अमेरिकी सत्ताधारियों के पापों का बोझ ढोते सैनिक
रौशन
“मेरा शरीर एक पिंजरा बन चुका है, दर्द और लगातार तकलीफ़ों का एक स्रोत बन चुका है। जो बीमारी मुझे तकलीफ़ दे रही है, उसको विश्व की सबसे ताक़तवर दवा भी कम नहीं कर सकती और इसका कोई इलाज नहीं। रोज़ाना, पूरा दिन मेरी हर नस में दर्द अंगड़ाइयाँ लेता रहता है। यह किसी यन्त्रणा से कम नहीं। उन सब दवाओं के बावजूद, जो डॉक्टर ने मुझे देने की कोशिश की है, मेरा मन वीरान हो चुका है और भयानक दहशत के अहसास, बढ़ती बेचैनी और काट खातीं चिन्ताओं से भरा पड़ा है। साधारण चीज़ें, जो बाक़ी सब के लिए बड़ी आसान होती हैं, मेरे लिए लगभग असम्भव हैं। मैं हँस या रो नहीं सकता। मुझे घर से निकलना मुश्किल लगता है। मुझे किसी सक्रियता से कोई ख़ुशी नहीं होती। मेरे दोबारा सोने तक हर चीज़ मेरे लिए सिर्फ़ समय काटने का साधन है। अब, हमेशा के लिए सो जाना ही सबसे ज़्यादा दयालु चीज़ लगती है।”
उपरोक्त पंक्तियाँ 30 वर्षीय अमेरिकी सैनिक डेनियल सॉमर्स की एक चिट्ठी से हैं जिसने ख़ुदकुशी कर ली। 2003 से लेकर उसने कई वर्ष इराक़ में गुज़ारे जिस दौरान वह सैकड़ों सैनिक कार्रवाइयों में शामिल रहा। वह उसी दिन अमेरिका में ख़ुदकुशी करने वाले 22 सैनिकों में से एक था। इराक़ और अफ़गानिस्तान के साथ जुड़े सैनिकों से सम्बन्धित बनी एक संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक़ अमेरिका में रोज़ाना 22 सैनिक ख़ुदकुशी कर लेते हैं। 2009 के बाद आत्महत्याओं की संख्या में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। सिर्फ़ 30 साल से कम उम्र के ख़ुदकुशी करने वाले सैनिकों की संख्या इस अरसे में 44 प्रतिशत बढ़ी है। कई मामलों में तो ख़ुदकुशी करने वाले सैनिकों की संख्या युद्ध में मारे जाने वालों से भी अधिक है। मिसाल के तौर पर जनवरी 2012 से सितम्बर 2012 के दौरान 247 सैनिकों ने ख़ुदकुशी की, जबकि इसी दौरान 222 सैनिक सैन्य-कार्रवाइयों के दौरान मारे गये। साल 2014 के पहले के तीन महीनों में ही 1892 सैनिकों ने ख़ुदकुशी की। इन आत्महत्याओं की दर आम नागरिकों से दुगनी से भी ज़्यादा है। इसके अलावा अमेरिकी सेना में ड्यूटी से वापस लौटे बड़ी संख्या में सैनिक मानसिक रोगी हैं और बहुतेरे पी.एस.टी.डी. नाम की बीमारी से पीड़ित हैं। ये आत्महत्याएँ नहीं हैं, बल्कि अमेरिकी सत्ताधारियों, पूँजीपतियों के मुनाफ़े की बलि चढ़ी हत्याएँ हैं।
जब विश्व के बड़े लुटेरों, पूँजीपतियों में मुनाफ़े की छीना-झपटी के लिए दूसरा विश्वयुद्ध हुआ तब तक अमेरिका आर्थिक और राजनीतिक तौर पर इतनी बड़ी ताक़त नहीं था। दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका ने सोचा कि सोवियत संघ और जर्मनी के आपस में भिड़ने के बाद एक ताक़त हार जायेगी तो दूसरी कमज़ोर हो जायेगी और उसको जीतना आसान रहेगा। इसी योजना के अन्तर्गत अमेरिका ने युद्ध से सुरक्षित दूरी बनाये रखी। दूसरा विश्वयुद्ध 1939 में ही शुरू हो चुका था, लेकिन अमेरिका युद्ध में 1943-44 में शामिल हुआ। जब पूर्व की तरफ़ से स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की लाल सेना जर्मन नाज़ियों को स्तालिनग्राद से खदेड़ते हुए बर्लिन तक जा रही थी तो अमेरिका ने अनुकूल हालत देखकर जर्मनी के खि़लाफ़ पश्चिम से मोर्चा खोला। उसके बाद अपनी ताक़त के प्रदर्शन के लिए उसने जापान के दो शहरों पर ऐटम बम गिराये। इस युद्ध के दौरान अमेरिका के पूँजीपतियों ने बड़े स्तर पर हथियार, दवाएँ और अन्य सैन्य सामान बनाकर यूरोपीय देशों को बेचे और मोटे मुनाफ़े कमाये। युद्ध के बाद में यूरोप के बहुत से देश कंगाली की हालत तक पहुँच चुके थे और अपनी राजनीतिक ताक़त गँवा चुके थे। अमेरिका ने इन देशों को क़र्ज़ दिये, इन देशों में निर्माण के प्रोजेक्ट अमेरिकी कम्पनियों ने लिये और इस तरह दूसरे विश्वयुद्ध में कूटनीति के दम पर अमेरिका एक बड़ी आर्थिक और राजनीतिक ताक़त बनकर उभरा, जिसमें हथियारों के उद्योग का बहुत बड़ा योगदान था। दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर 1960 के दशक तक विश्व अर्थव्यवस्था का ‘सुनहरा युग’ रहा और उस दौर में अमेरिका भी वृद्धि की हालत में था। 70 के दशक से शुरू हुए आर्थिक संकट से अमेरिका समेत कई देशों की हालत पतली होने लगी, 20वीं सदी के अन्त तक थोड़ी-बहुत राहत मिली, लेकिन फिर हाउसिंग बूम, सब-प्राइम संकट और क़र्ज़ संकट जैसे एक के बाद एक संकटों के कारण अमेरिका की अर्थव्यवस्था और भी लड़खड़ा गयी और पूँजी की ताक़त और मुनाफ़े की हवस ने हथियारों के कारोबार को अमेरिका के गले पड़ा ढोल बना दिया और इसके बजते रहने के लिए युद्ध ज़रूरी हो गये।
वास्तव में होता यह है कि पूँजीपति ढाँचे में समाज की कुल पैदावार बहुत थोड़े हाथों में सीमित होती है और इन थोड़े हाथों के आपसी मुक़ाबले के कारण मण्डी में अराजकता का माहौल बना रहता है जो बार-बार आर्थिक संकट को जन्म देता रहता है। आर्थिक संकट के दौरान उत्पादन ज़रूरत से ज़्यादा हो जाता है और रोज़गार खोने के कारण लोगों में उनको ख़रीदने की क्षमता नहीं होती। ऐसे मौक़े पर पूँजीवादी व्यवस्था के बचे रहने के लिए ज़रूरी हो जाता है कि बड़े स्तर पर तबाही की जाये जिससे पुनर्निर्माण आदि के रूप में नयी मण्डी और नया रोज़गार पैदा किया जा सके। इसीलिए पूँजीवादी ढाँचा बार-बार युद्धों को मानवता पर लादता रहता है, जिससे पूँजीपतियों को पैसा निवेश करने के लिए कोई क्षेत्र मिलता रहे। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद में अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयों का असली कारण यहीं छिपा हुआ है।
अमेरिका की हालत और भी बुरी है, क्योंकि इसने न सिर्फ़ युद्धों के द्वारा तबाही करके अपने पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए बाज़ार चाहिए, बल्कि अमेरिका का हथियारों का भी बहुत बड़ा कारोबार है। अगर विश्व में अमन का माहौल रहे और देशों में आपसी तनाव का माहौल न रहे तो अमेरिका का हथियारों का उद्योग तबाह हो जायेगा और इसकी अर्थव्यवस्था के पैर उखड़ जायेंगे। अमेरिका के लिए युद्ध लड़ने का तीसरा कारण यह भी है कि उसे वर्षों से चलती आ रही अपनी राजनीतिक नेतागीरी को भी बरकरार रखना है। इसीलिए अमेरिका ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वियतनाम, इराक़ और अफ़गानिस्तान की तीन बड़ी जंगें मानवता पर थोपीं। इन तीनों युद्धों के अलावा अमेरिका विश्व के 70 से ज़्यादा देशों में किसी न किसी रूप में सैन्य-कार्रवाइयाँ करता रहा है। इन युद्धों में निर्दोष लोगों पर किये गये दिल दहलाने ज़ुल्म किसी को भूले नहीं हैं। इसके अलावा अमेरिका देशों में आपसी तनाव का माहौल बनाये रखने, अन्य देशों में अपने हित के मुताबिक़ सरकार या विद्रोहियों की हिमायत करने और गाज़ा में हत्याकाण्ड करने वाले इज़रायल जैसे देशों की पीठ थपथपाने जैसे काम करता रहता है। इस घृणित और बेरहम काम के लिए अमेरिका के पास विश्व की सबसे बड़ी सैनिक ताक़त है, सबसे आधुनिक हथियार हैं और तरह-तरह की वहशी कार्रवाइयाँ करने के लिए सेना के भीतर कई स्पेशल यूनिट बने हुए हैं। अपनी इसी ताक़त की वजह से अमेरिका की तरफ़ से विश्वभर में निर्दोष लोगों पर किये गये दिल दहलाने वाले जुल्म किसी से छिपे हुए नहीं हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के ज़ख़्म आज भी रिस रहे हैं, वियतनाम युद्ध में दूसरे विश्वयुद्ध से भी कई गुणा ज़्यादा बम फेंके गये और वहाँ नापाम बमों का वर्षों तक कहर जिन्होंने देखा है, उनके लिए रात को सोना भी कठिन है, लोगों को क़ैदी बनाकर कष्ट देने, ड्रोन हमलों के द्वारा हत्याकाण्ड भी किसी को नहीं भूले और कहीं भी अमेरिकी युद्धबाज़ों ने बच्चों और औरतों को भी नहीं बख्शा।
मुनाफ़े की हवस में किये जाते इस बर्बर हत्याकाण्ड के लिए तकनीक और मशीनरी से अहम हथियार हैं मनुष्य जिनको जानवर की तरह वहशी और हुक्म पर चलने वाली क़त्ल की मशीनें बनाने पर पूरा ज़ोर लगाया जाता है। गालियाँ, अपमानजनक शब्दों और सख्त सज़ाओं की बौछार के नीचे हो रहे सैनिक प्रशिक्षण में उनको क़त्ल करने के लिए तैयार किया जाता है। सेना में यह सिखाया जाता है कि सैनिक का काम सोचना नहीं है, बल्कि हुक़्म मानना है। लेकिन जैसा कि जर्मन कवि ब्रेख्त ने कहा हैः मनुष्य सबसे कारगर हथियार है लेकिन उसमें एक नुक्स ये है कि “वह सोच सकता है।” और जब कभी-कभार इन मशीनों के अन्दर का कोई इंसानी दिल धड़क उठता है तो यह क़त्ल करने वाली मशीन बनने से बाग़ी हो जाता है। यही बग़ावत कई रूपों में फूटती है और अमेरिकी सैनिकों की ये आत्महत्याएँ इसी का एक रूप है। अफ़गानिस्तान, इराक़ जैसे इलाक़ों में हत्याकाण्ड में शामिल होने वाले मनुष्य में से जो पूरी तरह पशु नहीं बनते, ख़ून के तालाब, औरतों की चीख़ें, बच्चों का रोना और मासूमों के डरे हुए और दयनीय चेहरे हमेशा उनको घेरे रहते हैं। वे भारी मानसिक तनाव, बेचैनी और उनींदेपन के शिकार हो जाते हैं और यह सब इस हद तक पहुँच जाता है कि उनके सामने पशु बनने या फिर ख़ुदकुशी करने का ही रास्ता बाक़ी बचता है।
यह सब अमेरिका में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में घट रहा है। युद्ध पूँजीवाद के लिए कितना ज़रूरी हो गया है, इसका अन्दाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि साल 2013 में विश्व स्तर पर हथियारों का कारोबार 100 खरब डॉलर के करीब रहा है। पूरे विश्व में मनुष्य को संवेदनहीन, बेरहम बनाने का काम बचपन से ही शुरू हो जाता है। टीवी, मीडिया, किताबें, पत्रिकाओं और फ़िल्मों आदि के द्वारा बेरहम हिंसा की खुराकें देकर शुरू से ही मानव को पशु बनाने की कोशिशें की जाती हैं। फ़िल्में, ख़ासकर हॉलीवुड की फ़िल्मों में हिंसा इतने बड़े स्तर पर और इतने घृणित रूप में पेश की जाती है कि दर्शक धीरे-धीरे उस हिंसा का आदी हो जाता है। अक्सर नायक लोगों को इस तरह मारता है जैसे सलाद काटा जा रहा हो और लोगों को इसमें कुछ भी बुरा नहीं लगता, बल्कि ख़ुशी ही होती है। इस तरह लोगों को यह सिखाने की कोशिश की जाती है कि एक मनुष्य का मारा जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं। फिल्में तो सिर्फ़ एक उदाहरण हैं, यह हमला मानवता के दुश्मनों की तरफ़ से अनन्त रूपों में किया जाता है। इससे सम्बन्धित इतिहास की एक घटना याद आती है – साण्डर्स के क़त्ल के बाद में जब बाक़ी साथी राजगुरू के निशाने की तारीफ़ कर रहे थे तो उसका कहना था कि वह भी किसी माँ का पुत्र था। इसी तरह भगतसिंह ने साण्डर्स को मारने के बाद बाँटे गये परचे में कहा कि “हमें एक मनुष्य के मारे जाने का अफ़सोस है।” जबकि आजकल परोसी जाती हिंसा की धुन्ध में लोगों को इस हद तक असंवेदनशील बनाने की कोशिश की जाती है कि उनके लिए इज़रायल की तरफ़ से फ़िलिस्तीन में बच्चों समेत हज़ारों लोगों के किये हत्याकाण्ड की ख़बर अख़बार के बीच की बाक़ी ख़बरों से बहुत अलग नहीं होती, उनको यह बात झँझोड़ती नहीं, कोई नफ़रत नहीं जगाती। हिंसा का यह पाठ सिर्फ़ क़त्ल करने के लिए तैयार किये जा रहे सैनिकों के लिए ही नहीं होता, बल्कि उतना ही आम लोगों के लिए भी होता है। सत्ताधारी लुटेरे ख़ुद की तरफ़ से किये या करवाये जा रहे हत्याकाण्ड को लोगों में स्वीकार करवाने या “छोटी-मोटी” घटना बनाकर पेश करने का काम करते हैं। भारत में सेना और पुलिस भी इसी तर्ज पर ही तैयार होती है, नहीं तो कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में किये जा रहे सरकारी दमन भारतीय सत्ता के लिए सम्भव ही नहीं होंगे। भारत में भी सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवानों द्वारा आत्महत्या करने या फिर अपने अफसरों को निशाना बनाने की बढ़ती घटनाएँ सैनिकों के बीच बढ़ती घुटन को ही बताती हैं।
इस तरह जब तक पूँजीवादी ढाँचा रहेगा तब तक यह मानवता पर युद्धों को थोपता रहेगा, मुनाफ़े के लिए मासूम लोगों का क़त्लेआम करता रहेगा, सैनिकों को क़त्ल करने वाली मशीनें बनने या ख़ुदकुशी करने के लिए मजबूर करता रहेगा और मनुष्यों को पशुओं के स्तर तक गिराने की कोशिश करता रहेगा। लेकिन इतिहास का सबक है कि अपने तमाम भद्दे प्रयासों के बावजूद लुटेरे सत्ताधारी कभी भी पूरी मानवता को पशु नहीं बना सकते। रूसी कहानीकार चेख़व के अनुसार – “ज़िन्दा मनुष्य बेइन्साफ़ी के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई करते हैं।” इतिहास के हर दौर में स्पार्टकस, और भगतसिंह आदि पैदा होते रहे हैं और क्रान्तियों के द्वारा लुटेरों को मिट्टी में रौंदते रहे हैं। आज अमेरिकी सैनिकों का गुस्सा व्यक्तिगत विद्रोह के तौर पर आत्महत्याओं के रूप में सामने आ रहा है, कल को जनउभारों की हिमायत के रूप में भी सामने आयेगा और वह मानवता को पशु बनाने वाले इस लुटेरे ढाँचे का अन्त करने की लड़ाई में भागीदार होंगे।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015
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