कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (दूसरी किस्त) 
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (गतांक से जारी)

आलोक रंजन

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भारतीय बुर्जुआ वर्ग की यह चारित्रिक विशेषता थी कि वह उपनिवेशवादी ब्रिटेन की मजबूरियों और साम्राज्यवादी विश्व के अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाता रहा था और ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की रणनीति अपनाकर कदम-ब-कदम राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। व्यापक जनसमुदाय को साथ लेने के लिए भारतीय बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी प्राय: गाँधी के आध्‍यात्मिक चाशनी में पगे बुर्जुआ मानवतावादी यूटोपिया का सहारा लेती थी। किसानों के लिए उसके पास गाँधीवादी ‘ग्राम-स्वराज’ का नरोदवादी यूटोपिया था। जब-तब वह पूँजीवादी भूमि-सुधार की बातें भी करती थी, लेकिन सामन्तों-जमींदारों को पार्टी में जगह देकर उन्हें बार-बार आश्वस्त भी किया जाता था कि उनका बलात् सम्पत्तिहरण कदापि नहीं किया जायेगा। मध्‍यवर्ग को लुभाने के लिए कांग्रेस के पास नेहरू, सुभाष और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रैडिकल समाजवादी नारे थे, जिनका व्यवहारत: कोई मतलब नहीं था और इस बात को भारतीय पूँजीपति वर्ग भी समझता था। ब्रिटिश उपनिवेशवादी भी समझते थे कि नेहरू का ”समाजवाद” ब्रिटिश लेबर पार्टी के ”समाजवाद” से भी ज्यादा थोथा, लफ्फाजी भरा और पाखण्डी है। भारतीय पूँजीपति वर्ग राजनीतिक स्वतन्त्रता के निकट पहुँचते जाने के साथ ही यह समझता जा रहा था कि आधुनिक औद्योगिक भारत का नेहरू का सपना बुर्जुआ आकांक्षाओं का ही मूर्त रूप था। ‘समाजवादी नियोजित अर्थतन्त्र’ जैसे जुमलों से पूँजीपति आशंकित नहीं, बल्कि खुश थे। वे पहले से ही इस बात को भली-भाँति समझते थे कि उत्तर-औपनिवेशिक भारत में आधारभूत और अवरचनागत उद्योगों को राज्य के नियन्त्रण में रखना ही उनके हित में होगा, क्योंकि ‘पब्लिक सेक्टर’ के अन्तर्गत ही जनता को निचोड़कर यातायात-परिवहन, बाँध-पनबिजली परियोजनाओं, खनिज-खदानों, इस्पात कारखानों आदि का विराट ढाँचा खड़ा किया जा सकता है। पूँजीपतियों के स्वामित्व वाले उद्योगों के विकास के लिए उद्योगों का यह आधरभूत ढाँचा जरूरी था, पर उस समय भारतीय पूँजीपतियों के पास इतनी पूँजी नहीं थी और इसके लिए समाजवादी मुखौटा जरूरी होगा। पूँजीपति वर्ग जानता था कि ‘पब्लिक सेक्टर’ उसी का हितसाधन करेगा, उसके शीर्ष पर बैठी शक्तिशाली नौकरशाही अन्तत: उसी की वर्ग-सहयोगी होगी और सरकार के मार्फत (जो वस्तुत: पूँजीपतियों की ही ‘मैनेजिंग कमेटी होती है) पब्लिक सेक्टर पर वास्तविक नियन्त्रण भी उसी का होगा। (आश्चर्य नहीं, कि जैसे ही भारतीय पूँजीपति वर्ग आर्थिक दृष्टि से ताकतवर हो गया, वैसे ही निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी)।

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उल्लेखनीय है कि 1934 में ही विश्वेश्वरैया ने सरकार द्वारा योजनाएँ बनाने की बात कही थी। 1938 में नेहरू के अधीन जो राष्ट्रीय योजना समिति बनी थी, उसकी 29 सहायक समितियों में भारतीय उद्योगपतियों-व्यापारियों के प्रतिनिधि शामिल थे। उस समिति में भी नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात की थी और साथ ही यह भी स्वीकार किया था कि औपनिवेशिक औद्योगिक संरचना को एक आधार के रूप में स्वीकार करना जरूरी होगा। आगे चलकर, भारतीय उद्योगपतियों ने 1944 में जब भावी भारत के आर्थिक विकास की वृहद् योजना (‘बॉम्बे प्लान’ या ‘टाटा-बिड़ला प्लान’ के नाम से प्रसिद्ध) प्रस्तुत की, तो उसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था (प्राइवेट सेक्टर-पब्लिक सेक्टर) का खाका पेश करने के साथ ही ब्रिटिश महाजनी पूँजी के साथ और पूरे साम्राज्यवाद के साथ सहयोग-सहकार की बात भी स्पष्ट शब्दों में कही गयी थी। दिलचस्प बात है कि बॉम्बे प्लान के प्रकाशन के तुरन्त बाद, जब कांग्रेस एक ओर सत्ता हस्तान्तरण के लिए वार्ताओं-सौदेबाजियों में व्यस्त थी और दूसरी ओर जनता को तरह-तरह के सपने दिखा रही थी, उसी समय संवैधानिक समझौतों के साथ-साथ ब्रिटेन और भारत के बड़े पूँजीपतियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध कायम हो रहे थे। ब्रिटिश पूँजीपतियों के साथ बॉम्बे प्लान के तीन मुख्य सूत्रधारों – टाटा, बिड़ला और सर श्रीराम ने तभी समझौते कर लिये थे। बहरहाल, यह चर्चा हम कांग्रेस और उसके नेतृत्व में स्थापित भारतीय बुर्जुआ लोकतन्त्र के चरित्र को समझने के लिए कर रहे थे। अब हमें पीछे 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ के पारित होने के बाद के वर्षों की ओर लौटना होगा, और वहाँ से आगे के राजनीतिक घटनाक्रम के विकास पर सरसरी नजर दौड़ानी होगी।

1935-36 के वर्षों में भारतीय राजनीति का एक ऐसा स्वरूप उभरकर सामने आया, जो बाद के वर्षों में, और 1947 के बाद भी एक आम ढर्रा के रूप में स्थापित हो जाने वाला था। यह समय था जब ऊपरी तौर पर वामपन्थी राजनीति की धारा लगातार आगे बढ़ती और शक्तिशाली होती दीख रही थी। मजदूरों-किसानों के उग्र आन्दोलन, वामपन्थी नेतृत्व वाले जनसंगठनों की स्थापना और मध्‍यवर्गीय बुध्दिजीवियों के बीच वामपन्थ का प्रभाव इसके प्रमुख लक्षण थे। 1936 तक महासचिव पी. सी जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे की रणनीति पर काम करती हुई कांग्रेस के भीतर इस उद्देश्य से काम करने लगी थी कि उसको ‘साम्राज्यवाद-विरोधी जन मोर्चा’ में तब्दील कर दिया जाये। लेकिन पार्टी की विचारधारात्मक कमजोरी और जोशी धड़े के दक्षिणपन्थी विचलन के कारण पार्टी कांग्रेस के बुर्जुआ नेतृत्व को अलग-थलग करने के बजाय स्वयं उसके हाथों इस्तेमाल हुई। लखनऊ और फैजपुर के अधिवेशनों में भरपूर वामपन्थी तेवर दिखाने वाले नेहरू वस्तुत: एक भ्रामक मुखौटा ही सिद्ध हुए। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भाँति-भाँति के मध्‍यवर्गीय रैडिकल तत्व भी वास्तव में बुर्जुआ वर्ग द्वारा समय-समय पर उपयोग किये जाने वाले दबाव-समूह ही सिद्ध हुए। अन्तत: कांग्रेस के भीतर के कट्टर दक्षिणपन्थी और मध्‍यमार्गी तत्व ”वामपन्थी” तूफान को न केवल नियन्त्रित करने, बल्कि उसका कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करने में सफल रहे।

कांग्रेस ने 1935 के जिस ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ को ‘गुलामी के चार्टर’ की संज्ञा दी थी, उसी के तहत होने वाले 1937 के प्रान्तीय असेम्बलियों के चुनाव में उसने हिस्सा भी लिया। कारण स्पष्ट था। चुनाव बहिष्कार करके जुझारू जनसंघर्ष में उतर पड़ने के लिए कांग्रेसी नेतृत्व कतई तैयार नहीं था। कांग्रेस में मतभेद सत्ता में भागीदारी के प्रश्न पर था। नेहरू, सुभाष और कांग्रेस के भीतर के अन्य वामपन्थियों (कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वाले) का मानना था कि चुनाव जीतकर प्रान्तीय असेम्बलियों में घुसा जाये, लेकिन मन्त्रिमण्डल में शामिल न हुआ जाये, वहाँ भी 1935 के कानून का विरोध किया जाये, उस पर अमल न होने दिया जाये और फिर व्यापक जनान्दोलन की तैयारी की जाये। कम्युनिस्ट पार्टी (जो कांग्रेस को ‘साम्राज्यवाद-विरोधी जन मोर्चा’ बनाने के उद्देश्य से ट्रेडयूनियनों और किसान संगठनों को, सामूहिक तौर पर कांग्रेस से सम्बध्द करने का निर्णय ले चुकी थी और जिसके सदस्य पहले से ही कांग्रेस में शामिल होकर काम कर रहे थे) का भी यही मानना था कि चुनाव जुझारू कार्यक्रम के आधार पर लड़े जायें किन्तु पद न ग्रहण किये जायें और सार्विक वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा बुलाने की माँग को मुख्य सकारात्मक मुद्दा बनाया जाये। कांग्रेस के भीतर के दक्षिणपन्थी और भारतीय पूँजीपति इससे जरा भी चिन्तित नहीं थे। वे जानते थे कि एक बार चुनाव जीतने के बाद तमाम वामपन्थी लच्छेदार बातों के बावजूद, नेहरू और कांग्रेसी सोशलिस्ट मन्त्रिमण्डल बनाने के दबाव के आगे झुकने को बाध्‍य होंगे। बिड़ला ने ठाकुर दास को लिखे एक पत्र में (20 अप्रैल, 1936) भविष्यवाणी की थी कि, ”आगामी चुनाव को ‘वल्लभभाई का ग्रुप’ नियन्त्रित करेगा और यदि लार्ड लिनलिथगो स्थिति का ठीक संचालन करें तो कांग्रेसियों के सत्ता में आने की पूरी सम्भावना है।”

फरवरी, 1937 में हुए चुनावों में कांग्रेस ने कुल 1,585 में से 1,161 सीटों पर चुनाव लड़ा और 716 पर जीत हासिल की। अपने घोषणापत्र में उसने 1935 के कानून को खारिज करने के साथ ही नागरिक स्वतन्त्रता की बहाली, राजनीतिक बन्दियों की रिहाई, कृषि ढाँचे में आमूल बदलाव, लगान में कटौती, किसानों की ऋण-मुक्ति, मजदूरों को यूनियन बनाने व हड़ताल करने के अधिकार देने के कई लुभावने वायदे किये थे। उसे मुख्य चुनाव प्रचारक नेहरू के रैडिकल तेवरों का भी बहुत लाभ मिला। प्रसंगवश, यह उल्लेख कर दें कि कांग्रेस को चुनाव लड़ने के लिए पूँजीपतियों से भरपूर आर्थिक मदद मिली थी। पटेल के नेतृत्व वाले कांग्रेस के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड को बिड़ला ने 5 लाख रुपये का दान दिया। बिहार कांग्रेस द्वारा एकत्र 37,000 रुपये के चुनाव कोष में 27,000 रुपये अकेले डालमिया ने दिया था। फिर भी चुनाव लड़ने के भारी खर्च को देखते हुए प्रत्याशियों से अपना चुनावी खर्च खुद उठाने को कहा गया था। इसके कारण ज्यादातर धनवान लोग ही चुनाव लड़ पाये। बिहार में अधिकांश कांग्रेसी उम्मीदवार जमींदार वर्ग के थे और जमींदारों के ही दबाव के कारण किसान सभा के कई नेताओं को टिकट नहीं दिया गया।

चुनाव जीतने के बाद, राजेन्द्र प्रसाद और पटेल ने यह प्रस्ताव रखा कि यदि गवर्नर अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग न करने का आश्वासन दे तो कांग्रेस को मन्त्रिमण्डल गठित कर लेना चाहिए। किसी भी हालत में पद न ग्रहण करने का जयप्रकाश नारायण का प्रस्ताव कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में 78 के मुकाबले 135 मतों से पराजित हो गया। इसे बिड़ला ने लार्ड लिनलिथगो के निजी सचिव को लिखे गये पत्र में ‘दक्षिणपन्थ की महान विजय’ बताया। लार्ड लिनलिथगो द्वारा कांग्रेसी शर्त के बाबत कोई आश्वासन नहीं दिये जाने के बावजूद, जुलाई 1937 तक गाँधी भी मन्त्रिमण्डल गठन के पक्षधर हो चुके थे। बिड़ला आदि पूँजीपतियों की आशाओं के अनुरूप नेहरू को भी मना लिया गया। मद्रास, बम्बई, मध्‍यभारत, उड़ीसा, बिहार और संयुक्त प्रान्त में जुलाई में और फिर कुछ महीनों बाद पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने पदभार सम्हाला। सिम्तबर, 1938 में कांग्रेस के ”वामपन्थी” अध्‍यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने घटिया तीन तिकड़म और दलबदल के सहारे असम में भी कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बनवा दिया।

प्रान्तों में कांग्रेसी शासन के अट्ठाइस महीनों ने इस पार्टी के बुर्जुआ चरित्र की विशिष्टताओं को एकदम स्पष्ट कर दिया। शुरू में तो कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों से सभी वर्गों के साम्राज्यवाद-विरोधी आन्दोलनों को विशेष प्रेरणा मिली, लेकिन इनकी सीमाएँ जल्दी ही सामने आ गयीं और मोहभंग की प्रक्रिया तेज हो गयी। कल तक पूर्ण स्वराज्य के लिए प्रतिबध्दता जाहिर करने वाली और 1935 के अधिनियम की आलोचना करने वाली पार्टी अब उसी के अन्तर्गत शासन कर रही थी। गवर्नरों के विशेषाधिकारों, केन्द्रीय औपनिवेशिक सत्ता के अपरिमित अधिकारों, सीमित संसाधनों और औपनिवेशिक सिविल सर्विस एवं पुलिस पर निर्भरता के चलते वह घोषणापत्र के लोकरंजक वायदों को पूरा करने में कतई समर्थ नहीं थी। सत्ता हाथ में आने के साथ ही भ्रष्टाचार, गुटबाजी जैसी बुराइयाँ भी जल्दी ही सामने आने लगीं। नौकरशाही के साथ कांग्रेसी सरकारों का तालमेल आश्चर्यजनक था। साम्राज्यवादी इतिहासकार आर. कूपलैण्ड को कांग्रेसी शासनकाल और उसके पहले के दिनों में ‘कोई विशेष अन्तर’ नहीं दीखता और वे कानून व्यवस्था के लिए कांग्रेसी सरकारों की प्रशंसा भी करते हैं (‘दि कांस्टीटयूशनल प्रॉब्लम इन इण्डिया, भाग2, पृ. 135)। संयुक्त प्रान्त और बिहार के मन्त्रिमण्डलों ने गवर्नरों द्वारा सभी राजनीतिक बन्दियों की तत्काल रिहाई अस्वीकार कर दिये जाने के बाद फरवरी, 1938 में इस्तीफा दे दिया। लेकिन यह वास्तव में एक नौटंकी थी, जो हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के ठीक पहले आम कार्यकर्ताओं को भ्रम में रखने और वामपन्थियों को चुप कराने के लिए रची गयी थी। अधिवेशन के तुरन्त बाद त्यागपत्र वापस ले लिये गये जबकि गवर्नर तत्काल, सार्वजनिक रिहाई के बजाय व्यक्तिगत रिहाई के स्टैण्ड पर अटल थे। कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल वामपन्थी नेतृत्व वाले मजदूर-किसान आन्दोलनों का साम्प्रदायिक दंगों से भी अधिक कड़ाई के साथ दमन कर रहे थे। सितम्बर, 1938 में कांग्रेस कमेटी ने ”जन-धन की रक्षा के लिए” कांग्रेसी सरकारों द्वारा उठाये गये सभी कदमों का समर्थन किया और कांग्रेसियों सहित उन सभी लोगों की निन्दा की जो ”नागरिक स्वाधीनता के नाम पर हत्या, आगजनी, लूटपाट और हिंसक तरीकों से वर्ग संघर्ष की हिमायत करते हैं।” कांग्रेसी शासन के शुरुआती दिनों में मजदूर संगठनों और आन्दोलनों को विशेष बढ़ावा मिला। जनाधार बनाये रखने और कम्युनिस्टों के बढ़ते वर्चस्व का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने कथनी में मजदूरों की माँगों का समर्थन किया। उसने बंगाल में फजलुलहक और पंजाब में सिकन्दर हयात खान की सरकारों द्वारा मजदूरों के दमन की निन्दा की। लेकिन पूँजीपतियों ने जैसे ही अपनी नाराजगी दिखायी और दबाव बनाया, वैसे ही कांग्रेसी सरकारें मजदूर आन्दोलनों को कानून और डण्डे के जोर से काबू करने में जुट गयीं। पूँजीपतियों को प्रसन्न करने और कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले मजदूर आन्दोलनों को कुचलने के लिए कांग्रेस किस हद तक कटिबध्द थी, इसे ‘बॉम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट (नवम्बर, 1938) की कड़ी धाराओं को देखकर समझा जा सकता है, जिसकी गवर्नर लुमले ने भी प्रशंसा की थी। पंजीकरण सम्बन्धी कुछ धाराओं को छोड़कर नेहरू को भी बॉम्बे एक्ट ”कुल मिलाकर… अच्छा ही लगा।”

जहाँ तक किसानों का ताल्लुक है, कांग्रेस सरकारों द्वारा बनाये गये कानून फैजपुर अधिवेशन के मामूली प्रस्तावों को भी लागू नहीं करा सके। संयुक्त प्रान्त और बिहार कांग्रेस कमेटियों के 1936 और 1937 के जमींदारी उन्मूलन सम्बन्धी प्रस्तावों को भुला दिया गया। सितम्बर, 1937 में जमींदारों द्वारा आन्दोलन की धमकी से घबराकर बिहार की कांग्रेस सरकार ने काश्तकारी विधेयक को काफी नरम बना दिया। फिर दिसम्बर, 1937 में मौलाना आजाद और राजेन्द्र प्रसाद ने जमींदारों से एक गुप्त समझौता किया। निश्चित ही, ब्याज की दरों को कम करके किसानों पर कर्ज का बोझ कम करने, लगान में बढ़ोत्तरी पर रोक लगाने, अवध में कानूनी काश्तकारों को पुश्तैनी दखली रैयतों का दर्जा देने, बिहार में मन्दी के जमाने में बकाश्त जमीनों से बेदखल किये गये दखली रैयतों की पुरानी स्थिति एक हद तक बहाल करने और बम्बई में रैयतवारी जोतधारियों के खोटी शिकमी काश्तकारों को कुछ हक देने तथा चराई शुल्क समाप्त करने जैसे सीमित भूमि-सुधार के कुछ कदम कांग्रेसी सरकारों ने उठाये, लेकिन याद रखना होगा कि इनके पीछे उन जुझारू किसान आन्दोलनों का विशेष हाथ था, जिनका नेतृत्व या तो कम्युनिस्टों के हाथ में था या सहजानन्द या अन्य कुछ स्थानीय जुझारू किसान नेताओं के हाथ में। यह भी उल्लेखनीय है कि साम्राज्यवादी इतिहासकार कूपलैण्ड भी स्वीकार करता है कि भूमि-सुधार के इन सीमित कदमों के दौरान जमींदारों के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया गया और इस मायने में कांग्रेस की नीति लगभग रूढ़िवादी थी। वामपन्थ की ओर आकर्षित किसान नेता संन्यासी स्वामी सहजानन्द कांग्रेस के किसान-विरोधी और वर्ग सहयोगवादी नीति के कटुतम आलोचकों में से एक थे।

प्रान्तों में कांग्रेसी शासन के दौर को आर्थिक इतिहासकार क्लाड मार्कोवित्ज ने भारतीय व्यापारी समुदाय और कांग्रेस के बीच ‘स्थायी मैत्री’ स्थापित होने का दौर बताया है। व्यापक जनसमुदाय, विशेषकर किसान आबादी में आधार बनाये रखने और मजदूरों को कम्युनिस्ट नेतृत्व में लामबन्द होने से रोकने के लिए कुछ कल्याणकारी विधि-निर्माण का काम करना ही था और कुछ लोकरंजक राष्ट्रीय नारे देने ही थे। इस विवशता को बिड़ला जैसे कुछ दूरन्देश पूँजीपति समझते थे। वे जानते थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन पर बुर्जुआ वर्चस्व के लिए और कांग्रेस के जनाधार के लिए यह जरूरी है। ऐसी स्थिति में, अपने हितों की रक्षा के लिए वे कई सन्तुलनकारी कदम उठाते रहते थे। संयुक्त प्रान्त के एक बड़े उद्योगपति जे.पी. श्रीवास्तव ने वायसराय वेवेल को बताया था कि 1937 में संयुक्त प्रान्त में कांग्रेसी शासन के दौरान वहाँ के प्रमुख उद्योगपतियों ने (जो सभी हिन्दू थे) कांग्रेस का विरोध करने के लिए हिन्दू महासभा के साथ ही जिन्ना और मुस्लिम लीग को भी धन देने का निश्चय किया था। तमाम संसदीय बुर्जुआ पार्टियों के बीच बुर्जुआ वर्ग यह खेल आज भी खेलता रहता है। यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग एक ओर तो कांग्रेस के जरिये राष्ट्रीय आन्दोलन का दबाव बनाकर और अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों का लाभ उठाकर राजनीतिक सत्ता हासिल करना चाहता था, दूसरी ओर ब्रिटिश पूँजी के साथ ज्यादा से ज्यादा अनुकूल शर्तों पर सहकार-सम्बन्ध के लिए भी प्रयासरत था। फासीवाद और विश्वयुध्द के मँड़राते खतरों के मद्देनजर भारतीय पूँजीपतियों को प्रसन्न करने के लिए ब्रिटेन भी उन्हें तरह-तरह की रियायतें दे रहा था।

इस दौर में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी, ऐतिहासिक चूक यह थी कि प्रान्तों की कांग्रेसी सरकारों की नीतियों और व्यवहार को उसने मुद्दा बनाया ही नहीं। यह पार्टी के दक्षिणपन्थी विचलन का ही नतीजा था कि संयुक्त मोर्चे का मतलब हर हाल में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से एकता बनाये रखना हो गया था। इस स्थिति में, कांग्रेस को साम्राज्यवाद- विरोधी व्यापक जन मंच में तब्दील करने और राष्ट्रीय आन्दोलन पर सर्वहारा वर्चस्व स्थापित करने तथा मजदूर-किसान संश्रय के आधार पर राष्ट्रीय मुक्ति युध्द का नेतृत्व अपने हाथ में ले पाने के बजाय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी स्वतन्त्र पहलकदमी खोकर कांग्रेस की पिछलग्गू बन गयी और उसके बुर्जुआ नेतृत्व द्वारा कुशलतापूर्वक इस्तेमाल की गयी। पी.सी. जोशी के अनुसार उस समय का ”सबसे बड़ा वर्ग-संघर्ष राष्ट्रीय संघर्ष” था और इसके लिए हर हाल में कांग्रेस से एकता बनाये रखना था। जिस समय कांग्रेसी 1935 के कानून के क्रियान्वयन को असम्भव बनाने और सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के चुनाव के लिए दबाव बनाने के अपने पूर्व निर्णय को ताक पर रखकर, बस सरकारें चला रहे थे, मजदूरों का दमन कर रहे थे, किसानों के साथ विश्वासघात कर रहे थे; जब उनका असली चरित्र नंगा होकर सामने आ रहा था और जनसमुदाय से उनका अलगाव बढ़ता जा रहा था, उस समय भी, आगे बढ़कर राष्ट्रीय आजादी, संविधान सभा के सार्विक मताधिकार आधारित चुनाव और आमूलगामी भूमि-सुधार की माँगों पर जनता को लामबन्द करने और पहलकदमी हाथ में लेने के बजाय कम्युनिस्ट पार्टी हर हाल में कांग्रेस के साथ एकता बनाये रखने के लिए चिन्तित थी (जबकि कांग्रेसी कम्युनिस्टों के प्रति ज्यादा से ज्यादा शंका और शत्रुता का रुख अपनाते जा रहे थे)। कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में पूरे वामपक्ष के समर्थन से सुभाष चन्द्र बोस ने अध्‍यक्ष पद के गाँधी समर्थित उम्मीदवार सीतारमैया को हराया था। फिर दक्षिणपन्थी धड़े और गाँधी के एकजुट आक्रमण और नेहरू के अवसरवादी ढुलमुलपन के चलते सुभाष को न केवल इस्तीफा देना पड़ा बल्कि कालान्तर में कांग्रेस से भी बाहर होना पड़ा। सुभाष चन्द्र बोस का इतिहास ऐसा था कि उनको साथ लेकर कम्युनिस्ट भरोसे के साथ कांग्रेस के रूढ़िवादियों से मोर्चा नहीं ले सकते थे। लेकिन त्रिपुरी संकट ने उन्हें कांग्रेस की मजदूर-विरोधी और किसान-विरोधी नीतियों को मुद्दा बनाकर पहलकदमी अपने हाथ में लेने का एक अवसर जरूर दिया था जिसका वे जरा भी लाभ न उठा सके।

1939 में द्वितीय विश्वयुध्द की शुरुआत हुई। 3 सितम्बर 1939 को प्रान्तीय मन्त्रिमण्डलों या किसी भी भारतीय नेता से सलाह लिये बिना वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने फासिस्ट जर्मनी के विरुध्द ब्रिटेन के युध्द में भारत के भी शामिल होने की घोषणा कर दी। कांग्रेस फासीवाद विरोधी युध्द में ब्रिटेन का साथ देने के लिए ये न्यूनतम शर्तें रख रही थी : युध्द पश्चात् सार्विक मताधिकार आधारित संविधान सभा का वायदा और केन्द्र में वास्तविक उत्तरदायी सरकार की स्थापना। वायसराय ने इन न्यूनतम शर्तों को भी सिरे से खारिज कर दिया। ‘डोमिनियन स्टेटस’ के अनिश्चित-अस्पष्ट पेशकश से आगे जाने के लिए उपनिवेशवादी कतई तैयार नहीं थे। ब्रिटिश बुर्जुआ वर्ग के कट्टरपन्थी राजनीतिक प्रतिनिधि युध्दकालीन स्थितियों का लाभ उठाकर भारत में नौकरशाही की निरंकुश सत्ता कायम करना चाहते थे, भारतीय जन और संसाधनों का बलपूर्वक युध्द में इस्तेमाल करना चाहते थे और इस बात के लिए कटिबध्द थे कि यदि भारतीय बुर्जुआ वर्ग की पार्टी कांग्रेस युध्द का लाभ उठाकर राजनीतिक आजादी की माँग के लिए दबाव बनाती है और यदि भारतीय जनता उग्र आन्दोलन का रास्ता पकड़ती है तो उसे कुचल दिया जायेगा। ब्रिटिश बुर्जुआ वर्ग के उदारपन्थी प्रतिनिधियों का आकलन था कि भारतीय स्वाधीनता की माँग को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता, इसलिए उचित यही होगा कि सम्भावित जनक्रान्ति के खतरे को रोकने के लिए भारतीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों को युध्दोत्तर काल में संविधान सभा और प्रतिनिधि सरकार के गठन का आश्वासन दे दिया जाये और फासिस्ट जर्मनी के विरुध्द भारतीय जनता की व्यापक लामबन्दी में कांग्रेस की मदद ली जाये। उनकी मंशा थी कि युध्द के बाद इन शर्तों पर कांग्रेस को सत्ता सौंपी जाये कि भारत में ब्रिटेन के आर्थिक हित (शोषण के अधिकार) अक्षुण्ण बने रहेंगे। वे चाहते थे कि युध्द पश्चात् भी सौदेबाजी में कांग्रेस पर दबाव बनाने के लिए मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग और देसी रजवाड़ों के भारत में शामिल होने या न होने की आजादी को हवा दिया जाये तथा देश के विभाजन के विकल्प को भी, फायदेमन्द हो तो, आजमाया जाये। ज्ञातव्य है कि एमरी और क्रिप्स जैसे लेबर नेता जून, 1939 में ही नेहरू और कृष्णमेनन को उनकी ब्रिटेन यात्रा के दौरान वायदा कर चुके थे कि अगली लेबर सरकार सार्विक वयस्क मताधिकार आधारित संविधान सभा को इस शर्त पर पूर्णरूपेण सत्ता हस्तान्तरित कर देगी कि भारत में ब्रिटिश दायित्वों और हितों की रक्षा की जायेगी। मई, 1940 में ब्रिटेन की मिली-जुली राष्ट्रीय सरकार बनी और घोर अनुदारवादी चर्चिल प्रधानमन्त्री बना। चर्चिल ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए जर्मनी से दृढ़निश्चयी निर्णायक संघर्ष का हामी था, इसलिए पूरी दुनिया के फासीवाद-विरोधी जनवादी लोगों में भी मित्र राष्ट्रों के एक अगुवा नेता के रूप में उसकी प्रतिष्ठा थी, लेकिन उपनिवेशों की स्वाधीनता के प्रश्न पर उसका रुख पूरी तरह से निरंकुश दमनकारी था। फलत: उसके मन्त्रिमण्डल में एटली और क्रिप्स जैसे लेबर नेताओं की मौजूदगी का कोई मतलब नहीं रह गया।

अगस्त, 1940 में लिनलिथगो ने भारतीय बुर्जुआ नेतृत्व को एक प्रस्ताव दिया। इसमें भी अनिश्चित सुदूर भविष्य में ‘डोमिनियन स्टेटस’ और युध्द पश्चात् संविधान बनाने के लिए एक निकाय के गठन (इसमें सार्विक मताधिकार का कोई उल्लेख नहीं था) का वायदा किया गया था। तुष्टीकरण के लिए वायसराय की कार्यकारिणी का इस प्रकार विस्तार किया गया कि अब उसमें भारतीयों का बहुमत था (हालाँकि ये भारतीय घोर राजभक्त थे और इस कार्यकारिणी के अधिकार भी अतिसीमित थे)। एक राष्ट्रीय प्रतिरक्षा परिषद भी बनायी गयी, जिसका काम बस सलाह देना था।

मुस्लिम लीग के दावों को बढ़ावा देना युध्दकालीन साम्राज्यवादी रणनीति का एक अंग था। यह ‘बाँटो और राज करो’ की उसी पुरानी औपनिवेशिक नीति की निरन्तरता थी, जो ब्रिटिश शासकों ने बीसवीं शताब्दी के शुरू से ही (विशेषकर मार्ले-मिण्टो रिफॉर्म के समय से) लगातार लागू की थी और साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दुओं-मुसलमानों को बाँटकर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को कमजोर करने की हर सम्भव कोशिशें की थी। साम्प्रदायिकता की परिघटना का विश्लेषण और इतिहास-चर्चा यहाँ सम्भव नहीं। यह विषयान्तर होगा। यहाँ बस हम इतना उल्लेख कर सकते हैं कि साम्प्रदायिकता आधुनिक इतिहास (पूँजीवाद के युग की) की परिघटना है और इसका विकास राष्ट्रवाद की परिघटना के साथ-साथ हुआ है। भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के जटिल सामाजिक-आर्थिक कारण उपनिवेशीकरण के दौर में मौजूद रहे हैं। प्रारम्भिक जुझारू राष्ट्रवाद के अन्दर मौजूद धार्मिक पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति भी आगे चलकर नरमपन्थी साम्प्रदायिक राजनीति के उद्भव में सहायक बनी और फिर नरमपन्थी साम्प्रदायिक राजनीति की एक तार्किक परिणति इनायतुल्ला खान मशरिकी के खाकसार, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे फासिस्ट प्रकृति के साम्प्रदायिक संगठनों के रूप में सामने आयी। ऐसे कट्टरपन्थी साम्प्रदायिक संगठनों ने तनाव व दंगे उकसाकर साम्प्रदायिक अलगाव बढ़ाकर औपनिवेशिक सत्ता की काफी मदद की। साथ ही, यह एक सच्चाई है कि कांग्रेस के बहुतेरे नेता भी नरमपन्थी साम्प्रदायिक मानसिकता के थे। इस चीज का, कांग्रेस के ग्रामीण लोकवाद की राजनीति का (जिसे शहरी साक्षर मुसलमान हिन्दुत्व और हिन्दू की राजनीति से जोड़ते थे), और हिन्दू-मुस्लिम एकता का जेनुइन पैरोकार होने के बावजूद, अपने सामाजिक आदर्शों को हिन्दू धर्म के मिथकों में प्रस्तुत करने तथा हिन्दू धर्म का आदर्शीकरण करने की गाँधी की लोकरंजकतावादी प्रवृत्ति का मुस्लिम साम्प्रदायिक नेताओं ने भरपूर इस्तेमाल किया और चौथे दशक के अन्त तक मुस्लिम लीग मुसलमानों के एक बड़े हिस्से को विश्वास दिलाने में सफल रही कि कांग्रेस मूलत: हिन्दुओं की पार्टी है। 1937 में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बनने की प्रक्रिया में और उसके बाद सत्ता की राजनीति का जो बुर्जुआ खेल शुरू हुआ, उसमें कांग्रेस ने भी वह जमीन तैयार की, जो मुस्लिम लीग की अलगाववादी राजनीति के लिए अनुकूल थी। यह भी इतिहास का तथ्य है कि किस प्रकार एक बुर्जुआ पार्टी (कांग्रेस) में शीर्ष पर पहुँचने और भविष्य में सत्ता सम्हालने की महत्तवाकांक्षा विफल होने के बाद, एक राष्ट्रवादी मुसलमान नेता (जिन्ना) ने धार्मिक अस्मिता की राजनीति का सहारा लिया और कालान्तर में अलगाववादी साम्प्रदायिक राजनीति का सूत्रधार बन गया। बहरहाल, इन परिस्थितियों का ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भरपूर लाभ उठाया। 1937 में संयुक्त प्रान्त में मिली-जुली सरकार बनाने के मुस्लिम लीग के प्रस्ताव को कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया था। लीग का आधार उस समय अभिजात मुसलमानों में था और वह भूमि-सुधारों के कांग्रेसी प्रस्तावों का विरोध करती थी। अत: कांग्रेस की सोच यह थी कि लीग को साथ लेने के बजाय व्यापक जनसम्पर्क आन्दोलन चलाकर आम मुसलमानों के बीच जनाधार बनाया जाये। यह सोच तो अमल में नहीं आयी (कांग्रेसी तो राजकाज चलाने में ही उलझे रहे), लेकिन मुस्लिम लीग ने आम मुसलमानों के बीच एक लोकप्रिय छवि बनाने की जी तोड़ कोशिश की और इसमें सफल भी रही। उसने पूर्ण स्वाधीनता के सिध्दान्त को स्वीकार किया, बड़े पैमाने पर आम सदस्यों की भर्ती की तथा पंजाब के मुख्यमन्त्री और यूनियनिस्ट नेता सिकन्दर हयात खान और बंगाल के मुख्यमन्त्री और कृषक प्रजा पार्टी के नेता फजलुल हक को भी साथ लेने में सफल रही। लेकिन लीग की राजनीति की तरक्की का सर्वप्रमुख कारण था किसी प्रकार के जुझारू कार्यक्रम लागू कर पाने में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों की विफलता।

23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन ने पाकिस्तान के नारे को अन्तिम रूप देते हुए जो प्रसिद्ध प्रस्ताव पारित किया, उसके पीछे अंग्रेजों के प्रोत्साहन की विशेष भूमिका थी, तत्कालीन भारत सचिव जेटलैण्ड और वायसराय लिनलिथगो के दस्तावेज इसके स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। यह प्रस्ताव दरअसल काफी अस्पष्ट था। विभाजन की इसमें कहीं स्पष्ट चर्चा नहीं थी और मुख्यत: इसका अर्थ निकलता था : एक ढीले-ढाले संघ के अन्तर्गत पूर्ण स्वायत्तता। जिन्ना के लिए पाकिस्तान का नारा एक सौदेबाजी का साधन था, जिसके द्वारा वे कांग्रेस को सम्भवत: मिलने वाली संवैधानिक रियायतों की राह में रोड़ा अटका सकते थे और मुसलमानों के नेता के रूप में सत्ता में अपने हिस्से का दावा पेश कर सकते थे। अंग्रेजों के लिए यह नारा इसलिए उपयोगी था कि इसके माध्‍यम से वे संवैधानिक गतिरोध बनाये रख सकते थे और कांग्रेस के दबावों का मुकाबला कर सकते थे।

विडम्बना यह थी कि स्वयं कांग्रेस का नेतृत्व औपनिवेशिक सत्ता पर किसी प्रकार का जनान्दोलनात्मक दबाव बना पाने की स्थिति और मन:स्थिति में नहीं था। गाँधी और नेतृत्व पर हावी दक्षिणपन्थी धड़ा जनता और कतारों को लगातार संयम का उपदेश देता रहा और कोशिश करता रहा कि अंग्रेजों से किसी किस्म का समझौता हो जाये। लेकिन सरकार के अड़ियलपन और जनता, कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और वामपन्थी धड़े के भारी दबाव के कारण रामगढ़ कांग्रेस (मार्च, 1940) में ‘संगठन के इस योग्य होते ही’ सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ने की बात कही गयी तथा इसका समय और स्वरूप तय करने की जिम्मेदारी गाँधी पर छोड़ दी गयी। अक्टूबर से आन्दोलन शुरू भी हुआ, लेकिन यह बेहद प्रभावहीन और सीमित था, इतना कि सरकार को कोई कड़ी दमनमूलक कार्रवाई भी नहीं करनी पड़ी। इसका कारण क्या था? – इसे जानने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग की स्थिति और अवस्थिति को समझना होगा। प्रथमदृष्टया, स्वाभाविक बात तो यह लगती है कि जब अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पध्र्दा युध्द के रूप में फूट पड़ी हो तो इसका लाभ उठाकर भारतीय पूँजीपति वर्ग राजनीतिक स्वाधीनता की कोशिश करे। पर भारतीय पूँजीपति वर्ग औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की चाहत से भी अधिक इस बात से डरता था कि किसी व्यापक जनसंघर्ष में जनता की पहलकदमी और उग्र परिवर्तनकामी जनाकांक्षाओं का ज्वार कहीं उसके पकड़ से बाहर न चला जाये और किसी आमूलगामी जनक्रान्ति का सबब न बन जाये। इसलिए जनता में जब किसी उग्र उभार की स्थिति होती थी तो कांग्रेसी नेतृत्व भरसक आन्दोलन को नरम बनाने या टालने की कोशिश करता रहता था। भारतीय पूँजीपति वर्ग किसी व्यापक जनान्दोलन के बजाय युध्द से ज्यादा से ज्यादा आर्थिक लाभ उठाने और अपनी औद्योगिक-वित्तीय पूँजी की ताकत बढ़ाने के बारे में व्यग्र था। पहले महायुध्द का अनुभव उसके सामने था और उसका सोचना सही भी था। युध्दकालीन माँग के कारण भारतीय औद्योगिक विकास को बड़ा बल मिला, क्योंकि आयात बन्द हो गये थे। अंग्रेज चाहकर भी भारतीय उद्योगपतियों के शक्ति-संवर्धान की इस प्रक्रिया को रोक नहीं सकते थे। भारतीय व्यापारी और दुकानदार युध्द की स्थिति में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा लेना चाहते थे, खासकर ऐसी स्थिति में जबकि युध्द देश की भूमि से काफी दूर लड़ा जा रहा था। खलीकुज्जमा (लीगी नेता) के अनुसार, मुस्लिम जमींदार और ताल्लुकेदार लकड़ी, कोयला आदि के ठेके पाने के लिए, अंग्रेजों से ज्यादा से ज्यादा सहयोग के लिए लीग पर दबाव डाल रहे थे। निश्चय ही, कांग्रेस भी ऐसे दबावों से अछूती नहीं रही होगी।

कम्युनिस्ट पार्टी के सामने एक बार फिर यह अवसर था कि वह कांग्रेस के बुर्जुआ नेतृत्व की इस कमजोरी का लाभ उठाती और साम्राज्यवादी युध्द में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के उलझाव की अनुकूल स्थिति में राजनीतिक आजादी और संविधान सभा की माँग को केन्द्रीय नारा बनाकर देशव्यापी संघर्ष छेड़ देती। लेकिन पार्टी नेतृत्व अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक-सांगठनिक कमजोरियों के शुरू से जारी सिलसिले और विशेषकर पी.सी. जोशी के नेतृत्व काल के दक्षिणपन्थी भटकाव के चलते निर्णायक हो पाने की स्थिति में ही नहीं थी। नतीजतन, वामपन्थी नेतृत्व छिटफुट और स्थानीय संघर्षों से ऊपर उठकर ब्रिटिश शासन के लिए कोई देशव्यापी चुनौती नहीं प्रस्तुत कर सका।

1941 के उतार में रूस पर हिटलर के हमले के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवाद विरोधी ‘जनयुध्द’ को पूर्ण समर्थन देने की लाइन ली। हालाँकि उसने स्वतन्त्रता और तत्काल राष्ट्रीय सरकार के गठन की माँग को दुहराया, लेकिन इन माँगों पर कोई देशव्यापी आन्दोलन खड़ा करना उसके एजेण्डे पर नहीं था, क्योंकि वह सोवियत संघ के साथ फासीवाद-विरोधी युध्द में खड़े ब्रिटेन के विरुध्द निर्णायक संघर्ष करके फासीवाद-विरोधी विश्वव्यापी मोर्चे की कमजोर नहीं करना चाहती थी। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी की यह सोच गलत थी। विश्व स्तर के समीकरणों में सोवियत संघ के साथ धुरी शक्तियों के विरुध्द मोर्चा बनाना ब्रिटेन और सभी पश्चिमी साम्राज्यवादियों की मजबूरी थी। आज यह स्थापित सत्य है कि ब्रिटेन और उसके साम्राज्यवादी मित्रों की सोच यह थी कि समाजवाद के सोवियत दुर्ग को फासिज्म की ऑंधी ढहा देगी और इस प्रक्रिया में फासिस्ट ताकतें जब कमजोर पड़ जायेंगी तो वे उनसे निपट लेंगे। हिटलर की 200 डिवीजनों से अकेले सोवियन संघ जूझ रहा था (मात्र 54 डिवीजनें यूरोप में तैनात थीं), लेकिन बार-बार कहने के बावजूद यूरोप में मोर्चा खोलने में काफी देर की गयी। ऐसी स्थिति में भारतीय कम्युनिस्ट यदि भारत में राष्ट्रव्यापी संघर्ष का दबाव बनाते तो अंग्रेजों से राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए और संविधान सभा के लिए आश्वासन लेने और राष्ट्रीय आन्दोलन के कांग्रेसी नेतृत्व के सामने प्रभावी चुनौती प्रस्तुत करने के साथ ही ब्रिटेन पर पश्चिम में भी युध्द का मोर्चा खोलने का दबाव बना सकते थे। सोवियत संघ की इस तरह से वास्तविक मदद की जा सकती थी। वैसे भी, फासीवाद-विरोधी जनयुध्द को भारतीय कम्युनिस्टों के समर्थन से सोवियत संघ या जनयुध्द को कोई वास्तविक मदद नहीं मिली। इस दौरान भारतीय कम्युनिस्टों की एक और गम्भीर गलती अगस्त-सितम्बर 1942 में गंगाधर अधिकारी द्वारा प्रस्तुत यह विचित्र प्रस्थापना थी कि बहुराष्ट्रीय भारत में सिन्धी, बलूची, पंजाबी (मुसलमान) और पठान आदि मुस्लिम राष्ट्रीयताएँ हैं और इस रूप में इन्हें आत्मनिर्णय का अधिकार है। प्रकारान्तर से यह मुस्लिम लीग के अलगाववादी नारों का समर्थन था और इसका लाभ उपनिवेशवादियों को भी मिलना ही था। इन दो गम्भीर गलतियों ने भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को गम्भीर धक्का पहुँचाया और ग्रास रूट स्तर पर मजदूरों-किसानों के जुझारू संघर्षों और उनमें अपनी गहरी साख के बावजूद राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के हाथों से छीनने के मामले में कम्युनिस्ट काफी पीछे छूट गये तथा पार्श्वभूमि में धकेल दिये गये।

जनवरी, 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी ‘जनयुध्द’ के समर्थन का आह्वान कर रही थी, उस समय कांग्रेस के विभिन्न धड़े, गाँधी और बोस के अनुयायी अलग-अलग तरीके से सोच रहे थे। कुछ ऐसा सोच रहे थे कि इस समय ब्रिटेन हार रहा है और यह राजनीतिक स्वाधीनता के लिए दबाव बनाने का सुनहरा अवसर है। कुछ सोच रहे थे कि ब्रिटेन पर समझौते के लिए दबाव बनाने से आगे नहीं बढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि इससे जनक्रान्ति का और कमान कांग्रेस के हाथों से निकल जाने का खतरा होगा। नेहरू चाहते थे कि (क्रिप्स मिशन के दौरान) कोई न कोई समझौता हो जाये और फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे में भारत शामिल हो जाये। एम.एन. राय और उनके अनुयायी विश्वयुध्द को फासीवाद-विरोधी युध्द मानकर इस नतीजे पर पहुँचे थे कि बिना शर्त ब्रिटेन का साथ दिया जाना चाहिए। 1940 के सत्याग्रह के बाद नजरबन्द सुभाष बोस अफगानिस्तान से रूस होते हुए जर्मनी पहुँच चुके थे। प्रथम विश्वयुध्द के आतंकवादी क्रान्तिकारियों की भाँति उनकी रणनीति आन्तरिक ताकतों पर निर्भरता के बजाय ब्रिटेन के शत्रुओं से मदद लेकर सैन्य बल से स्वाधीनता हासिल करने की थी। आगे चलकर जर्मनी के बजाय जापान से मदद लेना, भारतीय युध्दबन्दियों और प्रवासियों को लेकर आजाद हिन्द फौज बनाना, बर्मा के रास्ते पूर्वोत्तर भारत में प्रवेश करना और फिर जापान के पीछे हटने और पराजय के साथ ही इस प्रयास की विफलता – यह आगे की सर्वज्ञात कथा है। यह सुभाष बोस की मध्‍यवर्गीय अराजकतावादी वामपन्थी राष्ट्रभक्ति का नाटकीय चरमोत्कर्ष और तार्किक परिणति थी। कांग्रेस के बाहर की बात करें। लीग इस पूरे दौर में अपने अलगाववादी एजेण्डे पर काम करती हुई ब्रिटिश सत्ता के साथ खड़ी रही, फासीवाद-विरोधी किसी सैध्दान्तिक स्टैण्ड के चलते नहीं बल्कि कांग्रेस को पछाड़कर उपनिवेशवादियों की मदद से अपना हित साधने के लिए। पाकिस्तान के नारे के इर्दगिर्द एक लोकवादी, लफ्फाजीभरी साम्प्रदायिकता विकसित हुई जो स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य को हर मर्ज की दवा बताते थे। डॉ. अम्बेडकर (1942 से 1946 तक) श्रम विभाग में गवर्नर जनरल के प्रशासक थे। उनका मुख्य एजेण्डा था कांग्रेस के नेतृत्व में मिलने वाली स्वाधीनता का विरोध करना। वे मानते थे कि ऐसी स्वाधीनता दलितों के लिए सवर्णों की गुलामी होगी, अत: ब्रिटिश सत्ता के रहते ही पहले दलितों की समस्या हल होनी चाहिए। राजनीतिक तौर पर केन्द्रीय और प्रान्तीय विधनमण्डलों में दलितों के लिए आरक्षण से आगे उनका एजेण्डा नहीं जाता था। यह भी उल्लेखनीय है कि 1940 में उन्होंने पाकिस्तान की माँग का समर्थन भी किया था। गोलवलकर के नेतृत्व वाली आर.एस.एस. और सावरकर की हिन्दू महासभा – दोनों ही किसी जनान्दोलन के विरोधी थे और आगे चलकर अगस्त 1942 के जन-विद्रोह का विस्फोट हुआ तो ये दोनों हिन्दू कट्टरपन्थी फासिस्ट संगठन उससे पूरी तरह से अलग रहे।

दक्षिणी-पूर्वी एशिया में जापान के सैन्य अभियान की नाटकीय सफलता के बाद और भारतीय नेताओं से बातचीत के लिए अमेरिकी रूजवेल्ट के दबाव के बाद चर्चिल को भी अहसास हुआ कि भारतीय जनमत को साथ लेने के लिए कुछ आश्वासनों और कुछ सद्भावना-प्रदर्शन की जरूरत है। युध्दकालीन मन्त्रिमण्डल में शामिल एटली और क्रिप्स जैसे लेबर नेता भी कांग्रेसी नेताओं एवं अन्य पक्षों से वार्ता के लिए दबाव बना रहे थे। इनके परिणामस्वरूप क्रिप्स के नेतृत्व में एक मिशन भारत आया, लेकिन अपने साथ घोषणापत्र का जो मसौदा वे लाये थे, वह नितान्त निराशाजनक था। उसपर, चर्चिल, सेनाध्‍यक्ष वेवेल और वायसराय लिनलिथगो जैसे अनुदारवादियों का स्पष्ट दबाव था। क्रिप्स ने आते ही घोषणा की कि ”जितनी जल्दी हो सके, भारत में स्वशासन की स्थापना” ब्रिटिश नीति का उद्देश्य है। लेकिन उनके घोषणापत्र के मसौदे में युध्द समाप्ति के बाद भारत को डोमीनियन स्टेटस (स्वतन्त्र उपनिवेश) का दर्जा देने की बात थी, उसकी स्वाधीनता की नहीं। सार्विक वयस्क मताधिकार के बजाय प्रान्तीय विधायिकाओं द्वारा निर्वाचित संविधान सभा की बात की गयी थी, जिसमें रियासतों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उनके शासकों द्वारा नामांकित प्रतिनिधियों के लिए कुछ सीटें रखी जानी थीं। पाकिस्तान की माँग के लिए (और कुछ रियासतों के अलग अस्तित्व बनाये रखने के लिए भी) यह गुंजाइश बनायी गयी थी कि यदि किसी प्रान्त को नया संविधान स्वीकार नहीं होता तो वह अपने भविष्य के लिए ब्रिटेन से अलग समझौता कर सकेगा। जाहिर है कि इन प्रावधानों पर कांग्रेसी नेतृत्व को कड़ी आपत्ति थी। नतीजतन क्रिप्स मिशन विफल हो गया और अप्रैल में क्रिप्स वापस ब्रिटेन लौट गये।

जिस समय क्रिप्स मिशन विफल हुआ, उस समय युध्द में मित्र राष्ट्रों की पराजय का खतरा अधिक था। युध्द में पाँसा पलटा। 1942 के मध्‍य में स्तालिनग्राद में जर्मन सेना की पाँव उखड़ने के बाद। 1942 की गर्मियों में भारतीय बुर्जुआ वर्ग की कुशलतम राजनीतिक प्रतिनिधि और रणनीति-निर्माता गाँधी समझ चुके थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर जनान्दोलन का दबाव बनाकर अधिकतम सम्भव हासिल करने का अनुकूलतम समय आ चुका है। जुलाई 1942 में कांग्रेस कार्यसमिति की वधर् बैठक ने संघर्ष के निर्णय की स्वीकृति दी। अगस्त में बम्बई में कांग्रेस के खुले अधिवेशन में गाँधी ने ‘करो या मरो’ और ‘भारत छोड़ो’ का नारा देते हुए स्पष्ट कहा कि स्वाधीनता से कम उन्हें कोई भी चीज – कोई भी रियायत स्वीकार्य नहीं। पहली बार गाँधी राजनीतिक हड़ताल के लिए तैयार थे। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने निर्णायक, उग्र तेवर वाले संघर्ष का निर्णय तब लिया, जब कम्युनिस्टों का अलग रहना तय था और कांग्रेस को विश्वास था कि जनाक्रोश को वह अपने नियन्त्रण से बाहर नहीं जाने देगी। निश्चय ही, भारत छोड़ो आन्दोलन एक देशव्यापी जन-उभार था। यह साम्राज्यवाद विरोधी जनभावना की प्रचण्डतम अभिव्यक्ति थी। चोटी के कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद भी जनसंघर्ष स्वत:स्फूर्त ढंग से जारी रहा और देश के कई अंचलों में महीनों तक आजाद सरकारें काम करती रहीं।

1942 के अन्त तक युध्दकालीन परिस्थितियों का लाभ उठाकर ब्रिटिश सत्ता ने जन-उभार को तो निर्ममतापूर्वक कुचल दिया लेकिन अंग्रेज यह समझ चुके थे कि भारत पर औपनिवेशिक सत्ता को कायम नहीं रखा जा सकता। विश्व परिस्थितियाँ भी अब इसके प्रतिकूल थीं और युध्द ने ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति भी जर्जर बना दी थी। वेवेल 1943 में भारत का वायसराय बना। अक्टूबर 1944 में चर्चिल को लिखे अपने पत्र में अनुदारवादी होते हुए भी, उसने स्पष्ट लिखा था कि युध्द के पश्चात् अंग्रेजों के लिए भारत पर बलपूर्वक अधिकार जमाये रखना सम्भव नहीं होगा। उसके शब्दों में, ”हमें पहले भी ऐसे ही विद्रोहियों से सन्धिवार्ता करनी पड़ी थी जैसे कि डिवैलेराँ और जगलुल के साथ। वस्तुत: युध्द समाप्त होने के पहले ही सन्धिवार्ता करना बुध्दिमानी होगी – इसके पहले कि युध्द की समाप्ति पर बन्दियों की रिहाई हो और सैनिकों की सेवा-समाप्ति तथा बेरोजगारी के कारण अशान्ति फैले और आन्दोलन के लिए उपयुक्त भूमि तैयार हो। यह तभी हो सकता है जब हम उनकी (कांग्रेस की) ऊर्जा को पहले ही किसी अन्य लाभप्रद दिशा में मोड़ दें, अर्थात् उन्हें भारत की प्रशासनिक एवं संवैधानिक समस्याओं के समाधान ढूँढ़ने में लगा दें।” (वेवेल : दि वायसराय जर्नल, पृ. 97-98)। अड़ियल चर्चिल ने वेवेल के सुझाव पर कान नहीं दिया, लेकिन 1945 में लेबर पार्टी जब सत्ता में आयी तो उसने इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाया और कांग्रेसी नेताओं को इसके लिए सहमत करने में वह सफल भी रही।

1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से मिले संकेतों और विश्व परिस्थितियों को देखते हुए अंग्रेज अब कांग्रेस को सत्ता हस्तान्तरित करने के लिए सोचने लगे थे। यह समय इसके लिए सर्वाधिक अनुकूल था, क्योंकि जनता की नजरों में कांग्रेस को एक नयी प्रतिष्ठा हासिल हो चुकी थी, कम्युनिस्ट और अन्य वामपन्थी ताकतें पीछे धकेल दी गयी थीं और बिखराव का शिकार थीं। पूँजीपति वर्ग की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस नेहरू के तमाम ”समाजवादी” तेवरों के बावजूद, भारत में ब्रिटिश हितों की हिफाजत के लिए तैयार थी, क्योंकि भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद कर ही नहीं सकता था। ज्यादा से ज्यादा वह मोल-तोल कर सकता था। उपनिवेशवादी चाहते थे कि कांग्रेस को अपनी शर्तों पर झुकाने के लिए मुस्लिम लीग का इस्तेमाल किया जाये और या तो मुस्लिम बहुल प्रान्तों की अधिकतम स्वायत्तता वाले एक ढीले-ढाले संघ के रूप में स्वाधीन भारत अस्तित्व में आये, या फिर देश का विभाजन हो जाये। उपनिवेशवादी जानते थे कि उत्तर औपनिवेशिक दौर में भी साम्प्रदायिक अन्तरविरोधों का प्रभावी इस्तेमाल अपने हित-साधन के लिए किया जा सकता है। वे यह भी जानते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी की तमाम कमजोरियों के बावजूद, उनके फिर से ताकतवर हो उठने का और किसी सम्भावित जनक्रान्ति का भय भारतीय पूँजीपति वर्ग को और कांग्रेसी नेतृत्व को लगातार सताता रहता है। इसलिए समझौते के द्वारा सत्ता प्राप्ति की उन्हें भी काफी उतावली है।

इन्ही परिस्थितियों में युध्दोत्तर काल का घटनाक्रम आगे विकसित हुआ।

(अगले अंक में : 1945 से समझौतों-सोदेबाजियों का जारी सिलसिला, साम्राज्यवाद-विरोधी जनसंघर्षों का नया ज्वार, कैबिनेट मिशन और संविधान सभा का गठन)

बिगुल, मार्च-अप्रैल 2010


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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