भोपाल हत्याकाण्ड : कटघरे में है पूरी पूँजीवादी व्यवस्था
भोपाल पर अदालती फैसले ने नरभक्षी मुनाफाखोर व्यवस्था, पूँजीवादी राजनीति और पूँजीवादी न्याय को नंगा कर दिया है
सम्पादक मण्डल
भोपाल गैस दुर्घटना पर पिछली 7 जून को आये अदालत के फैसले ने पूँजीवादी न्याय की कलई तो खोली ही है, इसके बाद मीडिया के जरिये शुरू हुए भण्डाफोड़ और आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले ने पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के आदमख़ोर चरित्र को नंगा करके रख दिया है। कम से कम 20,000 लोगों को मौत के घाट उतारने और पौने छह लाख लोगों को विकलांग और घातक बीमारियों से ग्रस्त बना देने वाली इस भयानक दुर्घटना के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को भोपाल की एक अदालत ने महज 2-2 साल की सजा सुनाकर छोड़ दिया। इतना ही नहीं, दो घण्टे के भीतर ही उन सबकी जमानत भी हो गयी और वे हँसते हुए घर चले गये।
दरअसल, इंसाफ के नाम पर इस घिनौने मजाक की बुनियाद तो 14 साल पहले ही रख दी गयी थी जब 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी ने यूनियन कार्बाइड के ख़िलाफ आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था। इस ”सेवा” के बदले उन्हें यूनियन कार्बाइड के पैसे से भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया। आज जस्टिस अहमदी कुतर्क कर रहे हैं कि कानूनी दायरे के भीतर उनके पास और कोई विकल्प ही नहीं था। वह भारत के प्रधान न्यायाधीश थे, क्या उन्हें इतनी मोटी-सी बात समझ नहीं आ रही थी कि दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के दोषियों पर मामूली मोटर दुर्घटना पर लागू होने वाले कानून के तहत मुकदमा दर्ज करना कानून का ही मजाक है? इस कानून में दो साल से ज्यादा की सजा दी ही नहीं जा सकती है। अगर वे चाहते तो देश की संसद को ऐसे मामलों के लिए विशेष कानून बनाने की सलाह दे सकते थे। सरकार की नीयत अगर साफ होती तो वह 1984 के बाद ही जल्द से जल्द विशेष अध्यादेश लाकर भोपाल के हत्यारों पर कठोर कार्रवाई कर सकती थी। उल्टे, कदम-कदम पर मुकदमे को कमजोर किया जाता रहा। केन्द्र सरकार के इशारे पर काम करने वाली सीबीआई ने मुकदमे की पैरवी से लेकर यूनियन कार्बाइड के अमेरिकी प्रमुख वारेन एण्डरसन को भारत लाने तक में स्पष्टत: जानबूझकर ढिलाई बरती।
जनता के सच्चे प्रतिनिधियों की कोई भी सरकार ऐसा भीषण हत्याकाण्ड रचने वाली कम्पनी की देश में सारी सम्पत्ति को तत्काल जब्त कर लेती। होना तो यह चाहिए था कि यूनियन कार्बाइड अगर भारी हरजाना देने में आना-कानी करती तो उसकी सम्पत्तियों को बेचकर यह धन उगाहा जाता और गैस पीड़ितों को मुआवजे, उनके इलाज तथा पुनर्वास और भोपाल की मिट्टी-पानी में फैले जहर की सफाई का बन्दोबस्त किया जाता। लेकिन इतना तो दूर, भारत सरकार ने कई वर्ष बाद, कम्पनी के साथ एक शर्मनाक समझौता किया जिसके तहत उसने सिर्फ 47 करोड़ डॉलर देकर भोपाल के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। दुनिया में शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि किसी अपराधी पर जुर्माने की रकम उसकी मर्जी से तय की गयी हो।
इतना ही नहीं, भोपाल में कार्बाइड के ख़ूनी कारख़ाने में आज भी हजारों टन जहरीला कचरा पड़ा है जिसकी सफाई पर ही अरबों रुपये का ख़र्चा आयेगा। पहले कार्बाइड और फिर उसे ख़रीदने वाली डाउ केमिकल्स नाम की अमेरिकी कम्पनी लगातार इसकी जिम्मेदारी लेने से इंकार करती रही हैं। भारत सरकार ने कई साल बाद दबी ज़ुबान से इस काम के लिए 100 करोड़ रुपये की माँग तो की, लेकिन कभी इस पर जोर नहीं दिया। और अब यह बात भी सामने आ गयी है कि सरकार ने डाउ केमिकल्स को आश्वासन दिया था कि भारत में निवेश के बदले उसे इस जिम्मेदारी से बरी कर दिया जायेगा। यानी कार्बाइड के जहरीले कचरे की सफाई भी सरकारी पैसे से, यानी ग़रीबों की जेब से खसोटे गये पैसे से की जायेगी। सरकार की नजर तो डाउ जैसी दैत्याकार रासायनिक कम्पनियों द्वारा भारत में 70,000 करोड़ रुपये के सम्भावित पूँजी निवेश पर टिकी है। हरजाने की माँग करके उन्हें नाराज करने का जोखिम भला वह क्यों उठायेगी। दरअसल यह सारा खेल ही पूँजी का है। इसके लिए अपनी जनता के हत्यारों के आगे नाक रगड़ने में सरकार को कोई परेशानी नहीं है।
कार्बाइड के प्रमुख वारेन एण्डरसन को भारत से भगाने के मामले में तत्कालीन सरकारों ने जिस बेशर्मी का परिचय दिया उस पर नफरत से थूका ही जा सकता है। जिस वक्त भोपाल में लाशों के ढेर लगे थे और हजारों घायल और विकलांग लोगों से शहर के अस्पताल पटे पड़े थे, उसी समय राज्य की सरकार इस हत्यारे को गिरफ्तार कर लेने की ”ग़लती” का प्रायश्चित करने और उसे ससम्मान अमेरिका भेजने में लगी हुई थी। एण्डरसन को भोपाल पहुँचते ही गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन छह घण्टे में ही उसकी न सिर्फ जमानत हो गयी, बल्कि सरकार के विशेष हवाई जहाज से उसे दिल्ली ले जाया गया जहाँ से वह उसी दिन अमेरिका भाग गया। उसके बाद वह कभी अदालत में हाजिर ही नहीं हुआ। उस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे अर्जुन सिंह अब कह रहे हैं कि भोपाल में कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए ऐसा करना जरूरी था, वरना लोगों का ग़ुस्सा भड़क जाता। वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी भी ऐसी ही बात कह रहे हैं। पूँजी के इन बेशर्म चाकरों से कोई यह पूछे कि अगर उसे भोपाल से बाहर ले जाना जरूरी भी था, तो देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। वैसे अब यह सच्चाई भी उजागर हो चुकी है कि एण्डरसन को पहले ही आश्वासन दे दिया गया था कि उसे सुरक्षित वापस जाने दिया जायेगा। जाहिर है, प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की मर्जी क़े बग़ैर ऐसा मुमकिन नहीं था। आज राजीव गाँधी का नाम आते ही कांग्रेस की पूरी चमचा मण्डली सफाई देने में जुट गयी है। लेकिन यहाँ सवाल व्यक्तियों का है ही नहीं। पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और पूँजीपतियों तथा उनके हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म होता है। अमेरिकी सत्ता अमेरिकी पूँजी की प्रतिनिधि है और उसने एण्डरसन की रिहाई के लिए दबाव डाला और भारतीय पूँजी के प्रतिनिधियों की क्या मजाल थी, जो लूट के खेल के अपने सीनियर पार्टनर की बात नहीं मानते।
और बात सिर्फ एण्डरसन की नहीं है। कार्बाइड की भारतीय सब्सिडयरी के प्रमुख केशव महिन्द्रा सहित सभी बड़े अधिकारी कठोरतम सजा के हकदार थे। मगर उनको बचाने के लिए भारत का पूरा सत्ता तंत्र तन-मन से लगा हुआ था।
आज बहुतेरे लोगों को ठीक से पता नहीं है कि 2 दिसम्बर, 1984 की उस भयावह रात को क्या हुआ था, और क्यों हुआ था। उसे जानने के बाद बिल्कुल साफ हो जाता है कि यह महज एक दुर्घटना नहीं थी, मुनाफे की अन्धी हवस के हाथों हुई ठण्डी हत्या थी।
आज से 26 साल पहले 2 दिसम्बर 1984 की रात को अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल स्थित कीटनाशक फैक्टरी से निकली चालीस टन जहरीली गैसों ने हजारों सोये हुए लोगों का कत्लेआम किया था। उस दिन करीब साढ़े ग्यारह बजे रात में कारख़ाने से गैस का रिसाव शुरू हुआ। फैक्टरी के चारों ओर मेहनतकश लोगों की बस्तियों में दिनभर की मेहनत से थके लोग सो रहे थे। देखते ही देखते 40,000 किलो जहरीली गैसों के बादलों ने भोपाल शहर के 36 वार्डों को ढँक लिया। इनमें सबसे अधिक मात्रा में थी दुनिया की सबसे जहरीली गैसों में से एक मिथाइल आइसोसाइनेट यानी एमआईसी गैस। गैस का असर इतना तेज था कि चन्द पलों के भीतर ही सैकड़ों लोगों की दम घुटने से मौत हो गयी, हजारों लोग अन्धे हो गये, बहुत सी महिलाओं का गर्भपात हो गया, हजारों लोग फेफड़े, लीवर, गुर्दे, या दिमाग़ काम करना बन्द कर देने के कारण मर गये या अधमरे-से हो गये। बच्चों, बीमारों और बूढ़ों को तो घर से निकलने तक का मौका नहीं मिला। हजारों लोग महीनों बाद तक तिल-तिल कर मरते रहे और करीब छह लाख लोग आज तक विकलांगता और बीमारियों से जूझ रहे हैं। यह गैस इतनी जहरीली थी कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये और जमीन और पानी तक में इसका जहर फैल गया। जो उस रात मौत से बच गये, वे छब्बीस बरस बीत जाने के बाद भी आज तक तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। इस जहर के असर से कई साल बाद तक उस इलाके में पैदा होने वाले बहुत से बच्चे जन्म से ही विकलांग या बीमारियों से ग्रस्त होते रहे। आज भी वहाँ की जमीन और पानी से जहर का असर ख़त्म नहीं हुआ है।
लेकिन यह कोई दुर्घटना नहीं थी! यह मुनाफे के लिए पगलाये पूँजीवाद के हाथों हुआ एक और हत्याकाण्ड था।
यूनियन कार्बाइड के देशी और विदेशी मैनेजमेण्ट को अच्छी तरह मालूम था कि ऐसी दुर्घटना कभी भी हो सकती है, लेकिन उन्हें लोगों की जान पर ख़तरे की नहीं, सिर्फ और सिर्फ अपने मुनाफे की चिन्ता थी। उन्होंने एक के बाद एक ऐसे कदम उठाये जो भोपाल के लोगों को मौत की ओर धकेलते रहे।
भोपाल में लगाये गये कीटनाशक कारख़ाने की टेक्नोलॉजी बेहद पुरानी पड़ चुकी थी और ख़तरनाक होने के कारण अमेरिका में उसे ख़ारिज किया जा चुका था। सबकुछ जानते हुए भी भारत के सत्ताधारियों ने उसे लगाने की इजाजत दी। एमआईसी इतनी जहरीली और ख़तरनाक गैस होती है कि उसे बहुत थोड़ी मात्रा में ही रखा जाता है। लेकिन पैसे बचाने के लिए कार्बाइड कारख़ाने में उसका इतना बड़ा भण्डार रखा गया था, जो एक शहर की आबादी को ख़त्म करने के लिए काफी था। ऊपर से कम्पनी के मैनेजमेण्ट ने पैसे बचाने के लिए सुरक्षा के सारे इन्तजामों में एक-एक करके कटौती कर डाली थी। इस गैस को शून्य से पाँच डिग्री तापमान पर रखना जरूरी होता है, लेकिन कुछ हजार रुपये बचाने के लिए गैस टैंक का कूलिंग सिस्टम छह महीने पहले से बन्द कर दिया गया था। एमआईसी गैस के टैंक का मेनटेनेंस स्टाफ घटाकर आधा कर दिया गया था। यहाँ तक कि गैस लीक होने की चेतावनी देने वाला सायरन भी बन्द कर दिया गया था। कारख़ाने में काम करने वाले मजदूर जानते थे कि भोपाल शहर मौत के सामान के ढेर पर बैठा है, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। शहर के एक अख़बार ने एक साल पहले से चेतावनी दी थी कि ऐसी कोई भयानक घटना कभी भी हो सकती है। मगर कम्पनी के मालिकान और मैनेजमेण्ट सबकुछ जानते हुए भी सिर्फ पैसे बचाने के हथकण्डों में लगे रहे। जिस दिन जहरीली गैस मौत बनकर भोपाल के लोगों पर टूटी, उस दिन इन सफेदपोश कातिलों में से किसी को खरोंच भी नहीं आयी। वे फैक्टरी एरिया से कई किलोमीटर दूर अपने आलीशान बँगलों में, और मुम्बई तथा अमेरिका में आराम से बैठे थे।
पूँजी के इस हत्याकाण्ड के बाद देश की सरकारों ने अपने ही नागरिकों के साथ जो सलूक किया, वह इससे कम बर्बर और अमानवीय नहीं है। पिछले छब्बीस साल से भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ एक घिनौना मजाक जारी था। इसमें सब शामिल रहे हैं – केन्द्र और राज्य की कांग्रेस, भाजपा और संयुक्त मोर्चा की सरकारें और सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही।
इस फैसले से देश में फैली ग़ुस्से की लहर से घबरायी सरकार ने अब मामले पर लीपापोती करने के लिए मन्त्रियों का समूह गठित करने और सुप्रीम कोर्ट में फिर से मुकदमा चलाने की बातें शुरू कर दी हैं। लेकिन देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा में जी-जान से जुटी इस सरकार की असली मंशा जगजाहिर है।
आज तमाम टीवी चैनल और अख़बार भोपाल को लेकर जो ताबड़तोड़ ख़बरें दे रहे हैं, उसके पीछे जनहित की चिन्ता नहीं, टीआरपी और सर्कुलेशन की होड़ की चिन्ता है। वरना इतने बरसों में किसी को भोपाल की याद क्यों नहीं आयी। कोई नयी मसालेदार ख़बर मिलते ही ये सब एक बार फिर भोपाल को भूलकर उसके पीछे लग जायेंगे। भोपाल की घटना बार-बार यह याद दिलाती है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की अन्धी हवस में पागल पूँजीपतियों के लिए इंसान की जिन्दगी का कोई मोल नहीं होता। पूँजीवाद युद्ध के दिनों में हिरोशिमा और नागासाकी को जन्म देता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसी त्रासदियों को। यह पर्यावरण को तबाह करके पूरी पृथ्वी को विनाश की ओर धकेल रहा है। इस नरभक्षी व्यवस्था का एक-एक दिन मनुष्यता पर भारी है। इसे जल्द से जल्द मिट्टी में मिलाकर ही धरती और इंसानियत को बचाया जा सकता है। और यह जिम्मेदारी इतिहास ने मजदूर वर्ग के कन्धों पर सौंपी है।
[stextbox id=”black” caption=”भोपाल बनाम ग्रेजियानो – एक संक्षिप्त तुलना”]घटना
भोपाल – 2-3 दिसम्बर, 1984 की रात को अमेरिकी कम्पनी की भारतीय सहायक कम्पनी (यू.सी.आई.एल.) के प्लाण्ट से जहरीली गैस के रिसाव से लगभग 20,000 लोगों की मौत और लाखों लोग प्रभावित।
ग्रेजियानो – ग्रेटर नोएडा स्थित इटली की ग्रेजियानो कम्पनी के मजदूरों का आन्दोलन और इस दौरान सीईओ ललित किशोर चौधरी की मौत।
घटना का कारण
भोपाल – मुनाफे की हवस में शीर्ष प्रबन्धन की जानकारी और आदेश पर बरती गयी हर प्रकार की लापरवाही। निर्देशों की अवहेलना करते हुए बहुत अधिक मात्रा में अत्यन्त जहरीली गैस का भण्डारण। गैस को ठण्डा करने वाले यन्त्र का लम्बे समय से बेकार पड़े रहना। चेतावनी देने वाले यन्त्रों का काम न करना। यानी कि सारी की सारी जानबूझकर की गयी लापरवाहियाँ।
ग्रेजियानो – अमानवीय कार्यस्थितियों, कम वेतन, छँटनी, प्रबन्धन और उसके द्वारा पाले गए गुण्डों द्वारा गाली-गलौच और यूनियन बनाने की माँग पर मजदूरों ने आन्दोलन शुरू किया। कम्पनी और ठेकेदारों के गुण्डों ने मजदूरों पर जानलेवा हमला किया। सरियों-डण्डों से मजदूरों की पिटाई की गयी, सुरक्षा गार्डों ने फायरिंग भी की। लगभग 35 मजदूर गम्भीर रूप से घायल हुए। पुलिस का दस्ता इस बीच पास में ही खड़ा रहा और प्रबन्धन के इशारे पर कोई कार्रवाई नहीं की। इस दौरान ग्रेजियानो के सीईओ ललित चौधरी को सिर पर चोट लग गयी, जो उनकी मौत का कारण बनी। क्या हुआ, कैसे हुआ यह किसी ने नहीं देखा। सीईओ की पत्नी के अनुसार ललित चौधरी की मौत व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्विता का नतीजा थी, मजदूरों के आन्दोलन से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था।
घटना के बाद की कार्रवाई
भोपाल – कम्पनी के मालिक वारेन एण्डरसन को वीआईपी सरकारी मेहमान की तरह सरकारी विमान से भगा दिया गया। तत्कालीन मुख्यमन्त्री ने उस समय कहा कि हम किसी को भी परेशान नहीं करना चाहते हैं। कुछ अख़बारों ने लिखा कि यह मजदूरों की करतूत थी। लगभग 26 साल तक कानूनी नौटंकी जिसमें जघन्य आरोपों को मामूली लापरवाही में तब्दील कर दिया गया। सजा के नाम पर प्रमुख आरोपियों को 2-2 साल की सजा हुई। सजा के साथ ही साथ जमानत भी दे दी गयी।
ग्रेजियानो – सीईओ की मौत के बाद सरकार से लेकर प्रशासनिक तन्त्र और अदालत तक और उद्योगपतियों की संस्थाओं से लेकर मीडिया तक सबने एकसाथ मजदूरों पर हल्ला बोल दिया। इस मुद्दे पर सरकार ने वरिष्ठ नौकरशाहों और पूँजीपतियों की एक कमेटी बनायी। पुलिस ने मजदूरों को ढूँढ़-ढूँढ़कर पकड़ा, बर्बर ढंग से पीटा और 137 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। 63 पर सीईओ की हत्या करने और बाकियों पर बलवा करने का आरोप लगाया गया। इस बार न्यायालय ने बड़ी मुस्तैदी दिखाते हुए मजदूरों की जमानत याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया। मजदूरों के साथ इंसानों जैसा बर्ताव करने का अनुरोध करने की हिमाकत करने के चलते तत्कालीन श्रम मन्त्री आस्कर फर्नाण्डीज को अपना मन्त्री पद गँवाना पड़ा। ग़रीब मजदूरों के परिवार सड़क पर आ गये। मीडिया को न पहले उनकी चिन्ता थी, न अब है।
ये केवल दो घटनाओं से सम्बन्धित तथ्यों की एक संक्षिप्त प्रस्तुति है। निष्कर्ष निकालने का काम पाठक स्वयं करें।
जयपुष्प (ब्लॉग ‘अनुभव और अभिव्यक्ति’ साभार)[/stextbox]
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janta se gaddari hai