय और ने.क.पा. (माओवादी) के सबसे अधिक सीटें हासिल करने के बावजूद गिरिजा प्रसाद कोइराला सत्ता से चिपके रहे। माओवादियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए नेपाली कांग्रेस ने ने.क.पा. (एमाले) और मधेसी जनाधिकार फ़ोरम सहित सभी बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियों को साथ लेने की हर चन्द कोशिशें कीं, लेकिन भारी जनादेश के दबाव और इन सभी बुर्जुआ दलों के आपसी अन्तरविरोध के कारण इनका कोई टिकाऊ संयुक्त मोर्चा अस्तित्व में नहीं आ सका। इस दौरान नेपाली कांग्रेस सत्ता से हटने के लिए लगातार तरह-तरह की शर्तें रखती रही। उसने पहले अन्तरिम संविधान में संशोधन की शर्त रखी, फिर बारह सूत्री शान्ति समझौते से मुकरते हुए जनमुक्ति सेना को भंग करने और हथियार राज्य को सौंपने या नष्ट करने, यंग कम्युनिस्ट लीग को भंग करने तथा जनयुद्ध के दौरान भूस्वामियों से ज़ब्त सम्पत्ति उन्हें लौटाने की माँग रखी। ने.क.पा. (माओवादी) ने इन नयी शर्तों का पुरज़ोर विरोध करते हुए इन्हें 12 सूत्री शान्ति समझौते के साथ विश्वासघात बताया और फिर से देशव्यापी जनान्दोलन की धमकी दी। 28 मई 2008 को संविधान सभा की पहली बैठक में राजतन्त्र की समाप्ति और संघात्मक जनवादी गणराज्य की घोषणा के बाद भी गतिरोध बना रहा। लेकिन पूरे देश में हवा का रुख़ देखते हुए प्रधानमन्त्री गिरिजा प्रसाद कोइराला को जून 2008 के अन्त में अन्ततोगत्वा अपने इस्तीफ़े की घोषणा करनी पड़ी। लेकिन इसके पहले ने.क.पा. (एमाले) और अन्य बुर्जुआ पार्टियों के सहयोग से नेपाली कांग्रेस दो तिहाई बहुमत से प्रधानमन्त्री को हटाये जाने के प्रावधान को अन्तरिम संविधान से हटाने में सफल रही। यानी अब प्रधानमन्त्री को सामान्य बहुमत से भी हटाया जा सकता था। माओवादियों को राष्ट्रपति प्रणाली (यानी राष्ट्रपति को प्रधान कार्यकारी पद बनाने) के अपने प्रस्ताव से भी पीछे हटना पड़ा। राष्ट्रपति पद को, भारत की तरह, ‘सेरेमोनियल’ बनाने और प्रधानमन्त्री पद को मुख्य कार्यकारी पद बनाने की अन्तरिम संवैधानिक व्यवस्था उन्हें स्वीकार करनी पड़ी।
जुलाई, 2008 में राष्ट्रपति पद के लिए ने.क.पा. (माओवादी) ने तराई के प्रसिद्ध राजतन्त्र-विरोधी गणतन्त्रवादी रामराजा प्रसाद सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया। उनके विरुद्ध नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार डॉ. रामबरन यादव थे। ने.क.पा. (एमाले) माओवादियों के साथ सौदेबाज़ी करके माधव कुमार नेपाल को साझा उम्मीदवार बनाना चाहती थी। इसमें सफलता नहीं मिलने पर उसने ने.कां. के उम्मीदवार का समर्थन किया और बदले में संविधान सभा के अध्यक्ष की कुर्सी हासिल की। इसी तरह की सौदेबाज़ी करके मधेसी जनाधिकार फ़ोरम ने उपराष्ट्रपति पद के अपने उम्मीदवार परमानन्द झा के लिए उपरोक्त दोनों पार्टियों का समर्थन हासिल किया। राष्ट्रपति पद के लिए रामबरन यादव और उपराष्ट्रपति पद के लिए परमानन्द झा विजयी हुए। इस पराजय के बाद ने.क.पा. (माओवादी) ने सरकार बनाने के बजाय विपक्ष में बैठने का निर्णय लिया। इससे एमाले और म.ज.फो. पर दबाव बढ़ गया। उन्हें फिर से जनयुद्ध का भूत सताने लगा। उनके खि़लाफ़ जो भारी जनाक्रोश था, उसका नतीजा आगामी चुनावों में सामने आने का भी भय था। तीन महत्त्वपूर्ण पदों पर माओवादी उम्मीदवारों की पराजय के साथ ही उनका तात्कालिक उद्देश्य भी पूरा हो चुका था और सत्ता की बन्दरबाँट को लेकर नेपाली कांग्रेस के साथ उनके अन्तरविरोध उभरने लगे थे। दरअसल इन दोनों दलों का उद्देश्य नेपाली कांग्रेस और ने.क.पा. (माओवादी) के साथ सौदेबाज़ी करके अपना उल्लू सीधा करना था और इसमें वे एक हद तक सफल भी हो चुके थे। अगस्त में ने.क.पा. (माओवादी) के साथ सरकार बनाने के लिए ने.क.पा. (एमाले) और मधेसी जनाधिकार फ़ोरम तैयार हो गये। ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) का क़ानूनी मोर्चा – जनमोर्चा, नेपाल पहले से ही साथ था। सी.पी. मैनाली के नेतृत्व वाला ने.क.पा. (मा.ले.), ने.क.पा. (संयुक्त) और सद्भावना पार्टी (राजेन्द्र महतो) भी सरकार में शामिल होने को तैयार हो गये। संविधान सभा के चुनावों के ठीक चार माह बाद, कुल 25 में से 21 पार्टियों के समर्थन से, 80 प्रतिशत मत हासिल करके माओवादी पार्टी के चेयरमैन पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ संघात्मक जनवादी गणराज्य नेपाल के पहले प्रधानमन्त्री बने।
नेपाल में समाज-विकास की दिशा और संक्रमण-अवधि की चुनौतियाँ: क्रान्तिकारी रणनीतिक लक्ष्य के लिए सही रणकौशल का सवाल
निश्चय ही, राजतन्त्र की समाप्ति और संघात्मक जनवादी गणराज्य की घोषणा के साथ माओवादियों के नेतृत्व में नयी अन्तरिम सरकार का गठन नेपाल में जारी जनवादी क्रान्ति का एक महत्त्वपूर्ण अगला मुक़ाम है। यह उपलब्धि महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इसे गुणात्मक रूप से भिन्न, क्रान्ति की अगली मंज़िल या अवस्था घोषित करना भ्रामक होगा और बेहद नुक़सानदेह भी।
राजशाही के ख़ात्मे के बावजूद राज्यतन्त्र के ढाँचे और वर्गचरित्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। क्रान्तिकारी भूमि सुधार का काम अभी भी पूरा नहीं हुआ है। भूस्वामी वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी इस समय नेपाली कांग्रेस और अन्य बुर्जुआ दल कर रहे हैं। साथ ही, आज की विश्व परिस्थितियों और नेपाल की ठोस परिस्थितियों में नेपाली पूँजीपति वर्ग को भी दलाल और राष्ट्रीय के परस्पर-विरोधी प्रवर्गों में नहीं बाँटा जा सकता (जैसा कि नेपाल के सभी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी दल कर रहे हैं)। नेपाल का बड़ा पूँजीपति वर्ग और बड़ा व्यापारी वर्ग अपने चरित्र से अत्यधिक प्रतिक्रियावादी और साम्राज्यवाद-परस्त है, जबकि छोटा पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से सीमित आज़ादी की आकांक्षा रखता है और देश में पूँजीवादी विकास का भी पक्षधर है। लेकिन राजशाही की समाप्ति और सबसे बड़ी ताक़त के रूप में माओवादियों के सामने आने के बाद, यह वर्ग भी सर्वहारा क्रान्ति से अत्यधिक भयभीत होकर प्रतिक्रान्ति के पाले में जा खड़ा हुआ है। ने.क.पा. (एमाले) जैसी संशोधनवादी पार्टियाँ और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ मध्य वर्ग के साथ ही इन छोटे पूँजीपतियों की भी नुमाइन्दगी कर रही हैं जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के खि़लाफ़ निर्णायक लामबन्दी में, आपसी अन्तरविरोधों के बावजूद, बड़े पूँजीपतियों और भूस्वामियों की नुमाइन्दगी करने वाली नेपाली कांग्रेस, सद्भावना पार्टी आदि के साथ खड़ी होंगी। जहाँ तक भूस्वामियों का प्रश्न है, नेपाली कांग्रेस और तराई की मधेस पार्टियाँ पुराने भूस्वामियों के साथ ही उन नये बुर्जुआ भूस्वामियों का भी प्रतिनिधित्व करती हैं जो सीमित स्तर पर पूँजीवादी भूमि सम्बन्धों के विकास के साथ नेपाल में पैदा हो चुके हैं। इस सन्दर्भ में इन पार्टियों का (सीमित हद तक बिस्मार्क, या ज़ारशाही और उसके मन्त्री स्तॉलिपिन जैसा) दोहरा चरित्र है। यदि सर्वहारा शक्तियों की पराजय की स्थिति में नेपाल में बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की स्थिति भी क़ायम होगी, तो वहाँ के भूमि सम्बन्धों में ऊपर से, क्रमिक रूपान्तरण के ज़रिये, (“प्रशियाई मार्ग” से) परिवर्तन होना लाज़िमी होगा। नेपाल में सामन्ती भूस्वामियों के हितों को नुक़सान पहुँचाये बग़ैर उन्हें ही पूँजीवादी भूस्वामी बना देने, एक राष्ट्रीय बाज़ार का विकास करने, और इसके लिए साम्राज्यवाद की मातहती स्वीकार करते हुए भी अन्तर- साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठाने की नेपाल का बड़ा पूँजीपति वर्ग कोशिश करेगा और छोटे पूँजीपति वर्ग की, आपसी अन्तरविरोधों के बावजूद, इस आम नीति एवं रणनीति पर उसके साथ सहमति होगी। यानी, नेपाली कांग्रेस से लेकर ने.क.पा. (एमाले), ने.क.पा. (मा-ले-) जैसी संशोधनवादी पार्टियों तथा क्षेत्रीय और छोटी बुर्जुआ पार्टियों तक की, पूँजीवादी रास्ते के प्रश्न पर कमोबेश आम सहमति होगी और उनकी हर चन्द कोशिश होगी कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी भी या तो पतित होकर पूँजीवादी संसदीय जनवाद के इस खेल में शामिल हो जायें, या फिर, संक्रमण अवधि का इस्तेमाल अपनी तैयारी के लिए तथा तरह-तरह से कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का आधार कमज़ोर करने के लिए किया जाये और फिर प्रतिक्रान्ति के द्वारा क्रान्ति को निर्णायक रूप से कुचल दिया जाये।
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के लिए भी इस संक्रमण-अवधि का एकमात्र सही इस्तेमाल यही हो सकता है कि वे निर्णायक संघर्ष की अगली मंज़िल के लिए तैयारी करें, जनयुद्ध के दौरान हासिल ताक़त को हरचन्द कोशिश करके बचायें और उसका विस्तार करें, बुर्जुआ एवं संशोधनवादी दलों के अन्तरविरोधों का लाभ उठायें, उनके जनाधार को संकुचित करें, तथा बुर्जुआ जनवादी व्यवस्था की सीमाओं और प्रतिगामी चरित्र का भण्डाफोड़ करें। ऐसा करने के बजाय यदि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच ऐसी कोई सोच अंशतः भी अपनी जगह बनाती है कि वर्तमान शान्ति प्रक्रिया एक दीर्घकालिक या स्थायी प्रक्रिया है और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नया संविधान तैयार करके जनता का जनवादी गणराज्य स्थापित कर लेंगे (और जो कमी रह जायेगी, उसे नये संविधान के तहत होने वाले चुनाव में बहुमत हासिल करके संविधान संशोधन करके पूरी कर लेंगे), तो यह एक भीषण आत्मघाती विभ्रम होगा। बात तब और चिन्तनीय हो जाती है, जब हम पाते हैं कि मार्क्सवाद में सैद्धान्तिक इज़ाफ़ा करने के नाम पर बहुदलीय प्रतिस्पर्द्धात्मक जनवादी प्रणाली को सर्वहारा राज्यसत्ता का घटक बनाने की एक प्रबल लाइन ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर पहले से ही मौजूद रही है। इस लाइन के विरुद्ध ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) ने संघर्ष किया था और वर्ष 2008 के अन्तिम तीन-चार महीनों के दौरान ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर भी इस दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव के विरुद्ध तीखा संघर्ष चला, जिसके कारण इस लाइन को पीछे हटना पड़ा। लेकिन यह दक्षिणपन्थी अवसरवादी लाइन, पीछे हटने के बावजूद, अभी भी एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर मौजूद है और विभिन्न रूपों में प्रकट होती रहती है। इसकी अभिव्यक्तियों की आगे हम सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में एकता की जो प्रक्रिया फ़िलहाल जारी है, वह बेहद सकारात्मक बात है। लेकिन एक नकारात्मक बात यह है कि दक्षिणपन्थी अवसरवादी या सामाजिक जनवादी भटकाव अभी भी मुख्य ख़तरे के रूप में मौजूद है। इस भटकाव का जड़मूल से ख़ात्मा ही नेपाली क्रान्ति की सफलता की सर्वोपरि बुनियादी गारण्टी है।
नेपाली क्रान्ति की विजय की मंज़िल अभी दूर है और वहाँ पहुँचने की बुनियादी गारण्टी है विचारधारात्मक भटकावों से मुक्त पार्टी
नेपाली क्रान्ति का रास्ता अत्यन्त लम्बा है और यह बेहद प्रतिकूल विश्व ऐतिहासिक परिस्थितियों में आगे क़दम बढ़ा रही है। नेपाल मात्र 2 करोड़ 90 लाख आबादी का भूआवेष्ठित (चारों ओर ज़मीन से घिरा) देश है, जहाँ बुनियादी एवं अवरचनागत उद्योगों का विकास अत्यन्त कम हुआ है तथा अर्थव्यवस्था बहुत कम विविधीकृत (डायवर्सिफ़ाइड) है। देश की 85 फ़ीसदी आबादी गाँवों में बेहद विपन्न जीवन बिताती है। साक्षरता 50 प्रतिशत से भी कम है। कुपोषण आम बात है और बाल मृत्यु की दर 1000 में 62 है। एक तिहाई आबादी सरकारी ग़रीबी रेखा के नीचे जीती है और लगभग आधा देश बेरोज़गार है। दसियों लाख ग़रीब नेपाली भारत में, खाड़ी के देशों में और दूसरे देशों में मज़दूरी करते हैं तथा भारत और ब्रिटेन की सेनाओं में भाड़े के सिपाही के तौर पर काम करते हैं। इनकी कमाई और पर्यटन उद्योग नेपाल के विदेशी मुद्रा भण्डार का मुख्य स्रोत है।
आम जनता की इन भीषण जीवन-स्थितियों ने नेपाल में सशस्त्र जनक्रान्ति का अनुकूल वस्तुगत आधार तैयार किया। राजशाही के निरंकुश दमन तन्त्र और राजनीतिक जीवन में सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार ने आग में घी का काम किया। लेकिन आज की चुनौती यह है कि विरोधी ताक़तों से घिरे, एक भूआवेष्ठित, बेहद पिछड़े देश में, एक ऐसे समय में जब दुनिया में मदद के लिए एक भी समाजवादी देश मौजूद नहीं है, सर्वहारा क्रान्ति किस प्रकार जीवित रहेगी और आगे बढ़ती रहेगी। हमारी यह स्पष्ट और दृढ़ धारणा है कि प्रतिकूलतम परिस्थितियाँ भी क्रान्ति की राह को दुर्गम, लम्बा और जटिल भले बना दें, पर उसका गला नहीं घोंट सकतीं। इतिहास गवाह है कि सर्वहारा क्रान्तियाँ तभी पराजित हुई हैं या उन्हें कुचल पाना भी दुश्मनों के लिए तभी सम्भव हो पाया है, जब उनकी नेतृत्वकारी शक्ति विचारधारात्मक कमज़ोरी या भटकाव या किसी गम्भीर ग़लती के कारण भीतर से कमज़ोर हो गयी। इतिहास गवाह है कि बाहर के शत्रु कई बार सर्वहारा क्रान्तियों को नहीं कुचल सके, लेकिन भीतर से पैदा हुए भटकाव ने पूँजीवादी पथगामियों के लिए फलने-फूलने का आधार तैयार कर दिया और फिर इन भितरघातियों के हाथों क्रान्तियाँ पराजित हो गयीं। तात्पर्य यह कि विपरीततम वस्तुगत परिस्थितियों में भी, एक विचारधारात्मक रूप से सुदृढ़ पार्टी क्रान्ति को मृत्यु या विपथगमन से बचा सकती है, भले ही उसका रास्ता कुछ और लम्बा हो जाये। नेपाली क्रान्ति के सामने भी आज यही प्रश्न केन्द्रीय है। नेपाली क्रान्ति लोक जनवादी मंज़िल को निर्णायक रूप से पूरा करके समाजवादी संक्रमण की मंज़िल में प्रविष्ट हो, इसमें अभी लम्बा समय लगेगा। तब तक क्रान्ति की निरन्तरता के लिए पार्टी की विचारधारात्मक मज़बूती पहली शर्त है। यदि यह शर्त पूरी हुई तो कालान्तर में विश्व परिस्थितियाँ नेपाली क्रान्ति के लिए अधिक अनुकूल हो जायेंगी। विश्व पूँजीवाद के अभूतपूर्व ढाँचागत संकट के सुदीर्घ दौर में अभी जो महाध्वंस जैसी विश्वव्यापी मन्दी का विस्फोट हुआ है, इससे पूरी दुनिया में सर्वहारा क्रान्ति की धारा जल्दी भले ही आगे न बढ़े (क्योंकि इसके लिए हरावल दस्तों की वैचारिक-राजनीतिक-सांगठनिक मज़बूती अनिवार्य है), लेकिन कालान्तर में दुनिया के विभिन्न देशों में व्यापक जन उभारों और जनान्दोलनों का उठ खड़े होना अवश्यम्भावी है। साथ ही, अन्तर- साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का उग्र हो जाना भी वर्तमान संकट की अनिवार्य तार्किक परिणति होगी। ऐसी स्थिति में साम्राज्यवादी शक्तियाँ, भारतीय विस्तारवाद और चीनी “बाज़ार समाजवाद” नेपाली क्रान्ति को कुचलने के लिए अपनी शक्ति उस हद तक नहीं लगा पायेंगी और अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठा पाना भी सम्भव होगा। यदि नेपाली क्रान्ति विचारधारात्मक-राजनीतिक कारणों से भीतर से कमज़ोर या विघटित नहीं हुई तो निकट भविष्य में विश्व परिस्थितियाँ उसके अग्रवर्ती विकास के लिए अधिक अनुकूल होंगी। कहने का मतलब यह कि नेपाल की एकीकृत पार्टी में दक्षिणपन्थी अवसरवादी विचलनों के विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष और उस संघर्ष की सफलता पर ही नेपाली क्रान्ति का भविष्य मूलतः और मुख्यतः निर्भर है।
नेपाली क्रान्ति अभी भी रणनीतिक सन्तुलन की ही मंज़िल में है, रणनीतिक आक्रमण की मंज़िल अभी दूर है
1996 से 2006 तक जारी जनयुद्ध के दौरान जनमुक्ति सेना ने देश के लगभग 80 प्रतिशत देहाती क्षेत्र को मुक्त करा लिया था। मुक्त क्षेत्र में समान्तर राज्यतन्त्र खड़ा करने का काम भी गति पकड़ चुका था। सड़क, स्कूल, अस्पताल बनाने, उत्पादन एवं विनिमय के क्षेत्र में सहकारिता-आन्दोलन संगठित करने और क्रान्तिकारी अदालतों द्वारा भ्रष्ट एवं जालिम भूस्वामियों को दण्डित करने का काम ने.क.पा. (माओवादी) के नेतृत्व में सफलतापूर्वक शुरू हो चुका था। जब शाही सेना दमन के लिए आगे आयी, तब तक जनमुक्ति सेना देहातों में अपना आधार मज़बूत बना चुकी थी। इसके बाद 2005 में पार्टी ने रणनीतिक सन्तुलन से रणनीतिक आक्रमण की मंज़िल में प्रवेश की घोषणा तो कर दी, लेकिन गाँवों से शहरों को घेरकर और शहरों में जन-विद्रोह संगठित करके राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा करने की स्थिति सम्भव नहीं हो सकी। कारण कि नेपाल की राज्यसत्ता अर्द्धऔपनिवेशिक चीन की तरह कमज़ोर और विश्रृंखलित नहीं थी। साथ ही, 1930 और 1940 के दशकों की विश्व परिस्थितियों से भिन्न, नेपाली शासक वर्ग को साम्राज्यवादियों और विश्व पूँजीवाद से अधिक व्यवस्थित ढंग से मदद मिल रही थी। शहरों में उसका आधार अधिक मज़बूत था। साथ ही, क्रान्तिकारी संघर्ष के आगे बढ़ने के बावजूद, आशा के विपरीत, शाही नेपाल सेना में विद्रोह की स्थिति नहीं बन सकी। यह सही है कि जनयुद्ध ने ही एक देशव्यापी क्रान्तिकारी उभार की स्थिति पैदा की थी, जिसके चलते संसदीय बुर्जुआ पार्टियों को भी अप्रैल 2006 में देशव्यापी जनान्दोलन में शामिल होने और माओवादियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा। लेकिन यह भी सही है कि तब की स्थिति में जनयुद्ध की निर्णायक विजय के ज़रिये राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा सम्भव नहीं था। स्थिति यह थी कि न तो क्रान्ति की विजय सम्भव थी और न ही शासक वर्ग उसे कुचल सकता था। ऐसे समय में सरकार और माओवादियों के बीच शान्ति वार्ता के लिए ने.क.पा. (एकता केन्द्र) ने जो प्रयास किये, वे सर्वथा समयानुकूल थे।
आज पश्चदृष्टि से देखने पर कहा जा सकता है कि जनयुद्ध के रणनीतिक सन्तुलन की मंज़िल से रणनीतिक आक्रमण की मंज़िल में प्रवेश का ने.क.पा. (माओवादी) का 2005 का आकलन अपरिपक्व एवं समय-पूर्व था। नेपाली क्रान्ति को अगली मंज़िल में जाने के लिए नये सिरे से शक्ति जुटानी थी तथा अनुकूल समय की प्रतीक्षा के लिए कुछ विराम लेना था। सच्चाई यह है कि नेपाल की नवजनवादी क्रान्ति आज भी रणनीतिक सन्तुलन की ही मंज़िल में है। रणनीतिक आक्रमण की मंज़िल अभी दूर है। न केवल राजा से शान्ति वार्ता के बाद कोइराला के नेतृत्व में बनी सर्वदलीय अन्तरिम सरकार, बल्कि संविधान सभा के चुनाव के बाद प्रचण्ड के नेतृत्व में बनी बहुदलीय सरकार भी वस्तुतः एक आरजी (प्रॉविज़नल) सरकार ही है। मौजूदा संविधान सभा में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी लगातार संघर्ष करके और संविधान सभा के बाहर से जन संघर्षों का दबाव बनाकर ज़्यादा से ज़्यादा जनपक्षधर बुर्जुआ जनवादी संविधान बनाने की कोशिश भर ही कर सकते हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टियों के वर्ग-विश्लेषण में विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति यह सपने में भी नहीं सोच सकता कि मौजूदा संविधान सभा कोई ऐसा संविधान बना सकती है, जिसके अन्तर्गत एक लोक जनवादी गणराज्य क़ायम हो सकता है। ऐसा सोचना प्रकारान्तर से शान्तिपूर्ण संक्रमण की संशोधनवादी थीसिस को मानना होगा।
हमारी स्पष्ट धारणा है कि वर्तमान संविधान सभा जो नया संविधान बनायेगी, उसके द्वारा भी बुर्जुआ जनवादी गणराज्य ही स्थापित होगा। नये संविधान के अन्तर्गत बनने वाली सरकार यदि एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) की होगी, तब भी वह एक ‘प्रॉविज़नल’ सरकार ही होगी। ऐसी सरकार जैसे ही साम्राज्यवादी विश्व से निर्णायक विच्छेद और क्रान्तिकारी भूमि सुधार के लिए क़दम उठायेगी, वैसे ही सभी बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियाँ लामबन्द होकर उसके विरुद्ध संघर्ष छेड़ देंगी और बुर्जुआ वर्ग और भूस्वामी वर्ग निश्चय ही सशस्त्र प्रतिक्रान्ति की कोशिश करेंगे। तब नेपाली क्रान्ति को निश्चय ही सशस्त्र संघर्ष की नयी मंज़िल में प्रवेश करना होगा। उस नयी मंज़िल में, ज़्यादा सम्भावना यही है कि क्रान्ति-मार्ग के संश्लेषण में, दीर्घकालिक लोकयुद्ध का पहलू गौण होगा और आम बग़ावत (जनरल इन्सरेक्शन) का पहलू प्रधान होगा। वर्तमान संक्रमण काल तथा संविधान सभा और ‘प्रॉविज़नल’ सरकार के वर्तमान कार्यकाल के बारे में यदि किसी प्रकार का संशोधनवादी विभ्रम न हो, तो इस अवधि का इस्तेमाल कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी बुर्जुआ जनवाद के वास्तविक चरित्र को नंगा करने और भावी निर्णायक संघर्ष के लिए जन-समुदाय को तैयार करने के लिए कर सकते हैं।
चिन्ता की बात यह है कि ने.क.पा. (माओवादी) का अब तक का व्यवहार इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। सकारात्मक बात यह है कि ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) पहले से ही ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर के संशोधनवादी विचलनों के विरुद्ध संघर्ष करती रही है। हाल के दिनों में ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर भी इस प्रश्न पर दो लाइनों का संघर्ष उठ खड़ा हुआ। हम आशा करते हैं कि एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) संशोधनवादी भटकावों-विच्युतियों से छुटकारा पाकर आने वाले दिनों में नेपाली क्रान्ति को आगे बढ़ाने में सफल होगी।
ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर संक्रमण काल के कार्यभारों के बारे में ग़लत सोच, रणकौशल को रणनीति बनाने की भूल, और ‘प्रतिस्पर्द्धात्मक संघात्मक गणराज्य’ की दक्षिणपन्थी अवसरवादी लाइन
प्रचण्ड के नेतृत्व में नयी सरकार के सत्तारूढ़ होने के कुछ समय बाद ही संक्रमण की अवधि के बारे में ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर दो दृष्टिकोण उभरकर सामने आये। केन्द्रीय कमेटी के भीतर, प्रचण्ड के नेतृत्व में एक धड़े ने ‘प्रतिस्पर्द्धात्मक संघीय गणराज्य’ की स्थापना को तात्कालिक लक्ष्य बनाने की बात कही और ‘लोक जनवादी गणराज्य’ को दूरगामी या रणनीतिक लक्ष्य बताया। मोहन ‘किरन’ वैद्य, सी.पी. गजुरेल, राम बहादुर थापा ‘बादल’ आदि के दूसरे शक्तिशाली धड़े ने इस सोच को दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव बताते हुए कहा कि राजशाही की समाप्ति और संविधान सभा के चुनाव के साथ ही बुर्जुआ ढंग का संघात्मक गणराज्य संस्थाबद्ध हो चुका है और अब हमारा लक्ष्य है लोक गणराज्य की स्थापना के लिए संघर्ष करना। प्रचण्ड की यह नयी लाइन वस्तुतः बहुदलीय संसदीय जनवादी प्रणाली को सर्वहारा राज्यसत्ता का ‘ऑर्गन’ मानने की ने.क.पा. (माओवादी) की पुरानी सोच का ही नया विस्तारित रूप थी। इस थीसिस के अनुसार, पार्टी को फ़िलहाल संघीय प्रतिस्पर्द्धात्मक संसदीय व्यवस्था में ही काम करने की दृष्टि से सरकार चलानी थी और संविधान लिखना था। इसमें अन्तर्निहित था कि सरकार चलाते हुए अपनी जनोन्मुख नीतियों के लिए संघर्ष करते हुए तथा ज़्यादा से ज़्यादा जनोन्मुख संविधान-निर्माण के लिए संघर्ष करते हुए ने.क.पा. (माओवादी) जनता के बीच अन्य बुर्जुआ और संशोधनवादी दलों को एक लम्बी प्रक्रिया में अलग-थलग कर देगी और संसदीय चुनावी प्रतिस्पर्द्धा में उन्हें निर्णायक रूप से पीछे छोड़ने के बाद लोक जनवादी गणराज्य की दिशा में आगे क़दम बढ़ायेगी। ज़ाहिर है कि यह शान्तिपूर्ण संक्रमण की लाइन का ही नया रूप था। इस लाइन की जो व्याख्याएँ आ रही थीं, उनसे तथा सरकार में शामिल ने.क.पा. (माओवादी) के मन्त्रियों के कई निर्णयों से इस लाइन का असली चरित्र खुलकर सामने आने लगा था और इसका विरोध भी मुखर होने लगा था।
यह बात स्पष्ट है कि प्रचण्ड के नेतृत्व में ‘प्रॉविज़नल’ सरकार का गठन, राजशाही के ख़ात्मे के बावजूद, राज्यसत्ता-परिवर्तन नहीं है। राज्यसत्ता का मुख्य अंग अभी भी वही सेना है, वही नौकरशाही और वही न्यायपालिका है, बुर्जुआ राज्यसत्ता के मुख्य अवलम्ब के रूप में काम करने वाली धार्मिक संस्थाओं की ताक़त भी फ़िलहाल अक्षुण्ण है, मीडिया पर भी मुख्यतः बुर्जुआ ताक़तें ही हावी हैं और यहाँ तक कि मिली-जुली सरकार में भी संशोधनवादी पार्टियाँ और धुर प्रतिक्रियावादी क्षेत्रीय बुर्जुआ दल शामिल हैं। ज़ाहिर है कि वर्तमान संविधान सभा और मिली-जुली सरकार में भागीदारी एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी के लिए अन्तरिम अवधि के अल्पकालिक रणकौशल (टैक्टिक्स) से अधिक कुछ नहीं हो सकता। इसे राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा क़तई नहीं कहा जा सकता। लेकिन पार्टी के विदेश ब्यूरो के सदस्य लक्ष्मण पन्त ने ‘कोइराला वंश का पतन’ शीर्षक अपने लेख में यह स्थापना दे डाली कि नेपाल में सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग की संयुक्त तानाशाही के रूप में एक नयी राज्यसत्ता अस्तित्व में आ चुकी है, जो मार्क्सवादी विज्ञान में एक इज़ाफ़ा है। इस प्रकार लक्ष्मण पन्त ने सरकार को ही राज्यसत्ता बना दिया और नयी सरकार के गठन को नयी राज्यसत्ता का अस्तित्व में आना बता दिया। इस नग्न संशोधनवादी प्रस्थापना वाले लेख का विस्तृत पोस्टमार्टम हम ‘बिगुल’ के अगस्त-सितम्बर 2008 के अंक में कर चुके हैं। ग़ौरतलब है कि यह लेख ने.क.पा. (माओवादी) के मुखपत्र ‘रेड स्टार’ के सितम्बर 21-30, 2008 के अंक में भी प्रकाशित हुआ था और इसके विरोध में कोई टिप्पणी नहीं छपी थी।
‘रेड स्टार’ के अंकों में एकाधिक बार यह अहम्मन्यतापूर्ण दावा किया गया है कि लेनिन ने संविधान सभा का जो नारा दिया था, वह अक्टूबर क्रान्ति के बाद पूरा नहीं हुआ था, लेकिन नेपाली क्रान्ति ने उसे पूरा कर दिखाया। लेनिन के समय में संविधान सभा के चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाने के बाद उसे भंग कर दिया गया था, लेकिन नेपाल में हमने संविधान सभा में भी जीत हासिल करके सर्वहारा जनवाद की अवधारणा को व्यवहार में आगे विकसित किया है। इस बड़बोलेपन के दिवालियेपन और संशोधनवादी चरित्र पर ग़ौर करना ज़रूरी है। लेनिन के समय में संविधान सभा बनाम सोवियत का प्रश्न बुर्जुआ राज्यसत्ता के बलपूर्वक ध्वंस के बाद पैदा हुआ था। बोल्शेविकों के सामने प्रश्न था कि नयी सर्वहारा सत्ता का, सर्वहारा जनवाद का, या यूँ कहें कि सर्वहारा अधिनायकत्व का मुख्य ‘ऑर्गन’ क्या होगा? सैद्धान्तिक तौर पर बहुदलीय संसदीय जनतन्त्र को बोल्शेविक पहले ही ख़ारिज़ कर चुके थे। संविधान सभा को नयी सर्वहारा सत्ता का एक ‘ऑर्गन’ बनाने के बारे में कुछ समय तक उन्होंने सोचा था, लेकिन फिर जल्दी ही वे इस नतीजे पर पहुँचे कि सोवियतें ही सर्वहारा सत्ता का मुख्य ‘ऑर्गन’ होंगी, वे विधायिका और कार्यपालिका दोनों की भूमिका निभायेंगी तथा उनके चुनाव में शोषक वर्गों की कोई भागीदारी नहीं होगी। दो वर्षों के अनुभव के बाद बोल्शेविक पार्टी इस नतीजे पर पहुँची कि सोवियतों के माध्यम से शासन चलाने या सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने में पार्टी की संस्थाबद्ध नेतृत्वकारी भूमिका होगी तथा ट्रेडयूनियनों की भूमिका राज्यसत्ता की “आरक्षित शक्ति” की या शासन चलाने के प्रशिक्षण केन्द्र की होगी। ने.क.पा. (माओवादी) इस बात को भूल जाती है कि नेपाल में संविधान सभा का प्रश्न राज्यसत्ता के बलात ध्वंस के बाद नहीं उठा है। यह वर्ग-संघर्ष में रणनीतिक शक्ति-सन्तुलन की संक्रमण-अवधि के दौरान एक अन्तरिम समझौते की व्यवस्था के रूप में सामने आया है और ऐसी संविधान सभा के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना इतनी बड़ी क्रान्तिकारी उपलब्धि नहीं है, जिसके आधार पर बोल्शेविक पार्टी के अनुभवों के समाहार को संशोधित करने और मार्क्सवादी विज्ञान में इज़ाफ़ा करने का दावा ठोंक दिया जाये। ऐसा वही कर सकता है जो शान्ति समझौते और संविधान सभा के चुनाव को अक्टूबर क्रान्ति की तरह राज्यसत्ता परिवर्तन की घटना माने। कहना नहीं होगा कि यह बेहद सतही किस्म की संशोधनवादी समझ ही हो सकती है।
सरकार में भागीदारी के रणकौशलात्मक इस्तेमाल के बजाय “सरकार चलाने” का दक्षिणपन्थी भटकाव
मिली-जुली अन्तरिम सरकार के भीतर नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हुए ने.क.पा. (माओवादी) के प्रतिनिधियों का जो आचरण रहा है, उसमें से भी दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव की स्पष्ट दुर्गन्ध आती रही है। सरकार में शामिल होते समय ने.क.पा. (माओवादी) के सामने तीन स्पष्ट कार्यभार थे: पहला, ज़्यादा से ज़्यादा जनपक्षधर संविधान बनाना, दूसरा, शान्ति-प्रक्रिया को तार्किक परिणति तक पहुँचाना और तीसरा, सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन या राज्य और समाज के पुनर्गठन के लिए प्रयास करना। इन तीनों कार्यभारों की बुनियादी अन्तर्वस्तु एक थी और वह यह कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को अधिकतम सम्भव तेज़ और रैडिकल ढंग से पूरा करने के लिए बुर्जुआ वर्ग के ऊपर दबाव बनाया जाये, इस प्रक्रिया में उनके चरित्र को और बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं को जनता के सामने ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट किया जाये, बुर्जुआ वर्ग को ज़्यादा से ज़्यादा अलग-थलग किया जाये, जनयुद्ध की उपलब्धियों को और वैकल्पिक सत्ता केन्द्रों को यथासम्भव सुरक्षित रखते हुए अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया जाये, जनान्दोलनों के द्वारा मेहनतकश वर्गों की पहलक़दमी और क्रान्तिकारी सक्रियता को बरकरार रखा जाये तथा बुर्जुआ वर्ग के साथ फ़ौरी समझौते की इस अवधि के समाप्त होते ही लोक जनवादी गणराज्य की स्थापना के निर्णायक संघर्ष की सर्वतोमुखी तैयारी को कमान में रखकर ही अपनी सारी कार्रवाइयाँ संचालित की जायें। लेकिन व्यवहारतः देखने में यह आया कि संविधान निर्माण और भूमि-सुधार, रोज़गार के अधिकार, मज़दूरों के अधिकार, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के अधिकार को मूल नागरिक अधिकार बनाने को लेकर संविधान सभा के भीतर और बाहर प्रयास करने के बजाय माओवादियों ने मुख्य ज़ोर सरकार चलाने पर दिया। उन्होंने बुर्जुआ दलों को ‘एक्सपोज़’ करके अपना जन-समर्थन मज़बूत करने के बजाय सरकार के बुर्जुआ विकास के क़दमों और शासकीय “कल्याणकारी”, “विकास” की कार्रवाइयों द्वारा अपना सामाजिक आधार मज़बूत करने का सुधारवादी रास्ता चुना। प्रधानमन्त्री प्रचण्ड और वित्तमन्त्री बाबू राम भट्टराई लगातार पूँजीपतियों को आश्वस्त करते रहे कि उन्हें पूँजी लगाने (यानी मेहनतकशों को निचोड़ने) का पूरा अवसर मिलेगा क्योंकि नेपाली क्रान्ति का आज का कार्यभार है सामन्ती निरंकुश सामाजिक ढाँचे को पूँजीवादी जनवादी ढाँचे में रूपान्तरित करना। सितम्बर में बाबू राम भट्टराई ने जो बजट पेश किया उसमें भारत और चीन की विकास-परियोजनाओं की तर्ज़ पर ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ पर बल दिया गया। वैसे कहने के लिए उन्होंने सहकारिता को अर्थव्यवस्था का दूसरा स्तम्भ बताया, लेकिन ज़ाहिर है कि यह महज़ एक रस्मी बात थी। मौजूदा नौकरशाही तन्त्र और सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के अन्तर्गत नेपाल में केवल बुर्जुआ ढंग की सहकारिता ही विकसित हो सकती है। जहाँ तक जनता के क्रान्तिकारी सहकारिता आन्दोलन की बात है, शासकीय कार्रवाइयों पर ही मुख्य बल देने के कारण देहात के पुराने मुक्त क्षेत्रों में लोकसत्ता के जो प्रारम्भिक रूप विकसित हुए थे, जब वे ही आज ठहराव और विघटन का शिकार हो रहे हैं तथा जन पहलक़दमी कुन्द हो रही है, तो आम जनता का सहकारी आन्दोलन भला कैसे आगे विकसित हो सकता है? स्पष्ट है कि ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर जो दक्षिणपन्थी धड़ा रहा है, वह संविधान-लेखन और सरकार चलाने की प्रक्रिया में बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं को एक्सपोज़ करके नवजनवादी क्रान्ति के लिए जनलामबन्दी को आगे बढ़ाने के बजाय लोकप्रिय सुधारवादी शासकीय क़दमों से लोकप्रियता अर्जित करके आगामी चुनावों में सफलता की गारण्टी चाहता है, वह नीचे से नहीं बल्कि ऊपर से (यानी सरकार के ज़रिये) जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करना चाहता है और इस प्रक्रिया में वर्ग-संघर्ष को नहीं बल्कि उत्पादक शक्तियों के विकास को कुंजीभूत कड़ी बनाकर अपनी भूमिका तय कर रहा है। यह माओवाद नहीं, बल्कि देघवाद है।
सरकार में रहते हुए हर सम्भव जनकल्याणकारी क़दम उठाते हुए माओवादी यदि सतत प्रचार की कार्रवाई द्वारा जनता को बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं से अवगत कराते रहते और उनका मुख्य ज़ोर आर्थिक विकास के बजाय यदि जन संघर्षों को आगे बढ़ाने पर होता, तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन यहाँ तो मामला ही उलटा है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज (‘रेड स्टार’ में ही छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़) रोल्पा के पुराने आधार क्षेत्र की जनता यह सोचने लगी है कि माओवादी भी अब अपना क्रान्तिकारी लक्ष्य भूलकर काठमाण्डू की कुलीनतावादी संसदीय पार्टियों के सहयात्री बन चुके हैं। मामले की गम्भीरता तब और बढ़ जाती है, जब पता चलता है कि विगत 27 जनवरी को मन्त्रिमण्डल ने दो अध्यादेश जारी करके एक निवेश बोर्ड का गठन किया और एक विशेष आर्थिक क्षेत्र (‘सेज’) को मंजूरी दे दी। इसके पहले 16 जनवरी को नेपाली कांग्रेस को छोड़कर छह बड़ी राजनीतिक पार्टियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि कुछ बुनियादी सेवा क्षेत्रों में हड़ताल पर रोक लगा दी जाये। इन क्षेत्रों में अस्पताल, यातायात और कस्टम ऑफ़िसों के अतिरिक्त उद्योगों को भी रखा गया है। उल्लेखनीय है कि विकास के नाम पर हड़ताल का अधिकार छीनने के निर्णय में माओवादी उस देश में भागीदार बन रहे हैं जहाँ 1995 में पहली बार जो श्रम क़ानून बने वे केवल 6 प्रतिशत मज़दूरों पर लागू होते हैं। विगत दिसम्बर में न्यूनतम वेतन लागू करने की माँग को लेकर नेपाल के 20,000 जूट मिल मज़दूरों ने जुझारू आन्दोलन चलाया था। अब विकास के नाम पर माओवादियों के नेतृत्व वाली सरकार मज़दूरों से यह अधिकार भी छीन लेना चाहती है। सर्वहारा वर्ग की पहलक़दमी को समाप्त करने वाले इस निर्णय को किसी भी रणकौशल के नाम पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। यहाँ पर नेपाल के कॉमरेडों को इतिहास की एक बहस की याद दिलाना हम ज़रूरी समझते हैं। समाजवादी संक्रमण के दौर में भी लेनिन मज़दूरों को ट्रेडयूनियनों के माध्यम से संघर्ष का अधिकार देने के उत्कट पक्षधर थे। त्रात्स्की और बुखारिन द्वारा ट्रेडयूनियनों के सरकारीकरण के प्रस्ताव का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि चूँकि सर्वहारा अधिनायकत्व की शासकीय मशीनरी के भीतर बुर्जुआ और नौकरशाहाना विकृतियाँ मौजूद हैं, इसलिए मज़दूर वर्ग को ट्रेडयूनियनों के ज़रिये अपने अधिकारों की हिफाजत के लिए संघर्ष का अधिकार होना चाहिए। यानी जब ट्रेड यूनियनों के हड़ताल के अधिकार को समाजवादी संक्रमण के दौर में भी नहीं छीना जा सकता, तो नेपाल की मिली-जुली प्रॉविज़नल सरकार में शामिल माओवादियों द्वारा विकास के नाम पर उठाये गये इस क़दम को सही भला कैसे सिद्ध किया जा सकता है? यदि क्रान्ति के व्यापक हित में यह ज़रूरी भी था, तो माओवादियों को मज़दूर वर्ग के बीच पार्टी के राजनीतिक वर्चस्व और साख के आधार पर उसे हड़ताल न करने के लिए तैयार करना चाहिए था, न कि बुर्जुआ पार्टियों के साथ आम सहमति बनाकर ऊपर से लादे गये किसी शासकीय निर्णय के द्वारा।
सेनाओं के विलय का सवाल: कुछ शंकाएँ और कुछ सवाल
इसी सम्बन्ध में कुछ और अहम मुद्दों पर भी विचार करना ज़रूरी है। नेपाल की वर्तमान सेना (जो भूतपूर्व शाही सेना है) के साथ जनमुक्ति सेना का विलय करके एक राष्ट्रीय सेना के निर्माण पर माओवादी काफ़ी बल देते रहे हैं, जो कि शान्ति समझौते की एक शर्त रही है। लेकिन ज़रूरी नहीं कि यह क़दम क्रान्ति के हक़ में ही हो। परस्पर विरोधी वर्ग-चरित्र वाली इन दोनों सेनाओं की सारभूत एकता सम्भव ही नहीं। यह केवल एक रणकौशलात्मक क़दम ही हो सकता है जिसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनमुक्ति सेना की विचारधारात्मक-राजनीतिक तैयारी कितनी पुख़्ता है और बुर्जुआ सेना के ज़्यादा से ज़्यादा आम जवानों को क्रान्ति के पक्ष में जीत लेने में वह किस हद तक सक्षम है! यदि ये दोनों शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो विलय की प्रक्रिया जनमुक्ति सेना के बड़े हिस्से को भी पतित करके एक बुर्जुआ सेना में तब्दील कर सकती है और जनता तथा जनयुद्ध के दौर की सारी उपलब्धियों को अरक्षित करके बुर्जुआ वर्ग के रहमोकरम पर छोड़ सकती है। इस आशंका के पीछे एक मज़बूत आधार है। जनमुक्ति सेना की क़तारों में अतीत में ऐसे सैन्यवादी और अराजकतावादी भटकाव देखने को मिलते रहे हैं जो राजनीतिक शिक्षा के अभाव के प्रमाण रहे हैं। ऐसी सेना के एक बड़े हिस्से का यदि बुर्जुआकरण हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। आज पीछे मुड़कर देखने पर इस बात पर भी विचार करना ज़रूरी लगता है कि जिन दिनों जनयुद्ध शिखर पर था उन दिनों में भी शाही सेना की क़तारों में कोई विद्रोह क्यों नहीं हुआ? यह ख़बर भी यदि सही है तो विचारणीय है कि कैण्टोनमेण्ट में रहने के दौरान, विगत एक वर्ष के दौरान जनमुक्ति सेना के एक हिस्से में निराशा भी फैलती रही है और कुछ मुक्ति योद्धा घरों को वापस भी लौटते रहे हैं।
हमारा मानना है कि शान्ति समझौते के दौरान पूरी जनमुक्ति सेना को अपने हथियार संयुक्त राष्ट्र संघ के मिशन की देखरेख में सौंपना और कैण्टोनमेण्ट में रहना यदि ज़रूरी था, तो भी पार्टी को जनता के बीच से आत्मरक्षार्थ स्वयंसेवक दस्तों और जन मिलिशिया के रूप में नये सिरे से जन समुदाय को हथियारबन्द करने की प्रक्रिया चलानी चाहिए थी। अव्वलन तो होना यह चाहिए था कि जनमुक्ति सेना के एक हिस्से को ऊपरी तौर पर विघटित करके जनता के बीच फैला दिया जाता, लेकिन हम नहीं जानते कि ऐसा सम्भव था या नहीं।
पूरी पार्टी को खुला करने का प्रश्न और हमारी शंकाएँ
हमारा यह भी मानना है कि संविधान सभा चुनावों में भागीदारी से लेकर सरकार में भागीदारी तक के पूरे दौर में, पूरी पार्टी को खुला और क़ानूनी बनाना किसी भी रूप में उचित नहीं है। न केवल ने.क.पा. (माओवादी) चुनाव के समय से खुली रही है, बल्कि विलय के पहले ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) ने भी जनमोर्चा को भंग करके पूरे केन्द्रीय नेतृत्व समेत पूरी पार्टी को खुला करने की घोषणा की। हमारा मानना है कि प्रॉविज़नल सरकार की वर्तमान संक्रमण अवधि का रणकौशल के रूप में इस्तेमाल करते हुए, पार्टी के भूमिगत ढाँचे को बनाये रखा जाना चाहिए तथा उसके एक हिस्से को ही बुर्जुआ जनवाद की परिस्थितियों के भरपूर इस्तेमाल के लिए खुला किया जाना चाहिए।
क्रान्तिकारी वैकल्पिक सत्ता की मौजूदगी और विकास ज़रूरी है!
वेनेजुएला में ह्यूगो शावेज़ की सत्ता निश्चय ही कोई समाजवादी सत्ता नहीं है। शावेज़ का “समाजवाद” “पेट्रो डॉलर समाजवाद” है और अब शावेज़ के अनुयाइयों के बीच से भी एक नया नौकरशाहाना बुर्जुआ वर्ग उभर रहा है। लेकिन साम्राज्यवादियों और देशी बड़े पूँजीपतियों की मर्जी के विपरीत, शावेज़ के सत्ता में अब तक टिके रहने का मूल कारण यह है कि नौकरशाही और मीडिया पर बुर्जुआ जकड़बन्दी के बावजूद, ग्रास रूट स्तर पर वहाँ तमाम जन संस्थाएँ वैकल्पिक सत्ता केन्द्र के रूप में मौजूद हैं और सेना के बड़े हिस्से के बीच शावेज़ का मज़बूत समर्थन-आधार है। वहाँ कमोबेश दोहरी सत्ता जैसी स्थिति बनी हुई है। सीमित सन्दर्भों में इस उदाहरण से नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ निकलते हैं। नेपाली क्रान्ति के अग्रवर्ती विकास के लिए ज़रूरी है कि नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी अन्तरिम सरकार चलाते हुए भी सतत क्रान्तिकारी प्रचार एवं उद्वेलन की कार्रवाई के ज़रिये जन समुदाय को मौजूदा सत्ता-संरचना की सीमाओं से परिचित कराते रहें, जन पहलक़दमी को लगातार जागृत करके, पुराने मुक्त क्षेत्रों के आधार का इस्तेमाल करते हुए, ग्रासरूट स्तर पर तरह-तरह की जनसंस्थाओं के रूप में वैकल्पिक क्रान्तिकारी सत्ता केन्द्र विकसित करें और दोहरी सत्ता की स्थिति पैदा करने की दिशा में आगे बढ़ें। केवल तभी आने वाले दिनों में आम जनविद्रोह को प्रधान पहलू बनाते हुए राज्यसत्ता पर निर्णायक क़ब्ज़ा किया जा सकेगा और सर्वहारा जनवाद का यदि कोई रूप विकसित होना भी होगा तो वह इसी प्रक्रिया में विकसित होगा।
“कुछ विश्व ऐतिहासिक” करने की बेचैनी पिछड़े समाज की कूपमण्डूकता की उपज है!
बहुदलीय प्रणाली को नेपाली क्रान्ति के अभी तक के अनुभवों के आधार पर सर्वहारा जनवाद का ‘ऑर्गन’ घोषित कर देना निहायत अपरिपक्व निर्णय है और अधकचरे ढंग से अतीत के महान सामाजिक प्रयोगों के अनुभवों के समाहार को ख़ारिज़ करना है। वर्तमान मिली-जुली सरकार सर्वहारा अधिनायकत्व या जनता के जनवादी अधिनायकत्व के दौर की सरकार नहीं है। इसमें भागीदारी अल्पकालिक रणकौशल मात्र है। जब तक नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी जनता के जनवादी अधिनायकत्व के अन्तर्गत बहुदलीय व्यवस्था को चलाने का कोई सफल प्रयोग न कर लें, तब तक ऐसे किसी विचारधारात्मक इज़ाफ़े की बात ख़याली पुलाव पकाने के समान है। दरअसल, कुछ “विश्व ऐतिहासिक” करने की बेचैनी ने.क.पा. (माओवादी) में कुछ ज़्यादा ही दीखती रही है। नेतृत्व में मौजूद राजनीतिक कैरियरवाद के साथ ही यह पिछड़े समाज की कूपमण्डूकता की देन है। प्रायः यह देखा जाता है कि पिछड़े समाजों में लोग “दुनिया की सबसे बड़ी”, या “सबसे अनूठी” चीज़ों के अपने आसपास होने का दावा करते रहते हैं। ‘प्रचण्ड पथ’ का आविष्कार भी इसी बेचैनी की देन है, जिसकी आलोचना ‘बिगुल’ में पहले की जा चुकी है। नेपाली क्रान्ति को इक्कीसवीं शताब्दी की नयी सर्वहारा क्रान्तियों का प्रस्थान बिन्दु बताना और आने वाले दिनों की क्रान्तियों के लिए राह दिखाने का दावा करना भी एक बचकानापन ही है। सामाजिक-आर्थिक संरचना के पिछड़ेपन की दृष्टि से, नेपाली क्रान्ति बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों की ही अगली कड़ी है। यह गत शताब्दी का छूटा हुआ कार्यभार है जो वर्तमान शताब्दी में पूरा हो रहा है। हर देश की क्रान्तिकारी परिस्थितियों की अपनी कुछ मौलिकता-नवीनता होती है और हर क्रान्ति अपने आप में महान होती है। उसे बलपूर्वक महान सिद्ध करने के लिए ‘ट्रेण्ड सेटर’ और ‘पाथ-ब्रेकिंग’ बताना कूपमण्डूकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। सर्वहारा जनवाद की अब तक की अवधारणा में विकास और संविधान सभा के प्रयोग के अनूठेपन का दावा भी इसी कूपमण्डूकता की देन है। इसी कूपमण्डूकता के चलते ने.क.पा. (माओवादी) अतीत की महान क्रान्तियों के अनुभवों की तो बचकाने ढंग से कमियाँ निकालती है, लेकिन नववामपन्थी “मुक्त चिन्तन” उसे काफ़ी प्रभावित करता है। सर्वहारा क्रान्तियों के इतिहास की हास्यास्पद ढंग से छीछालेदर करने वाला रौशन किस्सून का लेख हो या समीर अमीन का लम्बा साक्षात्कार, पार्टी मुखपत्र में उन्हें छापने के बाद न तो कोई बहस चलायी जाती है, न ही कोई आलोचनात्मक टिप्पणी दी जाती है। इस क़िस्म की “ग़ैरपक्षधर वस्तुपरकता” पार्टी के विचारधारात्मक भटकाव का ही जीता-जागता प्रमाण है।
ने.क.पा. (माओवादी) के मुखपत्र में विचारधारात्मक भटकाव के नमूने
उल्लेखनीय यह भी है कि ने.क.पा. (माओवादी) ने एक वर्ष से भी अधिक समय के दौरान अपने मुखपत्र ‘रेड स्टार’ में सांस्कृतिक क्रान्ति, माओवाद, देङ के “बाज़ार समाजवाद” या पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बारे में कोई भी विचारधारात्मक सामग्री नहीं छापी है। चीन की आर्थिक-सामाजिक प्रगति दर्शाने वाले विवरण या चीनी पार्टी द्वारा नेपाली क्रान्ति की और ‘प्रचण्ड की पार्टी’ की प्रशंसा की ख़बरें, क्यूबा की क्रान्ति की वर्षगाँठ और प्रगति की ख़बरें ज़रूर देखने को मिलती हैं। किसी भी देश के साथ कूटनीतिक रिश्तों को विचारधारा से सर्वथा अलग करके देखना चाहिए। पार्टी मुखपत्र कूटनीति का नहीं बल्कि विचारधारात्मक प्रचार और संघर्ष का साधन होता है। ‘रेड स्टार’ में छपी एक रपट में कोरिया में समाजवाद की प्रगति की और “जुछे विचारधारा” की मुक्त कण्ठ से तारीफ़ की गयी है। कोरिया की कम्युनिस्ट पार्टी आज संशोधनवाद के रास्ते पर काफ़ी दूर निकल आयी है। उसके दस्तावेज़ों के अध्ययन से यह बात एकदम स्पष्ट है। लेकिन ने.क.पा. (माओवादी) यदि उसे अभी भी क्रान्तिकारी पार्टी मानती है तो यह या तो स्वयं उसका ही गम्भीर भटकाव है या फिर हद दर्जे की नासमझी है।
ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर दक्षिणपन्थी अवसरवादी लाइन के विरुद्ध संघर्ष और उसके सकारात्मक नतीजे
जैसा कि हमने ऊपर भी उल्लेख किया है, सकारात्मक बात यह है कि ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर दक्षिणपन्थी अवसरवादी प्रवृत्ति के विरुद्ध केन्द्रीय कमेटी से लेकर नीचे तक तीखा संघर्ष सितम्बर 2008 से लगातार जारी था। हालाँकि दूसरा पक्ष भी कई मसलों पर स्पष्ट नहीं है और कहीं-कहीं खुद भी “वाम” या दक्षिण की विच्युति का शिकार है, लेकिन मुख्य पहलू की दृष्टि से उसकी अवस्थिति सही रही है।
पार्टी के भीतर दो लाइनों के संघर्ष का शिखर बिन्दु था, काठमाण्डू के निकट खारीपाती में 21 नवम्बर 2008 से शुरू हुआ छह दिवसीय राष्ट्रीय कन्वेंशन। इस कन्वेंशन में प्रचण्ड ने अपने दस्तावेज़ में प्रतिस्पर्द्धात्मक संघात्मक गणराज्य की लाइन रखी, जबकि किरण वैद्य ने लोक गणराज्य की लाइन रखी। लम्बी बहस के बाद ‘लोक संघात्मक जनवादी राष्ट्रीय गणराज्य’ के नारे पर आम सहमति बनी। संक्षेप में इसे ‘लोक गणराज्य’ ही कहने का निर्णय लिया गया। हालाँकि यह एक समझौता फ़ार्मूला था, लेकिन मुख्यतः यह दक्षिणपन्थी अवसरवादी लाइन की पराजय थी। प्रचण्ड के नेतृत्व वाला धड़ा संविधान सभा और सरकार में भागीदारी के ज़रिये प्रतिस्पर्द्धात्मक संघात्मक गणराज्य को मज़बूत बनाने पर बल दे रहा था, लेकिन कन्वेंशन ने आधिकारिक पार्टी लाइन यह तय की कि सड़क, संविधान सभा और सरकार – इन तीनों मोर्चों पर व्यापक संघर्ष करते हुए पार्टी लोक गणराज्य की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ेगी, जिसमें सड़क का मोर्चा प्रमुख मोर्चा होगा। इस प्रकार संसदीय मार्ग पर जनसंघर्ष के मार्ग को प्रमुखता दी गयी। निश्चय ही, यह क्रान्तिकारी लाइन की एक जीत थी, लेकिन जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, इस कन्वेंशन के बाद भी अध्यादेश द्वारा सेज की स्थापना और हड़ताल पर रोक जैसे कई ऐसे क़दम माओवादी नेतृत्व वाली सरकार ने उठाये, जिनमें दक्षिणपन्थी रुझान की मौजूदगी देखी जा सकती है।
खारीपाती राष्ट्रीय कन्वेंशन सकारात्मक दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। इसके तत्काल बाद ने.क.पा. (माओवादी) और ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) के बीच जारी एकता-प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ी। लोक गणराज्य की स्थापना के लिए संघर्ष की लाइन पर एकता केन्द्र-मसाल की भी सहमति थी। मई-जून 2008 में ‘बिगुल’ में प्रकाशित लेख में हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि एकता केन्द्र-मसाल माओवादियों के “वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकावों के विरुद्ध पहले भी संघर्ष करता रहा था। इस तथ्य का उल्लेख भी किया गया है कि बुनियादी मतभेदों के हल होने के साथ ही दोनों पार्टियों के बीच एकता की प्रक्रिया संविधान सभा चुनावों के पहले ही शुरू हो चुकी थी, पर चुनाव और उसके बाद की परिस्थितियों में इसकी गति शिथिल पड़ गयी थी।
ने.क.पा. (माओवादी) और ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) के बीच एकता और क्रान्तिकारी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया की तेज़ गति
विगत 8-9 दिसम्बर को ने.क.पा. (माओवादी) ने एक और राष्ट्रीय सम्मेलन किया, जिसमें कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को एक पार्टी में एकताबद्ध करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए, एकता केन्द्र-मसाल के साथ एकता का प्रस्ताव पारित किया गया, लेकिन साथ ही उससे माओवाद को पार्टी के मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में स्वीकारने का आग्रह भी किया गया। ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) का दूसरा राष्ट्रीय कन्वेंशन 30-31 दिसम्बर 2008 और 1 जनवरी 2009 को सम्पन्न हुआ। कन्वेंशन ने सर्वसम्मति से राजनीतिक रिपोर्ट के साथ ही पार्टी एकता का प्रस्ताव भी पारित किया। उक्त कन्वेंशन के निर्णय के अनुसार 3 जनवरी को पार्टी के क़ानूनी मोर्चा – जनमोर्चा, नेपाल को भंग कर दिया गया और 6 जनवरी को पोलित ब्यूरो और केन्द्रीय कमेटी सहित पूरी पार्टी को सार्वजनिक करने की घोषणा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में की गयी (पूरी पार्टी खुली करने के प्रश्न पर हम अपनी राय ऊपर दे चुके हैं)। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में ने.क.पा. (माओवादी) के साथ एकता के निर्णय की घोषणा भी की गयी। उपरोक्त कन्वेंशन के पहले ही एकता केन्द्र ने ने.क.पा. (माओवादी) को सूचित कर दिया था कि वह पहले की साझा सहमति की इस अवस्थिति पर अभी भी क़ायम है कि नयी एकीकृत पार्टी के मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में माओवाद/माओ विचारधारा लिखा जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि पार्टी एकता के लिए एक तालमेल कमेटी विगत लगभग एक वर्ष से काम कर रही थी जिसमें ने.क.पा. (माओवादी) की ओर से प्रचण्ड, बाबूराम भट्टराई, किरण, बादल, कृष्णबहादुर महरा, पोस्टबहादुर बोगती और एकता केन्द्र-मसाल की ओर से प्रकाश, अमिक सेरचन, निनु चपागाईं, गिरिराज मणि पोखरेल, लीलामणि पोखरेल और भीम प्रसाद गौतम शामिल थे। इस तालमेल कमेटी की बैठक में एकीकृत पार्टी के लिए अन्तरिम राजनीतिक रिपोर्ट का मसौदा प्रचण्ड ने और आगामी राष्ट्रीय कांग्रेस तक नयी एकीकृत पार्टी के संचालन के लिए सांविधिक नियमावली का मसौदा प्रकाश ने तैयार किया। तालमेल कमेटी ने उन्हें अन्तिम रूप दिया और फिर दोनों पार्टियों की केन्द्रीय कमेटियों ने उन्हें पारित किया।
12 जनवरी 2009 को दोनों पार्टियों की केन्द्रीय कमेटियों की संयुक्त बैठक हुई जिसमें ने.क.पा. (माओवादी) की 106 सदस्यीय केन्द्रीय कमेटी और ने.क.पा. (एकता केन्द्र-मसाल) की 31 सदस्यीय केन्द्रीय कमेटी को मिला देने के साथ ही एकीकरण की औपचारिक प्रक्रिया पूरी हो गयी। यह तय किया गया कि 137 सदस्यीय नयी केन्द्रीय कमेटी की सदस्य संख्या कुछ और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के साथ एकता के बाद बढ़ाकर 175 तक की जा सकती है। यह भी निर्णय लिया गया कि वर्तमान केन्द्रीय कमेटी ही आगामी राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए आर्गेनाइजिंग कमेटी का भी काम करेगी। नयी पार्टी का नाम एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) रखा गया, जिसका मार्गदर्शक सिद्धान्त मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद/माओ विचारधारा बनाया गया। प्रचण्ड पथ को मार्गदर्शक सिद्धान्त से हटा दिया गया लेकिन इस प्रश्न पर तथा माओवाद/माओ विचारधारा के प्रश्न पर पार्टी के भीतर आम सहमति पर पहुँचने की दृष्टि से आन्तरिक बहस का निर्णय लिया गया। प्रचण्ड को सर्वसम्मति से पार्टी-चेयरमैन चुना गया।
13 जनवरी को टुण्डीखेल, काठमाण्डू में हुई एक जनसभा में पार्टी एकता की सार्वजनिक घोषणा की गयी। 15 जनवरी को नयी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की दूसरी बैठक हुई।
पोलित ब्यूरो और सेक्रेटेरियट के गठन के बाद नयी पार्टी के नेतृत्व के बीच सांगठनिक ज़िम्मेदारियों के बँटवारे, नीचे की कमेटियों तक के एकीकरण तथा सभी जनसंगठनों के एकीकरण की प्रक्रिया जनवरी के पूरे महीने चलती रही और यह सिलसिला अभी भी जारी है।
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच एकता की यह प्रक्रिया अभी और आगे बढ़ने वाली है। इस क्रम में अगली एकता नवराज शर्मा के नेतृत्व वाले ने.क.पा. (मा.ले., क्रान्तिकारी) से होनी है। यह सी.पी. मैनाली के नेतृत्व वाली संशोधनवादी पार्टी ने.क.पा. (मा.ले.) से अलग होकर क्रान्तिकारी अवस्थिति अपनाने वाला एक संगठन है, जो ने.क.पा. (माओवादी) के साथ एकता का निर्णय पहले ही ले चुका था। अब यह एकता भी जल्दी ही सम्पन्न हो जायेगी।
एक दूसरे महत्त्वपूर्ण कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन ने.क.पा. (एकीकृत) के साथ भी एकता की कोशिशें जारी हैं। उक्त संगठन के नेतृत्व के एक सदस्य नवराज सुबेदी इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि पूरा संगठन एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) के साथ एकता कर ले। यदि ऐसा सम्भव नहीं हो सका तो भी नवराज सुबेदी कुछ अन्य लोगों के साथ नयी एकीकृत पार्टी में शामिल हो जायेंगे। जो भी होना होगा, वह मार्च तक हो जायेगा।
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एकता की यह जारी प्रक्रिया नेपाली जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप है। नेपाली क्रान्ति के अग्रवर्ती विकास के लिए ने.क.पा. (माओवादी) के भीतर के दो लाइनों के संघर्ष में दक्षिणपन्थी भटकाव के फ़ौरी तौर पर पीछे हट जाने या कमज़ोर पड़ जाने की घटना और एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) के गठन की घटना – इन दोनों का अत्यधिक महत्त्व है। इस समय नेपाल में दक्षिण और वाम के शिविरों में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया काफ़ी तेज़ है। एक माह के भीतर ने.क.पा. (एमाले) भी अपनी राष्ट्रीय कांग्रेस करने वाली है। यह पार्टी अब एकदम खुले तौर पर सामाजिक जनवादी रंग में रँग चुकी है। सी.पी. मैनाली के नेतृत्व वाली ने.क.पा. (मा.ले.) व्यवहार में नेपाली कांग्रेस के निकट है। नेपाली कांग्रेस भूतपूर्व राजतन्त्रवादी पार्टियों तक को साथ लेकर तथाकथित जनवादी मोर्चा संगठित करने का नारा दे रही है। एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) सभी राष्ट्रीय और गणराज्यवादी शक्तियों के साथ संयुक्त मोर्चे का नारा दे रही है। भविष्य में बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियों की क़तारों से छिटककर कुछ लोग ऐसे मोर्चे में शामिल हो सकते हैं। नेपाली कांग्रेस, एमाले, मधेसी जनाधिकार फ़ोरम – इन सभी पार्टियों में आन्तरिक अन्तरविरोध गहरा रहे हैं।
ज़्यादा से ज़्यादा जनोन्मुख संविधान-निर्माण और रैडिकल भूमि-सुधार जैसे प्रश्नों पर इस ध्रुवीकरण का तीखा होना निश्चित है। ऐसी स्थिति में, ज़ाहिर है कि वर्ग-संघर्ष का मुख्य मंच संविधान सभा और सरकार नहीं, बल्कि सड़क ही बनेगा। सड़कों पर उठने वाला जनान्दोलन का नया ज्वार संसद के भीतर भी प्रतिक्रियावादी ताक़तों पर दबाव बनायेगा। नेपाल की जनवादी क्रान्ति किन चढ़ावों-उतारों से होकर आगे बढ़ेगी, इसका ठीक-ठीक पूर्वानुमान तो अभी से नहीं लगाया जा सकता। लेकिन इतना विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यदि क्रान्ति के हरावल दस्ते की एकजुटता बनी रही और वह दक्षिणपन्थी और “वामपन्थी” अवसरवादी विचलनों पर दो लाइनों के संघर्ष के ज़रिये विजय हासिल करता रहा तो कठिनतम वस्तुगत परिस्थितियाँ भी क्रान्ति की अग्रगति को कुछ समय के लिए बाधित भले ही कर दें, लेकिन उसका गला नहीं घोंटा जा सकता। विचारधारात्मक रूप से दृढ़, एकीकृत और जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरने वाली पार्टी के नेतृत्व में क्रान्ति की विजय काफ़ी हद तक सुनिश्चित होती है, चाहे उसका रास्ता जितना भी लम्बा और कठिन क्यों न हो!
(3 फ़रवरी, 2009)
बिगुल, फरवरी 2009
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