यूपीए सरकार के पहले बजट का मकसद
ग़रीबों को राहत योजनाओं के हवाई गुब्बारे थमाकर पूँजीपतियों की लूट के मुकम्मल इन्तजाम!!
सम्पादक मण्डल
यूपीए सरकार का पहला बजट वैसा ही था जैसी इस सरकार से उम्मीद थी – यानी ”आम आदमी” को राहत देने के लिए कुछ लोक-लुभावन घोषणाएँ और वास्तव में पूँजीपतियों की लूट को फायदा पहुँचाने के पुख्ता इन्तजाम करना। वैसे सच तो यह है कि आजकल अर्थव्यवस्था को चलाने वाले ज्यादातर बड़े फैसले बजट के आगे-पीछे लिये जाते हैं, फिर भी इस बजट ने सरकार की मंशा तो जाहिर कर ही दी है।
जिस ग्रामीण रोजगार योजना को लेकर सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है, उसके बजट में वास्तव में केवल 6.5 प्रतिशत की ही बढ़ोत्तरी की गई है। नरेगा के वर्तमान कानून के मुताबिक साल में कम से कम सौ दिन रोजगार देने का वादा किया गया है। यह अलग बात है कि ज्यादातर जगहों पर इतना भी नहीं मिलता। इसे बढ़ाने की बात तो दूर सरकार ने बजट में जितना धन दिया है उससे महँगाई की बढ़ी दरों पर वर्तमान स्थिति को बनाये रखना भी मुश्किल होगा।
सरकार ने अपने सौ दिन के एजेण्डे में वादा किया है कि रोजगार गारंटी कानून की तर्ज पर लोगों के भोजन के अधिकार और शिक्षा के अधिकार के कानून को अमली जामा पहनाया जायेगा। राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी इस वादे का जिक्र था। लेकिन बजट में इन दोनों प्रावधानों के लिए धनराशि का कोई इन्तजाम नहीं किया गया। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में खाद्य सुरक्षा कानून का उल्लेख तो किया है लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया है कि यह कानून कितने दिनों में लागू होगा। उन्होंने बस इतना कहकर पल्ला झाड़ लिया कि सरकार प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का मसौदा सार्वजनिक बहस और विचार-विमर्श के लिए जल्दी ही पेश करेगी। आज भारत में दुनिया के सबसे अधिक भूखे लोग रहते हैं, जिन्हें दो जून भरपेट खाना नहीं मिल पाता है। सरकार लगातार तेज विकास दर का दावा कर रही है लेकिन इस तेज विकास दर के बावजूद देश में कुपोषण और भुखमरी की हालत ज्यों की त्यों बनी हुई है। बजट के ठीक पहले जारी आर्थिक सर्वेक्षण में भी कहा गया है कि 1998-1999 में तीन वर्ष से कम उम्र के सैंतालीस फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार थे और अगले सात वर्षों में तेज विकास दर के बावजूद 2005-06 में भी ऐसे बच्चों की संख्या छियालीस फीसद पर बनी हुई थी। पूँजीवादी ”विकास” की असलियत को उजागर करने के लिए इससे बड़ी बात भला और क्या हो सकती है!
शिक्षा के अधिकार सम्बन्धी कानून के बारे में भी सरकार लम्बे-लम्बे दावे करती रही है। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में शिक्षा के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद शिक्षा के अधिकार के कानून का न तो कोई जिक्र किया और न ही उसके लिए बजट में कोई प्रावधान किया। प्राथमिक शिक्षा के मद में पिछले वित्त वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 19488 करोड़ रुपए की तुलना में चालू वित्त वर्ष में सिर्फ 194 करोड़ रुपए यानी महज एक फीसदी की बढ़ोत्तरी की गयी है।
दूसरी ओर कारपोरेट क्षेत्र को खुश करने के लिए फ्रिंज बेनीफिट टैक्स खत्म कर दिया है। 2007-08 में फ्रिंज बेनीफिट टैक्स से सरकारी खजाने को 6533 करोड़ रुपए की आय हुई थी। यानी वित्तमंत्री ने एक झटके में कारपोरेट क्षेत्र को लगभग सात हजार करोड़ रुपए का तोहफा दे दिया है। इसी तरह निजी आयकर पर दस प्रतिशत के सरचार्ज को समाप्त कर दिया गया है। इसका फायदा दस लाख रुपए से अधिक की आय वाले अमीर वर्गों को होगा। मध्यवर्ग को भी खुश करने के लिए टैक्स के स्लैब में मामूली फेरबदल किया गया है। बड़े व्यापारियों को फायदा पहुँचाने के लिए जिन्सों के कारोबार में लगे सटोरियों को काबू में रखने के लिए उन पर लगने वाले कमोडिटी ट्रांजैक्शन टैक्स को भी खत्म कर दिया है। उल्लेखनीय है कि जिन्सों का वायदा कारोबार 2008 में लगभग पचास लाख करोड़ रुपए तक पहुँच गया और यह माना जाता है कि कई जिन्सों और खाद्यान्न की कीमतों में बेहिसाब बढ़ोत्तरी की एक बड़ी वजह उनका वायदा कारोबार भी है।
सरकार ने रक्षा बजट में सीधे 35 प्रतिशत की भारी बढ़ोत्तरी कर दी है। हिन्दुस्तान अब सेना पर खर्च करने के मामले में दुनिया में दसवें नम्बर का देश बन गया है। इस मामले में वह दुनिया के सबसे अमीर देशों की बराबरी कर रहा है। लेकिन दूसरी तरफ स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी जनता की बुनियादी जरूरतों के मामलों में वह एशिया के कई छोटे-छोटे देशों से भी पीछे है।
जनता को लुभाने वाली कुछ योजनाओं की आड़ में सरकार ने विनिवेश की धीमी पड़ी प्रक्रिया को फिर तेजी से चलाने की घोषणा कर दी है। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को बेचकर पहले ही साल में 25,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सभी कम्पनियों के कम से कम 10 प्रतिशत शेयर बेचे जायेंगे। खास तौर पर, मुनाफा देने वाली कम्पनियों और नवरत्न कम्पनियों के शेयर भी बेचे जायेंगे।
सत्ता में आने के साथ ही कांग्रेस ने बता दिया था कि पूँजीवादी आर्थिक विकास की दीर्घकालिक नीतियों को वह अब ज्यादा सधे कदमों से लागू करेगी। बजट में आधारभूत ढाँचे को मजबूत करने के लिए जो घोषणाएँ की गयी हैं उनका मकसद पूँजीपतियों के लिए लूट के साधनों को और मुकम्मल करना है। साथ ही मन्दी की मार से जूझ रही अर्थव्यवस्था में कुछ जान फूँकने की कोशिश में सरकारी खजाने से खर्च को बढ़ाने की योजनाएँ पेश की गयी हैं। इनसे दोहरा फायदा होगा। पूँजीपतियों की दूरगामी जरूरतों को पूरा करने का काम भी होगा और ग़रीबों को कुछ राहत देकर उनके असन्तोष को कुछ देर टाला भी सकेगा। ऊपर से तुर्रा यह कि इन तमाम योजनाओं के लिए खर्च होने वाली भारी धनराशि भी जनता से ही उगाही जायेगी। लेकिन पूँजीवादी नीतियों के अपने ही तर्क से यह सिलसिला ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकेगा।
पूँजीवादी उत्पादन की इसी प्रक्रिया यानी पूँजीपतियों की मुनाफे और पूँजी संचय की अंधी हवस का नतीजा आज हमारे देश में देखने को मिल रहा है। सकल घरेलू उत्पाद की लगातार बढ़ती वृध्दि दर लेकिन आम मेहनतकश जनता की बढ़ती दरिद्रताएं दो विरोधी सच्चाइयाँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में राष्ट्रीय आय में पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गुओं-भग्गुओं का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है और मेहनतकशों का घटता गया है। केन्द्र और राज्य की सभी सरकारें आज देशी-विदेशी पूँजीपतियों को मेहनतकशों के शोषण की मनमानी छूट देने के साथ ही करों में भी बेतहाशा छूटें देकर उनकी तिजोरियाँ भरने के मौके दे रही हैं। इससे सरकारी खजाने को प्रतिवर्ष जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपाई के लिए आम जनता को विभिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष करों से लाद दिया गया है।
ऑंकड़ों में तो महँगाई की दर बेहद नीचे आ चुकी है लेकिन महँगाई का आलम यह है कि अब इसकी मार सीधे ग़रीब आबादी के पेट पर पड़ रही है। मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि उनकी बदहाली का बुनियादी कारण देश की मौजूदा पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली है। पूँजीपतियों के लगातार बढ़ते मुनाफे या मुट्ठीभर ऊपरी धनी तबके की खुशहाली का कारण मजदूरों का दिनोदिन बढ़ता शोषण है। किसी मजदूर के लिए यह समझना कठिन नहीं कि अपनी श्रमशक्ति का उपयोग कर वह केवल उतना मूल्य नहीं पैदा करता जितना मजदूरी के रूप में उसे मिलती है। वह तो उसके द्वारा पैदा किये गये मूल्य का एक छोटा हिस्सा ही होता है। बाकी हिस्सा पूँजीपति हड़प कर जाता है जिसे न केवल वह अपनी विलासिता पर खर्च करता है बल्कि पूँजी संचय कर और अधिक मुनाफा कमाता जाता है और मजदूर दरिद्र से दरिद्रतर होता जाता है। मजदूर के जीवनयापन के लिए जरूरी वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी की तुलना में उसकी वास्तविक आय में बढ़ोत्तरी इतनी कम होती है कि उसे आधे पेट सोने पर मजबूर होना पड़ता है। यूपीए सरकार के सौ दिन के एजेण्डा की असलियत जल्दी ही सामने आ जायेगी। पूँजीवाद के हितैषी विचारक चाहकर भी पूँजी की मूल गति को अपना काम करने से रोक नहीं सकेंगे। अतिरिक्त मूल्य निचोड़ते जाने के तर्क से मुट्ठी भर लोगों के पास सम्पत्ति का पहाड़ इकट्ठा होता जायेगा और भारी आबादी ग़रीबी में डूबती जायेगी। मेहनतकश वर्ग के सच्चे हिरावलों को आम मेहनतकश आबादी को समझाना होगा कि इस लुटेरी व्यवस्था में उनके लिए कोई उम्मीद नहीं बची है और इसे धवस्त कर समाज के ढाँचे का नये सिरे से निर्माण करने के लिए लड़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।
बिगुल, जुलाई 2009
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