8 मार्च के मौके पर ‘स्त्री मजदूर संगठन’ की शुरुआत
गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ दो! जमाने की हवा बदल दो!! 

बिगुल संवाददाता

अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के मौके पर 7 मार्च को दिल्ली के राजा विहार मजदूर बस्ती में हुए कार्यक्रम के साथ स्त्री मजदूर संगठन की शुरुआत की गयी।
इस मौके पर स्त्री मजदूर संगठन की कार्यकर्ताओं ने मजदूर औरतों का आह्वान करते हुए कहा कि गुलामी की नींद सोने और किस्मत का रोना रोने का समय बीत चुका है। जोरो-जुल्म के दम घोंटने वाले माहौल के खिलाफ़ एकजुट होकर आवाज उठाने का समय आ गया है। हमें मजदूरों के हक की सभी लड़ाइयों में कन्धे से कन्धा मिलाकर शामिल होना होगा। साथ ही औरत मजदूरों की कुछ अलग समस्याएँ और अलग माँगें भी हैं। इसलिए हमें अपना अलग संगठन भी बनाना होगा। इसीलिए स्त्री मजदूर संगठन बनाकर एक नयी शुरुआत की जा रही है। औरतों को समाज और घर के भीतर भी हक और बराबरी की लड़ाई लड़नी है। मर्द मजदूर साथियों से हमारा यही कहना है कि हमें गुलाम समझोगे तो तुम भी गुलाम बने रहोगे। मेहनतकश औरत-मर्द मिलकर लडेंग़े, तभी वे अपनी लड़ाई जीत पायेंगे।

7 मार्च को राजा विहार में सांस्कृतिक कार्यक्रम और जनसभा की गयी। इस मौके पर खास तौर पर तैयार किये गये नाटक ‘कहानी एक मेहनतकश औरत की’ का भी मंचन किया गया। क्रान्तिकारी गीत प्रस्तुत किये गये और औरतों की जिन्दगी तथा संघर्षों पर चित्रों की प्रदर्शनी लगायी गयी।

सभा में बड़ी संख्या में जुटी मेहनतकश औरतों को सम्बोधित करते हुए कविता ने कहा कि 8 मार्च को मनाया जाने वाला ‘अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस’ हर साल हमें हक, इंसाफ और बराबरी की लड़ाई में फौलादी इरादे के साथ शामिल होने की याद दिलाता है। पिछली सदी में दुनिया की औरतों ने संगठित होकर कई अहम हक हासिल किये। लेकिन गुजरे बीस-पच्चीस वर्षों से जमाने की हवा थोड़ी उल्टी चल रही है। लूट-खसोट का बोलबाला है। मजदूर औरत-मर्द बारह-चौदह घण्टे हाड़ गलाकर भी दो जून की रोटी, तन ढाँकने को कपड़े, सिर पर छत, दवा-इलाज और बच्चे की पढ़ाई का जुगाड़ नहीं कर पाते। मेहनतकश औरतों की हालत तो नर्क से भी बदतर है। हमारी दिहाड़ी पुरुष मजदूरों से भी कम होती है जबकि सबसे कठिन और महीन काम हमसे कराये जाते हैं। कई फैक्ट्रियों में हमारे लिए अलग शौचालय तक नहीं होते, पालनाघर तो दूर की बात है। दमघोंटू माहौल में दस-दस, बारह-बारह घण्टे खटने के बाद, हर समय काम से हटा दिये जाने का डर। मैनेजरों, सुपरवाइजरों, फोरमैनों की गन्दी बातों, गन्दी निगाहों और छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। गरीबी से घर में जो नर्क का माहौल बना होता है, उसे भी हम औरतें ही सबसे ज्यादा भुगतती हैं।

श्रुति और नंदिता ने कहा कि आज केवल दिल्ली और नोएडा में लाखों औरतें कारखानों में खट रही हैं। अगर हम एका बनाकर मुठ्टी तान दें तो हमारी आवाज भला कौन दबा सकता है? सबसे पहले हमें सरकार को मजबूर कर देना होगा कि मजदूरी की दर, काम के घण्टे, कारखानों में शौचालय, पालनाघर वगैरह के इन्तजाम और इलाज वगैरह से सम्बन्धित जो कानून पहले से मौजूद हैं, उन्हें वह सख्ती से लागू करवाये। फिर हमें समान पगार, ठेका प्रथा के खात्मे, गर्भावस्था और बच्चे के लालन-पालन के लिए छुट्टी के इंतजाम, रहने के लिए घर, दवा-इलाज और बच्चों की शिक्षा के हक के लिए एक लम्बी, जुझारू लड़ाई लड़नी होगी।

विमला ने कहा कि मेहनतकश औरत-मर्द मिलकर लडेंग़े, तभी वे अपनी लड़ाई जीत पायेंगे। स्त्री मजदूर जब पुरुष मजदूर के साथ मिलकर हक, इंसाफ, आजादी और बराबरी की लड़ाई लड़ना शुरू करेंगी तो समाजवाद की हारी हुई जंग इस सदी में जरूर फिर से जीती जायेगी।

इस कार्यक्रम के पहले स्त्री मजदूर संगठन की कार्यकर्ताओं ने राजा विहार और सूरज पार्क की बस्तियों में तथा कारखाने जाने वाली औरतों के बीच हजारों पर्चे बाँटे और घर-घर जाकर औरतों से सभा में आने के लिए बात की। सभा स्थल की सफाई, मंच लगाने, दरियाँ बिछाने जैसे काम – संगठन की कार्यकर्ताओं को करते देख अनेक स्थानीय स्त्रियाँ भी उत्साहपूर्वक आकर उनके साथ शामिल हुईं। स्मृति, शुभी, श्वेता, प्रियंका आदि कार्यकर्ताओं ने भी नाटक, गीत आदि में हिस्सा लिया। 27 फरवरी से 23 मार्च तक दिल्ली में चलाये गये क्रान्तिकारी जागृति अभियान में भी स्त्री मजदूर संगठन ने हिस्सा लिया और बड़े पैमाने पर मजदूर स्त्रियों से सीधा सम्पर्क कर उन तक अपनी बात पहुँचायी।

बिगुल, मार्च-अप्रैल 2010


 

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