अभिजीत बनर्जी को नोबल पुरस्कार और ग़रीबी दूर करने की पूँजीवादी चिन्ताओं की हक़ीक़त
चाहे अमर्त्य सेन हों या अभिजीत बनर्जी, ये कभी निजीकरण-उदारीकरण की उन नीतियों के बारे में नहीं बोलते जिनके विनाशकारी परिणाम पूरी दुनिया में ज़ाहिर हो चुके हैं। अर्थशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित होने के बावजूद इन्हें यह नंगी सच्चाई नज़र नहीं आती कि पूँजीवादी व्यवस्था के टिके रहने की शर्त है मज़दूरों का शोषण और इसका अनिवार्य नतीजा है समाज के एक सिरे पर बेहिसाब दौलत और दूसरे सिरे पर बेहिसाब ग़रीबी। वे ग़रीबी के बुनियादी कारणों पर कभी चोट नहीं करते, वे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की लूट पर कभी सवाल नहीं उठाते। वे केवल ग़रीबी और उससे पैदा होने वाले असन्तोष की आँच कम करने के लिए ‘‘कल्याणकारी’’ योजनाओं की फुहार छोड़ने के के उपाय सुझाते रहते हैं।