योजना आयोग की मौत पर मातम क्यों?
लखविन्दर
मोदी सरकार ने योजना आयोग की तेहरवीं कर दी है। जो लोग समझते हैं कि इस संस्था को “समाजवाद” के निर्माण के उद्देश्य से स्थापित किया गया या इससे किसी न किसी रूप में जनपक्षधर भूमिका की उम्मीद रखते हैं उनकी भोली आत्माएँ ऊँची आवाज़ में रुदन कर रही हैं। प्रिण्ट व इलेक्ट्रानिक मीडिया में इनके बयानों, लेखों, टिप्पणियों आदि से इनके दुख का अन्दाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है। इनका कहना है कि अपनी सारी कमियों और गलितयों के बावजूद योजना आयोग ने भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ हद तक योजनाबद्ध करने और जनता को कुछ राहत पहुँचाने में ज़रूरी भूमिका निभायी है। इनका कहना है कि योजना आयोग पूरी तरह ख़त्म करने की बजाय इसकी कमियों को दूर करना चाहिए था, ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को योजनाबद्ध ढंग से चलाया जा सकता और जनता के हितों के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था को दिशा दी जा सकती।
कुछ भोले लोगों का मानना है कि आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोवियत संघ से प्रभावित होकर, अपने समाजवादी झुकाव के कारण योजना आयोग का गठन किया था। लेकिन वास्तव में 1950 में योजना आयोग के गठन के पीछे का मकसद न तो समाजवाद का निर्माण करना था और न ही इसने कभी जनपक्षधर भूमिका अदा की है। इसके खात्मे से भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए अप्रासंगिक हो चुकी एक संस्था का ही ख़ात्मा हुआ है।
सन् 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद से राजनीतिक आज़ादी हासिल होने के बाद भारत के पूँजीपति वर्ग के पास देश की अर्ध-समान्ती अर्थव्यवस्था का तेज़ी से पूँजीवादी रूपान्तरण करने के लिए पर्याप्त पूँजी नहीं थी। अगर यह पूँजी साम्राज्यवादी देशों से ली जाती तो नयी हासिल हुई आज़ादी खतरे में पड़ती थी। इसके लिए ज़रूरी था कि सरकार जनता के पैसे से धातुओं, कोयले, रसायन, रेलवे व सड़क यातायात, बिजली आदि भारी उद्योग खड़े करके बुनियादी ढाँचे का निर्माण करे। उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन निजी पूँजीपतियों के पास रहा। इस सरकारी और निजी क्षेत्र की मिली-जुली अर्थव्यवस्था को “मिश्रित अर्थव्यवस्था” का नाम दिया गया। यह ऐसा वक्त था जब विश्वभर में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग का आन्दोलन उभार पर था। रूस, चीन तथा पूर्वी यूरोप के कई देशों में मज़दूर वर्ग के राज अस्तित्व में आ चुके थे। भारत के पूँजीपति वर्ग को भी हर पल मज़दूर आन्दोलन का भय सता रहा था। ऐसी परिस्थिति में नेहरू के नेतृत्व में भारतीय पूँजीपति वर्ग ने जनता से “मिश्रित अर्थव्यवस्था” के ज़रिए समाजवादी व्यवस्था कायम करने का झूठा वायदा किया। “जनकल्याण” के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आदि में सरकारी निवेश करके कुछ सस्ती सहूलियतें उपलब्ध करवायी गयीं। ऐसा मेहनतकश लोगों की चिन्ता से नहीं बल्कि जोंकों की चिन्ता करते हुए जनता की क्रान्तिकारी आकांक्षाओं को ठण्डा करने के मकसद से किया गया था।
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सोवियत संघ की तर्ज पर पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू करने का मकसद भी समाजवाद का निर्माण नहीं था बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का निर्माण करना था। जनता को मूर्ख बनाने के लिए इसे समाजवाद कह दिया गया। पूँजीवादी व्यवस्था की योजनाबन्दी करने की कोशिशें असल में भारतीय हुक़्मरानों की असफल कोशिशें थीं, क्योंकि ऐसा हो पाना सम्भव नहीं था। योजना आयोग के ज़रिए जो कुछ हद तक योजनाबन्दी हो भी पाई उसका फ़ायदा भी पूँजीपति वर्ग को ही हुआ। इस योजनाबन्दी का मकसद पूँजीपति के फायदे के लिए बुनियादी ढाँचे का निर्माण, उन्हें स्रोत-साधन उपलब्ध करवाने आदि था। जनता की हाड़तोड़ मेहनत से निर्मित सार्वजनिक क्षेत्र का वास्तविक फायदा पूँजीपति वर्ग को ही हो रहा था। यहाँ भी मज़दूर वर्ग की भारी लूट हो रही थी। आगे चलकर भारत का पूँजीपति वर्ग अपने पैरों पर खड़ा हो गया, इसने मज़बूती हासिल कर ली, तब नवउदारवाद के दौर में इस सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को कौड़ियों के मोल देशी-विदेशी पूँजीपतियों को बेच भी दिया गया। इस तरह योजना आयोग का काम कभी भी जनकल्याणकारी योजनाएँ बनाना नहीं रहा।
भाकपा, माकपा जैसी नकली कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी योजना आयोग भंग किये जाने का विरोध किया है। ऐसा करते हुए ये पार्टियाँ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के योजनाबद्ध ढंग से संचालित हो सकने, इस व्यवस्था की राजकीय मशीनरी के जरिए मेहनतकश जनता का भला हो सकने के भ्रम ही पैदा करती हैं।
निजी मालिकाने पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और वितरण की योजनाबन्दी समूचे रूप में हो ही नहीं सकती। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन जनता की ज़रूरतों को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि मुनाफे को केन्द्र में रखकर होता है। पूँजीपतियों में अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए अन्धी होड़ होती है। विभिन्न पूँजीपति यह कभी पता नहीं लगा पाते कि किस चीज़ का कितना उत्पादन किया जाए, कि पहले से (समाज में) कितना उत्पादन हो चुका है। होड़ के चलते वे साझे रूप में उत्पादन व वितरण की योजना नहीं बना सकते। इस समूची व्यवस्था का नतीजा अतिरिक्त उत्पादन के संकट में निकलता है। जनता की ज़रूरत की चीज़ें जिनमें पूँजीपतियों को मुनाफ़ा नज़र नहीं आता उनकी कमी पैदा हो जाती है। इसलिए पूँजीवादी अर्थव्यवस्था कभी भी योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था नहीं हो सकती।
भारत के हुक़्मरान भारतीय अर्थव्यवस्था को योजनाबद्ध ढंग से संचालित कर पाने में बुरी तरह नाकाम हुए हैं। इनकी पंचवर्षीय योजनाओं की भयंकर दुर्गति हुई है। इनकी योजनाएँ भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकटों से कभी भी बचा नहीं पायी हैं। मार्च 1950 योजना आयोग की स्थापना हुई थी। 1960 के दशक में योजनाबन्दी का रेत का किला ढह चुका था। आगे चलकर राजीव गाँधी ने योजना आयोग को “जोकरों का झुण्ड” कहा था। 1990 के दशक की शुरुआत के साथ, जब से पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत के मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र का ख़ात्मा किया जाने लगा, तब से तो खासतौर पर योजना आयोग सरकार और पूँजीपति वर्ग पर बोझ बनकर रह गया था। अब भारतीय हुक्मरान फ्समाजवाद” का नकाब उतार चुके हैं। ऐसी हालत में योजना आयोग को ख़त्म करने की तैयारियाँ तो भारतीय हुक़्मरान लम्बे समय से कर रहे हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए.-2 सरकार में सड़क परिवहन मंत्री कमलनाथ ने योजना आयोग की “आराम कुर्सी वाले सलाहकार” कह कर निन्दा की थी। मोदी सरकार ने तो बस भारतीय पूँजीपति वर्ग की योजना आयोग को ख़त्म करने की कोशिशों को अंजाम तक पहुँचाया है।
दूसरी ओर समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधनों का मालिकाना मुख्यतया सामाजिक होता है। उत्पादन का मकसद जनता की ज़रूरतें पूरा करना होता है। इस व्यवस्था में उत्पादन व वितरण सम्बन्धी योजनाबन्दी सम्भव होती है। इसलिए समाजवादी अर्थव्यवस्था ही योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था हो सकती है। सोवियत संघ, चीन आादि देशों में समाजवादी व्यवस्था के दौर में अर्थव्यवस्था की योजनाबन्दी करने में भारी कामयाबी हासिल हुई थी।
प्रथम विश्व युद्ध, विदेशी हमलों व गृह युद्ध में वर्षों तक उलझे रहने के बेहद कठिन दौर से गुज़रने के बाद सोवियत संघ में 1928 में पहली पंचवर्षीय योजना बनायी गयी थी (इसका अर्थ यह नहीं है कि इससे पहले योजनाबन्दी नहीं हो रही थी)। पहली पंचवर्षीय योजना 4 वर्ष 3 महीनों में पूरी कर दी गई। इसके बड़े नतीजे सामने आये थे। सोवियत संघ कृषि प्रधान देश से औद्योगिक देश बन चुका था। औद्योगिक उत्पादन कुल उत्पादन का 70 प्रतिशत हो चुका था और समाजवादी आर्थिक व्यवस्था औद्योगिक क्षेत्र में एकमात्र व्यवस्था बन चुकी थी। वर्ग के तौर पर कुलकों (पूँजीपति फार्मर) को कृषि क्षेत्र से बाहर कर दिया गया था। कृषि क्षेत्र में समाजवादी व्यवस्था मुख्य व्यवस्था बन चुकी थी। गाँवों में ग़रीबी और कमी दूर हो चुकी थी और ग़रीब किसान रोज़ी-रोटी की चिन्ता से मुक्ति के स्तर तक पहुँच चुके थे। औद्योगिक क्षेत्र में बेरोज़गारी का पूर्ण ख़ात्मा हो चुका था। उद्योगों की कुछ शाखाओं में ही आठ घण्टे का कार्यदिवस लागू था, अधिकतर जगह पर सात घण्टे का कार्यदिवस लागू था। सेहत के लिए हानिकारक कामों में छः घण्टे का कार्यदिवस लागू हो गया था। यह पहली पंचवर्षीय योजना के नतीजे थे। इससे आगे भी सोवियत संघ में योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था के जरिए जनता का जीवन स्तर ऊँचा उठाने के लिए जिस स्तर की तरक्की हासिल की गयी वो किसी करिश्मे की तरह था। 1930 के दशक में जब पूरा पूँजीवादी जगत आर्थिक महामन्दी की चपेट में था और लोगों की भयंकर तबाही हो रही थी उस समय सोवियत संघ में विकास के सारे रिकार्ड तोड़े जा रहे थे। चीन व अन्य समाजवादी देशों में भी योजनाबन्दी ने बड़ी सफलताएँ हासिल की थीं।
निचोड़ यह है कि योजना आयोग के ख़ात्मे से भारत की मेहनतकश जनता ने कुछ नहीं गँवाया। यह भारत के पूँजीवादी हुक्मरानों ने अपनी ज़रूरत से बनाया था और अपनी ही ज़रूरत के लिए इसे ख़त्म किया है। इसके ख़ात्मे से न तो कोई नुकसान होने लगा है न ही जनकल्याण होने वाला है (जैसा कि मोदी का दावा है)। पूँजीपतियों के मुनाफ़ों की गारण्टी करने के लिए, देश की मेहनतकश जनता और प्राकृतिक स्रोत-संसाधनों की लूट के लिए भारतीय हुक़्मरान पहले भी योजनाएँ बनाते रहे हैं और आगे भी बनाते रहेंगे। योजना आयोग के होने या न होने से इसमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। पूँजीवादी व्यवस्था को आर्थिक संकट से बचाने के लिए हुक़्मरान पहले भी योजनाबन्दी की नाकाम कोशिशें करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। यह योजनाबन्दी पहले ‘बन्द अर्थव्यवस्था’ के रूप में हो रही थी अब ‘उदारवाद’ के रूप में हो रही है। न तो ‘बन्द अर्थव्यवस्था’ ही इन्हें आर्थिक संकट से मुक्ति दिला पायी और न ही ‘उदारवाद’ इनकी कोई मदद करेगा।
इसलिए योजना आयोग के ख़ात्मे पर रोना-पीटना, चीखना-चिल्लाना भोलापन या जनता में भ्रम फैलाने की कोशिशें ही कहा जा सकता है। जनता के लिए यह भोलापन और भ्रम फैलाने की कोशिशें दोनों ही ख़तरनाक हैं, जिनसे बचना चाहिए। जनता की समस्याओं का हल इस पूँजीवादी व्यवस्था को योजनाबद्ध ढंग से संचालित करने की कोशिशों में नहीं बल्कि समाजवादी व्यवस्था की स्थापना में हैं।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2014
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