चीनी विशेषता वाले ”समाजवाद” में मज़दूरों के स्वास्थ्य की दुर्गति
सन्दीप
माओ त्से-तुङ और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हुई चीनी क्रान्ति के बाद जिस मेहनतकश वर्ग ने अपना ख़ून-पसीना एक करके समाजवाद का निर्माण किया था, कल-कारख़ाने, सामूहिक खेती, स्कूल, अस्पतालों को बनाया था, वह 1976 में माओ के देहान्त के बाद 1980 में शुरू हुए देङपन्थी ”सुधारों” के चलते अब बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक से महरूम है। जिस चीन में समाजवाद के दौर में सुदूर पहाड़ी इलाकों से लेकर शहरी मज़दूरों तक, सबको मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध थी, वहाँ अब दवाओं के साथ-साथ परीक्षणों की कीमत और डाक्टरों की फीस आसमान छू रही है। आम मेहनतकश जनता अब दिन-रात खटने के बाद, पोषक आहार न मिल पाने से या पेशागत कारणों से बीमार पड़ती है तो उसका इलाज तक नहीं हो पाता और वह तिल-तिलकर मरने को मजबूर होती है।
क्रान्तिकारी चीन में स्वास्थ्य की स्थिति
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में 1949 में सर्वहारा वर्ग सत्ता पर काबिज़ हुआ तो उसने मेहनतकश जनता के लिए, जोकि अधिकांशतः ग्रामीण इलाकों में रहती थी, स्वास्थ्य सेवाओं का एक तन्त्र विकसित किया था। सभी अस्पतालों का स्वामित्व, फण्डिंग और संचालन सरकार की ज़िम्मेदारी थी और निजी तौर पर स्वास्थ्य सेवाएँ देने का चलन बन्द हो गया। ग्रामीण इलाकों में कम्यून ही स्वास्थ्य सेवाओं सहित अन्य सामाजिक सेवाओं की आपूर्ति भी करते थे। अधिकांश स्वास्थ्य सेवाएँ सहकारी चिकित्सा तन्त्र के जरिए उपलब्ध करायी जाती थींए जो गाँवों और शहरों के स्वास्थ्य केन्द्रों के माध्यम से ये सेवाएँ प्रदान करता था। इन स्वास्थ्य केन्द्रों का दायित्व पश्चिमी और पारम्परिक चीनी उपचार के लिए बुनियादी प्रशिक्षण प्राप्त बेयरफुट डाक्टर सँभालते थे। इन सब प्रयासों का परिणाम आश्चर्यजनक था। 1952 से 1982 तक, शिशु मृत्यु दर प्रति एक हज़ार पर 200 से घटकर 34 रह गयी थी और औसत आयु 35 से बढ़कर 68 वर्ष हो गयी थी। (बेयरफुट यानी नंगे पाँव वाले डाक्टर चीन का एक अद्भुत प्रयोग था। इसके तहत हज़ारों लोगों को इलाज का बुनियादी प्रशिक्षण देकर गाँवों और शहरों में भेजा गया था। आम तौर पर होनेवाली बीमीरियों के इलाज के साथ-साथ वे लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियाँ भी देते थे।)
संशोधनवादियों के सत्ता पर काबिज़ होने के बाद 1980 के आरम्भ में, चीन की अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीकरण और निजीकरण के कारण उसका स्वास्थ्य सेवा तन्त्र चरमरा गया क्योंकि अब उत्पादन, राज-काज और वितरण सर्वहारा वर्ग के बजाय पूँजीपति वर्ग के हाथों में आ गया था। अब संशोधनवादी सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं में ख़र्च को 1978 के 32 प्रतिशत की तुलना में घटाकर 1999 में 15 प्रतिशत कर दिया और यह ज़िम्मेदारी प्रान्तीय और स्थानीय अधिकारियों के सिर मढ़ दी। इससे, सम्पन्न तटीय प्रान्तों को लाभ हुआ और शहरी तथा ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में अन्तर बढ़ गया। निजीकरण के बाद स्वास्थ्य सेवाएँ अपने ख़र्चों की भरपाई के लिए निजी बाज़ार में सेवाएँ बेचने के लिए बाध्य हो गयीं।
हालाँकि, कम्युनिस्ट होने का दिखावा करने के लिए संशोधनवादी सरकार ने नियमित चिकित्सकीय मुलाकात और आपरेशनों, सामान्य नैदानिक परीक्षणों और नियमित दवाओं की कीमतों पर नियन्त्रण बनाये रखा। फिर भी, स्वास्थ्य केन्द्र नयी दवाओं और परीक्षणों से मुनाफा कमा सकते थे। बेहद मुनाफा देने वाली नयी दवाओं और तकनोलाजियों के जरिए राजस्व बटोरने पर अस्पतालों के चिकित्सकों को बोनस दिया जाने लगा। स्वास्थ्य सेवाओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी से महँगी दवाओं और उच्च तकनीकी सेवाओं की बिक्री में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। इन सब कारणों से चीन की आम जनता के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ हासिल करना मुश्किल हो गया। इसका कारण यह भी था कि कृषि अर्थव्यवस्था के निजीकरण के कारण 90 करोड़ ग़रीब ग्रामीण जनता अब असुरक्षित हो गयी है और उसका चिकित्सा बीमा नहीं है। बेयरफुट डाक्टर निजी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने को मजबूर हो गए। उन्होंने तनख़्वाहों और सुविधाओं में कटौती के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ देना बन्द कर दिया, और दवाएँ बेचना शुरू कर दिया जिसके ज़रिये अपनी बुनियादी जरूरतें पूरा करना आसान था। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में भी दवाओं की कीमतों में तेज़ी से वृद्धि हुई।
अर्थव्यवस्था के साथ ही सार्वजनिक स्वास्थ्य तन्त्र के निजीकरण के बाद केन्द्र सरकार ने स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के कोष में कटौती कर दी। इसकी भरपायी के लिए स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को यह छूट दी गयी कि वे व्यक्तिगत स्वास्थ्य सेवाओं और होटलों तथा रेस्टोरेण्ट आदि में स्वच्छता के निरीक्षण आदि का शुल्क वसूल कर आमदनी जुटायें। इसके साथ ही स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने आमदनी बढ़ाने वाली गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित कर दिया और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता-शिक्षा, माँओं और बच्चों के स्वास्थ्य तथा महामारियों पर नियन्त्रण की उपेक्षा करना शुरू कर दिया।
जैसाकि होना था, ”बाज़ार समाजवाद” की नीतियों के कारण गाँव-शहर, अमीर-ग़रीब, शारीरिक श्रम-मानसिक श्रम के बीच की खाई निरन्तर चौड़ी होती गयी। आय में असमानता के कारण शहरी मध्यवर्ग और अन्य खाते-पीते तबके के बीच स्वास्थ्य सेवाओं की खपत ग्रामीण जनता की तुलना में तीन गुना ज़्यादा हो गयी। 1999 में चीन की 49 प्रतिशत शहरी जनता के पास स्वास्थ्य बीमा था, जबकि ग्रामीण जनता में केवल 7 प्रतिशत को ही यह सुविधा उपलब्ध थी। ये 7 प्रतिशत भी ज़्यादातर नये उभरे धनी किसान और खाते-पीते किसान थे।
असन्तोष को रोकने के सरकारी ”प्रयास”
अपनी ही नीतियों के कारण बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी को लेकर चीन के नये पूँजीवादी शासक परेशान होने लगे हैं क्योंकि जगह-जगह मज़दूरों के बीच से असन्तोष और आन्दोलन उभरने लगे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के बाद ग़रीब जनता में फैलते ग़ुस्से को भाँपकर उन्होंने पिछले कुछ समय में इसमें से कुछ सुधार करने की कोशिश की हैं। रोज़गारदाता की ओर से वित्तपोषित आपातस्थिति बीमा, और चिकित्सा बचत खाता अनिवार्य कर दिया गया है, जिसमें लोगों को अपने चिकित्सा व्यय के कुछ हिस्से के लिए पैसा जमा करना पड़ता है। चिकित्सा बचत खातों से स्वास्थ्य सेवा के लिए कर्मचारी के वार्षिक वेतन के 10 प्रतिशत तक का भुगतान किया जाता है, जिसके बाद आपातस्थिति योजना लागू होती है।
लेकिन कुछ नियोक्ता यह कहकर इसे मानने से इन्कार कर देते हैं कि वे अपने अंशदान का ख़र्च उठा सकते। हकीकत यह भी है कि अधिकांश शहरी आबादी संगठित क्षेत्र में काम नहीं करती है। मज़दूरों को लाभ देने से बचने के लिए आये दिन कम्पनी बनायी जाती है और बन्द की जाती है, फिर उसे दूसरे नाम से चालू कर दिया जाता है। यही नहीं, मज़दूरों पर निर्भर उनके परिवार के सदस्य इन योजनाओं के अन्तर्गत नहीं आते। चीन का निजी स्वास्थ्य बीमा उद्योग मुट्ठीभर धनिकों का ही बीमा करता है जो इसका ख़र्च उठा सकते हैं, उस पर तुर्रा यह कि स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में भी विदेशी कंपनियों को न्यौता देने की योजना पर विचार किया जा रहा है।
यह तय है कि चीन की संशोधनवादी सरकार बढ़ती बेरोज़गारी, ख़राब स्वास्थ्य, अशिक्षा, आवास न होने आदि से बढ़ते असन्तोष को कम करने के लिए जितनी भी बन्दरकूद कर ले, अब न तो उसकी इच्छा है और न ही उसके बस में है कि बोतल से निकले इस पूँजीवादी जिन्न को वह कैद कर सके। अब मुनाफा रूपी पूँजीवादी जिन्न चीन में तबाही-बदहाली को लगातार बढ़ायेगा और इस तरह ख़ुद अपनी कब्र खोदने वालों को ही तैयार करेगा। चीन से आ रही छिटपुट ख़बरों से यह पता चलता है कि वहाँ की जनता अब माओकालीन समाजवादी चीन की उपलब्धियों को दोबारा याद करने लगी है और चीनी विशेषता वाले समाजवाद के इस छलावे को समझने लगी है।
बिगुल, मई 2009
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