गौरव इण्टरनेशनल के मज़दूर साथी के साथ बेरहम मारपीट का कड़ा विरोध
कब तक यूँ ही गुलामों की तरह सिर झुकाये जीते रहोगे

बीते 10 फ़रवरी को उद्योग विहार फ़ेज़ 1 में गौरव इंटरनेशनल, प्लॉट संख्या 236 में एक मज़दूर समीचन्द यादव की मैनेजमेण्ट व गार्ड द्वारा निर्मम पिटाई की गयी। समीचन्द और उसकी पत्नी दोनों इसी कारख़ाने में काम करते हैं। समीचन्द की तबीयत पिछले तीन-चार दिनों से ख़राब थी। इस वजह से वह काम पर दस मिनट लेट पहुँचा। बस इतनी-सी देरी के लिए गार्ड से उसकी कहा-सुनी हो गयी और गार्ड ने उसे थप्पड़ मार दिया। जब समीचन्द ने इसका विरोध किया तो मैनेजमेण्ट की शह पर कई गार्डों ने उसकी जानलेवा पिटाई की। उसे नाज़ुक हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब उसकी पत्नी इलाज के लिए पैसे माँगने गयी तो उसे पन्द्रह हज़ार में मामला रफ़ा-दफ़ा करने को कहा गया। इसके बाद 12 फ़रवरी को ख़बर आयी कि समीचन्द की मौत हो गयी, हालाँकि यह सच नहीं था। रोज़-रोज़ की बेइज़्ज़ती और बदसलूकी से त्रस्त मज़दूर अपने साथी की मौत की ख़बर से अपना आपा खो बैठे। उनके गुस्से का लावा फूट पड़ा। परिणामस्वरूप फ़ैक्टरी में तोड़-फोड़ हुई, सड़कों पर वाहन फूँके गये और गौरव-ऋचा ग्रुप के दूसरे कारख़ाने के मज़दूर भी अपने साथी के साथ हुई मारपीट के विरोध में सड़कों पर उतर आये। इसके बाद पूरे इलाक़े को पुलिस की छावनी में तब्दील कर दिया गया। अगले दिन अख़बारों के पन्नों पर ख़बरें इस तरह छपीं जैसे सारा कसूर मज़दूरों का ही हो। लेकिन सोचने की बात है कि इन अख़बारों में तब कोई ख़बर नहीं छपती जब हर दिन कारख़ानों में मज़दूरों के साथ मारपीट की घटना घटती है, और न ही तब कोई पुलिस कार्रवाई होती है जब यह कारख़ानेदार सारे श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर हमारा ख़ून-पसीना चूसते हैं। जब सुपरवाइज़र-ठेकेदार-मैनेजर गाली-गलौच करते हैं, तब कहीं कोई ख़बर नहीं बनती और न ही इसकी शिकायत किसी थाने में ही लिखी जाती है।

riots-mainसाथियो, समीचन्द के साथ हुई यह मारपीट अपने आपमें कोई अकेली घटना नहीं है। यह पूरे इलाक़े में मज़दूरों पर हो रहे अत्याचार की झलक मात्र है। गुड़गाँव-मानेसर- धारुहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और ख़ुशखेड़ा तक लाखों मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह खट रहे हैं। इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में ऑटोमोबाइल, दवा आदि फ़ैक्टरियों के साथ-साथ कपड़े उद्योग से जुड़े अनेक कारख़ाने मौजूद हैं। इन फ़ैक्टरियों में लाखों मज़दूर रात-दिन अपना हाड़-मांस गला कर पूरी दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए सस्ती मज़दूरी में माल का उत्पादन करने के लिए लगातार खटते हैं। जहाँ एक तरफ़ ये कम्पनियाँ हमारे ही हाथों से बने उत्पादों को देश-विदेश में बेचकर अरबों का मुनाफ़ा कमा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इनमें काम करने वाले हम मज़दूर बेहद कम मज़दूरी पर 12 से 16 घंटों तक काम करने के बावजूद अपने परिवार के लिए ज़रूरी सुविधाएँ भी जुटा पाने में असमर्थ हैं। लगभग हर कारख़ाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन ओवरटाइम, वेतन में कटौती, ठेकेदारी, यूनियन बनाने का अधिकार छीने जाने जैसे साझा मुद्दे हैं। लेकिन हमारा संघर्ष कभी-कभी के गुस्से के विस्फोट तक और अलग अलग कारख़ानों में अलग-अलग लड़ाइयों तक ही सीमित रह जाता है। किसी एक दिन हमारे गुस्से का लावा फूटता है लेकिन फिर चीज़ें वापस उसी ढर्रे पर चलने लगती हैं। फिर कहीं कोई समीचन्द पिटता है और प्रबन्धन की गुण्डागर्दी का शिकार होता है। और दमन-उत्पीड़न का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। बल्कि यूँ कहें तो ऐसी घटनाओं के बाद पूँजीपतियों के टुकड़े पर पलने वाले मीडिया और मालिकों के दलालों को हमें बदनाम करने का मौक़ा मिल जाता है।

तो फिर करें क्या?

ऐसे में सवाल उठता है कि हमें करना क्या चाहिए चाहे गौरव इण्टरनेशनल की हालिया घटना हो या फिर इसके पहले मानेसर में मारुति या भिवाड़ी में श्रीराम पिस्टन की घटना हो, मज़दूरों का गुस्सा दमन के खि़लाफ़ जहाँ-तहाँ फूटता रहा है। लेकिन दिशाहीन गुस्से और असन्तोष के इस फ़ौरी विस्फोट के बाद क्या हमारे जीवन में कोई बदलाव आया है क्या हमारी फ़ैक्ट्रियों के हालात में कोई सुधार हुआ है क्या हमारी जीवन-स्थितियाँ बदली हैं नहीं! शोषण और उत्पीड़न के खि़लाफ़ गुस्सा और नफ़रत जायज़ है और इसे मज़दूरों से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से कौन जानता है लेकिन साथियो, गुस्से और हिंसा की ऐसी कार्रवाइयाँ अपनी भड़ास निकालने जैसी हैं। यह हमारे संघर्ष का रास्ता नहीं हो सकता। तो फिर रास्ता क्या है साथियो, रास्ता सिर्फ़ एक है। और वह है अपनी फौलादी एकजुटता क़ायम करना और अपनी क्रान्तिकारी यूनियन के निर्माण में जुट जाना। साथियो, हमें समझना होगा कि आज पूँजी की ताक़तें सरकार-पुलिस-प्रशासन-मीडिया एक साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ी हैं। उनके द्वारा पाली-पोसी गयी दलाल ट्रेड यूनियनें और अन्य संगठन हमें भरमाने और हमारी एकजुटता को तोड़ने का काम बख़ूबी कर रहे हैं। साथियो, ऐसे में दो बात याद रखने की ज़रूरत है। पहला यह कि हमें मज़दूर आन्दोलन में घुसे हुए दलालों, मौक़ापरस्त ताक़तों और ग़द्दार ट्रेड यूनियनों से सावधन रहना होगा और इनके चक्कर में नहीं पड़ना होगा। और दूसरा यह कि मज़दूरों के पास अपनी फ़ौलादी एकता के अलावा कोई ताक़त नहीं है और इस ताक़त से बड़ी दूसरी कोई ताक़त नहीं है। हम अपनी यह ताक़त इलाक़ाई और सेक्टरगत एकता कायम कर स्थापित कर सकते हैं।

आज हमें एक ओर सेक्टरगत यूनियन जैसे कि समस्त टेक्सटाइल मज़दूरों की एक यूनियन, समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों की एक यूनियन, आदि बनानी होंगी जोकि समूचे मज़दूरों को एक साझे माँगपत्रक पर संगठित करे। वहीं हमें समूचे गुड़गाँव-मानेसर इलाक़े के मज़दूरों की एक इलाक़ाई मज़दूर यूनियन भी बनानी होगी, जोकि इस इलाक़े में रहने वाले सभी मज़दूरों की एकता कायम करती हो, चाहे वे किसी भी सेक्टर में काम करते हों। ऐसी यूनियन कारख़ानों के संघर्षों में सहायता करने के अलावा, रिहायश की जगह पर मज़दूरों के नागरिक अधिकारों जैसे कि शिक्षा, पेयजल, चिकित्सा आदि के मुद्दों पर भी संघर्ष करेगी। जब तक सेक्टरगत और इलाक़ाई आधार पर मज़दूरों के ऐसे व्यापक और विशाल संगठन नहीं तैयार होंगे, तब तक उस नग्न तानाशाही का मुकाबला नहीं किया जा सकता जोकि हरियाणा के मज़दूरों के ऊपर थोप दी गयी है।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015

 


 

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