देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता!
सच्चे देशप्रेमी वे हैं जो अपने ख़ून-पसीने से इस मिट्टी को सींचते हैं, कल-कारख़ाने चलाते हैं, हमारी धरती और हमारे लोगों के हक़ों के लिए आवाज़ उठाते हैं!
देशद्रोही वे हैं जो इस देश के लुटेरों के साथ सौदे करते हैं और इसकी सन्तानों को लूटते हैं, उन्हें आपस में लड़ाते हैं, दबाते और कुचलते हैं!!
सम्पादक मण्डल
जनता को ”अच्छे दिनों” का सब्ज़बाग दिखाकर सत्ता में पहुँची भाजपा और संघ परिवार ने अपना झूठ उजागर होते ही अपने विरोध में उठने वाली आवाज़ों का गला घोंटने के लिए हमला बोल दिया है। इस बार उन्होंने फासिस्टों के पुराने आज़माये नुस्खे–अन्धराष्ट्रवाद और ‘देशद्रोह’–को अपनाया है। जिन लोगों ने आजा़दी की पूरी लड़ाई में कोई हिस्सेदारी नहीं की, उल्टे अंग्रेज़ों को माफ़ीनामे लिखते रहे और आज़ादी के दीवानों की मुखबिरी करते रहे, वे आज सबसे बड़े ”देशभक्त” बन बैठे हैं। आज भी जो देश की दौलत को देशी-विदेशी लुटेरों के हाथों लुटाने के घृणित सौदे कर रहे हैं, वे उन लोगों पर ‘देशद्रोही’ का ठप्पा लगा रहे हैं जो चाहते हैं कि इस देश के संसाधनों पर यहाँ रहने वाले सभी लोगों का बराबर का अधिकार हो।
आम जनता के अधिकारों पर डकैती और देशभर में लोगों के बीच फैलायी जा रही आपसी नफ़रत के ख़िलाफ़ सबसे पहले इस देश के छात्रों-नौजवानों ने ज़ोरदार तरीक़े से आवाज़ उठानी शुरू की थी। दमन-उत्पीड़न का हर सरकारी हथकण्डा छात्रों-नौजवानों के जोश और हिम्मत के आगे बेकार साबित हो रहा था और मोदी सरकार के असली चेहरे से नकाब तेज़ी से सरकता जा रहा था। कैम्पसों से उठी विरोध की इस लहर की तरंगें आम अवाम में भी असर पैदा करने लगी थीं और सरकार तथा संघी संगठनों की बौखलाहट बढ़ती जा रही थी। हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र दलित छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के मामले में केन्द्र सरकार के मंत्री सीधे फँस रहे थे और इसके विरोध में शुरू हुआ आन्दोलन पूरे देश के शिक्षा संस्थानों में ही नहीं बल्कि कैम्पसों से बाहर समाज में भी फैलता जा रहा था। ऐसे में संघ और सरकार कैम्पसों पर हमला करने के मौके की तलाश में थे। इसमें उनका हथियार बना संघ का छात्र संगठन ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ (एबीवीपी) जो छात्रों के हितों पर शायद ही कभी लड़ता है, और ज़्यादातर गुण्डई और साम्प्रदायिक-जातीय नफ़रत फैलाने का काम ही करता आया है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्रों के एक छोटे से समूह द्वारा पिछले तीन साल से आयोजित हो रहे कार्यक्रम को बहाना बनाकर पूरे कैम्पस पर हमला बोल दिया गया। अब दिल्ली सरकार, जेएनयू प्रशासन और ख़ुद दिल्ली पुलिस की जाँच से यह साबित हो चुका है कि 9 फरवरी को जो ”देश-विरोधी” नारे लगे थे वे मुँह पर कपड़ा बाँधे कुछ बाहरी लोगों ने लगाये थे और गिरफ़्तार किये गये छात्रों की उसमें कोई भूमिका नहीं थी। यह भी साबित हो चुका है कि कई टीवी चैनलों ने फ़र्ज़ी वीडियो बनाकर दिखाये। एक फ़र्ज़ी वीडियो बनाने में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की एक ख़ास सहायक का नाम भी सामने आया है। लेकिन जेएनयू को बहाना बनाकर तमाम प्रगतिशील ताक़तों और विरोध की आवाज़ बुलन्द करने वाले छात्रों-युवाओं के ख़िलाफ़ देश में नफ़रत भड़काने का गन्दा खेल जारी है। संघी गुण्डों द्वारा अदालत के भीतर, जज और मीडिया के सामने दो-दो बार छात्रों, शिक्षकों, वकीलों और पत्रकारों को बुरी तरह पीटा गया, महिलाओं के साथ बेहूदगी की गयी। देश में कई शहरों में जेएनयू और वहाँ के छात्रों के समर्थन में बोलने वालों पर संघी बदमाशों-लफंगों ने हमले किये, मारपीट की। कई शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को डराया-धमकाया गया।
मूर्ख और कायर संघी यह समझते थे कि ऐसे हमलों से वे आन्दोलन को तो तोड़ ही देंगे और देशभर में लोगों को यह सन्देश भी दे देंगे कि मोदी और संघ के विरोध में जो भी बोलेगा उसका यही हश्र किया जायेगा। लेकिन उनका यह दाँव उल्टा पड़ गया। न केवल जेएनयू और दिल्ली में, बल्कि पूरे देश में देशभक्ति के नाम पर संघी गिरोह के इस उत्पात के विरोध में छात्र-नौजवान और इंसाफ़पसन्द आम नागरिक हज़ारों-हज़ार की संख्या में सड़कों पर उतर आये। दुनियाभर के बुद्धिजीवियों ने इसकी कठोर भर्त्सना की और जेएनयू के छात्रों के समर्थन में आवाज़ उठायी। ख़ुद एबीवीपी की जेएनयू शाखा के तीन पदाधिकारियों ने संघी इरादों की कड़ी निन्दा करते हुए संगठन से इस्तीफ़ा दे दिया। चौतरफा बढ़ते दबाव ने मोदी सरकार को अपने क़दम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया और गिरफ़्तार छात्रों को ज़मानत पर रिहा करना पड़ा। लेकिन यह लड़ाई का अन्त नहीं है।
इस पूरे घटनाक्रम ने साफ़ कर दिया है कि लगातार अपनी साख खोती जा रही मोदी सरकार और आर.एस.एस. अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा ने वहाँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की हर कोशिश कर डाली है। अगले साल उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण राज्य में चुनाव होना है। और उसके दो साल बाद फिर लोकसभा चुनाव आ जायेगा। संघ जानता है कि इस बार कोई ”जुमला” काम नहीं आने वाला है। इसलिए वह अपने असली एजेण्डे, यानी लोगों को भावनात्मक सवालों पर भड़काने में लग गया है।
अब यह भी साफ़ हो चुका है कि जेएनयू की पूरी घटना आर.एस.एस. की एक सोची-समझी साज़िश का नतीजा थी। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का अकादमिक माहौल काफी खुला और जनतांत्रिक है और तमाम तरह के विरोधी विचारों के बीच बौद्धिक टकराव और वाद-विवाद यहाँ की संस्कृति का हिस्सा है। अफ़ज़ल गुरु की फाँसी के सवाल पर यहाँ पहले भी कार्यक्रम हो चुके हैं। और भी कई संवेदनशील और विवादित मुद्दों पर यहाँ चर्चाएँ होती रही हैं। ऐसे तमाम सवालों पर बातचीत करने और इन पर अलग-अलग दृष्टिकोणों को सामने लाने का काम अगर विश्वविद्यालयों में नहीं होगा तो फिर कहाँ होगा? जहाँ तक अफ़ज़ल को फाँसी का सवाल है, तो अवकाशप्राप्त न्यायाधीश जस्टिस ए.पी.शाह, जस्टिस मारकंडे काटजू सहित देश के अनेक विद्वानों ने इस पर सवाल उठाए हैं और जम्मू कश्मीर की ‘पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी’ (पीडीपी) तो इसे ‘न्याय का मज़ाक’ कहती है। पीडीपी के साथ तो भाजपा कश्मीर में सरकार चला रही है। हमारे देश में भी आम तौर पर ऐसा माहौल रहा है जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं और सोच के लोग अपनी बात कहते रहे हैं, खुली बहसें होती रही हैं और एक-दूसरे से असहमत होते हुए भी परस्पर वाद-विवाद-संवाद चलते रहे हैं। किसी को इसके लिए देशद्रोही नहीं कहा गया। मगर संघी गिरोह पूरे देश को एक ही रंग में रंग देना चाहता है। वे चाहते हैं कि लोग क्या बोलें, क्या सोचें, क्या खायें, क्या पहनें, क्या पसन्द करें – सबकुछ उन्हीं की मर्ज़ी से चले। और ख़ुद संघी कुछ भी करें उस पर कोई सवाल न उठाये। ये उनका पागलपन नहीं है। दरअसल फासिस्ट बड़ी पूँजी के सबसे अच्छे चाकर होते हैं। अगर उनका सपना पूरा हो गया, तो सबसे ज़्यादा ख़ुश देश और दुनिया में बड़ी पूँजी के मालिक होंगे, क्योंकि ऐसे रोबोटों से मनमाफ़िक काम कराना और उन्हें लूटना बहुत आसान हो जायेगा। ये अलग बात है कि उनका ये सपना कभी पूरा नहीं होगा। इनके बाप और ताऊ हिटलर और मुसोलिनी ऐसा ही सपना सच करने चले थे मगर उनका हश्र क्या हुआ? एक ने डरे हुए चूहे की तरह अपनी खन्दक में आत्महत्या कर ली और दूसरे को उसके देश के मज़दूरों ने मारकर सरेबाज़ार उल्टा टाँग दिया था।
लोकलुभावन जुमलेबाजी और ‘‘अच्छे दिनों’’ के झूठे सपनों को दिखलाकर भाजपा भले ही केन्द्र की सत्ता पर काबिज़ हो गयी हो, लेकिन पिछले करीब दो साल में एक बात साफ़ हो गयी है कि उसका असली मक़सद पूँजीवाद की डूबती नैया को पार लगाना है। संघ, भाजपा तथा मोदी भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नव-उदारवादी नीतियों ने जिस तरह महँगाई, लगातार कम होती मज़दूरी, बेरोज़गारी और भुखमरी के दानव को खुला छोड़ दिया है उससे त्रस्त जनता एक न एक दिन ज़रूर ही संगठित होकर सड़कों पर उतर आयेगी। इसीलिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतें देशभर में सीमित पैमाने के छोटे-बडे़ दंगे करवा रही हैं और लगातार साम्प्रदायिक तनाव का माहौल बनाये रखने की कोशिश कर रही हैं।
फासीवाद जनता के सामने हमेशा एक झूठा दुश्मन खड़ा करता है ताकि अपनी बदहाली से परेशान जनता के गुस्से को उस झूठे दुश्मन के विरुद्ध मोड़कर असली कारणों से ध्यान बहकाया जा सके। धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ ही प्रगतिशील ताक़तें हमेशा उसके निशाने पर रहती हैं। अन्धराष्ट्रवाद का हथियार उसके बड़े काम आता है। मज़दूरों और मेहनतकशों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि फ़ासीवाद पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की राजनीति झूठा प्रचार या दुष्प्रचार करके सबसे पहले एक नकली दुश्मन को खड़ा करती है ताकि मज़दूरो-मेहनकशों का शोषण करने वाले असली दुश्मन यानी पूँजीपति वर्ग को जनता के गुस्से से बचाया जा सके। ये लोग न सिर्फ़ मज़दूरों के दुश्मन हैं बल्कि आम तौर पर देखा जाये तो ये पूरे समाज के भी दुश्मन हैं। इनका मुक़ाबला करने के लिए मेहनतकश वर्गों को न सिर्फ़ अपने वर्ग हितों की रक्षा के लिए एकजुट होकर पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ़ एक सुनियोजित लम्बी लड़ाई लड़ने की शुरुआत करनी होगी, बल्कि साथ ही साथ महँगाई, बेरोज़गारी, महिलाओं की बराबरी तथा जाति और धर्म की कट्टरता के खि़लाफ़ भी जनता को जागरूक करना होगा।
यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वारिस पैदा हो रहे हैं। फासिस्ट पूँजीवादी लोकतंत्र तक को नहीं मानते और उसे पूरी तरह रस्मी बना देते हैं और वास्तव में पूँजी की नंगी, खुली तानाशाही स्थापित करना चाहतेे हैं। फासिस्ट धर्म या नस्ल के आधार पर आम जनता को बाँट देते हैं, वे नक़ली राष्ट्रभक्ति के उन्मादी जुनून में हक़ की लड़ाई की हर आवाज़ को दबाना चाहते हैं, वे धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक नक़ली लड़ाई से असली लड़ाई को पीछे कर देते हैं, पूरे देश में दंगों और ख़ून-खराबों का विनाशकारी खेल शुरू कर देते हैं। पूँजीपति वर्ग अपने संकटों से निजात पाने के लिए फासिज़्म को संगठित करता है और ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की तरह उसका इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन जब-तब यह कुत्ता अपनी ज़ंंजीर छुड़ा भी लेता है और तब समाज में भयंकर ख़ूनी उत्पात मचाता है। हमारे देश में पिछले पच्चीस छब्बीस वर्षों से कभी मंदिर-निर्माण, कभी लव-जेहाद, कभी गाय तो कभी तथाकथित देशद्रोह बनाम देशप्रेम के नाम पर जारी यह उत्पात बढ़ता हुआ पूरे देश को एक ख़ूनी दलदल की ओर धकेलता जा रहा है। धर्म, नक़ली देशप्रेम और तमाम फ़र्ज़ी मुक़दमों को उभाड़कर पूँजीवादी लूट, पुलिसिया दमन, बेदख़ली, बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर सूखा जैसे नब्बे फ़ीसदी लोगों की ज़िन्दगी के बुनियादी मुद्दों को पीछे धकेल दिया गया है और सरकार की वायदा-खि़लाफ़ियों पर परदा डाल दिया गया है। जिन्हें मिलकर दस फ़ीसदी लुटेरों से लड़ना है, वे आपस में ही एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो जायें, इसी के लिए तमाम हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं।
आज देश ही नहीं, पूरी दुनिया में फासिस्ट ताक़तें सिर उठा रही हैं। अमेरिका के इतिहास में पहली बार डोनाल्ड ट्रम्प जैसा व्यक्ति राष्ट्रपति पद का प्रमुख उम्मीदवार बनने जा रहा है जो साध्वी प्राची और आदित्यनाथ जैसे लोगों की भाषा में मुसलमानों के विरुद्ध बयानबाज़ियाँ करता है। भारत में भी फासीवाद के उभार का सीधा सम्बन्ध पूँजीवाद के गहराते संकट से है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को जितनी नंगई और कुशलता के साथ मोदी ने लागू करना शुरू किया उसके कारण बड़े-बड़े पूँजीपति घराने, बैंक, हथियारों के सौदागर, देश के तेल और गैस पर क़ब्ज़ा जमाये अम्बानी और अडाणी जैसे धनपशु, फिक्की, एसोचैम जैसी संस्थाएँ तथा मध्य वर्ग के लोग मोदी की शान में क़सीदे पढ़ रहे थे। मगर संकट की चपेट ऐसी है कि जनता को बुरी तरह निचोड़कर भी मोदी सरकार अपने आकाओं के घटते मुनाफ़े को बढ़ा नहीं पा रही है। ऐसे में कई पूँजीपति घरानों का धैर्य भी जवाब दे रहा है। टाटा घराने की करीब 100 कम्पनियों में से सॉफ्टवेयर कम्पनी टीसीएस को छोड़ लगभग सभी घाटे में चल रही हैं। करीब एक दशक पहले टाटा ने बड़े ज़ोर-शोर से ब्रिटिश स्टील कम्पनी कोरस का अधिग्रहण किया था। अब ‘टाटा स्टील यूरोप’ बन्द होने वाली है और 17,000 मज़दूर व कर्मचारी बेरोज़गार होने वाले हैं। यही हाल पूरी पूँूूजीवादी व्यवस्था का है। पूँजीवादी दुनिया के तमाम महारथी मन्दी के चक्रव्यूह से अर्थव्यवस्था को निकालने में नाकाम हैं, तमाम वैद्य-हकीमों के नुस्खे बेकार गये हैं। मेहनतकश जनता को और भी बुरी तरह लूटकर पूँजीपतियों को तमाम तरह की छूटें देने के बाद भी उनका संकट दूर नहीं हो पा रहा है। सैकड़ों करोड़ रुपये मोदी की विदेश यात्राओं पर खर्च करने और विदेशी लुटेरों को सारी सुविधाएँ देने के वायदों के बावजूद विदेशी पूँूजी भी नहीं आ रही है। टाटा ही नहीं, ज़्यादातर औद्योगिक घरानों का मुनाफ़ा घट रहा है। मुनाफ़े में सिर्फ़ अंबानी-अडाणी जैसे कुछ घराने हैं जो मोदी सरकार से मिले तोहफ़ों की बदौलत तमाम तरह के घपलों-घोटालों से कमाई कर रहे हैं।
दूसरी ओर, बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी से तबाह आम जनता ठगी हुई महसूस कर रही है और चारों ओर से विरोध के स्वर उठ रहे हैं। दिल्ली, गुड़गाँव, लुधियाना और गुुजरात से लेकर देश के अनेक औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूर अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं और उन्हें बदले में सिर्फ़ लाठियाँ मिल रही हैं। सरकारी विभागों से टुकड़ों-टुकड़ों में छँटनी जारी है और नयी नियमित भर्तियाँ नाममात्र की रह गयी हैं। निजी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ने की रफ़्तार लगातार घटी रही है और आम लोगों के लिए जो रोज़गार हैं भी उनमें बेहद कम वेतन पर भयंकर शोषण और अनिश्चितता है। खाने-पीने की चीज़ों में तो पहले से आग लगी हुई थी, दवा-इलाज से लेकर शिक्षा, यातायात और मकानों के किराये तक में भारी बढ़ोत्तरी हो चुकी है। मनरेगा जैसी योजनाओं के बजट में भारी कटौती के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबों को मिलने वाली थोड़ी बहुत राहत भी नहीं मिल पा रही है। बड़े पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने वाली नीतियों के कारण खेती संकट में है जिसकी मार से ग़रीब किसान उजड़ और बर्बाद हो रहे हैं। ऐसे में जनता का सब्र बहुत दिनों तक नहीं बना रहेगा।
निश्चय ही फासीवादी माहौल में क्रान्तिकारी शक्तियों के प्रचार एवं संगठन के कामों का बुर्जुआ जनवादी स्पेस और भी सिकुड़ जायेगा, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह होगा कि नवउदारवादी नीतियों के बेरोकटोक और तेज़ अमल तथा हर प्रतिरोध को कुचलने की कोशिशों के चलते पूँजीवादी ढाँचे के सभी अन्तरविरोध उग्र से उग्रतर होते चले जायेंगे। मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश जनता रीढ़विहीन ग़ुलामों की तरह सबकुछ झेलती नहीं रहेगी। देश के छात्र-नौजवान चुपचाप सहते नहीं रहेंगे। आने वाले दिनों में व्यापक मज़दूर उभारों की परिस्थितियाँ तैयार होंगी। छात्रों-नौजवानों को भी यह समझना होगा कि उनकी लड़ाई मेहनतकशों को अपने साथ लिये बिना आगे नहीं बढ़ सकती। उन्हें फासिस्टों का भण्डाफोड़ करने और उनके मज़दूर-विरोधी चरित्र के बारे में मेहनतकश जनता को जागरूक करने के लिए उनके बीच जाना होगा। यदि इन्हें नेतृत्व देने वाली क्रान्तिकारी शक्तियाँ तैयार रहेंगी और साहस के साथ ऐसे उभारों में शामिल होकर उनकी अगुवाई अपने हाथ में लेंगी तो क्रान्तिकारी संकट की उन सम्भावित परिस्थितियों का बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करके संघर्ष को व्यापक बनाने और सही दिशा देने का काम किया जा सकेगा। अपने देश में और और पूरी दुनिया में बुर्जुआ जनवाद का क्षरण और नव फासीवादी ताक़तों का उभार दूरगामी तौर पर नयी क्रान्तिकारी सम्भावनाओं के विस्फोट की दिशा में भी संकेत कर रहा है।
आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों के उत्पात का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिर्फ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन और मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चौकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर इस सवाल पर एकजुट होकर इनसे लड़ना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। हमें अपनी भरपूर ताक़त के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए। अगर हम एकजुट होकर इन्हें इतिहास के कूड़ेदान में धकेलने के लिए संघर्ष नहीं छेड़ेंगे तो वे इस मुल्क को आग और ख़ून के दलदल में तब्दील कर डालेंगे क्योंकि वे लगातार अपने काम में लगे हुए हैं।
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन