काम के ज़्यादा दबाव की वजह से दिमागी संतुलन खोता म़जदूर

बलराम मौर्या, गुडगाँव

मैं बलराम मौर्या, देवरिया उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ, काम की तलाश में मैं पिछले साल गुडगाँव आया था। 2-3 कंपनियों में काम किया, मगर कम्पनियों के अंदर ख़राब माहौल के चलते किसी कम्पनी में टिक नहीं पाया। यहाँ मुझे लगातार ज़लील होना पड़ता था। मैं लड़-झगड़ कर निकल गया या निकाल दिया गया। 5-6 महीने यही हाल रहा। आखिरकार मजबूरन थक हारकर (क्योंकि कहीं न कही तों काम करना ही है) मैंने स्थायी रूप में गुडगाँव की एक कपड़ा फ़ैक्ट्री में बतौर हेल्पर 3 जनवरी 2014 को काम पकड़ा और पिछले साल तक मैं उसी में काम करता रहा। ई.एस.आई. काट कर मुझे करीब 4800 रुपये मिलते थे मगर ओवरटाइम व नाईट बहुत लगानी पड़ती थी (क्योंकि सभी मज़दूरों को शादी-ब्याह के चक्कर में गाँव जाना पड़ता है)। पिछले साल की गर्मी में काम का इतना अधिक बोझ था कि सोने का कोई ठिकाना नहीं था, न ही खाने-पीने का कोई ढंग का बंदोबस्त और कंपनी के अंदर एक दम घोंटू माहौल था। जिसके चलते मेरी तबियत बहुत बिगड़ गयी थी। इसी दबाव के चलते मेरा दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया। मैंने ई.एस.आई. अस्पताल में दवाई करवाई। मगर ई.एस.आई. में सही इलाज नहीं हुआ जिसके चलते मुझे कोई आराम नहीं पहुँचा। उसके बाद मैंने सरकारी अस्पताल में दिखाया जहाँ मुझे थोड़ा आराम मिला और मैं थोड़ा स्वस्थ महसूस कर रहा हूँ। बीमारी की वजह से मैं कई दिन डयूटी नहीं जा सका और जब मैंने ई.एस.आई. से पैसे निकालने की कोशिश की तो मुझे छुट्टी का कोई पैसा नहीं मिला। मैंने मैनेजर से गुहार लगाई तो मैनेजर गाली-गलौच पर उतर आया और मुझे काम से निकाल दिया। यह बात बीते समय हो गया है परन्तु यह बताना इसलिए ज़रूरी था कि मेरे जैसे अन्य मज़दूर भी अकेले-अकेले लड़ते हुए इसी तरह काम से निकाल दिए जाते हैं। मज़दूर बिगुल अखबार पढ़कर मुझे समझ में आया कि मैं अकेला मज़दूर नहीं हूँ जिसके साथ इस तरह की घटनाएँ होती हैं । अपने अखबार के ज़रिए हम लोग एक-दूसरे तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं और यहीं से अपनी ताकत भी खड़ी कर सकते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2015


 

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