फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (पाँचवीं किश्त)
अभिनव
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भारतीय समाज में फ़ासीवाद की ज़मीन और उसके सामाजिक अवलम्ब
जर्मनी में फ़ासीवाद के लिए उपजाऊ ज़मीन की चर्चा करते हुए हमने बताया था कि किसी पूँजीवादी क्रान्ति, किसी क्रान्तिकारी भूमि सुधार और एक क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग की अनुपस्थिति; दो दशकों के भीतर अचानक तेज़ी से हुए अभूतपूर्व पूँजीवादी विकास और औद्योगिकीकरण के कारण बड़े पैमाने पर मज़दूरों का उजड़ना, बेरोज़गारी का बढ़ना, ग़रीबी का बढ़ना, असुरक्षा का बढ़ना, निम्न-पूँजीपति वर्ग का उजड़ना; किसी क्रान्तिकारी विकल्प के मौजूद न होने और सामाजिक जनवादियों द्वारा मज़दूर आन्दोलन को सुधारवाद की गलियों में भटकाते रहना और इसके कारण समाज में प्रतिक्रिया का आधार पैदा होना; बड़े पूँजीपति वर्ग का संकट की स्थिति में किसी नग्न बुर्जुआ तानाशाही की ज़रूरत और इसके कारण नात्सी पार्टी का समर्थन करना; समाज में जनवादी मूल्यों और संस्कृति का अभाव; क्रान्तिकारी भूमि सुधार न होने के कारण बड़े भूस्वामियों (युंकरों) के एक धुर प्रतिक्रियावादी वर्ग की मौजूदगी; एक प्रतिक्रियावादी मँझोले किसान वर्ग की मौजूदगी आदि ही वे कारण थे जिन्होंने जर्मनी में नात्सी पार्टी को सत्ता में पहुँचाया। इटली में औद्योगिक विकास जर्मनी के मुकाबले काफी कम था। उत्तरी इटली में कुछ औद्योगिक विकास हुआ था और वहाँ भी यह विकास बेहद द्रुत गति से हुआ था जिसने समाज में मज़दूर और निम्न-पूँजीपति वर्ग को उजाड़ने के कारण समाज में एक आम असुरक्षा का माहौल पैदा किया था। दूसरी ओर दक्षिणी इटली था जहाँ पर बड़े ज़मींदारों की बड़ी-बड़ी जागीरें थीं, जिन्हें लातीफुंदिया कहा जाता था। ये ज़मींदार भयंकर प्रतिक्रियावादी थे और इन्होंने शुरुआत में फ़ासीवादियों से अन्तरविरोध के बावजूद बाद में उनका पूरा साथ दिया। इटली में कम्युनिस्टों ने एक शानदार आन्दोलन चलाया और समाजवादी क्रान्ति के निकट तक पहुँचे। लेकिन अपरिपक्व सशस्त्र विद्रोह के कारण वह सफल नहीं हो पाया। तमाम शहरों में मज़दूरों की परिषदें खड़ी हुईं लेकिन उन्हें कुचल दिया गया। दूसरे इण्टरनेशनल में एक बार लेनिन ने इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि मण्डल से काफी क्षुब्ध होकर कहा था कि ”क्रान्ति को पैदा करना होता है, यह उस तरह नहीं आती जैसे आप लोग उसे लाना चाहते हैं।” लेनिन का इशारा इसी अपरिपक्वता की तरफ था जिसके कारण इटली में आसन्न क्रान्ति को कम्युनिस्ट अंजाम नहीं दे सके। दूसरी तरफ इटली में समाजवादियों ने मज़दूर आन्दोलन के साथ वही किया जो जर्मनी में सामाजिक जनवादियों ने मज़दूर आन्दोलन के साथ किया था – ट्रेड यूनियनवाद, अर्थवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद और सुधारवाद।
भारत में वे दोनों ही ज़मीनें मौजूद थीं जिन्होंने जर्मनी और इटली में फ़ासीवादी उभार को जन्म दिया। यहाँ पर जर्मनी जैसा औद्योगिक विकास है और दक्षिणी इटली जितना पिछड़ा कोई इलाका तो नहीं है मगर प्रशियाई मार्ग से हुए क्रमिक भूमि सुधारों के कारण युंकरों जैसा एक भूस्वामी वर्ग मौजूद है। इसके अलावा भारत में एक नया धनी किसान वर्ग भी है जो हरित क्रान्ति के बाद पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, और कई अन्य प्रान्तों में पैदा हुआ है। यह धनी किसान वर्ग व्यवस्था समर्थक है और इसकी व्यवस्था से रार सिर्फ इस बात पर होती है कि वह कृषि उत्पादों का अधिक मूल्य पाना चाहता है। अपनी इस माँग पर वह मँझोले और ग़रीब किसान को भी अपने साथ लेने में अक्सर सफल हो जाता है। चरण सिंह के दौर तक यह धनी किसान और युंकर वर्ग चरण सिंह के साथ रहा। लेकिन चरण सिंह के दौर के बाद यह या तो क्षेत्रीय पार्टियों जैसे तेलुगूदेशम, समाजवादी पार्टी, आदि का आधार बना और या फिर भाजपाई फ़ासीवाद का। यह भी ग़ौरतलब है कि ये सभी किसानी क्षेत्रीय पार्टियाँ कई मौकों पर फ़ासीवाद का ही साथ देती हैं। दरअसल जर्मनी और इटली में भी यही हुआ था। ऐसे सभी दलों ने फ़ासीवादी पार्टी या नात्सी पार्टी का साथ दिया था। युंकरों, धनी किसानों और मँझोले और यहाँ तक कि ग़रीब किसानों तक का एक हिस्सा फ़ासीवाद का समर्थक बनता है। इसके दो प्रमुख कारण समझ में आते हैं, हालाँकि अलग-अलग क्षेत्रों में और कारण भी हो सकते हैं। पहला कारण है किसान वर्ग की पीछे देखने की अन्तर्निहित प्रवृत्ति। किसान वर्ग का कोई प्रगतिशील या भविष्योन्मुखी ‘यूटोपिया’ या स्वप्न नहीं होता। पूँजीवादी विकास के साथ किसानों का एक बड़ा हिस्सा उजड़ता है। ऐसे में वह स्वत:स्फूर्त तरीके से पूँजीवादी समाज के भीतर अपने सर्वहाराकृत हो जाने की नियति को नहीं समझता। अपने से तो वह ज़मीन के बचे-खुचे टुकड़े से चिपके रहना ही चाहता है (जो वास्तव में उसे कुछ नहीं देता)। वह अतीत के उन दिनों के बारे में बहुत लगाव के साथ सोचता है जब जीवन में पूँजीवादी गलाकाटू प्रतिस्पर्धा नहीं थी और वह अपने खेत पर चैन से गुज़र करता था (फिर से,ऐसा अतीत कभी था नहीं, यह उसकी रूमानी कल्पनाओं में ही होता है)। जब भी कोई पुनरुत्थानवादी ताकत अतीत की ओर पश्चगमन के नारे देती है, स्वदेशी का राग अलापती है और इस सारी लफ्फाज़ी को धर्म की चाशनी में लपेटती है तो वह बरबादी की कगार पर खड़े किसानों समेत मँझोले और धनी किसानों को बहुत रुचता है। दूसरा कारण होता किसानी जीवन का सांस्कृतिक पिछड़ापन। फ़ासीवादी ताकतें किसानों के जीवन और संस्कृति में जनवादी मूल्यों की कमी, पिछड़ेपन और निरंकुशता का पूरा लाभ उठाती हैं और उन्हें सहयोजित करती हैं, यानी अपना लेती हैं। फ़ासीवाद एक आधुनिक विचारधारा है जो पुरातनपन्थी और आधुनिकता-विरोधी, जनवाद और समानता विरोधी विचारों का अवसरवादी इस्तेमाल करते हुए एक आधुनिक किस्म की राजसत्ता की स्थापना करता है और सबसे नग्न किस्म की तानाशाही को लागू करके पूँजीवादी हितों की रक्षा करता है। किसानों के इन विभिन्न संस्तरों को, जो फ़ासीवाद का सम्भावित सामाजिक आधार हो सकते हैं, आप ग्रामीण निम्न-पूँजीपति वर्ग के रूप में गिन सकते हैं। यह वर्ग 1980 के दशक के मध्य से भाजपा का समर्थक बनने लगा था। उस समय तक चरण सिंह की राजनीति हाशिये पर जा चुकी थी और धनी किसान हितों को बुर्जुआ जनवादी प्रफ़ेमवर्क के भीतर पेश करने वाली कोई प्रभावी ताकत राष्ट्रीय पैमाने पर मौजूद नहीं थी। भाजपा ने इसी ख़ालीपन का लाभ उठाते हुए धनी किसान लॉबी को अपने साथ लेना शुरू किया और किसानों के सभी संस्तरों के बीच अपना फ़ासीवादी प्रचार शुरू किया।
ग्रामीण निम्न-पूँजीपति वर्ग के अतिरिक्त शहरों का निम्न-पूँजीपति वर्ग भी फ़ासीवाद का ज़बर्दस्त समर्थक होता है। बल्कि यों कहें की फ़ासीवाद का सबसे ताकतवर और परम्परागत सामाजिक आधार यही वर्ग मुहैया कराता है। इस वर्ग में छोटे पूँजीपति, दुकानदार, दलाल, एजेण्ट, निम्न माल उत्पादन करने वाले छोटे उत्पादक, सरकारी वेतनभोगी वर्ग, कर्मचारी वर्ग और सफेद कॉलर वाले वे मज़दूर होते हैं जिन्हें मज़दूर अभिजात्य वर्ग कहा जा सकता है। 1980 के दशक के पहले यह पूरा वर्ग कांग्रेस का परम्परागत समर्थक रहा था। उस समय तक सार्वजनिक क्षेत्र के पूँजीवाद का ज़माना था। नेहरू के ज़माने की परछाइयाँ अभी पूरी तरह से धूमिल नहीं हुई थीं। आज़ादी के बाद समृद्धि, प्रगति और विकास के जो सपने सार्वजनिक क्षेत्र, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, और ”समाजवाद” और कल्याणकारी राज्य के नारे के साथ दिखलाये गये थे, वे टूटने शुरू हो चुके थे लेकिन अभी ग़ायब नहीं हुए थे। 1980 के दशक के मध्य तक भारतीय पूँजीवाद सार्वजनिक क्षेत्र की चौहद्दी के भीतर बड़ा होते-होते कसमसाने लगा था। 1947 से 1980 तक के दौर में पब्लिक सेक्टर भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत थी। ग़ुलामी से बौने और अधमरे हुए यहाँ के पूँजीपति वर्ग को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए पहले राज्य को ही एक बड़े पूँजीपति की भूमिका निभानी थी। यही समय इंस्पेक्टर राज और लाइसेंसी राज का था। बाद में सार्वजनिक क्षेत्र का यह पिंजड़ा, जो पहले पूँजीपति वर्ग की सुरक्षा के लिए बनाया गया था, उसके आगे विकास में बाधक बनने लगा। भारतीय निजी पूँजी अब इस पिंजड़े में ठीक से साँस नहीं ले पा रही थी और उसे खुले बाज़ार और खुली प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। अगर यह नहीं होता तो वह पूँजी के जीवन के लिए घातक होता। नतीजतन, भारतीय पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दे भारतीय राज्य ने सार्वजनिक क्षेत्र, विनियमन, लाइसेंसी राज, इंस्पेक्टर राज की दीवारों को गिराना शुरू किया। जब तक कल्याणकारी पब्लिक सेक्टर वाले राज्य का ढाँचा कायम था, जीवन निम्न-पूँजीपति वर्ग के लिए अपेक्षाकृत आसान था और असुरक्षा और अनिश्चितता उसके लिए उतनी अधिक नहीं थी। लेकिन ज्यों ही उदारीकरण और निजीकरण की नीतियाँ लागू होनी शुरू हुईं वैसे ही उसकी ऑंच इन वर्गों तक भी पहुँचने लगी। कम ही लोग जानते हैं कि भारतीय पूँजीवादी राज्य ने पहली बार ‘नई आर्थिक नीति’ के जुमले का इस्तेमाल 1991 में नरसिंह राव-मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान नहीं किया था। 1985 में राजीव गाँधी की सरकार के दौरान पहली बार नई आर्थिक नीति का नाम लिया गया और उदारीकरण और निजीकरण को शुरू करने की बात की गयी। राजीव गाँधी तमाम सभाओं और जमावड़ों में लाइसेंसी राज और इंस्पेक्टर राज को विकास-विरोधी करार देते थे और उदारीकरण करने की ओर इशारा करते थे। 1986 में नयी शिक्षा नीति द्वारा इसी काम को आगे बढ़ाया गया। इसके बाद 1991 में यह प्रक्रिया सार्वजनिक क्षेत्र पूँजीवाद के भयंकर आर्थिक संकट के बाद पूँजीपति वर्ग ने खुलेआम शुरू की। इसके सूत्रधार थे तत्कालीन वित्त मन्त्री मनमोहन सिंह जो आज देश के प्रधानमन्त्री हैं। तब से लगभग 18 वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन नयी आर्थिक नीति की शुरुआत 1980 के दशक के मध्य को माना जाना चाहिए। अगर हम ऐसा मानते हैं तो उदारीकरण की नीतियों को लागू होने की शुरुआत हुए करीब 25वर्ष बीत चुके हैं। इस दौरान पूरे देश में ग़रीबी और बेरोज़गारी अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़ी है। 1980 के दशक के आते-आते मध्यम वर्ग और निम्न-पूँजीपति वर्ग और साथ ही आम जनता के सभी सपने भी धूल-धूसरित होने लगे थे जिसने पूरी आम जनता में एक हताशा और निराशा को जन्म दिया था। स्वदेशी और छोटे उद्योग-धन्धों के हित की बात करते हुए भाजपा ने भी अपनी गठबन्धन सरकार के काल में भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को तेज़ रफ्तार से लागू किया। बल्कि भाजपा के नेतृत्व में ही पहली बार विनिवेश मन्त्रालय अरुण शौरी के नेतृत्व में बनाया गया,जिसे कायदे से निजीकरण-बेरोज़गारी मन्त्रालय कहा जाना चाहिए। छोटी पूँजी की बात करते हुए भाजपा ने बड़ी पूँजी की किसी भी पार्टी से ज्यादा चाकरी की। ऐसे में फ्रांसीसी मार्क्सवादी इतिहासकार डेनियल गुएरिन का वह कथन बरबस ही याद आता है – ”फ़ासीवाद न सिर्फ बड़ी पूँजी का चाकर होता है, बल्कि साथ ही यह टुटपुंजिये वर्ग का रहस्यवादी उभार भी होता है।” भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के 25 वर्षों ने बड़े पैमाने पर छोटे पूँजीपति वर्ग को उजाड़ा, छोटे पैमाने के उत्पादकों, दुकानदारों, वेतनभोगियों को उजाड़ा और साथ ही ग्रामीण निम्न-पूँजीपति वर्ग को भी उजाड़ा है। बड़े पैमाने पर लोग सड़कों पर आ गये और जो सड़कों पर नहीं आये, उनके सिर पर भी लगातार छँटनी और तालाबन्दी,नौकरी से निकाल दिये जाने, ठेके पर कर दिये जाने की तलवार लटकी रहती है। यानी पूरे निम्न-पूँजीपति वर्ग के सामने भविष्य की असुरक्षा और अनिश्चितता बेहद तेज़ रफ्तार से बढ़ी है। ऐसे में यदि कोई क्रान्तिकारी ताकत आम जनता और इन वर्गों में इस बात को बिठाने के लिए मौजूद नहीं है कि इस सारी असुरक्षा और अनिश्चितता का असली ज़िम्मेदार पूँजीवाद है और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर निम्न-पूँजीपति वर्ग की यही नियति है कि उसके मुट्ठी भर हिस्से को ऊपर की ओर जाना है और बाकी विशाल हिस्से को सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा की कतार में शामिल हो जाना है, तो निश्चित रूप से उसके भीतर एक प्रतिक्रिया की ज़मीन भी मौजूद रहती है जो लम्बी असुरक्षा और अनिश्चितता के कारण पैदा हुई चिड़चिड़ाहट और हताशा से तैयार होती है। इसी ज़मीन का फायदा फ़ासीवादी ताकतें उठाती हैं और उन्होंने भारत में भी उठाया। इस पूरे ग़ुस्से का निशाना संघ ने अल्पसंख्यकों को और विशेषकर मुसलमानों और शरणार्थियों को बनाया। गतिरोध की स्थिति में जनता के गुस्से को अतार्किक और प्रतिक्रियावादी रास्ते पर ले जाना फ़ासीवादियों के लिए ख़ास तौर पर आसान होता है। संघ इसकी पृष्ठभूमि तो अपने जन्म के बाद से ही तैयार कर रहा था। अपनी शाखाओं, संस्कृति केन्द्रों,शिशु मन्दिरों में लगातार मुसलमानों को अतीत से लेकर वर्तमान तक हिन्दुओं की सारी तकलीफों का ज़िम्मेदार बताया जा रहा था। 1980 के बाद दिमाग़ों में बोये गये ज़हर के इस बीज के अंकुरित होने के लिए सभी अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार होने लगीं। यही कारण है कि संघ की मौजूदगी तो आज़ादी के बाद से लगातार बनी रही थी और साम्प्रदायिक तनाव फैलाने में हमेशा उसकी भूमिका रही थी, लेकिन 1980 के पहले तक संघ को एक ब्राह्मण-बनिया संगठन के रूप में जाना जाता था। लेकिन 1980 के बाद संघ की अपील कहीं ज्यादा व्यापक हुई और फ़ासीवाद का उभार एक परिघटना के रूप में वास्तविकता बनकर उभरा। रामजन्मभूमि आन्दोलन, रथयात्राओं, बाबरी मस्जिद धवंस, 1991 के संकट के बाद और 1995 तक उदारीकरण-निजीकरण के विनाशकारी परिणामों के बाद भारत में फ़ासीवादी आन्दोलन हिन्दुत्ववाद,स्वदेशीवाद और राष्ट्रवाद के चोगे में कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरा। 1980 के बाद फ़ासीवाद का एक आन्दोलन की शक्ल में आना कोई संयोग नहीं था। (यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ‘आन्दोलन’ शब्द का उपयोग हमेशा ऐसे किया जाता है मानो वह कोई अनिवार्य रूप से सकारात्मक वस्तु हो, जबकि इस शब्द में ऐसा कुछ नहीं है जो इसे अपने आप में सकारात्मक बना देता हो। यह निर्भर करता है कि वह आन्दोलन कियका है और किसके नेतृत्व में है।) यह आर्थिक और भौतिक तौर पर फ़ासीवाद की ज़मीन के मज़बूत होने के कारण आन्दोलन की शक्ल अख्तियार कर पाया था।
उदारीकरण और निजीकरण के एक चौथाई दशक ने भारतीय समाज में भी लोगों को बड़े पैमाने पर अपनी जगह-ज़मीन और काम-धन्धे से उजाड़कर वैसी ही असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल निम्न-पूँजीपति वर्ग, मज़दूर वर्ग और अन्य मध्यम वर्गों में पैदा किया जो जर्मनी में 20 वर्षों के द्रुत औद्योगिकीकरण के बाद पैदा हुआ था। यह सच है कि इस प्रक्रिया का पैमाना उतना ज्यादा नहीं था जितना कि यह जर्मनी में था। कुछ मार्क्सवादी सिद्धान्तकार यह बात समझ नहीं पाये हैं। ऐसे ही एक सिद्धान्तकार प्रभात पटनायक और उन्हीं के साथ एजाज़ अहमद इस तथ्य पर काफी चकित दिखलायी पड़ते हैं कि भारत में औद्योगिकीकरण उतना द्रुत तो था नहीं जितना कि वह जर्मनी में था (नतीजतन, भारत में बेरोज़गारी, उजड़ना और ग़रीबी भी उतनी तेज़ रफ्तार से नहीं पैदा हुई थी जितनी तेज़ रफ्तार से जर्मनी में (फिर भारत में इसने फ़ासीवादी उभार को जन्म कैसे दिया? लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि भारत के औपनिवेशिक इतिहास के कारण भारतीय समाज को दीर्घकालिक और भयंकर रूप से पैठी हुई ग़रीबी और बेरोज़गारी विरासत में मिली थी। यहाँ पर ग़रीबी और बेरोज़गारी पहले से ही जड़ जमाये हुए थी जिसे निजीकरण और उदारीकरण ने और भयंकर रूप दे दिया। जर्मनी या इटली के समाज की तरह ये समस्याएँ किसी एक औद्योगिकीकरण के दौर की ही पैदावार नहीं थीं, ये पहले से मौजूद थीं। जो काम जर्मनी और इटली में द्रुत औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया ने किया था वह काम यहाँ पर भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रियाओं ने किया – पूरे समाज में असुरक्षा और अनिश्चितता के माहौल को पैदा करके फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ज़मीन को पैदा करना।
कुछ मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों ने जर्मनी और इटली से एक और फर्क की ओर इशारा किया है। इन लोगों का कहना है कि जर्मनी और इटली में जिस समय फ़ासीवादी उभार हुआ उस समय एक शक्तिशाली समाजवादी देश और साथ ही इन्हीं देशों में शक्तिशाली कम्युनिस्ट आन्दोलन मौजूद थे। जर्मनी और इटली में बड़े पूँजीपति वर्ग ने बेहद तत्परता से फ़ासीवाद का साथ दिया तो इसका एक कारण यह भी था कि वे समाजवाद और आसन्न मज़दूर क्रान्तियों से डरे हुए थे। भारत में ऐसा नहीं है। लेकिन भारत में बड़े पूँजीपति वर्ग ने इतनी तत्परता के साथ फ़ासीवाद का साथ दिया भी नहीं है। उसने बीच-बीच में अलग-अलग मौकों पर भाजपा का साथ दिया है लेकिन पूँजीपति वर्ग ने वक्त और ज़रूरत के मुताबिक कांग्रेस का भी साथ दिया है। मिसाल के तौर पर, आज कल्याणकारी राज्य और नीतियों की ज़रूरत है। इस बात को पूँजीपति वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी समझ रहा है। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के दिखावटी सुधारवाद को पूँजीपति वर्ग अभी समर्थन दे रहा है। दूसरी बात यह है कि साथ ही यह सरकार क्रान्तिकारी ताकतों के ऊपर शिकंजा कसने का काम भी कर रही है। नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी कुछ नीतियों के साथ सरकार उदारीकरण और निजीकरण को खुले तौर पर जारी रख रही है और उसके पास अभी यह क्षमता भी है कि वह ऐसा कर सके। इसलिए आज नग्न पूँजीवादी तानाशाही की कोई आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि भाजपा आज राष्ट्रीय पैमाने पर दयनीय हालत में पहुँच गयी है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का फ़ासीवादी नेटवर्क अपनी पूरी ताकत के साथ मौजूद है। ज्यों ही कल्याणकारी राज्य की सम्भावनाएँ रिक्त होंगी वैसे ही पूँजीपति वर्ग को फ़ासीवादी चाल-चेहरे की आवश्यकता पड़ सकती है। और जब वह सत्ता में नहीं है तब भी ज़ंजीर से बँधे कुत्तों की भूमिका तो वह आज भी निभाता रहता है। मज़दूर आन्दोलन में इसे ख़ास तौर पर देखा जा सकता है। साथ ही, पूरे समाज में संघी आतंक समूहों की मौजूदगी क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए एक ‘काउण्टर वेट’ का काम करती रहती है। हमने पिछले अंकों में जर्मनी के उदाहरण से समझाया था कि कल्याणकारी पूँजीवादी राज्य की परिणति अक्सर अधिक प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी राज्य के रूप में होती है। भारत में इसकी पर्याप्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं। मौजूदा वैश्विक साम्राज्यवादी आर्थिक संकट तो बीत जाएगा लेकिन चक्रीय क्रम में आने वाला संकट इससे भी भयंकर होगा, इसके संकेत अभी से ही मिलने लगे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था वित्तीय बाज़ारों से पूरी तरह न जुड़ी होने के कारण थोड़ी-सी बची रही लेकिन आगे यह सम्भव नहीं होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था के किसी गहरे संकट में फँसने के साथ ही बेरोज़गारी और ग़रीबी, जो पहले ही ख़तरे के निशान से ऊपर है, और ज्यादा बढ़ेगी। ऐसे में, क्रान्तिकारी सम्भावना भी पैदा होगी, यानी जनअसन्तोष को एक तार्किक दिशा में मोड़ते हुए, गोलबन्द और संगठित करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में ले जाने की सम्भावना (और साथ ही, फ़ासीवादी सम्भावना भी पैदा होगी, यानी किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी में पूरे समाज में मौजूद हताशा और असुरक्षा की भावना को प्रतिक्रियावादी दिशा में मोड़ते हुए नग्न पूँजीवादी फ़ासीवादी तानाशाही की ओर ले जाना। दूसरी सम्भावना को वास्तविकता में बदलने वाली नेतृत्वकारी फ़ासीवादी ताकत आज देश में बड़े पैमाने पर मौजूद है। लेकिन ऐसी कोई अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं है। अब सारा भविष्य इसी बात पर निर्भर करता है कि हम ऐसी ताकत को खड़ा करने की ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर लेने को तैयार हैं या नहीं।
आखिरी फर्क जिसकी ओर कुछ मार्क्सवादी विचारकों द्वारा इशारा किया जाता है वह यह है कि पहले यूरोपीय फ़ासीवादी उभार के समय जिस किस्म की महामन्दी विश्व पूँजीवाद झेल रहा था वैसी कोई मन्दी आज नहीं है। हालाँकि, मौजूद वैश्विक मन्दी में उन्हें अपने शब्दों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पड़ रही है। लेकिन यह सच है कि वैसी चीज़ दुबारा नहीं आने वाली। इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। अब विश्व साम्राज्यवाद में हुए परिवर्तनों के मद्देनज़र कुछ बातें साफ हैं। विश्व पूँजीवाद में अब मन्दी और तेज़ी का चक्र नहीं चलता। एक मन्द मन्दी लगातार बनी रहती है जो बीच-बीच में गहराती रहती है। 1995 से 2006 के बीच चार बड़ी मन्दियाँ आयीं जिसमें ये नयी वाली सबसे भयंकर थी। अब तेज़ी का दौर पूँजीवाद में नहीं आता। जितना रोज़गार पूँजीवाद पहले दे सकता था अब वह किसी हालत में नहीं दे सकता क्योंकि पूँजी कहीं ज्यादा परजीवी हो चुकी है और उत्पादक निवेश की सम्भावनाएँ नहीं के बराबर रह गयी हैं। इसलिए बेरोज़गारी अचानक होने वाले विस्फोट की तरह नहीं बढ़ी बल्कि वह सघन रूप में एक स्थायी परिघटना बन चुकी है। जो इतिहासकार नये फ़ासीवादी उभार की हर विशेषता को इतिहास में ढूँढ़ना चाहते हैं उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि इतिहास में दुहराव नहीं हो सकता। कोई ज़बरन करने की कोशिश करेगा तो वह मार्क्स के शब्दों में प्रहसन बन जाएगा। यान्त्रिक मार्क्सवादी विश्लेषकों के साथ यही दिक्कत है। आज का फ़ासीवादी उभार भी पहले जैसा नहीं होगा। विश्व पूँजीवाद में भूमण्डलीकरण के दौर में जो परिवर्तन आये हैं उनके अनुसार फ़ासीवादी उभार के स्वरूप में भी निश्चित रूप में परिवर्तन आयेंगे। यह एक अलग चर्चा का विषय है जिसपर इस लेख के दायरे में बात नहीं हो सकती। यह एक अलग लेख की माँग करता है। एक महत्तवपूर्ण कारक की ओर इशारा करके हम आगे बढ़ना चाहेंगे। जर्मनी में नात्सी पार्टी को और इटली में फ़ासीवादी पार्टी को संकट का समाधान राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के दायरे में करना था। जर्मनी और इटली में फ़ासीवाद के 20 से 25 वर्षों के भीतर ही सत्ता में आ जाने का कारण यही था कि उस समय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में राष्ट्र-राज्य की भूमिका बेहद ज्यादा थी। वह आज भी है लेकिन बदल चुकी है। पूँजी के लिए साँस लेने की जगह कहीं ज्यादा कम थी। उसके विपरीत, भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी के राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार खुले प्रवाह के साथ पूँजी के लिए अपने अन्तरविरोधों और संकटों को निपटाने का मंच राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था है। इसलिए फ़ासीवाद भूमण्डलीकरण के दौर में उतनी द्रुत गति से और उस तरह से सत्ता में नहीं आ सकता है जैसे जर्मनी और इटली में आया था। फ़ासीवाद अगर फिर सत्ता में आता है तो उसका रूप क्या होगा यह बता पाना मुश्किल है। लेकिन यह बात सच है कि जिस प्रकार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की सीमाएँ सन्तृप्त हो गयी थीं वैसे ही वैश्विक अर्थव्यवस्था की सीमाएँ भी सन्तृप्त हो जायेंगी और होने लगी भी हैं, जैसा कि नवीनतम साम्राज्यवादी संकट ने दिखलाया है। अब इस नये वैश्विक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विधान में फ़ासीवाद के सत्ता में आने की सूरत में पूरा रूप और रास्ता क्या होगा, यह अलग से शोध का विषय है।
फ़ासीवाद के उभार के कुछ बुनियादी कारणों की हमने व्याख्या की है जो कहीं भी फ़ासीवाद के उभार का सामान्य कारण होते हैं। वे कारण जर्मनी में भी मौजूद थे, इटली में भी मौजूद थे और भारत में भी मौजूद थे। सामाजिक जनवाद की ग़द्दारी इसमें हमारे लिए सबसे महत्तवपूर्ण कारण है। यह भारत में भी मौजूद है। सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के नेतृत्व में ट्रेड यूनियन आन्दोलन भारत में भी वही भूमिका निभा रहा है जो वह जर्मनी में निभा रहा था। यहाँ भी संशोधनवाद और ट्रेड यूनियन नेतृत्व मज़दूर आन्दोलन को सुधारवाद, अर्थवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की गलियों में घुमा रहा है। यहाँ पर ट्रेड यूनियन आन्दोलन और सामाजिक जनवाद पूँजीपति वर्ग को उस किस्म के सौदे पर मजबूर नहीं कर सकता जैसा कि जर्मनी में किया था। लेकिन भारत का पूँजीपति वर्ग तत्कालीन जर्मनी के पूँजीपति वर्ग से कहीं कमज़ोर है और जितना दबाव ट्रेड यूनियन आन्दोलन से भारत में पूँजी पर बना है वह उसके मुनाफे के मार्जिन को सिकोड़ने के लिए काफी है। श्रम कानूनों के कारण भारतीय पूँजी का दम काफी घुटता है। ग़ौरतलब है कि भारत में आज मौजूद श्रम कानून उस समय के जर्मनी या इटली में मौजूद श्रम कानूनों से पीछे नहीं हैं बल्कि कई मायनों में ज्यादा आगे हैं। हाल ही में फिक्की के एक पूँजीपति ने कहा भी था कि श्रम कानूनों के चलते हमें ”प्रॉफिट स्क्वीज़” का सामना करना पड़ रहा है। हूबहू यही शब्द जर्मन पूँजीपतियों ने भी इस्तेमाल किया था। यह कोई संयोग नहीं है। इसलिए भारत का संशोधनवाद और सामाजिक जनवाद उतना ताकतवर नहीं है जितना कि जर्मनी का सामाजिक जनवाद था, लेकिन भारत का पूँजीवाद भी उतना शक्तिशाली नहीं है जितना कि जर्मनी का पूँजीवाद था। अनुपात उन्नीस-बीस के अन्तर से समान ही मिलेगा!
भारत में भी कोई जनवादी क्रान्ति नहीं हुई जिसके कारण पूरे समाज में जनवादी चेतना की एक भारी कमी है और भयंकर निरंकुशता है जो फ़ासीवाद का आधार जनता के मनोविज्ञान में तैयार करती है। यहाँ पर भी क्रान्तिकारी भूमि सुधार नहीं हुए और क्रमिक भूमि सुधारों ने प्रतिक्रियावादी युंकर वर्ग को और हरित क्रान्ति ने प्रतिक्रियावादी आधुनिक धनी किसान वर्ग को जन्म दिया। यहाँ भी निम्न-पूँजीपति वर्ग और छोटे उत्पादकों की एक भारी तादाद मौजूद है जो पूँजीवादी विकास के साथ तेज़ी से उजड़ती है और प्रतिक्रियावाद के समर्थन में जाकर खड़ी होती है। साथ ही यहाँ भी ऊपर की ओर गतिमान एक प्रतिक्रियावादी नवधनाढय वर्ग है जो भूमण्डलीकरण के रास्ते हो रहे विकास की मलाई चाँप रहा है। इनमें मोटा वेतन पाने वाला वेतनभोगी वर्ग, ठेकेदार वर्ग, व्यापारी वर्ग, नौकरशाह, आदि शामिल हैं। यहाँ पर मज़दूर वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो किसानी मानसिकता का शिकार है और पूरी तरह उत्पादन के साधनों से मरहूम नहीं हुआ है। वह भौतिक स्थितियों से सर्वहारा चेतना की ओर खिंचता है और अतीतोन्मुखी आकांक्षाओं और दो-चार मामूली उत्पादन के साधनों का स्वामी होने के कारण निम्न-पूँजीवादी चेतना की ओर खिंचता है। नतीजतन, सर्वहारा चेतनाकरण की प्रक्रिया मुकाम तक नहीं पहुँचती और इस आबादी का भी एक हिस्सा फ़ासीवादी प्रचार और प्रतिक्रिया के सामने अरक्षित होता है और उसका अक्सर शिकार बन जाता है। भारत में भी एक बड़ी लम्पट सर्वहारा उजड़ी आबादी है जो फ़ासीवादी भीड़ का हिस्सा बनती है। ये कुछ आम कारक हैं जो फ़ासीवाद के उभार की ज़मीन तैयार करते हैं। आज के ज़माने में भी ये कारक तो लागू होते ही हैं। आज के सम्भावित फ़ासीवादी उभार में नयेपन और परिवर्तन के कुछ तत्वों की ओर हमने संक्षेप में इशारा किया है,जो पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में बदलाव के कारण पैदा होते हैं। इन पर कभी आगे।
यहाँ भारत में फ़ासीवादी उभार के इतिहास, प्रकृति, चरित्र और सम्भावित भविष्य पर हमने संक्षेप में चर्चा की। ज़ाहिर है यहाँ हम उसके हर पहलू पर चर्चा नहीं कर सकते हैं। वह अपने आपमें एक वृहत पुस्तक या शोध-प्रबन्ध का विषय बन सकता है। मिसाल के तौर पर, दलितों और स्त्रियों के प्रति फ़ासीवादियों के घृणास्पद रुख़ पर भी चर्चा ज़रूरी है। उनके द्वारा बच्चों और किशोरों के दिमाग़ में ज़हर घोले जाने की पूरी प्रक्रिया को भी विस्तार से समझना ज़रूरी है। ऐसे और भी कई पहलू हैं। यहाँ पर हमारा मकसद दो चीज़ें थीं। पहला, फ़ासीवाद के उभार की आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना और दूसरा, उसके सामाजिक आधार का विश्लेषण। इसके तमाम सांस्कृतिक पहलू भी हैं जिनपर अलग से समीक्षा की आवश्यकता होगी। साथ ही, हमने भारत में फ़ासीवादी उभार और जर्मनी और इटली में हुए फ़ासीवादी उभार की समानताओं और अन्तरों की भी संक्षेप में चर्चा की। चलते-चलते हमने कुछ मार्क्सवादी विश्लेषकों की मार्क्सवादी आलोचना भी की। इतनी चर्चा के बाद हम अगले अंक में अपने ठोस नतीजों के बारे में बातचीत कर सकते हैं, जो निम्न प्रकार से हैं।
आज के भारत में फ़ासीवादी रुझान का मुकाबला करने के लिए कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को क्या करना होगा? हमें मज़दूरों, छात्रों, युवाओं, स्त्रियों, दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच सर्वहारा क्रान्तिकारी संगठन कैसे खड़े करने होंगे?मज़दूर मोर्चे से लेकर अन्य सभी मोर्चों पर हमें फ़ासीवादियों को शिकस्त कैसे देनी होगी? फ़ासीवादी आतंक समूहों का मुकाबला कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को कैसे करना होगा? निम्न-पूँजीपति वर्ग के सवाल पर हमारा रुख़ क्या होना चाहिए?मज़दूर आबादी में फ़ासीवादी विचारधारा की घुसपैठ को रोकने के लिए हमें कौन-से कदम उठाने होंगे? शहरी मध्यमवर्गीय आबादी में फ़ासीवादी विचारधारा को शिकस्त देने के लिए हमें क्या करना होगा?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हमें देना ही होगा और अगले अंक में हम यही प्रयास करेंगे। हमने पहले बताया है कि पूँजीवादी संकट फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की भी ज़मीन तैयार करता है और मज़दूर क्रान्ति की भी। सवाल यही होता है कि क्रान्तिकारी नेतृत्व तैयार है या नहीं। हम डेनियल गुएरिन के एक कथन के साथ यहाँ रुकेंगे – ”अगर हमने समाजवाद की घड़ी को निकल जाने दिया, तो हमारी सज़ा होगी फ़ासीवाद।”
बिगुल, नवम्बर 2009
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