गहरी आर्थिक मन्दी के सही कारण को पहचानो
सनी सिंह
सरकार द्वारा आर्थिक मन्दी की भयंकरता को एक लम्बे समय तक ख़बरों से दूर रखने में सफल होने के बाद आख़िरकार यह ख़बर सुर्ख़ियों में आ गयीहै। ऑटोमोबाइल उद्योग, सिरैमिक, गारमेंट, हीरा, स्टील सहित लगभग हर मैन्युफ़ैक्चर क्षेत्र में उत्पादन ठप्प हो रहा है, मज़दूरों को काम से निकाला जा रहा है, फै़क्ट्रियाँ बन्द हो रही हैं। सरकार ने ‘बही-खाता’ बजट में अमीरों पर टैक्स लगाने का जो दिखावा किया था वह भी बन्द कर दिया है और छोटे मालिकों पर जीएसटी के टैक्स का पैसा जल्द वापस करने की घोषणा कर दी है। ”सख़्त क़दम” वाली सरकार ने बजट की कई नीतियों से पलटी मारी। आरबीआई के रिज़र्व फ़ण्ड से भी 1.76 लाख करोड़ रुपए हड़पकर मन्दी से ‘पूँजीपतियों को बचाने’ के लिए रख लिये गये हैं। तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) को 100 प्रतिशत करने की घोषणा की गयी है। सारा ज़ोर लगाने के बाद भी जीडीपी की विकासदर घटकर 5 प्रतिशत पर पहुँच गयी है।
मन्दी के कारण मज़दूरों की नौकरी छूट रही है, बेरोज़गारी और महँगाई बढ़ी है, परन्तु सरकार अपना पूरा ज़ोर लगा रही है कि पूँजीपतियों में निराशा न हो। मज़दूरों के लिए सरकार कोई नीति नहीं ला रही है। मोदी ने 15 अगस्त को मनमोहन सिंह की यह बात ही दोहरा दी है कि अमीरों को और अमीर बनाइये, उनकी जूठन से ग़रीबों के जीवन में भी समृद्धि आयेगी। हम यह जानते हैं कि समृद्धि नीचे से ऊपर ही जाती है, न कि ऊपर से नीचे की ओर।
ख़ैर, सरकार बाज़ार में निवेश क्यों कर रही है? इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि इससे निवेश को बढ़ावा मिलेगा, बाज़ार में फिर से भरोसा जागेगा। तमाम ‘मार्क्सवादी’ कीन्सवादी भी बता रहे हैं कि यह संकट इस कारण है कि बाज़ार में सामान नहीं ख़रीदा जा रहा है। बाज़ार में माल पटा हुआ है। अतिउत्पादन हो गया है। अतिउत्पादन के पीछे तर्क यह कि लोग माल नहीं ख़रीद रहे। उपभोग कम होने यानी अल्पउपभोग को संकट बताया जा रहा है। अल्पउपभोग का कारण मज़दूरों का वेतन घटना बताया जा रहा है। हमने ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक में ही लिखा था कि मन्दी एक संकट का रूप ले रही है जिसके पीछे प्रमुख कारण मुनाफे़ की दर का गिरना है। इस कारण ही पूँजीवाद बार-बार संकट में फँस जाता है। मुनाफ़े की दर का गिरना ही वह कारण है जो अल्पउपभोग व अतिउत्पादन को पैदा करता है। अल्पउपभोग व अतिउत्पादन संकट की अभिव्यक्ति है, कारण नहीं। जो लोग अल्पउपभोग को प्रमुख कारण मानते हैं उनके अनुसार अगर सरकार बाज़ार में पूँजी निवेश करे या विदेशी निवेश को आमंत्रित करे तो संकट टाला जा सकता है। परन्तु ऐसा क्यों है कि 2008 के बाद अब हम फिर से एक बार बहुत बड़े संकट की आगोश में पहुँच गये हैं?
मौजूदा मन्दी व संकट का कारण अल्पउपभोग नहीं है!
मन्दी या संकट अपने को अतिउत्पादन के रूप में प्रकट करता है। अतिउत्पादन का मतलब यह है कि समाज में माँग से ज़्यादा पैदा हो गया है। माँग का क्या मतलब है? माँग का मतलब असल माँग नहीं है! इसका मतलब होता है क्रयशक्ति द्वारा समर्थित माँग। बाज़ार में दो उपभोक्ता वर्ग होते हैं: मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग। संकट के दौर में यह निश्चित ही होता है कि उपभोग कम हो जाता है क्योंकि मज़दूरों की क्रयशक्ति कम हो जाती है। इस क्रयशक्ति के कम होने को अल्पउपभोग के कारण के रूप में पेश किया जाता है।
चलिए यह देखते हैं कि मज़दूर की क्रयशक्ति कम कैसे होती है? मौजूदा समाज में पूँजीपति उत्पादक शक्तियों व उत्पादन की परिस्थितियों का मालिक होता है। कच्चा माल, मशीनरी, श्रमशक्ति की क़ीमत ही उत्पादन की क़ीमत होती है जिसे पूँजीपति कम करना चाहता है, वहीं उत्पादित माल को वह मुनाफ़े के साथ बेचना चाहता है। पूँजीपति मज़दूर को उसकी मेहनत का भुगतान नहीं करता है बल्कि उसकी मेहनत करने की क्षमता के लिए ज़रूरी संसाधनों को ख़रीद पाने व आने वाली मज़दूर की पीढ़ी को ज़िन्दा रखने के लायक संसाधनों को ख़रीदने योग्य भुगतान करता है। इसे आवश्यक श्रम काल कहते हैं। बाक़ी हिस्सा पूँजीपति अपनी जेब में रखता है। यह हिस्सा जो वह अपनी जेब में रखता है वह बेशी मूल्य कहलाता है।
लगातार बढ़ते मशीनीकरण की वजह से मुनाफ़े की दर भी घटने लगती है। यह कैसे होता है? लागत पूँजी में जैसे-जैसे मशीनरी का पहलू बढ़ता जाता है, उसकी तुलना में कुल लागत में उजरत की लागत घटती जाती है, वैसे ही मुनाफ़े की दर गिरती चली जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मुनाफ़ा कच्चे माल या मशीन की लागत, जिसे मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में स्थिर पूँजी कहते हैं, से नहीं बल्कि मज़दूर की मेहनत से पैदा होता है क्योंकि पूँजीपति मज़दूर को उसकी मेहनत का मूल्य नहीं बल्कि केवल मेहनत करने की क्षमता का मूल्य देता है।
कुल लागत में मशीनीकरण व कच्चे माल आदि पर होने वाली लागत यानी स्थिर पूँजी परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात में अधिक बढ़ती जाती है। इस अनुपात (स्थिर पूँजी/परिवर्तनशील) को पूँजी का आवयविक संघटन कहते हैं। मशीनीकरण बढ़ने के साथ पूँजी का आवयविक संघटन भी बढ़ता है। मुनाफ़े की दर कुल लागत में उजरत से पैदा होने वाले बेशी मूल्य के प्रतिशत से व्याख्यायित होती है। मशीनीकरण बढ़ने से पूँजीपति मज़दूर से अधिक बेशी मूल्य लूटता है। इसे गणितीय सूत्र (बेशी मूल्य)*100/(स्थिर पूँजी + परिवर्तनशील पूँजी) में प्रस्तुत किया जाता है। हम यह समझ चुके हैं कि मुनाफ़े की दर घट जाती है, परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि कुल मुनाफ़ा कम होता है, बल्कि कुल मुनाफ़ा बढ़ सकता है। कैसे? अब प्रति माल पर मुनाफ़े का प्रतिशत कम होता है, परन्तु कुल माल ज़्यादा पैदा होता है। यही वह कारण है कि मुनाफ़े की दर कम होने के बावजूद मालिक इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक निवेश करता है। यह प्रकिया ही एक समय बाद इस मंजिल तक पहुँचती है कि मुनाफ़े की दर के प्रभाव के चलते कुल मुनाफ़ा भी घट जाता है। इसे ही मार्क्स ने कहा था कि आर्थिक संकट व्यवस्था का आन्तरिक संकट है जो बीच-बीच में सतह पर उभर कर आता है। यह अतिउत्पादन में प्रकट हाता है। पूँजीवादी उत्पादन विस्तारित होता रहता है। हमेशा ही ऐसा होता है कि उत्पादन के विस्तारित होने की गति उपभोग से ज़्यादा होती है। यानी पूरा पूँजीवादी उत्पादन अतिउत्पादन ही होता है। इसमें हमेशा अल्पउपभोग होता है। परन्तु यह अल्पउपभोग और अतिउत्पादन व्यवस्था का संकट तब बन जाता है जब पूँजीपति के मुनाफ़े का संकट पैदा होता है। जब पूँजीपति के मुनाफ़े का संकट पैदा हो जाता है तब उसे अपनी उस पूँजी को नष्ट करना होता है जो अब मुनाफ़ा नहीं पैदा कर सकती है। पूँजीपति फै़क्टरी बन्द करता है, माल नष्ट करता है और मज़दूरों को काम से निकालता है, वेतन घटाता है। यही क्रयशक्ति का घटना होता है। यानी कि यह क्रयशक्ति का घटना भी मुनाफ़े की दर घटने से ही जुड़ा होता है। आज पूरे मैन्युफै़क्चरिंग से लेकर हर सेक्टर में जो तबाही मच रही है उसका मूल कारण यही है। इसे अगर हम किसी भी रूप में इस तरह पेश करते हैं कि संकट का कारण मुनाफ़े की दर का कम होना नहीं है बल्कि अल्पउपभोग या अतिउत्पादन है तो हम न सिर्फ़ संकट के दौरान मज़दूर वर्ग के तात्कालिक कार्याभारों को चिह्नित नहीं कर पायेंगे बल्कि मज़दूरों की दीर्घकालीन क्रान्तिकारी परियोजना को भी संशोधनवादी रास्ते पर लेकर जायेंगे।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2019