गुजरात में मोदी की जीत से निकले सबक

 

चुनावी जोड़–तोड़ से साम्प्रदायिक फासीवाद को नहीं हराया जा सकता

मेहनतकश अवाम की गोलबन्दी और क्रान्तिकारी जनसंघर्ष ही एकमात्र रास्ता

modi-swordवर्ष 2002 के बाद गुजरात विधानसभा के चुनावों में भी नरेन्द्र मोदी की जीत ने इस सचाई को फिर से उजागर किया है कि गुजरात के समाज में साम्प्रदायिक बँटवारा किन ख़तरनाक हदों तक हो चुका है । चुनाव नतीजों ने यह भी बिल्कुल साफ़ तौर पर उजागर कर दिया है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के चुनावी जोड़–तोड़ के सहारे साम्प्रदायिक फासीवाद को फैसलाकुन शिकस्त कत्तई नहीं दी जा सकती । चुनाव नतीजों ने नकारात्मक रूप से इतिहास के इस सबक की एक बार फिर शिद्दत से याद दिलायी है कि केवल मेहनतक़श अवाम की वर्गीय गोलबन्दी और उसकी धुरी पर कायम जनवादी एवं धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चा ही फ़ासीवाद के भस्मासुर का वध कर सकता है ।

तथाकथित लोकतंत्र की सीढ़ियाँ चढ़कर गुजरात के हिटलर नरेन्द्र मोदी का दुबारा सत्ता तक पहुँचना क्या जर्मनी के हिटलर की याद नहीं दिलाता । वह भी पूँजीवादी लोकतंत्र का खेल खेलते हुए जर्मन संसद ‘राइखस्टाग़’ के भीतर दाखिल हुआ था और बाद में सारी सत्ता अपने हाथों में ले ली थी । यह तुलना थोड़ी बढ़ा–चढ़ाकर कही हुई बात लग सकती है क्योंकि गुजरात समूचा हिन्दुस्तान नहीं उसका एक छोटा सा राज्य है । लेकिन पूँजीवादी लोकतंत्र के खेल की असलियत को समझने के लिए यह ग़लत भी नहीं है । पूँजीवादी लोकतंत्र के खेल के नियमों और उसकी आचार संहिताओं के नज़रिये से नरेन्द्र मोदी ने अगर कोई फाउल खेला भी तो सोनिया गाँधी ने भी वही किया । नरेन्द्र मोदी ने अगर भरी सभा में सोहराबुद्दीन के ‘इनकाउण्टर’ को सीना ठोंककर जायज ठहराकर अगर फाउल खेला तो सोनिया गाँधी ने भी मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहकर वही काम किया । आयोग ने, जो इस खेल का रेफ़री होता है, यही फैसला दिया है । आप चुनाव आयोग की इस ‘निष्पक्षता’ पर कैसे और कहाँ सवाल उठायेंगे!

लोकतंत्र के खेल में गुजरात का हिटलर जीता

Modi and labour lawsगुजरात में मोदी और जर्मनी में हिटलर के सत्तारोहण में एक और समानता है । दोनों को देश के बड़े इज़ारेदार पूँजीपतियों का भरपूर समर्थन हासिल था । गुजरात में तथाकथित विकास की जो गंगा नरेन्द्र मोदी बहा रहे हैं उससे टाटा–बिड़ला–अम्बानी ही नहीं तमाम विदेशी पूँजीपति भी बेहद खुश हैं । गुजरात की दस फीसदी से ऊपर की विकास दर की चर्चा पूँजीपतियों की हर सभा में नज़ीर की तरह दुहराई जाती है । 2002 के बाद पिछले पाँच सालों में हुए इस तथाकथित विकास में गुजरात के उद्योग–धन्धों में खट रही मेहनतक़श आबादी की आवाज़ को सत्ता के आतंक से खामोश कर वैसी मरघटी शान्ति बहाल कर दी गयी है जैसी पूँजीपतियों को बेहद पसन्द है । इसीलिए 2002 में गुजरात जनसंहार का असली ‘मास्टर माइण्ड’ देश और दुनिया के पूँजीपतियों को बहुत प्यारा है । जैसे जर्मनी में मज़दूरों की सभाओं में हमला बोलने वाले और मज़दूर नेताओं की हत्याएँ करने वाले ‘तूफ़ानी दस्ते’ का सरगना हिटलर जर्मन पूँजीपतियों का दुलारा बन गया था ।

वर्ष 2002 के जनसंहार के बाद मोदी के ‘जीवन्त गुजरात’ में मुसलमानों की क्या जगह है ? वे पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिये गये हैं । उनके मानवीय स्वाभिमान को पूरी तरह कुचलकर उनकी दशा बिल्कुल वैसी बना दी गयी है जैसी भेड़ियों के आगे सहमें हुए मेमनों की होती है । अहमदाबाद, सूरत और बड़ौदा जैसे शहरों में ज्यादातर गरीब मेहनतक़श मुसलमान आबादी ऐसी घनी बस्तियों में सिमटा दी गयी है जहाँ बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक ढंग से मयस्सर नहीं है । वे बिल्कुल उसी तरह दोयम दर्जे के नागरिक बना दिये गये हैं जिसकी संकल्पना गुरु गोलवलकर ने की थी । भले ही काग़ज़ी तौर पर उनसे नागरिकता नहीं छीनी गयी है लेकिन व्यवहारत: वे मोदी के हिन्दू राज्य के अ–नागरिक बन गये हैं । यह अनायास नहीं है कि संघ परिवार अपने लाडले स्वयंसेवक की कामयाबी पर फूला नहीं समा रहा है । ‘हिन्दुत्व’ और ‘विकास’ का यही वह एजेण्डा है जिसे भगवा बिरादरी पूरे देश में आगे बढ़ाना चाहती है ।

गुजरात चुनाव में नरेन्द्र मोदी की दुबारा जीत अप्रत्याशित नहीं है । वर्ष 2002 में हुए राज्य प्रायोजित जनसंहार के बाद जिस तरह गुजरात की आम जनता का साम्प्रदायिक बँटवारा हुआ वह केवल तभी दूर हो सकता था जब वर्गीय आधार पर जन गोलबन्दी की कोई मुहिम वहाँ आगे बढ़ती । लेकिन गुजरात में क्रान्तिकारी वर्गीय राजनीति करने वाली ताकतों की लगभग गैरहाजि़री से यह मुहिम वहाँ नहीं शुरू हो सकी । सी.पी.आई. और सी.पी.आई. (एम.) जैसी संसदीय वामपन्थी पार्टियों का भी वजूद वहाँ नाममात्र ही है । और जो है वह भी कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का पिछलग्गू बनने से ज्यादा नहीं है । मोदी के ख़िलाफ़ तथाकथित सोसायटी के धर्मनिरपेक्ष कुलीनों की जो क़ानूनी कवायदें होती रहीं उनका कोई जमीनी असर नहीं और वे पूँजीवादी लोकतंत्र के विधि–विधान के प्रति ऐसी उम्मीदों की कवायदें बनकर रह गयीं जिसका कोई ठोस आधार नहीं है । पिछले साठ साल के अनुभवों से गुजरने के बाद अब आम आबादी का बड़ा हिस्सा भी यह समझने लगा है कि दुनिया का यह तथाकथित सबसे बड़ा लोकतंत्र भी पूँजीवादी लोकतंत्र ही है जिसका कुल जमा–निचोड़ होता है अमीर–उमरा लोगों के लिए जनवाद और आम मेहनतक़श जनता के ऊपर तानाशाही । इस पूँजीवादी लोकतंत्र के प्रति जनता की अनास्था जितनी बढ़ेगी सच्चे लोकतंत्र के लिए उसकी जद्दोजहद उतनी ही आगे बढ़ेगी । कहने का मतलब यह नहीं कि जनता को न्याय दिलाने के क़ानूनी तरीकों को पूरी तरह ताक़ पर रख दिया जाना चाहिए लेकिन पूँजीवादी जनवाद के प्रति बेजा मोह में भी नहीं पड़ना चाहिए । यह बेजा मोह क्रान्तिकारी विकल्पों की तलाश करने और जनसंघर्षों को आगे बढ़ाने में रुकावट बनकर खड़ा हो जाता है ।

कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता का पिलपिलापन

गुजरात विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के पिलपिलेपन को भी एक बार फिर से उजागर किया है । नेहरू की ‘सर्वधर्म समभाव’ पर आधारित धर्मनिरपेक्षता ‘आक्रामक हिन्दुत्व’ की चुनावी मुहिम के सामने मिमियाती नजर आयी । नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार की शुरुआत ‘विकास’ के मुद्दे को उछालकर की थी । कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार इस मुद्दे पर मोदी को घेरने में इसलिए कामयाब नहीं हो सकते थे क्योंकि गुजरात में ‘विकास’ के उसी मॉडल को अमली जामा पहनाया जा रहा है जिसे आगे बढ़ाने वाली खुद कांग्रेस ही है । इस सवाल पर देशी–विदेशी पूँजीपति ही नहीं स्वयं मनमोहन सिंह और चिदम्बरम मोदी को पास होने का प्रमाण पत्र दे चुके हैं । इसलिए सोनिया गाँधी ने मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहकर कट्टर हिन्दुत्व विरोधी वोटों को अपने पक्ष में करने की सोची । लेकिन मोदी के पलटवार ने कांग्रेसी चुनावी मुहिम को बचाव की मुद्रा के पीछे धकेल दिया । कांग्रेस ने यह मुद्रा उदार हिन्दु वोटों को फिसलने से बचाने के लिए किया । लेकिन मुस्लिम वोटों को हर हाल में अपनी झोली में गिरने के लिए ऐन चुनाव के बीच जो सस्ती पोस्टरबाजी की उससे उदार हिन्दू भी मोदी के पक्ष में चले गये । राहुल गाँधी का रोड शो भी कोई करिश्मा नहीं कर सका । भगवा ब्रिगेड के जिन असन्तुष्टों से चुनावी लाभ कमाने की उम्मीद कांग्रेस ने पाली थी वे भी औंधे मुँह जा गिरे । आदिवासी वोटों को भी कांग्रेस मोदी से नहीं छीन सकी । उसके दलित वोटों में भी जहाँ–तहाँ बहुजन समाज पार्टी ने सेंध मार दी । मायावती की ‘सोशल इंजीनियरिंग़’ गुजरात में बसपा को एक भी सीट नहीं दिला सकी लेकिन कई कांग्रेसी सीटों को मोदी की झोली में जरूर डाल दिया । कांग्रेस को केवल मध्य गुजरात में ही थोड़ी बहुत कामयाबी मिली जहाँ मुसलमान आबादी ने भारी संख्या में उसके पक्ष में मतदान किया । यह भी मोदी के ख़िलाफ़ नकारात्मक वोटिंग ही थी न कि कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता को सकारात्मक समर्थन । इन तमाम वजहों के मद्देनजर मोदी की वापसी पहले से तय थी । इन्हीं आधारों पर चुनावी गुणा–भाग का हिसाब लगाने वाले मीडिया–प्रायोजित चुनाव–पूर्व सर्वेक्षणों ने भी मोदी की वापसी की भविष्यवाणी कर दी थी ।

गुजरात में भगवा ब्रिगेड की कामयाबी और कांग्रेसी राजनीति का दिवाला पिटने की वजहें गुजरात की विशिष्ट सामाजिक–आर्थिक संरचना और स्वयं कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में भी हैं । गुजरात में औपनिवेशिक काल में जिस पूँजीवाद की बुनियाद पड़ी उसमें हमेशा ही औद्योगिक पूँजी के ऊपर वाणिज्यिक पूँजी का वर्चस्व रहा है । इतिहास का यह सच हम सभी जानते हैं कि जनवाद उद्योग की ज़मीन पर पनपता है और वाणिज्यिक (व्यापारिक) पूँजी की ज़मीन पर निरंकुशशाही की बेल फलती–फूलती है । सूरत और अहमदाबाद में, जहाँ औद्योगिक मज़दूर वर्ग की तादाद सबसे ज्यादा थी, वहाँ भी मज़दूर आन्दोलन के ऊपर गाँधी के मज़दूर–महाजन संघ की वर्ग सहयोगवादी सोच ज्यादा प्रभावी थी । किसान आबादी के ऊपर भी गाँधी से ज्यादा सरदार वल्लभ भाई पटेल की अगुवाई में कांग्रेस के भीतर के दक्षिणपन्थी धड़े की विचारधारा का ज्यादा प्रभाव था । 1925 में बारदोली सत्याग्रह भी वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में शुरू हुआ था जिसे आगे चलकर गाँधी ने समर्थन और नेतृत्व दिया था । ‘गाँधी के गुजरात को क्या हो गया है’ कहने वालों को इस तथ्य की ओर ध्यान देना चाहिए कि गुजरात के किसानी समाज पर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भी गाँधी का प्रभाव देश के कई अन्य क्षेत्रों से कम था और मज़दूर वर्ग पर जो प्रभाव था वह मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी चेतना को कुन्द करने वाला था । 1947 के बाद गुजरात में जो पूँजीवादी विकास हुआ वह भी गुजरात के समाज में जनवाद के बजाय निरंकुशशाही के मूल्यों को ही मजबूत बनाने वाला था । गुजरात की अर्थव्यवस्था में व्यापारिक पूँजी का पहले से कायम वर्चस्व भी बना रहा और गाँवों में भी पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप पटेल आदि मध्य जातियों के बीच से जो नया कुलक वर्ग पैदा हुआ उसने निरंकुशता को नयी ज़मीन मुहैया करायी । गुजरात में एक खाता–पीता शहरी मध्य वर्ग भी मोदी की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के एक मजबूत सामाजिक आधार के रूप में विकसित हुआ है । यहाँ यह तथ्य भी गौरतलब है कि इन्दिरा गाँधी के समय में कांग्रेस में जो विभाजन हुआ था उसमें गुजरात में इन्दिरा समर्थक इण्डिकेट खेमे के बजाय मोरारजी देसाई समर्थक ‘सिण्डिकेट’ खेमे का ही वर्चस्व कायम हुआ था । कहने का मतलब यह कि गुजरात में राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से कांग्रेसी राजनीति का ‘दक्षिणपन्थी’ खेमा ही हमेशा वर्चस्व में रहा है । गुजरात चुनावों में मोदी के ख़िलाफ़ बगावत करने वाले भाजपा नेताओं को कांग्रेस द्वारा आसानी से स्वीकार लेना और उन्हें टिकट देना भी इसी सच्चाई का प्रमाण है । गुजरात में कांग्रेस के इस इतिहास को देखते हुए 2002 जनसंहार में कांग्रेस के कुछ नेताओं की भी सक्रिय भागीदारी पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।

चुनावी वामपन्थियों का नपुंसक फ़ासीवाद विरोध

गुजरात में कांग्रेस राजनीतिक के इस चरित्र को देखते हुए यह उम्मीद करना ही बेमानी था कि मोदी के आक्रामक हिन्दुत्व की राजनीति और गुजराती समाज के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की मौजूदा स्थिति में चुनावी राजनीति के दायरे में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को कोई चुनौती दी जा सकती है । गुजरात चुनाव के नतीजे आने के बाद माकपा महासचिव प्रकाश करात अपनी पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेली’ में विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कांग्रेस के प्रति शिकायती अन्दाज़ में फरमाते हैं कि उसने भगवा ब्रिगेड के ख़िलाफ़ दृढ़ साम्प्रदायिकता विरोधी चुनावी रणनीति नहीं अख्तियार की ।

सवाल यह है कि कांग्रेस से आप अभी तक यह उम्मीद ही क्यों पाले हुए हैं ? इसलिए क्योंकि आपका मेहनतक़श अवाम की संग्रामी गोलबन्दी में भरोसा नहीं है । आप और आपकी समूची चुनावी वामपन्थी बिरादरी जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों को छोड़कर पूँजीवादी संसदीय जनवाद की चैहद्दी को स्वीकार कर चुकी है । आप लोग भले ही चुनावों में जाति और धर्म के कार्डों का खुला खेल न खेलें लेकिन आप लोगों की धर्मनिरपेक्षता भी नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता का पर्याय बनकर रह गयी है । यह अनायास नहीं है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुकाबला करने और भाजपा को सत्ता से दूर रखने के नाम पर आप केन्द्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली उस सरकार का समर्थन कर रहे हैं जिसकी धुर पूँजीपरस्त आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ आप संघर्ष करने का दम भरते नजर आते हैं ।

साम्प्रदायिक फ़ासीवाद से संघर्ष करने के नाम पर सी.पी.एम.और सी.पी.आई. जैसी तमाम चुनावी वामपन्थी पार्टियाँ इन ताकतों को उसी तरह वस्तुगत रूप से मदद पहुँचा रही हैं जिस तरह यूरोप की सामाजिक जनवादी पार्टियों ने अपनी समझौतावादी नीतियों से हिटलर और मुसोलिनी को मदद पहुँचायी थी । भारत की ये नव सामाजिक जनवादी पार्टियाँ भी अपनी समझौतापरस्ती और जनता की लड़ाइयों को पूँजीवादी जनवादी–क़ानूनी दायरों में सिकोड़ देने की रणनीति और कार्यनीति के चलते हर निर्णायक मोड़ों पर कमज़ोर कर देती हैं और शक्ति सन्तुलन का पलड़ा फ़ासीवादी शक्तियों के पक्ष में झुकाती रहती हैं ।

पिछले डेढ़ दशकों के दौरान इन चुनावी वामपन्थियों का साम्प्रदायिक फ़ासीवाद विरोध की उतना ही मरियल और रस्मी रहा है जितना उदारीकरण की नीतियों का विरोध । साम्प्रदायिक फ़ासीवाद से संघर्ष करने के नाम पर महज औपचारिक रैलियों, प्रदर्शनों या महानगरीय कुलीन बुद्धिजीवियों के बीच कुछ सेमिनारों या सांस्कृतिक आयोजनों से अधिक इन्होंने कुछ नहीं किया । क्या हम यह नहीं देख रहे हैं कि उदारीकरण–निजीकरण की नीतियों के विरोध में इनकी रस्म अदायगी और कर्मकाण्डी विरोधों से तंग मज़दूर वर्ग की राजनीतिक क्रियाशीलता मन्द पड़ती जा रही है उसकी राजनीतिक चेतना भोंथरी होती जा रही है और नतीजतन उसका एक बड़ा हिस्सा ‘इण्टक़’ ही नहीं संघ परिवार के भारतीय मज़दूर संघ के पीछे जा खड़ा हो रहा है । इतिहास गवाह है कि ऐसी पार्टियाँ अपने पीछे चलने वाले मेहनतक़शों को और खुद ही अपनी कतारों को फासिस्ट दमन के सामने निहत्था–निश्शस्त्र छोड़ देती रही हैं । हमारे देश में भी हम यही होते हुए देख रहे हैं ।

मोदी को चुनौती न दे पाने के लिए प्रकाश करात द्वारा कांग्रेस रणनीति को कोसना और उसके नेतृत्व को उलाहना देना संसदीय वामपन्थियों की नपुंसकता का ही प्रमाण है । साथ ही अपनी पार्टी कतारों को छिटकने से बचाने के लिए की जाने वाली बौद्धिक कवायद भी है । ऊपर बताये गये ‘पीपुल्स डेली’ के लेख में प्रकाश करात लफ्फाजी करते हुए लिखते हैं, “साम्प्रदायिक शक्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष तभी आगे बढ़ाया जा सकता है जब मोदी सरकार की बेलगाम दक्षिणपन्थी आर्थिक नीतियों के शिकार लोगों की फौरी समस्याओं को उठाया जाये । किसानों, मज़दूरों आदिवासियों के अधिकारों के लिए और शहरी गरीबों को उजाड़ने एवं किसानों की बेदखली के ख़िलाफ़ संघर्षों को कारगर ढंग से नहीं संगठित किया जा सका ।” करात साहब यहाँ घुमा–फिराकर, पानी मिलाकर वर्गीय गोलबन्दी जैसी कोई बात कहना चाहते हैं । लेकिन वह फिर तुरन्त इस संघर्ष को संगठित करने में गुजरात में अपनी पार्टी की कमज़ोरी को मजबूरी बताते हुए फिर कांग्रेस को उलाहना देने लगते हैं । कांग्रेस ने भी यह संघर्ष क्यों नहीं संगठित किया ? इसका जवाब भी अगली ही लाइन में करात जी दे डालते हैं—“उदारीकरण की नीतियों की वकालत करने वाली कांग्रेस भाजपा सरकार की नीतियों का डटकर विरोध कर ही नहीं सकती थी ।” वाह करात साहब कितने समझदार हैं । वह सब कुछ समझते हैं । इसलिए तो वह गोरखपाण्डे की कविता की तर्ज पर ‘समझदारों का गीत’ गा रहे हैं । ताकि उनके काडर न बहकने पायें । कोई उनसे पूछे कि कांग्रेसियों की धोती की खूँट पकड़कर धर्मनिरपेक्षता की हुआँ–हुआँ करना छोड़कर आप लोग स्वयं ही वर्गीय गोलबन्दी करने का काम डटकर शुरू क्यों नहीं कर देते ।

साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी गोलबन्दी करो!

गुजरात में मोदी की जीत फौरी तौर पर गुजरात की मेहनतक़श जनता की हार है । साथ ही यह देश के क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की कमज़ोरी की भी देन है । लेकिन मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी अग्रदलों को प्रकाश करात जैसे नकली वामपन्थियों की तरह पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से कोई झूठी नहीं उम्मीद पालनी चाहिए । साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ कोई चुनावी मोर्चा कारगर नहीं हो सकता । आज देश और दुनिया में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और हर तरह के धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीति भूमण्डलीकरण की आर्थिक कट्टरपन्थी नीतियों की ज़मीन पर खड़ी है । हमारे देश में आज सभी चुनावी पार्टियाँ खुलकर या छिपे रूप में भूमण्डलीकरण की इन आर्थिक नीतियों की न केवल समर्थक हैं वरन् जहाँ–जहाँ इनकी सरकारें कायम हैं वहाँ वे लाठी–डण्डे के जशेर पर लागू भी कर रही हैं । सिंगूर और नन्दीग्राम ने चुनावी वामपन्थियों के चेहरों का मुखौटा भी पूरी तरह उघाड़ दिया है । देश में क्रान्तिकारी राजनीतिक शक्तियों के बिखराव और कमज़ोरी को देखते हुए भले ही यह दूरगामी लक्ष्य हो लेकिन साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ एक क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चा ही एकमात्र कारगर विकल्प है । यह मज़दूर वर्ग की संग्रामी गोलबन्दी के इर्द–गिर्द जनता के अन्य वर्गों के साथ बना संयुक्त मोर्चा होगा जो हर किस्म के फ़ासीवाद की जननी पूँजीवाद–साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ केन्द्रित होगा । जब यह रणनीतिक मोर्चा मजबूत होगा तभी इसकी अगुवाई कर रही क्रान्तिकारी पार्टी परिस्थिति विशेष में फ़ासीवाद के विरुद्ध कुछ बुर्जुआ और मध्यवर्गीय राजनीतिक शक्तियों के साथ भी कार्यनीतिक या रणकौशलात्मक मोर्चा बना सकती है ।

यहाँ हमारा यह मतलब नहीं कि उदारीकरण–निजीकरण की नीतियों के विरुद्ध, राजसत्ता के दमन–उत्पीड़न या फ़ासीवाद के विरुद्ध एकजुट प्रतिरोध के लिए तात्कालिक रूप से सम्भव अधिकतम व्यापक साझा मोर्चे नहीं बनाने चाहिए । चाहे जिस पैमाने पर और जहाँ भी सम्भव हो ऐसे तात्कालिक मोर्चे जरूर बनाने चाहिए । ऊपर हमारा मतलब इस बात पर जशेर देना था कि साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को फैसलाकुन शिकस्त कैसे दी जा सकती है ।

हमें साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के विरुद्ध फैसलाकुन संघर्ष के लिए जुझारू जन–एकजुटता की प्रक्रिया को तेज करना होगा । मज़दूर वर्ग की ठोस वर्गीय माँगों-आर्थिक और राजनीतिक लड़ाई के साथ ही उसके बीच साम्प्रदायिक फ़ासीवाद विरोधी प्रचार एवं लामबन्दी भी निरन्तर करनी होगी । फ़ासीवाद के विरोध में व्यापक जन–एकजुटता कायम करने के लिए मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावलों को ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनरुत्थान तथा लोक अधिकार आन्दोलन, सर्वहारा सांस्कृतिक आन्दोलन, नारी आन्दोलन और छात्र–युवा आन्दोलन को व्यापक आधार पर क्रान्तिकारी ढंग से मज़दूर वर्ग के सहयोगी आन्दोलनों के रूप में विकसित करना होगा ।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2008


 

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