जी हां, प्रधानमन्त्री महोदय! हम समृद्धि पैदा करने वाले लोगों का सम्मान करते हैं! लेकिन ये आपके पूंजीपति मित्र नहीं हैं!
अभिनव
‘मेहनतकश की आवाज’ से साभार
प्रधानमन्त्री मोदी 15 अगस्त 2019 को 72वें स्वतन्त्रता दिवस को (जो कि किसी वजह से मोदी को 75वां स्वतन्त्रता दिवस लग रहा था!) लाल किले की प्राचीर से भाषण देते हुए भाव विह्वल हो गये! उन्होंने भरे गले और भारी दिल से देश के अहसान-फ़रामोश ग़रीबों, मेहनतकशों, मज़दूरों, ग़रीब किसानों और निम्न मध्यवर्ग से दर्द भरी अपील की कि वे देश के अमीरों को शक़ की निगाह से न देखें! उन अमीरों के प्रति आभार से लदे हुए प्रधानमन्त्री महोदय ने हम मज़दूरों-मेहनतकशों को बताया कि ये अमीर ही तो हैं जो कि समृद्धि पैदा करते हैं! और जब समृद्धि पैदा होगी तो ही वह बंटेगी और हम बेशर्म अहसान-फ़रामोश लोगों तक पहुंचेगी! इस बात पर एक बार फिर से दिल कह उठा, ‘वाह मोदी जी, वाह!’
अपने इस भाषण में प्रधानमन्त्री महोदय देश में अमीरों के प्रति बढ़ते गुस्से से काफ़ी चिन्तित दिखे! उन्हें लग रहा था कि मन्दी के कारण रोज़गार से खदेड़े जा रहे मज़दूर और नौजवान कहीं इसका कारण अमीर पूंजीपतियों को न समझ बैठें! ये बेचारे पूंजीपति तो खुद ही गिरते मुनाफ़े से बिलबिला रहे हैं और उन चूंटों-माटों की तरह भगदड़ मचाये हुए हैं, जिन पर गर्म तेल गिर गया हो! ऊपर से हम निकम्मे-नाकारे और बेग़ैरत ग़रीब लोग! इन्हीं ”मेहनती” अमीर पूंजीपतियों पर, इन ”समृद्धि पैदा करने वालों” पर त्यौरियां चढ़ा रहे हैं? बड़े निर्लज्ज किस्म के कृतघ्न लोग हैं हम लोग!
आइये देखते हैं कि हमारे प्यारे अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला, हिन्दुजा, गोयनका वगैरह कितनी हाड़-तोड़ मेहनत करके समाज में समृद्धि का सृजन करते हैं, जो अब तक प्रधानमन्त्री महोदय के अनुसार बंटकर हमें मिलती रही थी! अरे, तभी तो हम ग़रीब लोग सुबह-शाम अण्डे-दूध, मुर्गा, पनीर चांपते हैं, अपने बच्चों को विलायत पढ़ने भेजते हैं और आरामदेह मकान में रहते हैं! बस यही है कि बाद में हम भूल जाते हैं! ख़ैर! तो देखते हैं कि ये मालिक और ठेकेदार लोग कैसे कोल्हू के बैल के समान मेहनत करके हमारे लिए समृद्धि पैदा करते हैं।
सबसे पहले तो एक मालिक जो कोई भी माल बनाने के लिए कारखाना लगाना चाहता है, वह मशीनें ख़रीदता है और कारखाना खोलता है। इसके लिए वह या तो ज़मीन ख़रीदता है, या फिर किसी भूस्वामी से किराये पर लेता है। मशीनें वह बाज़ार में मशीनें बेचने वाले व्यापारी से ख़रीदता है या फिर सीधे मशीन बनाने वाली कम्पनी के मालिक से। जब वह व्यापारी से ख़रीदता है, तो भी वह वास्तव में मशीन बनाने वाली कम्पनी के मालिक से ही खरीद रहा होता है, जिसने बेचने का काम व्यापारी को सौंप दिया है, जो कि इसके बदले में मशीन कम्पनी के मालिक से मुनाफ़े का एक छोटा हिस्सा लेता है। यह मालिक यानी औद्योगिक पूंजीपति और व्यापारिक पूंजीपति के बीच का श्रम विभाजन समझ लें, जिससे कि मशीन की कम्पनी के मालिक को अपनी मशीन का दाम तुरन्त मिल जाता है और उसे पुनरुत्पादन शुरू करने के लिए मशीन के बिकने का इन्तज़ार नहीं करना पड़ता है। ख़ैर! तो हमारा होनहार मालिक मशीन खरीदने और कारखाने में लगाने के बाद कच्चा माल ख़रीदता है जो कि उसके माल के उत्पादन के लिए आवश्यक है। अब क्या होता है? क्या ये मशीनें खुद-ब-खुद कच्चे माल का प्रसंसाधन कर माल तैयार कर देती हैं? नहीं! इसमें हम नामुराद मज़दूरों को लगना पड़ता है! वैसे तो हमें इसके लिए 12-12 घण्टे भार उठाने वाले पशुओं के समान खटना पड़ता है, लेकिन हमें फिर भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि हमें हमारे मेहनती, ईमानदार, नैतिक और सत्यनिष्ठ मालिक ने हमें नौकरी तो दी! वरना तो हम सड़कों पर मर गये होते! यह बात अलग है कि मालिक ने कारखाना हमें नौकरी देने के लिए नहीं खोला था, बल्कि मुनाफ़ा कमाने के लिए खोला था! ये बात भी दीगर है कि हमें 12 घण्टे खटाने के बाद और 5 से 10 हज़ार पगार देने के बाद वह अक्सर हमसे एक कागज़ पर दस्तख़त कराता है, जिस पर लिखा होता है कि हमने 8 घण्टे ही काम किया है और बदले में हमें न्यूनतम मज़दूरी मिली है! फिर भी हमारा मालिक राजा हरिशचन्द्र के समान सत्यनिष्ठ और कर्ण के समान दानवीर ही माना जायेगा! याद नहीं? वह हर मंगलवार और शनिवार को मन्दिर के बाहर हम नंगे-बुच्चों के लिए भण्डारा लगवा देता है? और इस पर भी अगर उसने लेबर इंस्पेक्टर, फैक्टरी इंस्पेक्टर को खरीद लिया, या उसे झूठे कागज़ दिखाकर हमसे 12 घण्टे काम करवा लिया और हमें न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं दी, तो हम उसकी मंशा और सत्यनिष्ठा पर ही सवाल उठाने लगे? कितने अहसान-फ़रामोश हैं हम लोग!
ख़ैर! तो हम लोग उसके कारखाने में उसकी मशीनों पर उसके कच्चे माल का इस्तेमाल करके उसके लिए माल तैयार करते हैं, इसके लिए 12-12 घण्टे खटते हैं, और फिर मालिक उस माल को बाज़ार कीमत पर बेचता है और लागत से ऊपर मुनाफ़ा कमाता है। मुनाफ़े के एक हिस्से को वह अगर 10-12 करोड़ की गाड़ी, 30-35 करोड़ के बंगले खरीदने, अपने बच्चों को लाखों रुपये खर्च कर विदेश में पढ़ाने और ऐय्याशी कराने, अपनी बीवी-बेटियों के कपड़े, ज़ेवर आदि पर ख़र्च करता है, तो क्या उस बेचारे को इतना अधिकार भी नहीं है!? क्या उसे इतना अधिकार भी नहीं है कि वह अपने ऊबाऊ जीवन से तंग आकर सुअरों के समान खाए और फिर उसकी तोंद गुब्बारे की तरह फूल जाए और उसे शुगर, अधिक वज़न, कोलेस्ट्रॉल और दिल की बीमारियां हो जाएं? क्या आपको दिखता नहीं कि अमीर होने की वह कितनी भारी कीमत चुका रहा है? कैसे निर्लज्ज लोग हैं, हम मज़दूर!
बहरहाल, उत्पादन के लिए उसे अपनी पूंजी लगानी पड़ती है, जिससे कि वह कारखाने की ज़मीन लेता है, मशीनें और कच्चा माल खरीदता है और मज़दूरों की श्रमशक्ति को खरीदता है। यह पूंजी उसके पास कहां से आई? उसके बाप के पास से, या फिर उसने बैंक से लोन लिया या फिर उसने कम्पनी को शेयरों में तोड़कर और फिर उन्हें बेचकर यह पूंजी जमा की। आइये पहले हमारे उन प्यारे पूंजीपतियों के बारे में विचार करते हैं, जिनके बाप ने उन्हें पूंजी विरासत में दी! उनके बापों के पास यह पूंजी कहां से आई? वह उनके बापों के बापों ने उन्हें दी! लेकिन बापों की इस श्रृंखला में जो पहला बाप था, उसके पास पूंजी कहां से आई? वह पूंजी उसने बहुत से मेहनतकशों को लूटकर, बरबाद करके और उजाड़कर एकत्र की थी। कैसे? यह समझने के लिए पहले हमको जानना पड़ेगा कि मुद्रा क्या होती है?
मुद्रा वास्तव में खुद एक माल ही है जो कि अन्य मालों के विनिमय के विकसित और जटिल होने की प्रक्रिया में पैदा हुई। मान लें कि एक उत्पादक ने दूसरे उत्पादक से अपने माल का विनिमय किया। इसके लिए यह ज़रूरी है कि पहले उत्पादक को दूसरे उत्पादक के और दूसरे उत्पादक को पहले उत्पादक के माल की ज़रूरत हो। यह संयोग से ही हो सकता है। जब दो उत्पादकों में ही विनिमय संयोग का मसला हो, तो कई उत्पादकों के बीच कई मालों का विनिमय कितना जटिल होगा, यह आप समझ सकते हैं। ऐसे में, कई हज़ार साल के इतिहास में विनिमय के जटिल होते जाने की प्रक्रिया में मुद्रा अस्तित्व में आयी, जिसके ज़रिये हर कोई अपने माल को बेचता था और दूसरे के माल को खरीदता था। अब आप देख सकते हैं कि अपने आपमें मुद्रा की कोई कीमत नहीं होती है, हालांकि मुद्रा का एक मूल्य होता है क्योंकि मुद्रा स्वयं एक माल ही होती है जो कि अन्य सभी मालों के मूल्य के लिए एक सार्वभौमिक समतुल्य का काम करती है (जैसे कि प्राचीन काल में यह तांबा, कांसा आदि थे और बाद में इनकी जगह सोना-चांदी ने ले ली; चूंकि अधिक ख़रीद के लिए आप अधिक सोना-चांदी बैलगाड़ी पर लाद कर हमेशा नहीं ले जा सकते, इसलिए कई सौ सालों में इनकी जगह पेपर नोट ने ले ली, जो कि इन सोने-चांदी के सिक्कों के प्रतीक होते थे)। लेकिन मुद्रा की कोई कीमत नहीं होती क्योंकि अन्य माल इस विशिष्ट माल मुद्रा में अपनी कीमत को अभिव्यक्त करते हैं, जिसका काम ही मूल्य का माप होना और संचरण का माध्यम होना होता है। ये जटिल कहानी फिलहाल छोड़ कर अभी हम बस यह बात समझ लें कि मुद्रा का अपने आपमें कोई अस्तित्व ही नहीं होगा यदि समाज में तमाम आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन न हो, यानी समाज के अन्य सभी मालों का उत्पादन न हो। अपने आपमें आप न तो रुपये को खा सकते हैं, न रुपये को पहन सकते हैं, और न ही रुपये ओढ़-बिछा सकते हैं और न ही रुपये में रह सकते हैं। आपके पास कितना भी रुपया हो, यदि उससे खरीदने वाले सामान ही मौजूद न हों तो उसका कोई मूल्य नहीं है। इसलिए मूल बात यह है कि समाज की असली सम्पदा उसमें पैदा होने वाली तमाम ज़रूरी वस्तुएं हैं, जो न हों तो मुद्रा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यानी कि मुद्रा-पूंजी समाज में मौजूद वास्तविक भौतिक सम्पदा का ही प्रतिनिधित्व करती है या दूसरे शब्दों में मुद्रा समाज में पैदा मालों पर एक दावा है, और इसलिए पूंजीपति वर्ग अपनी मुद्रा पूंजी को उत्पादन के साधनों और श्रमशक्ति में तब्दील करता है और अपने कारखाने में उत्पादन करवाता है, जिसके उत्पाद पर भी उसी का अधिकार होता है। मूल चर्चा पर लौटते हैं।
यानी कि सबसे पहले वाले बाप यानी पहले पूंजीपति के पास जो मुद्रा-पूंजी है, वह वास्तव में समाज में पैदा होने वाले मालों का ही प्रतिनिधित्व करती है और उन मालों का अस्तित्व न हो तो इस पूंजीपति के पास मौजूद मुद्रा पूंजी का कोई अर्थ नहीं है। यह मुद्रा पूंजी उसका समाज में मौजूद तमाम मालों की एक निश्चित मात्रा पर दावा है। यह मुद्रा पूंजी उसके पास कहां से आयी होगी? ऐतिहासिक तौर पर और तथ्यगत तौर पर बात करें तो यह मालिकों ने ज़मीनों से किसानों व आदिवासी समुदायों को बेदखल करके, उपनिवेशीकरण करके दूसरे देशों को लूट कर और स्वयं अपनी मेहनत और अपने उत्पादन के साधनों से उत्पादन करने वाले दस्तकारों-कारीगरों से उनके उत्पादन के साधनों को छीनकर और तरह-तरह की ज़ोर-ज़बर्दस्ती और लूट के ज़रिये अपनी यह प्रारंभिक पूंजी एकत्र की। ज़ाहिर है कि इसमें उस समय की राज्यसत्ता और सरकारों ने भी उनकी मदद की थी। आरंभिक पूंजीपतियों के पास आम तौर पर पूंजी संचय इसी खूनी प्रक्रिया से हुआ था, आप चाहें किसी भी देश का इतिहास उठाकर पढ़ लें। इन पूंजीपतियों में से कुछ व्यापारी थे, तो कुछ ऐसे दस्तकार भी थे, जिन्होंने अन्य दस्तकारों की माल उत्पादक के तौर पर स्वतन्त्रता को समाप्त कर उन्हें अपना मज़दूर बना लिया था। यानी कि पहले पूंजीपतियों के पास जो पूंजी थी, वह उनकी या उनके बाप की मेहनत से नहीं आयी थी, बल्कि वह दूसरों की मेहनत की पैदावार को लूट कर आयी थी। पूंजी का मूल यही है, जिसे हम आदिम पूंजी संचय कह सकते हैं। यही वह ‘मूल पाप‘ है जिसने पूंजी को जन्म दिया। यानी कि पूंजीपति वर्ग की पूंजी के मूल में हमारी मेहनत से पैदा की गयी सम्पदा थी, जिसे की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से हड़प लिया गया। अब उन पूंजीपतियों की बात करते हैं, जो केवल ”अपने बाप से मिली” पूंजी के आधार पर निवेश नहीं करते।
आज के दौर में कई, बल्कि अधिकांश, पूंजीपति ऐसे हैं, जो कि अपनी निजी पूंजी के बूते उत्पादन नहीं करते, बल्कि वह सरकारी बैंकों से लोन लेकर या फिर शेयर बाज़ार में अपने शेयरों को आम लोगों को बेचकर पूंजी जुटाते हैं। यहां तो साफ ही है कि यह देश के समाज के आम मेहनतकश लोगों का पैसा है, चाहे वह बैंकों में जमा पूंजी हो या फिर वह पूंजी जो कि आम लोगों द्वारा शेयरों को खरीदने से जुटाई जाती है। आम तौर पर आज के सभी पूंजीपतियों के पास इन तीनों ही स्रोतों से पूंजी आती है क्योंकि उत्पादन का स्तर इतना विस्तारित हो गया है कि कोई पूंजीपति महज़ अपनी निजी पूंजी (जो कि उसके पूर्वजों ने दूसरे मेहनतकशों से लूटकर इकट्ठा की थी) के बूते बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा करने के लिए नहीं उतर सकता है। बड़े पैमाने का उत्पादन करने के लिए उसे ऋण की आवश्यकता होती है और किसी न किसी रूप में वह समाज के आम लोगों से पैसा जुटाता है, चाहे बैंकों के ज़रिये या फिर शेयर बाज़ार के ज़रिये। यानी कि हमारे लाडले पूंजीपतियों के पास जो पूंजी है, वह समाज के मेहनतकश लोगों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी किये गये उत्पादन से संचित हुई है। लेकिन बस इतनी सी बात के लिए कहीं आप मज़दूर भाई और बहन यह तो नहीं सोचने लगे कि यदि समाज की सारी पूंजी, सारी धन-दौलत और वस्तुएं हमने और हमारे मेहनतकश ग़रीब पूर्वजों ने पैदा की हैं, तो इन सब पर हमारा साझा हक़ होना चाहिए? ऐसा थोड़े ही होता है! आप तो एकदम सीनाजोरी पर आमादा हैं! दिमाग़ थोड़ा ठण्डा रखिये और आगे की कहानी सुनिये!
हमारे पूंजीपति ने जो मशीनें खरीदी थीं, वे भी किसी अन्य पूंजीपति ने अपने कारखाने में बनवायी थीं। ये मशीनें भी हमारी तरह मज़दूरों-मेहनतकशों ने ही बनायीं थीं और उन्हें उनके पूंजीपति ने बाज़ार में अन्य पूंजीपतियों को बेचा था। इस मशीन बनाने वाले पूंजीपति के पास भी पूंजी उसी प्रकार से आयी थी, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं : उसके बाप के पास से (और सबसे पहले वाले बाप ने या उसके बाप ने दूसरे मेहनतकश लोगों से लूट-पाट करके यह पूंजी इकट्ठा की थी!), या बैंक से ऋण के रूप में या फिर शेयर बाज़ार में अपनी कम्पनी के शेयर बेचकर। ऐसे में, समाज में जो सभी माल पैदा हो रहे हैं, जो सारे उत्पादन के साधन हैं, वे वास्तव में श्रम से पैदा हुए हैं और उनके श्रम का ही उत्पाद कहा जाना चाहिए। लेकिन इन उत्पादन के साधनों व पूंजी पर मालिकाना पूंजीपतियों का होता है। जो मज़दूर होते हैं, उनके पास उत्पादन के साधन नहीं होते हैं और इसलिए उन्हें जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचनी पड़ती है। लेकिन इसका कहीं आप यह मतलब तो नहीं निकालने लगे कि उत्पादन के साधनों का समाजीकरण हो जाना चाहिए? देखिये, आप फिर से ज़्यादती पर आमादा हो गये हैं! ऐसा सोचने का कुफ्र न करें!
सभी मालों का, चाहें वह उत्पादन के साधन हों या फिर उपभोग की वस्तुएं, एक मूल्य होता है। इस मूल्य में क्या-क्या शामिल होता है? दो चीज़ें: इन मालों के उत्पादन में खर्च हुए उत्पादन के साधन, यानी मशीन, कारखाने के ढांचे, आदि की घिसाई का मूल्य और कच्चे माल का मूल्य, जो कि स्वयं अतीत में हुए श्रम का ही नतीजा होता है; और दूसरा, मज़दूर द्वारा पैदा किया गया नया मूल्य। यानी पहला अतीत के श्रम, जिसे हम ‘मृत श्रम’ कह सकते हैं क्योंकि वह बनी हुई वस्तु के रूप में सामने है और उसका विक्रय हो चुका है; और दूसरा जीवित सक्रिय श्रम जो कि उत्पादन के साधनों पर कार्य कर नया मूल्य भी पैदा कर रहा है और उत्पादन के साधनों के मूल्य को बचाकर नये माल में स्थानान्तरित भी कर रहा है। अगर मशीनें फालतू पड़ी रहें तो वे क्षरित होती जाएंगी और उनका मूल्य समाप्त होता जायेगा। यह मज़दूर की मेहनत ही है जो कि उसे उपयोग में लाती है और इस प्रक्रिया में उसके मूल्य को संरक्षित भी करती है और एक साथ (कच्चे माले के सन्दर्भ में) या टुकड़ों-टुकड़ों में उत्पादित माल में स्थानान्तरित करता है। इस प्रकार नये माल में उत्पादन के साधनों का मूल्य और मज़दूर द्वारा पैदा नया मूल्य शामिल होता है।
मज़दूर द्वारा पैदा किये गये नये मूल्य में क्या शामिल होता है? मज़दूरी के बराबर मूल्य और मुनाफ़ा। मज़दूर पहले तो उसे मिलने वाली मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करते हैं और फिर वह उसके ऊपर अतिरिक्त मूल्य पैदा करते हैं। इस अतिरिक्त मूल्य के बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। उन्हें तो बस मज़दूरी मिलती है, जो कि उनके व उनके परिवार के जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमत से निर्धारित होती है। यह अतिरिक्त मूल्य ही पूंजीपति का मुनाफ़ा होता है। लेकिन अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य का भी हम मज़दूर ही उत्पादन करके मालिक को देते हैं। यानी अपनी मज़दूरी भी हम ही पैदा करते हैं, और मालिक का मुनाफ़ा भी हम ही पैदा करते हैं। यानी मालिक हमें नहीं पाल रहा है, बल्कि हम मालिक को पालने के लिए मजबूर हैं। क्यों? क्योंकि उत्पादन के साधनों पर मालिक का मालिकाना है, हालांकि वे साधन भी हमारे वर्ग ने ही पैदा किये हैं। यह बात छिप क्यों जाती है और सीधे तौर पर सभी के समझ में क्यों नहीं आ जाती है कि हम ही मुनाफा पैदा करते हैं और हम ही समस्त मूल्य के सर्जक हैं, जो कि समृद्धि का बड़ा हिस्सा है? इसलिए क्योंकि पूंजीवाद आने के साथ मेहनत की लूट यानी श्रम के शोषण ने एक विशिष्ट नया रूप लिया। पहले सामन्ती दौर में भूदास हफ्ते में तीन दिन अपने ज़मीन के टुकड़े पर काम करता है, जो कि उसके जीविकोपार्जन के लिए जरूरी वस्तुएं उसे देता था, और बाकी चार दिन ज़मींदार की ज़मीन पर बेगारी करता था। पहला तीन दिनों का अपने खेत पर किया जाने वाला श्रम उसके लिए आवश्यक श्रम था क्योंकि यही उसे जिलाए रखता था, जबकि चार दिन ज़मींदार के खेत पर की जाने वाली बेगारी अतिरिक्त श्रम था जो कि ज़मींदार को जिलाये रखती थी। पूंजीवाद के पहले की सभी वर्ग व्यवस्थाओं में आवश्यक श्रम और अतिरिक्त श्रम के बीच समय और स्थान दोनों में ही अन्तर होता था, जिसके कारण साफ दिखलाई पड़ता था कि शोषक वर्ग मेहनतकश वर्गों की मेहनत पर जिन्दा रहते हैं। मिसाल के तौर पर, यहां साफ तौर पर दिखाई देता है कि भूदास या निर्भर किसान कितने दिन और कहां पर अपने लिए काम कर रहा है और कितने दिन और कहां पर सामन्ती ज़मींदार के लिए काम कर रहा है। लेकिन पूंजीवाद में ऐसा नहीं होता है। यह पूरा कार्य एक ही स्थान पर और एक ही समय-खण्ड में किया जाता है। मज़दूर अब एक ही स्थान पर 8 से 12 घण्टे मज़दूरी करता है। उसकी श्रम शक्ति (यानी मेहनत करने की उसकी क्षमता) स्वयं एक माल बन चुकी होती है और उसकी कीमत इस बात से तय होती है कि इस श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन की लागत क्या होगी, यानी कि मज़दूर व उसके परिवार के जीविकोपार्जन में होने वाला औसत खर्च मज़दूरी को निर्धारित करता है। ऐसे में, मज़दूर 8 घण्टे में से हो सकता है कि केवल 3 घण्टे में ही इतना मूल्य पैदा कर देता हो जो उसके जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक हो, और बाकी श्रमकाल में वह पूंजीपति के लिए काम करता है। यानी आवश्यक श्रमकाल और अतिरिक्त श्रमकाल अब एक ही अखण्ड श्रमकाल का हिस्सा बन चुके हैं और श्रमशक्ति एक माल बन चुकी है। श्रमशक्ति माल इसलिए बनती है क्योंकि प्रत्यक्ष उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया जाता है, और समस्त उत्पादन के साधनों का एकाधिकार पूंजीपति वर्ग के हाथों में आ जाता है। यानी मज़दूर अब जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने को मजबूर होता है। एक बार जब मज़दूर अपनी श्रमशक्ति पूंजीपति को बेच देता है तो उसके पूरे कार्यदिवस पर पूंजीपति का हक़ होता है, जो कि सभी उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। ऐसे में, मज़दूर जो मूल्य उत्पादित करता है वह उसके श्रम का उत्पाद होने की बजाय पूंजी का उत्पाद दिखता है। इसीलिए ऐसा दिखता है कि समृद्धि का सृजन पूंजी कर रही है क्योंकि उत्पादन के साधनों और श्रम शक्ति पर उसका अधिकार होता है। लेकिन सच्चाई यह है कि समस्त मूल्य का उत्पादन और इसलिए समृद्धि के बड़े हिस्से का उत्पादन हम मज़दूर-मेहनतकश करते हैं।
बहरहाल, मज़दूरी क्या होती है, इसे थोड़ा गहराई से समझना चाहिए। मज़दूरी पूंजीपति के लिए ”एक दिन के काम का मोल” होती है। लेकिन अगर हम जितना मूल्य पैदा करते हैं, वह पूरा हमें मिल जाता तो फिर मालिक का मुनाफ़ा कहां से आता? मालिक कहता है कि बाज़ार में अपने माल को उसके मूल्य से ऊपर बेचकर वह मुनाफ़ा कमाता है। लेकिन तब तो बेचने वाले का लाभ खरीदने वाले की हानि होगा, और यदि पूरे समाज में पूंजीपति वर्ग इसी तरीके से अधिक मूल्य पर बेचकर लाभ कमाएगा, तो जितना लाभ एक पक्ष को बेचकर होगा, ठीक उतनी ही हानि दूसरे पक्ष को अधिक दाम पर खरीद कर होगी, यानी कि कुल लाभ = कुल हानि! लेकिन फिर तो समाज की समृद्धि बढ़ी ही नहीं, बस एक पक्ष का लाभ दूसरे पक्ष की हानि बन गयी। लेकिन हम जानते हैं कि प्रधानमन्त्री मोदी की इतनी बात तो सही है कि समाज में लगातार समृद्धि पैदा हो रही है और बढ़ रही है। यानी कि अगर पूरे समाज के स्तर पर समृद्धि में बढ़ोत्तरी हो रही है, तो फिर मालिक वर्ग का मुनाफ़ा माल के मूल्य से अधिक कीमत पर उसे बेचने से नहीं पैदा हो रहा है, बल्कि इस मुनाफे का स्रोत कुछ और है। माल तो अपनी कीमत पर ही बेचे जा रहे हैं। वास्तव में, पूरा पूंजीपति वर्ग अपने समस्त माल को उसके मूल्य पर ही बेचता है, हालांकि कई कारणों से अलग-अलग मालों का मूल्य उनकी बाज़ार कीमत से कम या ज्यादा हो सकता है। इन कारणों पर यहां हम चर्चा नहीं कर सकते हैं। अभी इतना समझ लेना काफी है कि सामाजिक स्तर पर सभी मालों का कुल मूल्य हमेशा सभी मालों की कुल कीमत के बराबर ही होता है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि मुनाफा बाज़ार में माल को अधिक दाम पर बेचकर नहीं पैदा होता है। बल्कि मज़दूर अपनी मेहनत से अपनी मज़दूरी भी पैदा करता है और पूंजीपति वर्ग का मुनाफा भी। अन्यथा समूचे पूंजीपति वर्ग को कोई मुनाफा नहीं होगा और न ही समाज में पूंजी व समृद्धि में कोई बढ़ोत्तरी होगी। मज़दूर जो नया मूल्य पैदा करता है, वह उसकी मज़दूरी और पूंजीपति के मुनाफे के बराबर होता है। फिर हमारी मज़दूरी कैसे तय होती है? जैसा कि हमने ऊपर संक्षेप में बताया था, हमारी मज़दूरी वास्तव में औसतन हमारे और हमारे परिवार के गुज़ारे के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमत के बराबर होती है; यानी हम जीवित रह सकें, मज़दूरों की नस्ल को आगे बढ़ा सकें और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पूंजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा कर सकें, इसके लिए हमें और हमारे परिवार के लिए महज़ जीने की खुराक! यही हमारी मज़दूरी होती है। यह कई बार इस न्यूनतम स्तर से कुछ ऊपर और कुछ नीचे हो सकती है, क्योंकि सामाजिक तौर पर बेरोज़गारी की वजह से हम मज़दूरों के बीच भी पूंजीपति वर्ग रोज़गार के लिए प्रतिस्पर्द्धा कराता है, जिससे किसी एक क्षेत्र या उत्पादन की शाखा में मज़दूरी औसत मज़दूरी से ऊपर तो किसी दूसरे क्षेत्र या उत्पादन की शाखा में नीचे हो सकती है। लेकिन इस उतार-चढ़ाव के बावजूद आम तौर पर मज़दूरी इसी औसत के इर्द-गिर्द मण्डराती है। यानी कि लुब्बेलुबाब यह कि पूंजीपति/मालिक/ठेकेदार हमें नहीं खिला रहा है, वह हमें नहीं पाल रहा है, बल्कि हम उसे पाल रहे हैं, उसे खिला रहे हैं, उसकी और उसकी औलादों की ऐय्याशियों की कीमत चुका रहे हैं। तो क्या हुआ? इसका मतलब यह थोड़े ही है कि हम प्रधानमन्त्री मोदी की बात न मानें और इन पूंजीपतियों, अमीरज़ादों को शक़ की निगाह से देखें, उनके मुनाफे पर सवाल उठायें, उनकी ऐय्याशियों पर उंगली उठायें! और यह तो हमें सोचना भी नहीं चाहिए कि यदि हम ही सबकुछ मिलकर पैदा कर रहे हैं, यदि हम ही पूंजीपति वर्ग को पाल रहे हैं, जो कि स्वयं कुछ भी नहीं करता, तो फिर हमें ही सभी कल-कारखानों, खानों-खदानों और खेतों-खलिहानों पर कब्ज़ा कर लेना चाहिए! यह तो अति ही हो जायेगी! इसलिए ऐसा कतई मत सोचिये!
अब इस प्रश्न पर आते हैं कि समृद्धि किसे कहते हैं? क्या मूल्य ही समृद्धि है, जो कि मानव श्रम द्वारा सृजित होता है? नहीं! सच तो यही है कि समूची समृद्धि के दो स्रोत होते हैं: कुदरत और मेहनत। कुदरत पर सबका बराबर का हक़ है। वह किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों द्वारा उत्पादित नहीं है, बल्कि सभी मनुष्यों को बराबरी से मिली थी। लेकिन मूल्य का केवल एक ही स्रोत होता है: श्रम! क्योंकि मूल्य और कुछ नहीं बल्कि वस्तु में ढल गया और जम गया श्रम ही है, और कुछ नहीं। लेकिन समृद्धि में समस्त उत्पादित वस्तुओं समेत प्राकृतिक वस्तुएं भी आती हैं। समृद्धि के प्राकृतिक रूपों पर तो पूंजीपतियों के तर्क से भी कोई निजी सम्पत्ति नहीं होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, ज़मीन में किसी प्रकार की निजी सम्पत्ति को तो तत्काल खत्म कर देना चाहिए क्योंकि यह तो सबसे अश्लील किस्म का अन्याय है कि ज़मीन पर कुछ भूस्वामियों का कब्ज़ा हो। कुदरत की बाकी नेमतों पर सबका साझा हक़ होना चाहिए। लेकिन सिर्फ कुदरत की देनों पर ही नहीं बल्कि मेहनत की पैदावार पर भी सबका साझा हक़ होना चाहिए क्योंकि आज हरेक वस्तु के उत्पादन में सामाजिक व सामूहिक श्रम लगा हुआ है। एक मज़दूर भी किसी वस्तु/माल के बारे में यह नहीं कह सकता है कि ”यह मेरा है”। वह युग ही बीत गया जबकि कोई भी उत्पादक यह कह पाता। और जब किसी एक वस्तु या माल के बारे में कोई उत्पादक यह कह भी सकता था कि वह उसका है, तो भी उसे जीवित रहने के लिए अन्य तमाम वस्तुओं की ज़रूरत पड़ती थी, जिसके लिए वह दूसरे उत्पादकों पर निर्भर था; यानी कि तब भी उसका सामाजिक व भौतिक अस्तित्व सामाजिक श्रम पर निर्भर था। लेकिन पूंजीवाद के बड़े पैमाने के उत्पादन के साथ तो समूचा उत्पादन सीधे तौर पर सामाजिक चरित्र ग्रहण कर चुका है और किसी एक माल या वस्तु के बारे में भी कोई नहीं कह सकता कि यह उसके अकेले के श्रम की पैदावार है।
अब सही मायने में देखें तो हमारे प्रधानमन्त्री महोदय के बेचारे गुजराती पूंजीपति मित्र वास्तव में समृद्धि का उत्पादन नहीं करते, बल्कि उसे हथियाते हैं, उसका निजीकरण करते हैं। श्रम के उत्पाद पर पूंजीपति का नियंत्रण होता है क्योंकि उत्पादन के साधनों पर उसका एकाधिकार है और इसी वजह से मज़दूर की श्रमशक्ति स्वयं एक माल में तब्दील हो चुकी होती है जिसका पूंजीपति वर्ग शोषण करता है। लेकिन यह एक खास प्रकार का माल है जो कि अपने मूल्य से भी अधिक मूल्य का उत्पादन कर सकता है क्योंकि श्रमशक्ति की सक्रियता ही श्रम है और श्रम ही मूल्य का सारतत्व है। पूंजीपति वर्ग अपनी पूंजी के दम पर प्राकृतिक सम्पदा का भी निजीकरण कर लेता है और हालांकि ज़मीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का कोई मूल्य नहीं होता, मगर निजी सम्पत्ति बना दिये जाने के कारण उसकी बाज़ार कीमत ज़रूर हो जाती है। यानी कि समृद्धि के इन दोनों ही स्रोतों पर पूंजीपति वर्ग का एकाधिकार हो जाता है, हालांकि इन्हें पैदा करने में उसका कोई योगदान नहीं होता।
यानी लुब्बेलुबाब यह कि प्रकृति के अलावा देश की धन-दौलत और समृद्धि के उत्पादक भारत के हम करोड़ों मज़दूर हैं लेकिन इसके बावजूद हमें भुखमरी, ग़रीबी और अनिश्चितता में जीना होता है, जबकि पूंजीपति वर्ग, यानी प्रधानमन्त्री में मित्रगण इस समूची समृद्धि के सृजन और देश को चलाने में उतने ही अनुपयोगी और बेकार हैं, जितने के स्वयं प्रधानमन्त्री मोदी! सामाजिक रूप से फालतू हो चुके पूंजीपति वर्ग को सामाजिक रूप से फालतू हो चुके पूंजीवादी वर्ग का प्रमुख नुमाइन्दा शक़ से न देखने की भावुक अपीलें कर रहा है! यहां तो पूरा मामला ही सन्देहास्पद दिख रहा है!
लेकिन आप कहीं इन सब बातों से यह नतीजा तो नहीं निकाल रहे हैं कि समृद्धि के असली उत्पादक प्रकृति के साथ आप मेहनतकश लोग हैं तो इस पर आपका साझा हक़ होना चाहिए? कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे हैं कि परजीवी मालिकों/ठेकेदारों से उत्पादन के साधन छीन लिये जाने चाहिए? आप ऐसा तो नहीं सोच रहे हैं कि निजी सम्पत्ति की व्यवस्था ही अन्यायपूर्ण है और समूची सम्पदा को सामाजिक सम्पत्ति बना दिया जाना चाहिए? आप इस विकल्प पर विचार तो नहीं कर रहे कि पूरे देश में उत्पादन, राज-काज और समाज के ढांचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ होना चाहिए और फैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में होनी चाहिए? यह क्या ग़ज़ब सोच रहे हैं आप? क्या आपको हमारे ”प्यारे” मालिकों की सेवा में काम करने वाली पुलिस और फौज से डर नहीं लगता, कि आप ऐसी ज्यादती करने के बारे में सोच रहे हैं? क्या कहा? पुलिस और सेना में भी आम जवान आप मज़दूरों व ग़रीब किसानों के ही घर से भर्ती हुए हैं और वे भी अफसरों के हाथों शोषित-उत्पीडि़त हैं? अब तो आपकी बातों से देशद्रोह की बू आने लगी है! क्या कहा? देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता, उसमें रहने वाले मेहनतकशों और मज़दूरों से बनता है? अब तो आप लोग एकदम ही देशद्रोही हो गये हैं! प्रधानमन्त्री मोदी के अनुसार तो अम्बानी-अडानी का मुनाफ़ा ही असली ‘भारत माता‘ है और उसके मुनाफे की भक्ति ही ‘देशभक्ति‘ है! तो क्या हुआ कि वे कुछ नहीं पैदा करते और आपकी मेहनत के बूते ऐशो-आराम और ऐय्याशी की जिन्दगी जीते हैं? तो क्या हुआ कि आप मज़दूर और मेहनतकश सुई से लेकर जहाज़ तक बनाते हैं फिर भी गरीबी और भुखमरी में रहते हैं? तो क्या हुआ कि सारी समृद्धि के सर्जक आपकी मेहनत और कुदरत हैं? कानून कहता है कि पूंजीपति ही समस्त उत्पादन के साधनों का मालिक है, इसलिए आप गैर-कानूनी बात नहीं कर सकते! क्या कहा? कानून इंसान को नहीं बनाता, इंसान कानून को बनाता है? कि आज़ादी की लड़ाई भी अंग्रेज़ों के लिए गैर-कानूनी थी, अश्वेतों का आन्दोलन भी अमेरिकी पूंजीपति वर्ग के लिए गैर-कानूनी था, फ्रांसीसी क्रान्ति भी सामन्तों के कानून के लिए गैर-कानूनी थी, रूसी क्रान्ति भी ज़ार और पूंजीपति वर्ग के लिए गैर-कानूनी थी? तो इससे आप क्या नतीजा निकाल रहे हैं? कि हमारे देश में भी राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक क्रान्ति को अंजाम देना पड़ेगा? अब तो आप एकदम कम्युनिस्टों जैसी बात कर रहे हैं! कहीं यही सही बात तो नहीं है?
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