बिगुल पुस्तिका – 4
मई दिवस का इतिहास
अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग
अनुवाद: अभिनव सिन्हा
प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और कम्युनिस्ट साहित्य के प्रकाशक अलेक्ज़ेंडर ट्रैक्टनबर्ग द्वारा 1932 में लिखित यह पुस्तिका मई दिवस के इतिहास, उसके राजनीतिक महत्व और मई दिवस के बारे में मज़दूर आन्दोलन के महान नेताओं के विचारों को रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है।
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मई-दिवस का जन्म काम के घण्टे कम करने के आन्दोलन से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। काम के घण्टे कम करने के इस आन्दोलन का मज़दूरों के लिए बहुत अधिक राजनीतिक महत्त्व है। जब अमेरिका में फ़ैक्ट्री-व्यवस्था शुरू हुई, लगभग तभी यह संघर्ष उभरा।
हालाँकि अमेरिका में अधिक तनख़्वाहों की माँग, शुरुआती हड़तालों में सबसे ज़्यादा प्रचलित माँग थी, लेकिन जब भी मज़दूरों ने अपनी माँगों को सूत्रबद्ध किया, काम के घण्टे कम करने का प्रश्न और संगठित होने के अधिकार का प्रश्न केन्द्र में रहा। जैसे-जैसे शोषण बढ़ता गया, मज़दूरों को अमानवीय रूप से लम्बे काम के दिन और भी बोझिल महसूस होने लगे। इसके साथ ही मज़दूरों की काम के घण्टों में आवश्यक कमी की माँग भी मज़बूत होती गयी।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही अमेरिका में मज़दूरों ने “सूर्योदय से सूर्यास्त” तक के काम के समय के विरोध में अपनी शिकायतें जता दी थीं। “सूर्योदय से सूर्यास्त” तक – यही उस समय के काम के घण्टे थे। चौदह, सोलह और यहाँ तक कि अट्ठारह घण्टे का कार्यकाल भी वहाँ आम बात थी। 1806 में अमेरिका की सरकार ने फिलाडेल्फिया के हड़ताली मोचियों के नेताओं पर साज़िश के मुक़दमे चलाये। इन मुक़दमों में यह बात सामने आयी कि मज़दूरों से उन्नीस या बीस घण्टों तक काम कराया जा रहा था।
उन्नीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक काम के घण्टे कम करने के लिए हड़तालों से भरे हुए थे। कई औद्योगिक केन्द्रों में तो एक दिन में काम के घण्टे दस करने की निश्चित माँगें भी रखी गयीं। ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ़ फिलाडेल्फिया’ को, जो दुनिया की पहली ट्रेड-यूनियन मानी जाती है, 1827 में फिलाडेल्फिया में काम के घण्टे दस करने के लिए निर्माण-उद्योग के मज़दूरों की एक हड़ताल करवाने का श्रेय जाता है। 1834 में न्यूयॉर्क में नानबाइयों की हड़ताल के दौरान ‘वर्किंग मेन्स एडवोकेट’ नामक अख़बार ने छापा था – “पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्र के गुलामों से भी ज़्यादा यातनाएँ झेल रहे हैं। उन्हें हर चौबीस में से औसतन अट्ठारह से बीस घण्टों तक काम करना होता है।”
उन इलाक़ों में दस घण्टे के कार्य-दिवस की इस माँग ने जल्दी ही एक आन्दोलन का रूप ले लिया। इस आन्दोलन में हालाँकि 1837 के संकट से बाधा पड़ी, लेकिन फिर भी यह आन्दोलन दिन-पर-दिन विकसित होता गया, और इसी के चलते वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए काम के घण्टे दस करने की घोषणा करनी पड़ी। पूरे विश्व-भर में काम के घण्टे दस करने का संघर्ष अगले कुछ दशकों में शुरू हो गया। जैसे ही यह माँग कई उद्योगों में मान ली गयी, वैसे ही मज़दूरों ने काम के घण्टे आठ करने की माँग उठानी शुरू की। पचास के दशक के दौरान लेबर यूनियनों को संगठित करने की गतिविधियों ने इस नयी माँग को काफ़ी बल दिया, हालाँकि 1857 के संकट से इसमें भी अवरोध आया था। यह माँग कुछ सुसंगठित उद्योगों में इस संकट के आने से पहले ही मान ली गयी थी। यह आन्दोलन मात्र अमेरिका तक ही सीमित नहीं था। यह आन्दोलन हर उस जगह प्रचलित हो चला था जहाँ उभरती हुई पूँजीवादी व्यवस्था के तहत मज़दूरों का शोषण हो रहा था। यह बात इस तथ्य से सामने आती है कि अमेरिका से पृथ्वी के दूसरे छोर पर स्थित आस्ट्रेलिया में निर्माण उद्योग के मज़दूरों ने यह नारा दिया – “आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम” और उनकी यह माँग 1856 में मान भी ली गयी।
‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन की अमेरिका में शुरुआत
वह संघर्ष, जिससे ‘मई-दिवस’ का जन्म हुआ, अमेरिका में, 1884 में, ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन से शुरू हुआ। हालाँकि इससे एक पीढ़ी पहले भी एक राष्ट्रीय श्रम संगठन, ‘नेशनल लेबर यूनियन’ ने, जिसने एक जुझारू सांगठनिक केन्द्र के रूप में विकसित होने की आशा जगायी थी, छोटे कार्य-दिवस का प्रश्न उठाया था और इस पर एक आन्दोलन खड़ा करने का प्रस्ताव रखा था। गृहयुद्ध के पहले साल (1861-62) ने कुछ राष्ट्रीय ट्रेड-यूनियनों का लोप होते देखा। ये युद्ध शुरू होने के ठीक पहले बनी थीं। इनमें ‘मोल्डर्स यूनियन’, ‘मेकिनिस्ट्स और ब्लैकस्मिथ्स यूनियन’ प्रमुख थीं। लेकिन आने वाले कुछ सालों में कई स्थानीय श्रमिक संगठनों का राष्ट्रीय स्तर पर एकीकरण भी हुआ। इन यूनियनों को एक राष्ट्रीय संघ की ज़रूरत साफ़ दिखायी देने लगी। 20 अगस्त, 1866 को ‘नेशनल लेबर यूनियन’ बनाने वाली तीन ट्रेड-यूनियनों के प्रतिनिधि बाल्टीमोर में मिले। राष्ट्रीय संगठन के निर्माण के लिए जो आन्दोलन चला था उसका नेतृत्व विलियम एच. सिल्विस ने किया था। वह पुनर्गठित ‘मोल्डर्स यूनियन’ का नेता था। सिल्विस हालाँकि एक नौजवान आदमी था लेकिन उस समय के श्रमिक आन्दोलनों में उसकी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। सिल्विस का प्रथम कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के नेताओं से भी सम्पर्क था जो लन्दन में थे। उसने ‘नेशनल लेबर यूनियन’ को इण्टरनेशनल की जनरल काउंसिल से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया और उसमें मदद भी की।
1866 में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के स्थापना समारोह में यह प्रतिज्ञा ली गयी: “इस देश के श्रमिकों को पूँजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिए, वर्तमान समय की पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि अमेरिका के सभी राज्यों में आठ घण्टे के कार्य-दिवस को सामान्य कार्य-दिवस बनाने का क़ानून पास कराया जाये। जब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होता, तब तक हम अपनी पूरी शक्ति से संघर्ष करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं।”
इसी समारोह में कार्य-दिवस को आठ घण्टे करने का क़ानून बनाने की माँग के साथ ही स्वतन्त्र राजनीतिक गतिविधियों के अधिकार की माँग को उठाना भी बहुमत से पारित हुआ। साथ ही यह तय हुआ कि इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए “ऐसे व्यक्तियों का चुनाव किया जाये जो औद्योगिक वर्गों के हितों को प्रोत्साहित करने और प्रस्तुत करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हों।”
‘आठ-घण्टा दस्तों’ (आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग के लिए बने मज़दूर संगठन) का यह निर्माण ‘नेशनल लेबर यूनियन’ द्वारा किये गये आन्दोलन का ही परिणाम था। और ‘नेशनल लेबर यूनियन’ की इन गतिविधियों के ही परिणामस्वरूप कई राज्य सरकारों ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस का क़ानून पास करना स्वीकार कर लिया था। अमेरिकी कांग्रेस ने ठीक वैसा ही क़ानून 1868 में पारित कर दिया। इस ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन की उत्प्रेरक नेता थीं बोस्टन की मेकिनिस्ट इरा स्टीवर्ड।
हालाँकि शुरुआती दौर के श्रमिक आन्दोलन का कार्यक्रम और नीतियाँ प्राथमिक स्तर की थीं और हमेशा उनका प्रभाव नहीं दिखता था, लेकिन फिर भी वह स्वस्थ सर्वहारा नैसर्गिकता पर आधारित थीं। वे एक जुझारू मज़दूर आन्दोलन की नींव बन सकती थीं। लेकिन बाद में सुधारवादी नेता और पूँजीवादी राजनीतिज्ञ इन संगठनों में घुस गये और उन्हें ग़लत मार्ग पर अग्रसर कर दिया। बहरहाल, चार पीढ़ियों पहले, अमेरिकी श्रमिकों के राष्ट्रीय संगठन एन. एल. यू., यानी ‘नेशनल लेबर यूनियन’ ने स्वयं को “पूँजीवादी गुलामी” के विरुद्ध घोषित किया और स्वतन्त्र राजनीतिक गतिविधि के अधिकार की माँग की।
सिल्विस का लन्दन में इण्टरनेशनल के साथ सम्पर्क जारी था। चूँकि सिल्विस ‘नेशनल लेबर यूनियन’ का अध्यक्ष था, एन. एल. यू. ने, 1867 के अपने सम्मेलन में अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर-वर्ग आन्दोलन के साथ सहयोग करने के प्रस्ताव को स्वीकार किया, और 1869 में इण्टरनेशनल की जनरल काउंसिल के आमन्त्रण को स्वीकार किया और इण्टरनेशनल के बेसिल कांग्रेस में अपना एक प्रतिनिधि भी भेजा। दुर्भाग्य से, सिल्विस की एन. एल. यू. के सम्मेलन से पहले ही मृत्यु हो गयी और शिकागो से छपने वाले ‘वर्किंग मेन्स एडवोकेट’ के सम्पादक ए. सी. कैमरॉन सिल्विस के स्थान पर प्रतिनिधि के रूप में सम्मेलन में गये। जनरल काउंसिल ने एक विशेष प्रस्ताव के तहत अपने इस आशावादी नौजवान अमेरिकी श्रमिक नेता की मृत्यु पर शोक जताया –
“सबकी आँखें सिल्विस पर रुक गयी थीं। सिल्विस के पास अपनी महान क्षमताओं के अलावा अपनी सर्वहारा सेना के जनरल के रूप में दस वर्ष का अनुभव था – और सिल्विस अब नहीं रहे।” सिल्विस की मौत ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के ह्रास का एक बहुत बड़ा कारण बनी। और यह ह्रास जल्दी ही एन. एल. यू. के अन्त के रूप में सामने आया।
‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन पर मार्क्स के विचार
आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग करने का निर्णय ‘नेशनल लेबर यूनियन’ ने अगस्त, 1866 में लिया। उसी वर्ष सितम्बर में पहले इण्टरनेशनल की जेनेवा कांग्रेस में इस आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग निम्न रूप से दर्ज हुई –
“काम के दिन की वैध सीमा तय करना एक प्राथमिक शर्त है जिसके बिना मज़दूर-वर्ग की स्थिति में सुधार या उसकी मुक्ति का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता… यह कांग्रेस आठ घण्टे के कार्य-दिवस का प्रस्ताव रखती है।”
1867 में प्रकाशित ‘पूँजी’ के पहले खण्ड के “कार्य-दिवस” पर आधारित अध्याय में मार्क्स ने ‘नेशनल लेबर यूनियन’ द्वारा शुरू किये गये ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन की ओर ध्यान दिलाया है। ‘पूँजी’ का यह हिस्सा काफ़ी प्रसिद्ध है क्योंकि इसमें मार्क्स ने काले मज़दूरों और श्वेत मज़दूरों के वर्ग हितों की एकता के बारे में लिखा है। उन्होंने लिखा है:
“जब तक दास प्रथा गणराज्य के एक हिस्से पर कलंक के समान चिपकी रही, तब तक अमेरिका में कोई भी स्वतन्त्र मज़दूर आन्दोलन पंगु बना रहा। सफ़ेद चमड़ी वाला मज़दूर कभी भी स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता जब तक काली चमड़ी वाले मज़दूरों को अलग करके देखा जायेगा। लेकिन दास प्रथा की समाप्ति के साथ ही एक नये ओजस्वी जीवन के अंकुर फूटे। ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन के साथ ही वहाँ गृह-युद्ध का श्रीगणेश हुआ। ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन – एक ऐसा आन्दोलन था जो तेज़ी के साथ अटलाण्टिक से हिन्द तक, न्यू इंग्लैण्ड से कैलिफ़ोर्निया तक फैल गया।”
मार्क्स ने इस बात की ओर ध्यान खींचा कि, किस तरह लगभग साथ-साथ, वास्तव में दो हफ्तों के अन्दर, बाल्टीमोर में एक मज़दूर सम्मेलन ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस को बहुमत से पारित किया और इण्टरनेशनल की जेनेवा कांग्रेस ने ठीक वैसा ही निर्णय लिया। “इस तरह अटलाण्टिक के दोनों ओर मज़दूर आन्दोलन ने ‘उत्पादन की परिस्थितियों’ में गुणात्मक विकास किया।” यह कथन इसी बात को बताता है कि किस तरह कार्य-दिवस की सीमाओं को तय करने का आन्दोलन चला और ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन के रूप में साकार हुआ।
जेनेवा कांग्रेस का निर्णय अमेरिकी ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के निर्णय से कैसे मेल खाता है, उसे इस कथन में देखा जा सकता है – “चूँकि कार्य-दिवस की सीमाएँ तय करने की माँग पूरे अमेरिका के मज़दूरों की माँगों को प्रस्तुत करती है, इसलिए यह कांग्रेस इस माँग को पूरी दुनिया के मज़दूरों के एक आम मोर्चे का रूप देती है।”
इण्टरनेशनल की कांग्रेस पर, इसी मुद्दे पर अमेरिकी मज़दूर आन्दोलन का और ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा, लेकिन 23 साल बाद।
अमेरिका में मई-दिवस का जन्म
1872 में जब पहले इण्टरनेशनल का हेडक्वार्टर लन्दन से न्यूयॉर्क आया, तो पहला इण्टरनेशनल एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था के रूप में समाप्त हो गया, लेकिन औपचारिक रूप से इसका अस्तित्व 1876 तक बना रहा। इण्टरनेशनल पुनर्गठित हुआ और दूसरे इण्टरनेशनल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरे इण्टरनेशनल की पेरिस कांग्रेस (1889) में पहली मई को उस दिन का रूप दिया गया जिस दिन दुनिया भर के मज़दूर अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड-यूनियनों के रूप में संगठित हों, और अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक माँग – आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग के लिए संघर्ष करें। पेरिस कांग्रेस का यह महत्त्वपूर्ण निर्णय, शिकागो में पाँच साल पहले लिये गये एक निर्णय से प्रभावित था। यह निर्णय पाँच साल पहले शिकागो में एक नवनिर्मित अमेरिकी मज़दूर संगठन – ‘द फ़ेडरेशन ऑफ़ ऑर्गनाइज़्ड ट्रेड एण्ड लेबर यूनियन्स ऑफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स एण्ड कनाडा’ जो बाद में अपने संक्षिप्त नाम ‘द अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के प्रतिनिधियों ने लिया था। 7 अक्टूबर, 1884 को इस संगठन के चौथे सम्मेलन में निम्न प्रस्ताव पारित हुआ:
“फ़ेडरेशन ऑफ़ ऑर्गनाइज़्ड ट्रेड एण्ड लेबर यूनियन्स ऑफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स एण्ड कनाडा” यह तय करती है कि, पहली मई, 1886 से आठ घण्टे का कार्य-दिवस वैध कार्य-दिवस होगा और हम मज़दूर संगठनों से आग्रह करते हैं कि, वे अपने अधिकार-क्षेत्र के अनुसार, अपने नियमों को ऐसे निर्धारित करें कि वे इस प्रस्ताव के अनुकूल हों।”
लेकिन इस प्रस्ताव में कहीं भी यह नहीं बताया गया था कि किस तरह यह संगठन पहली मई को ‘आठ घण्टा दिवस’ के रूप में प्रचलित करेगा। यह बात ख़ुद इस बात की गवाह है कि जो संगठन 50,000 से ज़्यादा सदस्यों का भी नहीं है, वह बिना उन फ़ैक्टरियों, मिलों और खदानों में संघर्ष किये, जिनमें उसके सदस्य काम करते थे, और ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन को बिना मज़दूरों की और बड़ी आबादी में प्रसारित किये यह कैसे घोषित कर सकता था कि “आठ घण्टे का कार्य-दिवस वैध कार्य-दिवस होगा।” इस प्रस्ताव का यह कथन कि फ़ेडरेशन से जुड़ी सभी यूनियनें “अपने नियमों को इस प्रकार निर्धारित करें कि वे इस प्रस्ताव के अनुकूल हों”, इस बात से सम्बन्धित है कि वे यूनियनें अपने सदस्यों को विशेष हड़ताल-सहायता देंगी जो पहली मई, 1886 से हड़ताल पर जा रहे हैं। हो सकता है कि वे इतने अधिक समय तक हड़ताल पर रहें कि उन्हें यूनियन से सहायता की ज़रूरत पड़े। चूँकि हड़ताल के समय में मज़दूरों के पास जीविका चलाने का कोई साधन नहीं होता था, इसलिए यूनियनें उन्हें हड़ताल के समय विशेष सहायता देती थीं। चूँकि यह हड़ताल राष्ट्रीय स्तर पर थी, और उन सभी संगठनों को शामिल करती थी जो फ़ेडरेशन से जुड़ी हुई थीं, अतः इन सभी यूनियनों को अपने नियमानुसार अपने सदस्यों से हड़ताल के लिए स्वीकृति प्राप्त कर लेनी थी, ख़ासकर इसलिए भी क्योंकि, इन हड़तालों में उनके फ़ण्डों का ख़र्चा भी शामिल था। यह बात ज़रूर याद रहे कि यह फ़ेडरेशन यानी आज का ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ स्वैच्छिक और संघीय आधार पर बना था, और राष्ट्रीय सम्मेलन के निर्णय सिर्फ़ फ़ेडरेशन से जुड़ी यूनियनों पर लागू थे, वह भी तब, जब यूनियनें उन निर्णयों का समर्थन करें।
मई-दिवस की तैयारियाँ
1877 में ज़बरदस्त हड़तालें हुईं। इन हड़तालों के दमन के लिए बड़े पूँजीवादी कारपोरेशनों और सरकार ने सैनिक दस्ते भेजे, जिनका रेलवे और स्टील कारख़ानों के दसियों हज़ार मज़दूरों ने बहादुरी से प्रतिरोध किया। इन संघर्षों का पूरे मज़दूर आन्दोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह अमेरिका में पहला ऐसा जन-उभार था जो राष्ट्रीय पैमाने पर हुआ था और अमेरिकी मज़दूर-वर्ग द्वारा संचालित था। इन संघर्षों में ये मज़दूर राज्य और पूँजी की मिली हुई शक्तियों से भले ही हार गये, लेकिन इस दौर के बाद अमेरिकी मज़दूर समाज अपनी वर्ग स्थिति की ज़्यादा गहरी समझ, एक बेहतर जुझारूपन और बहुत ऊँचे हौसले के साथ उभरा। यह एक तरह से पेन्सिलवेनिया के उन कोयला मालिकों को एक उत्तर था जिन्होंने एन्थ्रासाइट क्षेत्र के खदानकर्मियों के संगठन को तोड़ने की कोशिश में दस जुझारू खदानकर्मियों को फाँसी दे दी थी।
हालाँकि 1880-90 का दशक अमेरिकी उद्योग और घरेलू बाज़ार के विकास के नज़रिये से सर्वाधिक सक्रिय दशक था, लेकिन 1884-85 के वर्ष में मन्दी का एक झोंका आया। वास्तव में यह 1873 के संकट के बाद आवर्ती चक्रीय क्रम में आयी हुई मन्दी का ही दौर था। इस दौर में मौजूद बेरोज़गारी और जनता द्वारा झेली जा रही कठिन तकलीफ़ों ने छोटे कार्य-दिवस के आन्दोलन को एक नयी गति दी।
जल्दी ही बने मज़दूरों के उस संगठन, ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने उस समय यह सम्भावना देखी कि ‘आठ घण्टे के कार्य-दिवस’ के नारे को एक ऐसे नारे की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है जो उन सारे मज़दूरों को एक झण्डे के नीचे ला सकता है जो न ही फ़ेडरेशन में हैं न ही ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ में। ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ मज़दूरों का एक बहुत पुराना संगठन था जो लगातार बढ़ रहा था। फ़ेडरेशन यह समझ चुका था कि सभी मज़दूर संगठनों के साथ मिलकर ही आठ घण्टे के कार्य-दिवस के आन्दोलन को सफल बनाया जा सकता है। यही समझकर ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ से इस आन्दोलन में सहयोग की अपील की।
फ़ेडरेशन के 1885 के सम्मेलन में आने वाले साल की पहली मई को हड़ताल पर जाने का संकल्प दोहराया गया। कई राष्ट्रीय यूनियनों ने, ख़ासकर बढ़इयों की और सिगार बनाने वालों की यूनियनों ने तो हड़ताल की तैयारियों के क़दम भी उठा दिये। पहली मई की हड़ताल के लिए हो रहे आन्दोलनों ने तुरन्त असर दिखाना शुरू कर दिया। हड़ताली यूनियनों के सदस्यों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होने लगी। ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ संगठन ने अपने विकास में कई छलाँगें लगायीं। नतीजतन 1886 में मज़दूरों का यह जुझारू संगठन अपने शीर्ष पर था। यह बात सामने आयी कि उस दौरान ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ ने, जो फ़ेडरेशन से ज़्यादा प्रसिद्ध था, और एक बेहद जुझारू संगठन के रूप में जाना जाता था, अपने सदस्यों की संख्या दो लाख से बढ़ाकर सात लाख कर ली थी। फ़ेडरेशन वह संगठन था जिसने इस आन्दोलन की शुरुआत की थी, और हड़ताल की तारीख़ निश्चित की थी, उसके सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि हुई, और मज़दूरों की विशाल आबादी में उसका सम्मान भी काफ़ी बढ़ा।
जैसे-जैसे हड़ताल की तारीख़ क़रीब आती जा रही थी, यह बात सामने आ रही थी कि ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ का नेतृत्व, ख़ासकर टेरेंस पाउडरली का नेतृत्व आन्दोलन को नुक़सान पहुँचा रहा है, और यही नहीं वह अपने से जुड़ी यूनियनों को हड़ताल में हिस्सा न लेने की सलाह दे रहा है। फ़ेडरेशन अभी भी लगातार मज़दूरों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा था। दोनों संगठनों के जुझारू मज़दूर सदस्यों की क़तारें लगातार, उत्साहपूर्वक हड़ताल की तैयारियाँ कर रही थीं। कई शहरों में ‘आठ-घण्टा दस्ते’ और इसी तरह के अन्य जत्थे उभरे। इनके उभरने से पूरे आन्दोलन में मज़दूरों के बीच जुझारूपन की भावना में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई। इस लहर से असंगठित मज़दूर भी अछूते नहीं रहे, वे भी बढ़-चढ़कर आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे। अमेरिकी मज़दूर-वर्ग के लिए एक नयी सुबह आ रही थी।
मज़दूरों के मिज़ाज को समझने का सबसे अच्छा रास्ता है कि, उनके संघर्षों की गम्भीरता और विस्तार के बारे में अध्ययन किया जाये, उसे समझा जाये। एक समय में मज़दूरों के लड़ाकू मिज़ाज को उस दौरान हुई हड़तालों की संख्या से समझा जा सकता है। पिछले सालों में हुई हड़तालों की संख्या के मुव़फ़ाबले 1885 से 1886 के दौरान हुई हड़तालों की संख्या, उस समय के मज़दूरों के उस ज़बरदस्त लड़ाकूपन को दर्शाती है जो उस समय आन्दोलन को आगे बढ़ा रहा था। मज़दूर पहली मई 1886 की महान हड़ताल की तैयारियाँ तो कर ही रहे थे, लेकिन 1885 में ही हड़तालों की संख्या में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हो गयी थी। 1881 से 1884 के दौरान हड़तालों और तालाबन्दियों का औसत था मात्र 500 प्रति वर्ष, और उसमें भाग लेने वाले मज़दूर थे औसतन 1,50,000 प्रति वर्ष। 1885 में हड़तालों और तालाबन्दियों की गिनती 700 तक जा पहुँची और भाग लेने वाले मज़दूरों की संख्या बढ़कर हो गयी 2,50,000। 1886 में तो हड़तालों की संख्या 1885 की तुलना में दोगुनी होकर 1,572 जा पहुँची और उसी अनुपात में हड़तालों और तालाबन्दियों में हिस्सा लेने वाले मज़दूरों की संख्या भी बढ़कर 6,00,000 हो गयी। इन हड़तालों की व्यापकता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1885 में इन हड़तालों से प्रभावित प्रतिष्ठानों की संख्या 2,467 थी और अगले साल ही यह संख्या बढ़कर 11,562 जा पहुँची। ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ के नेतृत्व की खुली ग़द्दारी के बावजूद यह अन्दाज़ा लगाया गया कि, लगभग 5 लाख मज़दूर ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन में सीधे शिरकत कर रहे थे।
हड़ताल का केन्द्र शिकागो था, जहाँ हड़ताल सबसे ज़्यादा व्यापक थी, लेकिन पहली मई को कई और शहर इस मुहिम में जुड़ गये थे। न्यूयॉर्क, बाल्टीमोर, वाशिंगटन, मिलवॉकी, सिनसिनाटी, सेण्ट लुई, पिट्सबर्ग, डेट्रॉइट समेत अनेक शहरों में शानदार हड़तालें हुईं। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि इसने अकुशल और असंगठित मज़दूरों को भी हड़ताल में खींच लिया था। उस दौरान वे अनुनादी हड़तालें काफ़ी प्रचलित थीं। पूरे देश में एक विद्रोही भावना फैल चुकी थी, बुर्जुआ इतिहासकार “सामाजिक युद्ध” और “पूँजी से घृणा” की बातें कर रहे थे, जो उस दौरान सुस्पष्ट होकर सामने आ चुकी थीं। साथ ही वे मज़दूरों की उन क़तारों की बातें कर रहे थे, जो उस समय आन्दोलन के रथ को आगे बढ़ा रही थीं। यह कहा जा सकता है कि पहली मई को हड़ताल करने वाले मज़दूरों को आधी सफलता मिली और जहाँ वे आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग नहीं मनवा सके, वहाँ भी वह काम के घण्टों में पर्याप्त कमी करवाने में सफल रहे।
शिकागो की हड़ताल और हे मार्केट की घटना
पहली मई को शिकागो में हड़ताल का रूप सबसे आक्रामक था। शिकागो उस समय जुझारू वामपन्थी मज़दूर आन्दोलन का केन्द्र था। हालाँकि वह आन्दोलन मज़दूरों की समस्याओं पर पर्याप्त रूप से साफ़ राजनीतिक रुख़ नहीं रखता था, फिर भी वह एक लड़ाकू और जुझारू आन्दोलन था। वह मज़दूरों का, आन्दोलन में जुझारू भावना बढ़ाने के लिए, आह्वान करने को हमेशा तैयार रहता था, ताकि मज़दूरों के जीवन की स्थितियों और काम करने की स्थितियों में सुधार लाया जा सके।
चूँकि शिकागो की हड़ताल में कई जुझारू मज़दूर दलों ने भाग लिया, इसलिए ऐसा माना गया कि शिकागो में हड़ताल सबसे बड़े पैमाने पर हुई। एक ‘आठ-घण्टा एसोसिएशन’ काफ़ी पहले ही इस हड़ताल की तैयारी के लिए बन गया था। वामपन्थी लेबर यूनियनों से बनी ‘सेण्ट्रल लेबर यूनियन’ ने ‘आठ-घण्टा एसोसिएशन’ को पूरा सहयोग दिया, जो एक संयुक्त मोर्चा था, जिसमें फ़ेडरेशन से लेकर ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ और ‘सोशलिस्ट लेबर पार्टी’ तक शामिल थीं। ‘सोशलिस्ट लेबर पार्टी’ अमेरिकी मज़दूर-वर्ग की पहली संगठित समाजवादी राजनीतिक पार्टी थी। पहली मई के पिछले दिन रविवार को ‘सेण्ट्रल लेबर यूनियन’ ने एक लामबन्दी प्रदर्शन किया जिसमें 25,000 मज़दूरों ने हिस्सा लिया।
पहली मई को शिकागो में मज़दूरों का एक विशाल सैलाब उमड़ा और संगठित मज़दूर आन्दोलन के आह्वान पर शहर के सारे औज़ार चलने बन्द हो गये और मशीनें रुक गयीं। मज़दूर आन्दोलन को कभी भी वर्ग-एकता के इतने शानदार और प्रभावी प्रदर्शन का एहसास नहीं हुआ था। उस समय आठ घण्टे के कार्य-दिवस के महत्त्व ने, और हड़ताल के चरित्र और विस्तार ने पूरे आन्दोलन को एक विशेष राजनीतिक अर्थ दे दिया। अगले कुछ दिनों में यह राजनीतिक अर्थ और भी गहरा होता गया। ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन पहली मई, 1886 की हड़ताल में अपनी पराकाष्ठा पर था। और इसने अमेरिकी मज़दूर-वर्ग की लड़ाई के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया था।
इस दौरान मज़दूरों के दुश्मन भी चुप नहीं बैठे रहे। शिकागो में मालिकों और शहर के प्रशासन की मिली-जुली शक्तियों ने, जो जुझारू नेताओं को ख़त्म करने के लिए, और इसके ज़रिये शिकागो के समग्र मज़दूर आन्दोलन को रौंद डालने के लिए छटपटा रही थीं, मज़दूरों के जुलूस को गिरफ्ऱतार कर लिया। 3 और 4 मई की घटनाएँ जो ‘हे मार्केट काण्ड’ के नाम से जानी जाती हैं, साफ़ तौर पर पहली मई की हड़ताल का परिणाम थीं। 4 मई को हे मार्केट स्क्वायर पर हुए प्रदर्शन में, 3 मई को ‘मैककार्मिक रीपर वर्क्स’ पर मज़दूरों की एक सभा पर पुलिस के बर्बर हमले का विरोध करने का आह्वान किया गया। इस क्रूर हमले में छः मज़दूर मारे गये थे और कई घायल हुए थे। यह सभा जो हे मार्केट स्क्वायर पर हो रही थी, ख़त्म ही होने वाली थी कि पुलिस ने मज़दूरों की भीड़ पर हमला कर दिया। इसी बीच अचानक भीड़ में एक बम फेंका गया। इस हमले में चार मज़दूर और सात पुलिसवाले मारे गये। हे मार्केट का भयंकर रक्तपात, मज़दूर नेताओं पार्सन्स, स्पाइस, फ़िशर और एंजेल को फाँसी और शिकागो के तमाम जुझारू नेताओं को क़ैद – संघर्षरत मज़दूरों को शिकागो के मालिकों का यह जवाब था। पूरे देश की मिलों-फ़ैक्टरियों के मालिकों को चेतावनी मिल चुकी थी। 1886 के उत्तरार्द्ध में मालिकों ने 1885-86 के आन्दोलन के दौरान खोयी हुई अपनी पुरानी स्थिति को फिर से पाने के लिए काफ़ी आक्रामक रुख़ अपनाया।
शिकागो के मज़दूर नेताओं की फाँसी के एक साल बाद फ़ेडरेशन, (जो अब ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था) के सेण्ट लूई के सम्मेलन में, 1888 में, ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन को नये सिरे से जीवित करने का संकल्प लिया गया। पहली मई को, जो अब एक परम्परा बन चुकी थी, और जो दो साल पहले मज़दूरों के राजनीतिक वर्ग-प्रश्न के आधार पर हुए संघर्ष का केन्द्र-बिन्दु बन चुकी थी, ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन की फिर से शुरुआत का दिन बनने का सम्मान मिला। पहली मई, 1890 को पूरे देश में छोटे कार्य-दिवस के लिए हड़तालें हुईं। 1889 के सम्मेलन में ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नेता सैमुएल गोम्पर्स के नेतृत्व में हड़ताल आन्दोलन को सीमित करने की नीच कोशिश कामयाब हो गयी। यह तय हुआ कि ‘कारपेण्टर्स यूनियन’, जिसे हड़ताल के लिए सबसे अच्छी तरह से तैयार यूनियन माना जाता था, हड़ताल में पहल करेगी और अगर यह पहल सफल सिद्ध होगी तो दूसरी यूनियनें भी हड़ताल में कूद पड़ेंगी।
मई-दिवस अन्तरराष्ट्रीय बन गया
गोम्पर्स ने अपनी आत्मकथा में मई-दिवस को पूरी दुनिया में प्रचलित करने में ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ का योगदान इस प्रकार बताया है : “जैसे-जैसे ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन की योजनाएँ विकसित हो रही थीं, वैसे-वैसे हम यह लगातार सोच रहे थे कि हम अपने लक्ष्य को विस्तारित कैसे करें। जैसे-जैसे पेरिस में होने वाली मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस (इण्टरनेशनल वर्किंग मेन्स कांग्रेस) का समय पास आता जा रहा था, मुझे यह बात समझ में आ रही थी कि, इस कांग्रेस से विश्वव्यापी सहानुभूति पाकर हम अपने आन्दोलन को लाभ पहुँचा सकते हैं।” गोम्पर्स ने काफ़ी पहले ही अपने सुधारवादी और अवसरवादी रुझानों को दिखला दिया था। उसकी यही रुझानें आगे चलकर उसकी वर्ग-सहयोगवादी नीतियों में पूर्णतः फलीभूत हुईं। यही गोम्पर्स अब समाजवादी मज़दूरों के उस आन्दोलन का समर्थन पाने को तत्पर था, जिसके प्रभाव का उसने ज़बरदस्त विरोध किया था।
14 जुलाई, 1889 को बास्तीय के पतन की सौवीं सालगिरह पर, पेरिस में, कई देशों के संगठित समाजवादी आन्दोलनों के नेता एकत्र हुए। वे पेरिस में उस अन्तरराष्ट्रीय संगठन (प्रथम इण्टरनेशनल) के ढंग का मज़दूरों का एक अन्तरराष्ट्रीय संगठन फिर से बनाने के लिए जुटे थे, जिसे 25 साल पहले उनके महान शिक्षकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने बनाया था। ‘दूसरे इण्टरनेशनल’ की इस स्थापना बैठक में एकत्रित हुए प्रतिनिधियों ने अमेरिकी प्रतिनिधियों से 1884-86 के दौरान अमेरिका में चले 8 घण्टे कार्य-दिवस के आन्दोलन के बारे में और हाल ही में उसके नये सिरे से उठ खडे़ होने के बारे में सुना। अमेरिकी मज़दूरों के उदाहरण से उत्साहित होकर पेरिस कांग्रेस ने निम्न प्रस्ताव स्वीकार किया : “कांग्रेस एक विशाल अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन आयोजित करने का निर्णय लेती है ताकि एक विशेष दिन, सभी देशों में ओर सभी शहरों में मेहनतकश जनसमुदाय राजकीय अधिकारियों से कार्य-दिवस क़ानूनी तौर पर घटाकर आठ घण्टे करने की तथा पेरिस कांग्रेस के अन्य निर्णयों को लागू करने की माँग करे। चूँकि ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने दिसम्बर 1888 में अपने सेण्ट लुई सम्मेलन में, पहले ही ऐसे प्रदर्शन के लिए पहली मई 1890 का दिन तय किया है, इसलिए इस दिन को अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन के लिए स्वीकार किया जाता है। विभिन्न देशों के मज़दूरों को अपने देश में मौजूद परिस्थितियों के अनुसार इस प्रदर्शन को ज़रूर आयोजित करना चाहिए।”
1890 का मई-दिवस कई यूरोपीय देशों में मनाया गया। अमेरिका में समाजवादी पीटर मैकगाथर के नेतृत्व में ‘कारपेण्टर्स यूनियन’ ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग को लेकर हड़ताल आयोजित की, जिसमें निर्माण कार्य के मज़दूरों की अन्य यूनियनों ने भी भाग लिया। समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण कठोर नियमों के बावजूद मज़दूरों ने जर्मनी के औद्योगिक शहरों में मई-दिवस मनाया। हालाँकि अधिकारियों ने चेतावनी दी थी और मज़दूरों के दमन का प्रयास भी किया लेकिन दूसरी यूरोपीय राजधानियों में भी इसी प्रकार प्रदर्शन हुए। अमेरिका में शिकागो और न्यूयॉर्क शहरों में हुए प्रदर्शनों का विशेष महत्त्व था। कई हज़ार लोगों ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग को लेकर सड़कों पर जुलूस निकाला और ये प्रदर्शन शहर के मुख्य केन्द्रों पर खुली सभाओं के साथ समाप्त हुए।
1891 की ब्रुसेल्स में आयोजित अगली कांग्रेस में इण्टरनेशनल ने मई-दिवस के मूल लक्ष्य, यानी ‘काम के घण्टे आठ करो’ को तो दोहराया ही, लेकिन साथ ही उसने यह भी जोड़ा कि इस दिन अनिवार्य रूप से काम करने की परिस्थितियों में सुधार करने और राष्ट्रों के बीच शान्ति सुनिश्चित करने के लिए भी प्रदर्शन होना चाहिए। इस संशोधित प्रस्ताव में आठ घण्टे के कार्य-दिवस के लिए “मई-दिवस के प्रदर्शनों के वर्ग चरित्र” और उन माँगों के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया जो “वर्ग-संघर्ष को और गहरा कर रहे थे।” प्रस्ताव में यह भी माँग की गयी है कि “जहाँ भी सम्भव हो” काम रोक दिया जाये। हालाँकि मई-दिवस की हड़तालों के पीछे कुछ ख़ास और तात्कालिक मुद्दे थे लेकिन इण्टरनेशनल ने प्रदर्शनों के उद्देश्यों को विस्तारित करने और उन्हें ठोस रूप देने का प्रयास शुरू कर दिया। ब्रिटिश श्रमिक संगठनों ने मई-दिवस की तात्कालिक माँगों पर भी हड़ताल करने से इनकार करके, और जर्मन सामाजिक जनवादियों के साथ मिलकर मई-दिवस के प्रदर्शन को मई के पहले रविवार तक स्थगित करने के पक्ष में मतदान किया।
अन्तरराष्ट्रीय मई–दिवस पर एंगेल्स के विचार
एंगेल्स ने 1 मई, 1890 को लिखी गयी, ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के चौथे जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में, अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा संगठनों के इतिहास की समीक्षा करते हुए प्रथम अन्तरराष्ट्रीय मई-दिवस के महत्त्व की ओर ध्यान खींचा:
“जब मैं ये पक्तियाँ लिख रहा हूँ, यूरोप और अमेरिका का सर्वहारा अपनी शक्तियों की समीक्षा कर रहा है, यह पहला मौक़ा है, जब सर्वहारा वर्ग एक झण्डे तले, एक तात्कालिक लक्ष्य के वास्ते, एक सेना के रूप में, गोलबन्द हुआ है : आठ घण्टे के कार्य-दिवस को क़ानून द्वारा स्थापित कराने के लिए…। यह शानदार दृश्य जो हम देख रहे हैं, वह पूरी दुनिया के पूँजीपतियों, भूस्वामियों को यह बात अच्छी तरह समझा देगा कि पूरी दुनिया के सर्वहारा वास्तव में एक हैं। काश! आज मार्क्स भी इस शानदार दृश्य को अपनी आँखों से देखने के लिए मेरे साथ होते।”
सर्वहारा के एक साथ हो रहे अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन पूरी दुनिया के मज़दूरों की कल्पनाओं और क्रान्तिकारी सहजवृत्तियों को अधिकाधिक जागृत कर रहे थे और हर साल प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले मज़दूरों की संख्या बढ़ती जा रही थी।
1893 में ज्यूरिख़ में हुई इण्टरनेशनल की कांग्रेस में पहली मई के प्रस्ताव में जोड़ा गया निम्नलिखित अंश ख़ुद ही आन्दोलन के प्रति मज़दूरों के बढ़ते समर्थन को दिखलाता है। इस कांग्रेस में एंगेल्स भी उपस्थित थे।
“पहली मई के दिन आठ घण्टे के कार्य-दिवस के लिए होने वाले प्रदर्शन को साथ ही साथ अनिवार्यतः सामाजिक परिवर्तन के ज़रिये वर्ग-विभेदों को नष्ट करने की मज़दूर-वर्ग की दृढ़निश्चयी आकांक्षा का प्रदर्शन भी होना चाहिए। इस प्रकार मज़दूर-वर्ग को उस राह पर क़दम रखना चाहिए जो सभी मनुष्यों के लिए शान्ति अर्थात् अन्तरराष्ट्रीय शान्ति की ओर ले जाने वाली एकमात्र राह है।”
अनेक पार्टियों के सुधारवादी नेताओं ने पहली मई के प्रदर्शनों को ओजहीन बनाने की कोशिश की। उन्होंने संघर्ष के इन दिनों को आराम और मनोरंजन के दिनों में बदलने की कोशिश की। इसीलिए वे हमेशा मई-दिवस का प्रदर्शन पहली मई के सबसे नज़दीक वाले रविवार को आयोजित करने पर ज़ोर देते थे। रविवार को मज़दूरों को हड़ताल के ज़रिये काम ठप करने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि उस दिन वैसे भी काम नहीं होता था। सुधारवादी नेताओं के लिए यह दिन मात्र मज़दूरों का एक अन्तरराष्ट्रीय छुट्टी का दिन था, शोभायात्राओं का दिन और दूर देहातों के मैदानों में खेल का दिन था। जबकि मई-दिवस के बारे में ज्यूरिख़ कांग्रेस के प्रस्ताव में माँग यह की गयी थी कि मई-दिवस “वर्ग-विभेद के ख़ात्मे के लिए मज़दूर-वर्ग की दृढ़निश्चयी आकांक्षा के प्रदर्शनों का दिन” होना चाहिए, यानी, एक ऐसा प्रदर्शन जो शोषण और उजरती गुलामी पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के ध्वंस के लिए हो लेकिन इससे सुधारवादियों को कोई दिक़्क़त नहीं थी, क्योंकि वे अपने आप को इण्टरनेशनल के निर्णयों से बँधा हुआ नहीं मानते थे। वे इण्टरनेशनल की कांग्रेसों को मात्र अन्तरराष्ट्रीय दोस्ती और सद्भाव के लिए किये जाने वाले जमावड़े समझते थे। जैसे जमावड़े प्रथम विश्वयुद्ध से पहले अनेक यूरोपीय राजधानियों में हुआ करते थे। उन्होंने सर्वहारा-वर्ग की अन्तरराष्ट्रीय एकजुट कार्रवाइयों को हतोत्साहित और विफल करने के हर सम्भव प्रयास किये। अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेसों के निर्णय, जो उनके विचारों से मेल नहीं खाते थे, उनके लिए काग़ज़ी प्रस्ताव मात्र थे। बीस साल बाद इन सुधारवादियों का “समाजवाद” और “अन्तरराष्ट्रीयतावाद” पूरी दुनिया के सामने बिल्कुल बेनक़ाब और नंगा खड़ा था। 1914 में इण्टरनेशनल बिखर गया, क्योंकि अपने जन्म से ही वह अपनी मृत्यु का कारण साथ लेकर चल रहा था, और वह कारण थे – मज़दूर-वर्ग को गुमराह करने वाले सुधारवादी नेता।
1900 की पेरिस की अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस में पुरानी कांग्रेसों में पारित किये गये मई-दिवस के प्रस्ताव को दोहराया गया। साथ ही इस प्रस्ताव को इस बात के साथ और भी शक्तिशाली बनायेंगे। लगातार बढ़ते मई-दिवस के प्रदर्शन अब शक्ति-प्रदर्शन में बदलते जा रहे थे। प्रदर्शनों में भाग लेने वाले और पहली मई को काम-बन्दी में हिस्सा लेने वाले मज़दूरों की तादाद लगातार बढ़ रही थी। मई-दिवस लाल दिवस बन गया, एक ऐसा दिन जो जब भी आता था तो सभी देशों के प्रतिक्रियावादी शासकों के लिए अपशकुन साथ लेकर आता था।
मई-दिवस पर लेनिन के विचार
रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन में अपनी शुरुआती सक्रियताओं के दौर में ही लेनिन ने रूसी मज़दूरों से मई-दिवस का परिचय कराने में और उन्हें यह बताने में कि यह प्रदर्शनों और संघर्षों का दिन है, विशेष योगदान दिया। 1896 में, जब लेनिन जेल में थे, उन्होंने ‘मज़दूर-वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली सेण्ट पीटर्सबर्ग यूनियन’ नामक एक मज़दूर संगठन के लिए मई-दिवस का एक पर्चा लिखा। यह मज़दूर-संगठन रूस में बने सबसे पहले मार्क्सवादी राजनीतिक ग्रुपों में से एक था। यह दस्तावेज़, ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से जेल से बाहर लाया गया, मीमोग्राफ़ी द्वारा इसकी दो हज़ार प्रतियों की नक़ल उतारी गयी और उन्हें चालीस कारख़ानों के मज़दूरों के बीच वितरित किया गया। यह पर्चा काफ़ी छोटा था ताकि कम समझदार मज़दूर भी आसानी से समझ सकें। उस समय के एक व्यक्ति ने, जिसने पर्चे के प्रकाशन में मदद की थी, लिखा है – “जब एक महीने बाद 1896 में प्रसिद्ध टेक्सटाइल हड़ताल हुई, तो मज़दूर हमें बता रहे थे कि इस आन्दोलन को संवेग देने वाला प्रथम प्रेरणास्रोत वही छोटा सा मई-दिवस पर्चा था।”
इस पर्चे में, फ़ैक्टरियों के मालिक किस तरह अपने मुनाफ़े के लिए मज़दूरों का शोषण करते हैं, और अपनी स्थिति को सुधारने की माँग करने पर सरकार उन पर किस तरह अत्याचार करती है, यह बताने के बाद लेनिन मज़दूरों को मई-दिवस के महत्त्व के बारे में बताते हैं।
“फ़्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड और अन्य देशों में मज़दूर पहले ही शक्तिशाली यूनियनों में एकजुट हो चुके हैं, और उन्होंने अपने अनेक अधिकारों को लड़कर जीता है। वे 19 अप्रैल (1 मई) [पहले रुसी कैलेण्डर पश्चिमी यूरोपीय कैलेण्डर से 13 दिन पीछे चलता था।] को एकत्र होते हैं, जो एक सामान्य छुट्टी का दिन होता है। उस दिन वे दमघोंटू कारख़ानों को छोड़कर, संगीत की लय पर अपने लहराते हुए झण्डों के साथ शहर की मुख्य सड़कों पर मार्च करते हैं – अपने मालिकों को लगातार अपनी बढ़ती हुई शक्ति दिखलाते हुए। उस दिन भारी संख्या में मज़दूर इन प्रदर्शनों में जुटते हैं, जहाँ भाषणों में, बीते सालों में मालिकों पर मिली जीतों को फिर से गिनाया जाता है और आने वाले सालों में संघर्षों की रणनीति तैयार की जाती है। इन प्रदर्शनों में मज़दूरों की हुँकार के नीचे दबे मालिकों की यह हिम्मत नहीं होती कि वे कारख़ानों में न आने के लिए मज़दूरों पर एक पैसे का भी जुर्माना करें। उसी दिन मज़दूर फिर से मालिकों के सामने अपनी पुरानी मुख्य माँग रखते हैं : ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’। यही वह माँग है जिसे आप और दूसरे देशों के मज़दूर लगातार बुलन्द कर रहे हैं।”
रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन ने मई-दिवस का पूरा फ़ायदा उठाया। नवम्बर, 1900 में ‘ख़ारकोव में मई-दिवस’ नामक पुस्तिका में प्रकाशित प्राक्कथन में लेनिन ने लिखा:
“अगले छः महीनों में, रूसी मज़दूर नयी शताब्दी के पहले वर्ष का मई-दिवस मनायेंगे। यही वह समय होगा कि जितना सम्भव हो उतनी बड़ी संख्या में जगह-जगह मई-दिवस मनायें। इसमें बड़े पैमाने पर मज़दूर हिस्सा लें। लेकिन हमारा लक्ष्य सिर्फ़ बड़ी संख्या में मज़दूरों का भाग लेना नही है, बल्कि पूरी तरह संगठित होकर भाग लेना है। एक संकल्प के साथ भाग लेना है, जो एक ऐसे संघर्ष का रूप ले, जिसे कुचला न जा सके, जो रूसी जनता को राजनीतिक आज़ादी दिला सके, और नतीजतन जो सर्वहारा को अपने वर्ग-विकास और फिर समाजवाद के लिए एक खुली लड़ाई का मौक़ा दे।”
यह आसानी से समझा जा सकता है कि लेनिन मई-दिवस के प्रदर्शनों को कितना महत्त्व देते थे। उन्होंने मज़दूरों का छः महीने पहले ही आह्वान कर दिया था कि मई-दिवस पर संगठित हो, उसे कैसे मनायें। उनके लिए मई-दिवस “रूसी जनता की राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए एक अदमनीय संघर्ष को खड़ा करने” के लिए और “सर्वहारा के वर्ग-विकास और समाजवाद के लिए रैलियाँ करने” का दिन था।
मई-दिवस के आयोजन कैसे “महान राजनीतिक प्रदर्शन बन सकते हैं”, इस पर बोलते हुए लेनिन ने 1900 के ख़ारकोव मई-दिवस आयोजन को एक “विशिष्ट महत्त्व की घटना” बताते हुए कहा – “इस दिन सड़कों पर बड़ी-बड़ी सभाएँ हुईं, भारी संख्या में मज़दूरों ने हड़तालों में भाग लिया, लाल झण्डे फहराये गये, पर्चे में छपी माँगें प्रस्तुत की गयीं, और इन माँगों, यानी आठ घण्टे के कार्य-दिवस और राजनीतिक स्वतन्त्रता की माँगों, के क्रान्तिकारी चरित्र का प्रदर्शन हुआ।”
लेनिन ने ख़ारकोव के पार्टी नेताओं की आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग के साथ अन्य छोटी-मोटी और शुद्ध आर्थिक माँगों को मिलाने के लिए कड़ी भर्त्सना की, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि मई-दिवस का राजनीतिक चरित्र किसी भी तरह धुँधला हो। इसके बारे में उपर्युक्त प्राक्कथन में ही वह लिखते हैं:
“इन माँगों में सबसे पहली माँग होगी आठ घण्टे के कार्य-दिवस की आम माँग, जो सभी देशों के सर्वहारा वर्ग ने की है। इस माँग का सबसे पहले रखा जाना ख़ारकोव के मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी मज़दूर आन्दोलन के साथ एकजुटता के अहसास को दर्शाता है और निश्चित रूप से इसी लिए इस माँग को छोटी-मोटी आर्थिक माँगों से नहीं मिलाया जाना चाहिए, जैसे – फ़ोरमैन द्वारा अच्छे बर्ताव की माँग या तनख़्वाह में दस फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी की माँग। आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग पूरे सर्वहारा वर्ग की माँग है और सर्वहारा उसे एक-एक मालिक के सामने नहीं बल्कि सरकार के सामने रखता है, क्योंकि ये ही आज के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं। सर्वहारा वर्ग यह माँग समूचे पूँजीपति वर्ग के सामने रखता है जो उत्पादन के सभी साधनों का मालिक है।”
मई-दिवस के राजनीतिक नारे
अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के लिए मई-दिवस एक ख़ास दिन बन गया था। आठ घण्टे के कार्य-दिवस की मूल माँग के साथ कुछ दूसरे महत्त्वपूर्ण नारे जुड़ गये जिन पर मज़दूरों को मई-दिवस की हड़ताल और प्रदर्शनों के दौरान ध्यान देने के लिए आह्वान किया गया। इनमें ये नारे शामिल थे – “अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर-वर्ग की एकता ज़िन्दाबाद”, “साम्राज्यवादी युद्ध और औपनिवेशिक उत्पीड़न का विरोध करो”, “राजनीतिक बन्दियों को मुक्त करो”, “सार्वभौमिक मताधिकार दो”, “आन्दोलन करने का अधिकार दो”, “मज़दूरों को राजनीतिक और आर्थिक संगठन बनाने का अधिकार दो।”
पुरानी इण्टरनेशनल में मई-दिवस के प्रश्न पर आखि़री बार 1904 में एम्सटर्डम कांग्रेस में विचार हुआ था। मई-दिवस के प्रदर्शनों में इस्तेमाल हो रहे नारों और इस बात पर समीक्षा करते हुए कि, कई देशों में अभी भी मई-दिवस पहली मई के बजाय मई के पहले रविवार को मनाया जा रहा है, इस कांग्रेस में पारित प्रस्ताव पुनः इन शब्दों में समाप्त होता है :
“एम्सटर्डम में अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस सभी देशों की सामाजिक-जनवादी पार्टियों और ट्रेड-यूनियनों का आह्वान करती है कि वे पहली मई को पूरी ऊर्जा के साथ प्रदर्शन करें ताकि आठ घण्टे के कार्य-दिवस को क़ानून द्वारा लागू किया जा सके, सर्वहारा की वर्ग माँगों को हासिल किया जा सके और अन्तरराष्ट्रीय शान्ति को स्थापित किया जा सके। पहली मई के प्रदर्शन का सबसे प्रभावशाली तरीक़ा है – काम-बन्दी। इसलिए कांग्रेस सभी देशों के सर्वहारा संगठनों के लिए यह आदेश जारी करती है कि जहाँ भी सम्भव हो मज़दूरों को हानि पहुँचाये बिना पहली मई को काम बन्द कर दें।”
जब अप्रैल, 1912 में साइबेरिया में लेना के सोने की खानों के मज़दूरों का क़त्लेआम हुआ तो रूस में एक बार फिर क्रान्तिकारी सर्वहारा जन कार्रवाई का प्रश्न उठने लगा। उसी साल के मई-दिवस पर सैकड़ों हज़ार मज़दूर काम बन्द करके सड़कों पर उतर आये। यह ज़ार के अत्याचारों को चुनौती थी जो 1905 की असफल रूसी क्रान्ति के बाद से और भी निरंकुश शासन कर रहा था। इस मई-दिवस के बारे में लेनिन ने लिखा है :
“पूरे रूस में हुई मई की महान हड़ताल, इससे जुड़े सड़कों पर हुए प्रदर्शन, मज़दूरों का क्रान्तिकारी ऐलान, मज़दूरों को दिये गये क्रान्तिकारी भाषण, साफ़ तौर पर यह बताते हैं कि रूस एक बार फिर धधकती हुई, क्रान्तिकारी परिस्थिति में प्रवेश कर रहा है।”
पहले विश्व-युद्ध के दौरान मई-दिवस
सामाजिक-जनवादी नेताओं द्वारा युद्ध के दौरान किया गया विश्वासघात 1915 में अपनी पूरी नग्नता के साथ सामने आ गया। उन्होंने अगस्त, 1914 में साम्राज्यवादी सरकारों से हाथ मिला लिया था। इन विश्वासघातियों का यह भण्डाफोड़ इसी दोस्ती का अवश्यम्भावी परिणाम था। जर्मनी के सामाजिक जनवादियों ने मज़दूरों को काम पर लगे रहने के लिए कहा और फ़्रांसिसी समाजवादियों ने एक विशेष घोषणापत्र में मालिकों को पहली मई से न घबराने के लिए आश्वस्त किया। दूसरे युद्धरत देशों के समाजवादियों के बहुलांश में भी ऐसी ही रुझानें दीख रही थीं। इन हालात में केवल रूस में बोल्शेविक और अन्य देशों में अल्पमत क्रान्तिकारी ही समाजवाद और अन्तरराष्ट्रीयतावाद के प्रति ईमानदार बने हुए थे। लेनिन, रोजा लक्ज़म्बर्ग और कार्ल लीबनेख़्त की आवाज़ें सामाजिक अन्धराष्ट्रवाद के नशे में पागल लोगों के विरोध में उठ खड़ी हुईं। 1916 के मई-दिवस के दिन आंशिक रूप से हुई हड़तालों और सड़कों पर हुई खुली झड़पों ने यह दिखा दिया कि सभी युद्धरत देशों के मज़दूर अपने आप को कमीने ग़द्दारों के ज़हरीले असर से मुक्त कर रहे हैं। सभी क्रान्तिकारियों की तरह लेनिन की नज़र में “अवसरवाद का पतन (दूसरे इण्टरनेशनल का पतन) मज़दूर आन्दोलन के लिए काफ़ी फ़ायदेमन्द था” और लेनिन द्वारा ग़द्दारों से मुक्त एक नया इण्टरनेशनल बनाने का आह्वान वक़्त की पुकार थी।
1915 की जिमरवाल्ड और 1916 की कीन्थॉल समाजवादी कांग्रेस में यह निश्चय किया गया कि लेनिन के ‘साम्राज्यवादी युद्ध को गृह-युद्ध में बदलने’ के नारे के तहत सारी दुनिया की क्रान्तिकारी अन्तरराष्ट्रीयतावादी पार्टियों और छोटी-छोटी समाजवादी पार्टियों की एकता को मज़बूत किया जायेगा। 1916 के मई-दिवस पर कार्ल लीबनेख़्त और समाजवादी आन्दोलन में उनके समर्थकों के नेतृत्व में बर्लिन में हुए विशाल प्रदर्शन मज़दूर-वर्ग की जीवन्त शक्तियों के प्रमाण थे, जो पुलिस के दमन और आधिकारिक नेताओं के विरोध के बावजूद आगे बढ़ती जा रही थी।
1917 में अमेरिका में युद्ध की घोषणा के बावजूद मई-दिवस की गतिविधियाँ रुकी नहीं। समाजवादी पार्टी के सर्वहारा तत्त्वों ने सेण्ट लुई में अप्रैल के शुरू में हुए आपात अधिवेशन में पारित युद्ध-विरोधी प्रस्ताव को गम्भीरता से लिया, और मई-दिवस का इस्तेमाल साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध में प्रदर्शन के लिए किया। 1919 में क्लीवलैण्ड में हुआ मई-दिवस का प्रदर्शन ख़ास तौर पर उग्र था। इसका नेतृत्व करने वाले चार्ल्स ई. रथेनबर्ग समाजवादी पार्टी के स्थानीय सेक्रेटरी थे। आगे चलकर वे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक बने और उसके जनरल सेक्रेटरी भी रहे। 20,000 से भी ज़्यादा मज़दूरों ने, इस प्रदर्शन में, पब्लिक स्क्वायर की सड़कों पर मार्च किया, और वहाँ पर हज़ारों नये लोगों ने इसमें जुड़कर इस प्रदर्शन को महान बनाया। पुलिस ने क्रूरता से इन मज़दूरों की सभा पर हमला किया जिसमें एक मज़दूर की मृत्यु हो गयी और अनेक मज़दूर बुरी तरह घायल हो गये।
1917 मई-दिवस, जुलाई और फिर अक्टूबर के दिन रूसी क्रान्ति के विकास के विभिन्न चरण थे जो बाद में रूसी क्रान्ति को उसके लक्ष्य तक ले गये। रूसी क्रान्ति ने, जिसने मानव-जाति के इतिहास में एक नये युग की शुरुआत की, मई-दिवस की परम्पराओं को नया संवेग और महत्त्व दिया। धरती के छठे भाग पर सर्वहारा शक्ति की विजय ने उस आकांक्षा को जीवन में उतार दिया था जो ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नेताओं के मई-दिवस प्रदर्शन की इस प्रतिज्ञा से झलकता है जो उन्होंने 1890 को न्यूयॉर्क के यूनियन स्क्वायर पर ली थी – “आठ घण्टे के कार्य-दिवस के लिए संघर्ष करते हुए हम अपने अन्तिम लक्ष्य से कभी नज़र नहीं हटायेंगे – यानी (पूँजीवादी) उजरत प्रणाली का ध्वंस।”
रूसी मज़दूर-वर्ग इस लक्ष्य को सबसे पहले पूरा करने में सफल हुआ था। लेकिन 1917 के बाद ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नेता उस लक्ष्य से काफ़ी दूर जा चुके थे, जिसकी उन्होंने 1890 में घोषणा की थी। अब उनका पहला सरोकार पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने और साम्राज्यवाद के लिए राहें आसान करना था। वे नहीं चाहते थे कि अमेरिकी मज़दूरों को रूसी सर्वहारा की उन ऐतिहासिक उपलब्धियों से प्रेरणा मिले, जिन्होंने मई-दिवस की संघर्ष भावना को एक नया अर्थ दिया था और जिस दिन मज़दूर-वर्ग अपनी अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता तथा पूँजीवादी शोषण एवं उजरती गुलामी की व्यवस्था से मुक्ति के लक्ष्य की घोषणा करता है।
1923 में मई-दिवस के लिए ‘वर्कर’ नामक साप्ताहिक में चार्ल्स ई. रथेनबर्ग ने लिखा : “मई-दिवस – वह दिन जो पूँजीवादियों के दिल में डर और मज़दूरों के दिल में आशा पैदा करता है। इस साल सारी दुनिया के मज़दूर अमेरिका में कम्युनिस्ट आन्दोलन को हमेशा से ज़्यादा मज़बूत पायेंगे… महान उपलब्धियों के लिए रास्ता साफ़ है, और दुनिया की किसी भी जगह की तरह अमेरिका का भविष्य भी कम्युनिज़्म है।”
इसी साप्ताहिक ‘वर्कर’ के व़फ़रीब सत्रह साल पहले के एक अंक में जो कि मई-दिवस विशेषांक था, यूजीन वी. डेब्स ने लिखा था : “यह सबसे पहला और एकमात्र अन्तरराष्ट्रीय दिवस है। यह मज़दूर-वर्ग से सरोकार रखता है और क्रान्ति को समर्पित है।” यह अंक 27 अप्रैल 1907 को प्रकाशित हुआ था।
मई-दिवस की इस बढ़ती हुई जुझारू परम्परा के जवाब में ‘मेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नेताओं ने केवल श्रम दिवस के रिवाज़ को प्रोत्साहित किया, जो सितम्बर के पहले सोमवार को मनाया जाता था। मूलतः 1885 में स्थानीय स्तर पर इस दिन को स्वीकार किया गया था और बाद में मई-दिवस के आयोजनों को प्रभावहीन बनाने के लिए कई राज्य सरकारों ने इसे मान्यता दे दी। हूवर प्रशासन ने ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के सहयोग से पहली मई को ‘बाल स्वास्थ्य दिवस’ घोषित कर एक और जवाबी कार्रवाई की। बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में अचानक पैदा हुई इस रुचि को 1928 के ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के सम्मेलन के लिए कार्यकारिणी परिषद द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट को पढ़कर समझा जा सकता है। इसमें लिखा गया था – “कम्युनिस्ट अभी भी पहली मई को मज़दूर दिवस के रूप में मनाते हैं। लेकिन आज के बाद से पहली मई ‘बाल स्वास्थ्य दिवस’ के रूप में जाना जायेगा। क्योंकि राष्ट्रपति ने कांग्रेस द्वारा पारित प्रस्ताव के मुताबिक़ यह आह्वान करते हुए लोगों से कहा है कि वे अब पहली मई को ‘बाल स्वास्थ्य दिवस’ के रूप में मनायें। इसका लक्ष्य यह है कि इस पूरे साल लोगों में बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा के प्रति जागरुकता पैदा की जाये। यह एक सबसे मूल्यवान लक्ष्य है। इसके साथ ही अब मई-दिवस न ही हड़ताल दिवस के रूप में जाना जायेगा और न ही कम्युनिस्ट दिवस के रूप में।” (ज़ोर लेखक का)
1929 का संकट
अनुभवों से कोई सीख न लेते हुए, विश्व-युद्ध के लगभग एक दशक बाद, प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियन नेता, पूँजीवाद के अन्तर्गत स्थाई सम्पन्नता आने के भ्रम के बीज बो रहे थे। उनकी इस बात में कोई रुचि नहीं थी कि किस तरह हज़ारों-लाखों असंगठित मज़दूरों को एक झण्डे तले लाया जाये और इस बात से अवगत कराया जाय कि पूँजीवाद भारी संकटों के बीच फँसने और इन संकटों का बोझ मज़दूरों के ऊपर डालने वाला है। जब 1929 के अन्त में आर्थिक ध्वंस आया, और ट्रस्टों एवं एकाधिकारी संघों ने इस संकट का सारा बोझ मज़दूरों पर डालना चाहा तो मज़दूरों के पास एक ही रास्ता बचा – हड़तालों और बेरोज़गार मज़दूरों के जन-संघर्षों का रास्ता। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप, जिनका नेतृत्व कम्युनिस्टों ने किया था, अमेरिकी मज़दूर और अधिक भयंकर विपदाओं को रोकने और अपने जनतान्त्रिक अधिकारों का दायरा बढ़ाने में सफल रहे। साथ ही, उन्होंने 1930 के दशक में, ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ और सी.आई.ओ. दोनों में, अमेरिकी मज़दूर-वर्ग के इतिहास में ट्रेड यूनियन संगठन की महानतम प्रगति को दर्ज कराया। सी.आई.ओ. का 1935 में जन्म और विभिन्न उद्योगों के मज़दूरों में तेज़ी से इसका विस्तार पूरे मज़दूर आन्दोलन और देश के लिए ऐतिहासिक महत्त्व की प्रमुख उपलब्धि था। अमेरिकी मज़दूरों के इस उभार के नतीजतन नीग्रो लोगों के बराबर हक़ों के लिए संघर्ष और अमेरिका में एक जनतान्त्रिक मोर्चे को और मज़बूत बनाने की स्थितियाँ बन गयीं।
साम्राज्यवादी युद्ध और क्रान्ति तथा एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट के द्वारा झकझोर दिये जाने के बाद, केवल डेढ़ दशक के छोटे से कालक्रम में विश्व पूँजीवाद स्पष्टतः एक आम संकट के दौर में प्रवेश कर गया। साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा, जिसने प्रथम विश्व युद्ध को जन्म दिया था, इस संकट के कारण और भी भयंकर होती गयी। विश्व के छठे भाग पर पूँजीवाद के ख़त्म हो जाने, उपनिवेशों में स्वतन्त्रता के लिए संघर्षों का दुर्दमनीय विकास और उन्नत पूँजीवादी देशों में अपने जीवन स्तर को उठाने तथा अपने जनतान्त्रिक अधिकारों को बनाये रखने एवं विस्तारित करने के लिए लगातार फौलादी होते इरादों से पूँजीवाद का यह आम संकट बढ़ता ही गया। ट्रस्ट और इज़ारेदार आर्थिक और राजनीतिक जीवन पर अपनी पकड़ बचाये रखने की बदहवासी भरी कोशिशों में लग गये और इतिहास के अपरिहार्य विकास को रोकने के लिए फ़ासीवाद की आतंकवादी तानाशाही की शरण में चले गये। फ़्रांस, इंग्लैण्ड और अमेरिका के इज़ारेदारों ने फ़ासीवादी आन्दोलनों को प्रोत्साहित करने के लिए वह सब कुछ किया जो उनके बूते में था। उन्होंने पराजित जर्मनी और उन सभी देशों में, जहाँ मज़दूर-वर्ग और प्रगतिशील ताक़तों की कमज़ोरी और बिखराव ने फ़ासीवादी विजय के लिए दरवाज़े खोल दिये थे, फ़ासीवाद को बढ़ावा दिया और अपनी थैलियाँ खोल दीं। इज़ारेदार पूँजी के इन सारे विश्वव्यापी प्रयासों ने न केवल जनतान्त्रिक उपलब्धियों को, जो शताब्दियों के संघर्षों के बाद हासिल हुई थीं, नष्ट करने की कोशिश की, बल्कि एक नये विश्व-युद्ध का रास्ता भी साफ़ कर दिया।
फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष
1933 से 1939 के दौरान जर्मन फ़ासीवाद ने पूरी दुनिया के प्रतिक्रियावादियों की भूमिका निभायी। ऐंग्लो-अमेरिकन साम्राज्यवाद से प्रोत्साहन पाकर और पूरी दुनिया पर क़ब्ज़ा जमाने के अपने साम्राज्यवादी मंसूबों के तहत जर्मन फ़ासीवाद ने योजनाबद्ध ढंग से दूसरे विश्वयुद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दी थी। यह वही ऐंग्लो-अमेरिकी साम्राज्यवाद था जिसका शुरू से एक लक्ष्य था, समाजवाद के विनाश के लिए युद्ध, जिसके लिए अब वह नाजी जर्मनी को खड़ा करने में सहायता कर रहा था। दूसरी ओर जापानी साम्राज्यवाद भी अपने स्वार्थों के लिए इस कुकृत्य में शामिल हो गया। अपनी प्रकृति के अनुसार इस तरह का कोई भी युद्ध हर देश की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के खि़लाफ़ खड़ा होता था। इन स्थितियों में लगातार यह बात साप़फ़ होती गयी थी कि, मानव-जाति का विकास मज़दूरों, किसानों और उपनिवेशों की दबायी और कुचली गयी जनता के हाथ में है। केवल वे ही क़दम बढ़ाकर, पहल लेकर और अपनी एकता और प्रतिरोध के ज़रिये सभी देशों की जनतान्त्रिक शक्तियों व तत्त्वों को अपने इर्द-गिर्द गोलबन्द कर सकते हैं और इज़ारेदार पूँजी द्वारा प्रेरित प्रतिक्रियावाद के बढ़ते अनर्थकारी विकास को रोक सकते थे। इसीलिए, तीस के पूरे दशक के दौरान मई-दिवस, फ़ासीवादी हमले का प्रतिरोध करने और एक नये विश्व-विध्वंस का विरोध करने के लिए सभी जनतान्त्रिक शक्तियों एवं जनता की एकता के आह्वान को लगातार गुंजायमान करता रहा।
द्वितीय विश्व-युद्ध ने साफ़ तौर पर यह दिखला दिया कि मज़दूर-वर्ग ही किसी राष्ट्र की वास्तविक रीढ़ की हड्डी है। फ़ासीवाद शक्ति हथियाने और दुनिया को एक विनाशकारी युद्ध में झोंकने में इसलिए कामयाब हो सका क्योंकि मज़दूर-वर्ग असंगठित था। लेकिन वह कहीं भी एकजुट और युद्धरत मज़दूर-वर्ग पर विजय हासिल न कर सका, जो हर जगह प्रगति और जनतन्त्र की रक्षा का नेतृत्व कर रहा था और मानव-जाति के जनतान्त्रिक बहुमत को अपने इर्द-गिर्द गोलबन्द कर रहा था ताकि फ़ासीवादी दानव का सर कुचला जा सके। इस युद्ध में हर जगह के जनतान्त्रिक लोगों ने अपनी आँखों से यह देखा कि ये सोवियत रूस और हर जगह के मज़दूर ही थे जो राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, जनतन्त्र और प्रगति के लिए फ़ासीवाद के विरुद्ध इस ऐतिहासिक महायुद्ध की अगली क़तारों में थे।
इस युद्ध के दौरान हर जगह के मज़दूरों ने काम पर रहकर और फ़ासीवादी सेनाओं के ध्वंस के लिए हथियार बनाकर मई-दिवस मनाया। जब 1945 में युद्ध ख़त्म हुआ तो युद्ध के बाद के पहले मई-दिवस समारोहों में लाखों-लाख मज़दूर उमड़ पड़े, ख़ासकर यूरोप के विजेता और आज़ाद हुए देशों में। इन मज़दूरों ने युद्ध को जारी रखने की और फ़ासीवाद के सभी अवशेषों को जड़ से उखाड़ फेंकने की अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी, ताकि हर-हमेशा के लिए पूरे मज़दूर-वर्ग की जनता के अन्य प्रगतिशील तत्त्वों के साथ एकता क़ायम की जा सके, जो हमेशा के लिए इज़ारेदार पूँजी को इसके लिए अक्षम बना दे कि वह फिर से फ़ासीवाद की छत्रछाया में जा सके और फ़ासीवाद फिर अपना आदमख़ोर शासन क़ायम कर सके, ताकि जनतन्त्र को जो जनता की सर्वश्रेष्ठ शक्ति है, स्थापित और विकसित किया जा सके, ताकि एक अनश्वर शान्ति का निर्माण किया जा सके और दमन-उत्पीड़न-शोषण से मुक्त समाजवादी विश्व के पथ पर अग्रसर हुआ जा सके।
हर देश का मज़दूर-वर्ग मई-दिवस के अवसर पर, मानव-जाति के ख़ुशहाल भविष्य और शान्ति के लिए संघर्ष करते हुए, अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता और मैत्री की भावना के साथ सारी दुनिया की जनता को सलाम करता है।
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