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जानलेवा है पूँजीवादी विकास
औद्योगिक कचरे से दोआबा क्षेत्र का भूजल और नदियाँ हुईं ज़हरीली
आनन्द सिंह
पूँजीवादी व्यवस्था में कल-कारख़ानों और खेत-खलिहानों में मेहनत-मज़दूरी करने वाली आबादी का ख़ून तो चूसा ही जाता है, उत्पादन स्थल के दमघोंटू माहौल से जब लोग बाहर निकलते हैं और अपने घर-परिवार के साथ चैन के कुछ पल बिताना चाहते हैं तो वहाँ भी उन्हें कोई सुकून नहीं मिलता, क्योंकि मुनाफ़ा कमाने की अन्धी होड़ में पूँजीवाद ने समूची आबोहवा में इतना ज़हर घोल दिया है कि लोग स्वच्छ हवा और साफ़ पानी जैसी क़ुदरती नेमतों के लिए भी तरस रहे हैं। जहाँ एक ओर औद्योगिक उत्सर्जन से ग्रीन हाउस प्रभाव, ओज़ोन परत में छेद और वायु प्रदूषण जैसे ख़तरनाक प्रभाव सामने आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर औद्योगिक कचरे की वजह से नदियों का जल तेज़ी से दूषित हो रहा है और भूजल तक में ज़हर घुलता जा रहा है, जिसकी वजह से लोगों में कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियाँ बढ़ रही हैं।
मिसाल के तौर पर गंगा और यमुना नदियों के बीच स्थित दोआबा क्षेत्र को ले लें। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित दोआबा के इलाक़े में काली, हिण्डन और कृष्णा नामक तीन छोटी नदियाँ हैं। ये तीनों ही नदियाँ प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड द्वारा ज़हरीली घोषित की जा चुकी हैं। इन तीनों नदियों का पानी इंसानों और मवेशियों के इस्तेमाल के लायक नहीं रह गया है। हिण्डन नदी गाज़ियाबाद और नोएडा के औद्योगिक इलाक़ों से गुज़रती है और साथ ही इसके किनारे इन औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों की बहुत बड़ी तादाद रहती है। इन तीनों नदियों के किनारे कई गाँव भी बसे हैं। इन नदियों का पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि वह अब सिंचाई में इस्तेमाल लायक भी नहीं रह गया है। यही नहीं इन नदियों का पानी रिसकर भूजल को भी दूषित करने लगा है। इस इलाक़े के भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड, निकिल, सीसा आदि की मात्र सामान्य से कहीं अधिक हो गयी है जिसकी वजह से इस पूरे इलाक़े में रहने वाले लोगों में कैंसर, हेपेटाइटिस, लीवर और किडनी की समस्याओं, पेट की समस्याओं और हड्डी विकारों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है।
देश की राजधानी से लगे ग्रेटर नोएडा के छपरौला औद्योगिक इलाक़े के आसपास के गाँवों – सादोपुर, अच्छेजा, सदुल्लापुर, बिश्नूली और खेरा धर्मापुरा – में पिछले कुछ सालों में कैंसर से पीड़ित लोगों की संख्या में ज़बरदस्त उछाल आया है। इन गाँवों के निवासियों का कहना है कि बीस बरस पहले जब छपरौला औद्योगिक क्षेत्र नहीं बना था तब इस इलाक़े में पानी की गुणवत्ता बहुत अच्छी थी और कैंसर जैसी बीमारियों का नामोनिशान तक न था। इस औद्योगिक इलाक़े में 100 से ज़्यादा कारख़ाने हैं जो एडहेसिव, कॉस्मेटिक्स, पेस्टिसाइड, टीवी ट्यूब की मैन्युफ़ैक्चरिंग और धान से भूसी निकालने जैसे कामों में लगे हैं। इन कारख़ानों का कचरा बिना ट्रीट किये हिण्डन नदी में डाल दिया जाता है जो नदी के जल को तो दूषित करता ही है, साथ ही साथ वह रिसकर भूजल को भी ज़हरीला बनाने का काम करता है, जिसकी वजह से विभिन्न किस्म की व्याधियाँ पैदा हो रही हैं। बताने की ज़रूरत नहीं कि यदि किसी परिवार में एक भी व्यक्ति को कैंसर जैसी घातक बीमारी हो जाती है तो उसका इलाज करवाते-करवाते पूरा परिवार कंगाल हो जाता है।
यह समस्या अकेले दोआबा क्षेत्र तक सीमित नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों में फैले सभी औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक कचरा यूँ ही बिना किसी ट्रीटमेण्ट या रिसाइक्लिंग के आसपास की नदियों या जलाशयों में छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पूँजीपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े के लक्ष्य की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि कारख़ाने के भीतर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने से भी जब उनका जी नहीं भरता तो वे कचरे के ट्रीटमेण्ट में लगने वाले ख़र्च से बचने के लिए तमाम पर्यावरण सम्बन्धी क़ानूनों और कायदों को ताक पर रखकर ज़हरीले कचरे को आसपास की नदियों अथवा जलाशयों में बिना ट्रीट किये छोड़ देते हैं। यही वजह है कि इस देश की तमाम नदियाँ तेज़ी से परनाले में तब्दील होती जा रही हैं।
नदियों की दुर्दशा और भूजल के दूषित होने को देखकर तमाम भावुक पर्यावरणविद और गाँधीवादी इस पर्यावरणीय विनाश के लिए औद्योगिकीकरण को दोषी ठहराते हैं और आधुनिकता एवं विज्ञान के ही विरोधी हो जाते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि ऐसा करके वे दरअसल इतिहास के पहिये को पीछे ले जाने की वकालत कर रहे होते हैं। सच्चाई तो यह है कि पर्यावरण की इस भयंकर तबाही के लिए उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति ज़िम्मेदार है जिसका अन्तिम लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना है और इस सनक में वह इंसानी ज़िन्दगी के साथ ही साथ समूचे पर्यावरण को नष्ट करने पर तुल गयी है। यदि सामाजिक उत्पादन समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों के तहत किया जाये तो आधुनिक उद्योग और विज्ञान के ज़रिये मनुष्य की ज़रूरतें भी पूरी की जा सकती हैं और साथ ही साथ पर्यावरण की तबाही भी रोकी जा सकती है।
समाजवादी चीन ने दिखायी पर्यावरण की समस्या के समाधान की राह
बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की महान उपलब्धियों पर साम्राज्यवादी कुत्सा-प्रचार की राख और गर्द को हटाने पर हम पाते हैं कि इन प्रयोगों ने न सिर्फ़ शोषणविहीन उत्पादन व्यवस्था को मुमकिन कर दिखाया था, बल्कि यह भी सिद्ध किया था कि यदि उत्पादन व्यवस्था का लक्ष्य मुनाफ़ा न हो तो मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य बिठाया जा सकता है। इस सन्दर्भ में क्रान्तिकारी चीन के महान समाजवादी प्रयोगों का विशेष महत्व है। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चीनी समाज में यह बहस छिड़ गयी थी कि क्या किसी कारख़ाने को सिर्फ़ अपने उत्पादन की परवाह करनी चाहिए अथवा समूची जनता की? क्या वे मुनाफ़े के रास्ते जा रहे हैं या संयन्त्र को संचालित करने के तमाम फ़ैसले ‘सच्चे दिल से जनता की सेवा करने’ और मज़दूरों-किसानों के स्वास्थ्य और जीवन-निर्वाह को ध्यान में रखते हुए लिये जाने चाहिए?
समाजवाद के दौरान चीन में मज़दूरों, पार्टी की कतारों और वैज्ञानिकों की एक टीम को पर्यावरण की समस्या से निपटने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। जनता के विभिन्न तबक़ों के बीच जाकर उनसे रायशुमारी करने के बाद यह टीम इस नतीजे पर पहुँची कि समस्या के सभी पहलुओं को आत्मसात करते हुए भावी पीढ़ी के दूरगामी हितों के मद्देनज़र ऐसी रणनीति बनायी जानी चाहिए जिसका प्रस्थान बिन्दु जनता की भलाई होना चाहिए। यह तय किया गया कि कारख़ाने अपने कचरे के प्रबन्धन करने और उसे उपयोगी बनाने के रास्ते निकालने के लिए स्वयं ज़िम्मेदार होंगे। ज़हरीले रसायनों से युक्त गन्दे पानी को जलाशयों में एकत्रित करके उसे साफ़ करके सिंचाई व अन्य कामों में इस्तेमाल करने की योजना बनायी गयी। अवशिष्ट पदार्थों से सीमेण्ट, जले हुए कोयले से ईंटें, रद्दी शक्कर से डिस्टिल्ड एल्कोहल, काग़ज़ की लुगदी से पैकेजिंग पेपर बनाया जाने लगा। यही नहीं, व्यापक जन लामबन्दी के ज़रिये उन नदियों की भी सफ़ाई की गयी जिनके तल पर कचरे की मोटी परत जमा हो चुकी थी।
समाजवाद में यह काम इसलिए मुमकिन हो सका, क्योंकि इसके तहत क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी ने मज़दूरों, किसानों, सैनिकों, छात्रें-युवाओं को आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए लामबन्द किया जो मुनाफ़े, लोभ-लालच और स्वार्थ की संस्कृति फैलाने वाली पूँजीवादी व्यवस्था में कतई मुमकिन नहीं है। ग़ौरतलब है कि चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद एक बार फिर से वहाँ मुनाफ़ाख़ोरी और लोभ-लालच की संस्कृति पनपी है जिसकी वजह से क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मेहनतकश जनता के तमाम प्रयासों पर पानी फेरा जा रहा है और एक बार फिर वहाँ की आबोहवा में औद्योगिक कचरे का ज़हर तेज़ी से घुलता जा रहा है जिसका ख़ामियाज़ा समूची मनुष्यता को भुगतना पड़ेगा।
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बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाइयाँ
तपीश
अपनी सामान्य बुद्धि से हम सभी जानते हैं कि प्रकृति जीवन का आधार है। प्रकृति के विनाश का अर्थ है जीवन के सभी रूपों सहित मनुष्य का अन्त। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली पृथ्वी को तेज़ी के साथ विनाश की ओर धकेल रही है! हालात यहाँ तक पहुँच गये हैं कि पूँजीवाद का ख़ात्मा जीवन को बचाने की पूर्व शर्त बनता जा रहा है। आइये देखें कि पूँजीवाद द्वारा पृथ्वी के विनाश के बारे में वर्तमान रिपोर्टों का क्या कहना है।
धरती का बढ़ता तापमान
धरती का बढ़ता हुआ तापमान मौसम वैज्ञानिकों की चिन्ता का सबब बना हुआ है। धरती का तापमान बढ़ाने वाली गैसों को ग्रीन हाउस गैसों के नाम से जाना जाता है। इसमें कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन आदि गैसें शामिल हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ अगले 50 वर्षों में इनके उत्सर्जन की मात्र दुगुनी होने वाली है, जिसका अर्थ है धरती के तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी। पूँजीवाद के विकास से पहले वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्र कई लाख वर्षों से 280 पीपीएम थी। पूँजीवाद के उदय के 250 वर्षों के भीतर यह 400 पीपीएम तक पहुँच चुकी है।
ये ग्रीन हाउस गैसें सूरज की गर्मी को सोख लेती हैं और इस तरह धरती के इर्द-गिर्द एक अदृश्य कम्बल का काम करने लगती हैं। इनके बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ता है और बारिश तथा फ़सलों का चक्र बदलने लगता है। बाढ़ और सूखा बढ़ने लगते हैं। यही वजह है कि 1980 से वर्ष 2000 के बीच दुनिया में बाढ़ की घटनाएँ 230 प्रतिशत बढ़ी हैं और सूखा 38 प्रतिशत बढ़ा है।
दोषी कौन?
पूँजीवादी मीडिया अक्सर प्रचार करता है कि पर्यावरण प्रदूषण की वजह बढ़ती जनसंख्या है। आइये देखें कि आँकड़े किसकी ओर इशारा कर रहे हैं?
दुनिया की लगभग आधी आबादी (3 अरब लोग) ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन का मात्र 7 प्रतिशत उत्सर्जन करती है, जबकि दुनिया के 7 प्रतिशत धनिक कुल प्रदूषण का 50 प्रतिशत उत्सर्जन करते हैं। अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का आँकलन कम्पनियों के आधार पर किया जाये तो पता चलता है कि दुनिया की मात्र 90 कम्पनियाँ 66 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं!
जीव जगत का विनाश
ताज़ा शोध बताते हैं कि 12 प्रतिशत पक्षी, 23 प्रतिशत स्तनधारी प्राणी और 30 प्रतिशत जल-स्थल प्राणी विलुप्त होने की कगार पर हैं। दुनिया के मीठे पानी की मछलियाँ 50 प्रतिशत तक नष्ट हो चुकी हैं और हर साल 1 नदी समुद्र में मिलने से पहले ही सूख जा रही है।
प्राणी वैज्ञानिकों का कहना है कि न सिर्फ़ जीव-जन्तुओं की भिन्न जातियाँ बल्कि एक ही जाति के भीतर मौजूद विविधता का सम्पूर्ण जीवजगत के लिए ज़बरदस्त महत्व है। मसलन 1950 में भारत में धान की 30,000 किस्में थीं, आज हमारे यहाँ मात्र 10 किस्में ही उपयोग में हैं और वो भी बाहर की हैं! शायद ज़्यादातर लोगों को पता न हो कि इस विविधता के नष्ट होने का अर्थ है भोजन में पोषक तत्वों की कमी, खाद का नष्ट होना और फ़सलों की आकस्मिक तबाही जिससे भुखमरी भी पैदा हो सकती है। उदाहरण के लिए 1970 में धान का एक रोग फैला जिसने भारत से लेकर इण्डोनेशिया तक धान की फ़सल तबाह कर दी। इस रोग का इलाज ढूँढ़ने के लिए वैज्ञानिकों ने धान की 6237 किस्मों को परखा और उसमें केवल एक ऐसी किस्म थी जिसमें इस रोग से लड़ने की क्षमता थी।
समुद्र जैव पारिस्थितिकी का विनाश
जंगलों की तरह समुद्र भी धरती के फेफड़ों का काम करते हैं जो ऑक्सीजन हमें ज़िन्दा रखती है उसका 50 प्रतिशत उत्पादन समुद्र करता है और उसमें मौजूद सूक्ष्म पौधे (जिन्हें जीव विज्ञान की भाषा में फाइको प्लैंकटन कहते हैं जो नंगी आँखों से नहीं दिखायी पड़ते हैं।) 30 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड को सोख लेते हैं।
उपग्रह तस्वीरों से पता चलता है कि दुनियाभर में समुद्र में जगह-जगह 50 विशाल मृत समुद्र पैदा हो गये हैं! इसकी वजह पानी का बढ़ता तापमान और उसमें बढ़ती एसिड की मात्र है।
समुद्र के बढ़ते तापमान के कारण कोरल रीफ़ तेज़ी से ख़त्म हो रही हैं। कोरल रीफ़ समुद्र के भीतर लाखों वर्षों में बन पाती हैं। ये चूने से बनी संरचनाएँ हैं जहाँ समुद्री जीव सबसे ज़्यादा संख्या और विविधता में पाये जाते हैं। कोरल के ख़त्म हो जाने का अर्थ है मछलियों व अन्य समुद्री जीवों का ख़त्म हो जाना। अल-निनो प्रभाव से (जिसकी वजह से समुद्र का तापमान 6 डिग्री बढ़ गया) हिन्द महासागर में 90 प्रतिशत कोरल रीफ़ ख़त्म हो चुकी हैं और इण्डोनेशिया में 82 प्रतिशत रीफ़ ख़तरे में हैं।
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मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन