बेरोज़गारी की भयावह स्थिति : पहली बार देश में कुल रोज़गार में भारी कमी!
रोज़गार और आमदनी घटने से ग़रीब मेहनतकश आबादी खाने-पीने की बुनियादी चीज़ें ख़रीदने में भी अक्षम
बेरोज़गारी को लेकर मोदी सरकार के झूठों का बार-बार पर्दाफ़ाश हो रहा है। अपने पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के जिन आँकड़ों को झूठा साबित करने में पूरी ताक़त लगा दी थी, उसी रिपोर्ट को पिछले अगस्त में उसने पिछले दरवाज़े से स्वीकार कर लिया। सरकारी संस्था नमूना सर्वेक्षण की यह रिपोर्ट बताती है कि बेरोज़गारी की हालत पिछले 45 वर्षों में सबसे बुरी है। और अब एक अन्य प्रतिष्ठित संस्थान के अध्ययन ने बताया है कि पिछले 6 वर्षों में देश के कुल रोज़गार में 90 लाख की कमी आ गयी! पहले आबादी बढ़ने की दर के अनुसार रोज़गार पैदा होने की दर अगर नहीं बढ़ती थी तो भी कुछ-न-कुछ रोज़गार बढ़ता रहता था। मगर पहली बार ऐसा हुआ है कि कुल रोज़गार ही कम हो गया। यानी जितने लोगों को पहले से काम मिला हुआ था, उनकी संख्या बढ़ने के बजाय और कम हो गयी। 2011-12 और 2017-18 के बीच रोज़गार में लगे लोगों में 90 लाख की कमी आयी। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सतत रोज़गार केन्द्र की ओर से किये गये एक व्यापक अध्ययन में सरकारी दावों को झुठलाने वाला यह तथ्य सामने आया है।
संतोष मेहरोत्रा और जजाति के. परीदा द्वारा किया गया यह अध्ययन जो तथ्य सामने लाया है, वे अब नये नहीं रह गये हैं, कई अन्य स्रोतों से भी यह बात सामने आयी है, लेकिन यह पहला ऐसा विस्तृत और आधिकारिक अध्ययन है जो सरकारी आँकड़ों के माध्यम से ठोस रूप में यह बताता है कि देश में कुल रोज़गार घट रहा है और बेरोज़गार नौजवानों की रिज़र्व सेना (पूरी तरह बेरोज़गार और हताश) में “भारी पैमाने पर” बढ़ोत्तरी हो रही है। अध्ययन सरकारी और निजी, दोनों तरह की नौकरियों में तेज़ी से बढ़ती ठेका प्रथा के बारे में भी बताता है।
रिपोर्ट बताती है कि ज़्यादातर रोज़गार असंगठित और निजी क्षेत्र में सूक्ष्म और छोटी इकाइयों में ही पैदा हो रहा है। 2017-18 में कुल रोज़गार का 68 प्रतिशत ऐसा ही था। सार्वजनिक क्षेत्र में भी अनौपचारिक नौकरियों का हिस्सा बढ़ गया है जो नियमित सरकारी नौकरियों में कमी को दर्शाता है।
रोज़गार में सेक्टर-वार गिरावट
वर्ष 2011-12 से 2017-18 के बीच कृषि क्षेत्र में करीब 27 लाख रोज़गार घट गये। कृषि और सम्बद्ध क्षेत्र में रोज़गार का हिस्सा 49 प्रतिशत से घटकर 44 प्रतिशत रह गया।
श्रम-सघन मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में 35 लाख रोज़गार की कमी हो गयी। इस तरह कुल रोज़गार में मैन्युफ़ैक्चरिंग का हिस्सा घटकर 12.6 से 12.1 प्रतिशत रह गया है। वास्तव में भारत के इतिहास में पहली बार मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में रोज़गार में गिरावट आयी है! केवल वृद्धि दर में कमी नहीं हुई है, बल्कि सम्पूर्ण संख्या ही घट हो गयी है। रिपोर्ट के लेखकों की टिप्पणी है कि मैन्युफ़ैक्चरिंग रोज़गार में कमी ‘मेक इन इण्डिया’ के दावों को ग़लत साबित करती है।
निर्माण क्षेत्र में रोज़गार वृद्धि की दर धीमी बनी हुई है। ग़ैर-मैन्युफ़ैक्चरिंग रोज़गार (मुख्यतया भवन-निर्माण) जो 2004-05 से 2011-12 तक हर वर्ष करीब 40 लाख रोज़गार पैदा करते थे, उनमें 2011-12 से 2017-18 के बीच केवल 6 लाख रोज़गार प्रति वर्ष पैदा हुए।
इससे पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण के अनुसार बेरोज़गारी की इतनी बुरी स्थिति 1972-73 में थी। यह वही समय था जब वैश्विक तेल संकट के कारण अर्थव्यवस्था भीषण संकट में घिरी थी। यही वह भी समय था जब पहली बार उपभोक्ता ख़र्च में कमी आ गयी थी। उस समय के बाद आज फिर से उपभोक्ता ख़र्च में कमी आयी है जिसका मतलब है कि आम लोग अपने खाने-पीने की बुनियादी चीज़ों पर भी ख़र्च नहीं कर पा रहे हैं। इसका सीधा सम्बन्ध बढ़ती बेरोज़गारी से है जिसके कारण लोगों की आमदनी लगातार घट रही है।
ग्रामीण पुरुष युवाओं (15-29 वर्ष) के बीच बेरोज़गारी 2011-12 में 5 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 17.4 प्रतिशत हो गयी। उसी आयु वर्ग में ग्रामीण स्त्रियों के बीच बेरोज़गारी 2011-12 में 4.8 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 13.6 प्रतिशत तक पहुँच गयी। पढ़े-लिखे लोगों की स्थिति भी अच्छी नहीं रही। शिक्षित ग्रामीण स्त्रियों के बीच बेरोज़गारी 2004-05 से 2011-12 के बीच 9.7 से 15.2 प्रतिशत तक रहती थी जो 2017-18 में 17.3 प्रतिशत हो गयी।
केवल एक क्षेत्र जिसमें रोज़गार बढ़ा है, वह है सेवा क्षेत्र, यानी होटल, रेस्त्रां, खुदरा व्यापार, बैंक, दफ़्तरों आदि में वेटर, सफाईकर्मी, सेल्समैन आदि जैसे काम जिनमें बेहद कम वेतन पर बहुत अधिक काम कराया जाता है, और न तो रोज़गार की कोई गारण्टी होती है, और न ही पेंशन, बीमा आदि किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा मिलती है।
रिपोर्ट के लेखक बताते हैं कि 2011-12 से ही हर वर्ष देश की कुल श्रम शक्ति में शामिल होने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2004-05 से 2011-12 के बीच हर वर्ष 20 लाख नये लोग श्रम बल में शामिल होते थे। पिछले 6 वर्षों में यह संख्या बढ़कर 50 लाख प्रति वर्ष हो गयी है जबकि इसी दौरान ग़ैर-कृषि रोज़गार वृद्धि में गिरावट आयी है। इन दोनों को मिलाकर देखने से पता चलता है कि खुली बेरोज़गारी दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। श्रमिकों की आपूर्ति बढ़ रही है लेकिन उनकी माँग में कमी आ रही है। इसी के नतीजे के तौर पर वास्तविक मज़दूरी ठहरी हुई है या उसमें गिरावट आ रही है।
पूँजीवादी व्यवस्था में बार-बार आने वाले आर्थिक संकटों के दौर में बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना में भारी बढ़ोत्तरी होती है। कारख़ानों, मिलों, खदानों के बन्द होने, निर्माण की गतिविधियों में ठहराव आने, व्यापार मन्दा पड़ने के साथ ही बड़े पैमाने पर मज़दूरों-कर्मचारियों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ता है। संकट के दौरों में मज़दूरों पर बेरोज़गारी की मार और भी बुरी तरह पड़ती है। दुनियाभर के अर्थशास्त्री यह बता चुके हैं कि पूँजीवाद अब जिस मंज़िल में है, वहाँ संकट और मन्दी अब एक स्थायी चीज़ बन चुके हैं। बीच-बीच में संकट अति गम्भीर रूप धारण कर लेता है, लेकिन संकट से उबरकर समृद्धि और उछाल के दौर अब नहीं आते। इसी का नतीजा है कि बेरोज़गारी लगातार एक भीषण संकट के रूप में बनी हुई है और बीच-बीच में इससे राहत के कुछ दौर भी नहीं आने वाले। बल्कि यह संकट बीच-बीच में विस्फोटक स्थिति अख़्तियार करता रहेगा, जैसीकि इस समय दिख रही है।
ऐसे में फ़ासिस्ट मोदी सरकार की पूँजीपतियों को बहुत ज़रूरत है तािक राष्ट्रवाद और धार्मिक जुनून के नशे की खुराकें देकर बेरोज़गार मज़दूरों और युवाओं को एकजुट होने और लड़ने से रोका जा सके। फिलहाल वे अपने मंसूबों में कामयाब होते दिख रहे हैं। क्या इस देश के मज़दूर और नौजवान ऐसे ही चुपचाप बर्बादी की ओर धकेले जाते रहेंगे?
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019
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