गोरखपुर में मजदूरों की एकजुटता के आगे झुके मिल मालिक
आन्दोलन की आंशिक जीत, लेकिन मालिकान के अड़ियल रवैये के खिलाफ संघर्ष जारी
बिगुल संवाददाता
गोरखपुर में अगस्त के पहले सप्ताह से जारी मॉडर्न लेमिनेटर्स लि. और मॉडर्न पैकेजिंग लि. के मजदूरों के आन्दोलन में मजदूरों को एक आंशिक जीत हासिल हुई जब 24 सितम्बर को जिला प्रशासन द्वारा कराये गये समझौते में 15 दिनों के अन्दर अधिकांश माँगें लागू कराने की बात तय हुई। समझौते में यह भी तय हुआ कि इस दौरान 2 लेबर इंस्पेक्टर श्रम कानूनों के उल्लंघन पर नजर रखने के लिए दोनों कारखानों में तैनात रहेंगे। 15 दिन के बाद उपश्रमायुक्त और जिलाधिकारी की मौजूदगी में मजदूर प्रतिनिधियों के साथ समझौते के क्रियान्वयन की समीक्षा की जायेगी।
मजदूरों के जुझारू तेवरों और जनमत के भारी दबाव के कारण प्रशासन ने मालिकों को इस समझौते के लिए बाध्य किया था लेकिन मालिक अब भी अड़ियल रवैया अपनाये हुए है। समझौते के बाद अगले ही दिन से मजदूरों को काम पर वापस लेने के सवाल पर उसने तिकड़मबाजी शुरू कर दी। कई बार कारखाना गेट पर उग्र प्रदर्शन, डीएलसी के घेराव आदि के बाद आज तक करीब आधे ठेका मजदूरों और महिलाओं को काम पर नहीं लिया गया है। लूम आपरेटरों की मजदूरी में महज 14 प्रतिशत की बढ़ोत्तारी की गयी है जो अब भी न्यूनतम वेतन से बहुत कम है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा ने जिला प्रशासन को नोटिस दिया था कि अगर प्रशासन अपने द्वारा कराये गये समझौते को लागू नहीं करा पाता है तो जिलाधिकारी कार्यालय पर मजदूर आमरण अनशन शुरू कर देंगे।
दरअसल गोरखपुर के उद्योगपतियों ने यह तय कर लिया था कि किसी भी कीमत पर वे इस मजदूर आन्दोलन को सफल नहीं होने देंगे। उन्हें डर था कि अगर इस बार मजदूरों की माँगें मान ली गयीं तो पूरे गोरखपुर और आसपास के तमाम कारखानों के मजदूरों का हौसला बढ़ेगा और वे भी अपनी माँगों के लिए आवाज उठाने लगेंगे। बरगदवा इलाके में तीन कारखानों के मजदूरों के सफल आन्दोलन से शुरू हुआ यह सिलसिला कहीं पूरे पूर्वांचल में मजदूर आन्दोलन की नयी लहर न पैदा कर दे, ये उनका सबसे बड़ा डर है। उनका डर स्वाभाविक है, क्योंकि मजदूरों को हर तरह के अधिकारों से वंचित रखकर किस तरह उनकी हड्डियाँ निचोड़ने का काम इस इलाके के तमाम कारखानों में होता है, इस बात को खुद मालिकान से ज्यादा अच्छी तरह भला कौन जानता है! प्रशासन और श्रम विभाग के अफसर तो उनके पक्ष में थे ही, शहर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ भी खुलकर उद्योगपतियों के पक्ष में उतर आये और मजदूर आन्दोलन के खिलाफ बाकायदा मोर्चा खोल दिया। सांसद महोदय ने फैक्टरी मालिकों और गोरखपुर चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री के सुर में सुर मिलाकर लगातार ऐसे बयान दिये कि इस आन्दोलन को कुछ ”बाहरी तत्व” और ”माओवादी आतंकवादी” चला रहे हैं। उन्होंने कहा कि ये लोग मजदूरों को भड़काकर पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अशान्ति फैलाने की साजिश कर रहे हैं। सीधे-सीधे उद्योगपतियों का पक्ष लेते हुए वे यहाँ तक बोल गये कि गोरखपुर के सभी कारखानों में मजदूरों को उचित मजदूरी दी जाती है और मजदूरों की माँगें ”अनैतिक” हैं। वे यह भी भूल गये कि मजदूरों की मुख्य माँग सरकार द्वारा तय ”न्यूनतम मजदूरी” देने की है और मालिकान हर वार्ता में इसे मानने से इंकार करते रहे हैं। इतना ही नहीं, योगी आदित्यनाथ ने पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश में यह मनगढ़न्त आरोप भी मढ़ दिया कि इस आन्दोलन के पीछे चर्च का भी हाथ है।
सांसद के पीछे-पीछे भाजपा और सपा के कुछ नेताओं ने भी इसी किस्म के बयान देने शुरू कर दिये। पुलिस के आईजी सहित कई अफसर सीधे परोक्ष रूप से धमकियाँ दे रहे थे कि आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे ‘बिगुल’ के लोगों को फर्जी मुकदमों में अन्दर कर दिया जायेगा या जिलाबदर कर दिया जायेगा। अखबारों में ऐसी झूठी खबरें छपवाने की पुलिस की ओर से कोशिश की गयी कि आन्दोलन के नेताओं के ”नक्सली आतंकवादियों” से सम्बन्ध हैं और इसके झूठे प्रमाण गिनाये गये। कुछ का एनकाउण्टर तक करा देने की धमकियाँ दी गयीं। लेकिन मजदूर पूरी तरह एकजुट थे और ऐसे दुष्प्रचारों से डरने के बजाय उनका लड़ने का हौसला और बढ़ गया। अब कुछ फैक्टरी मालिक ही नहीं पूरी व्यवस्था की लुटेरी असलियत उनके सामने नंगी हो गयी थी।
गोरखपुर ही नहीं, पूरे देश में मजदूर संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों-युवाओं ने एक न्यायसंगत मजदूर आन्दोलन को बदनाम करके इसे कुचलने की इस साजिश का पुरजोर विरोध किया तथा जिला प्रशासन से लेकर उत्तर प्रदेश के श्रममन्त्री, मुख्यमन्त्री और राज्यपाल को फैक्स, ईमेल और फोन के जरिये अपना कड़ा विरोध जताया। दिल्ली और लखनऊ के अनेक बुद्धिजीवियों, प्रधानमन्त्री के नाम लिखे पत्र में कहा कि एक ओर तो वे बयान देते है कि ”माओवादी आतंकवाद” के पैदा होने के लिए सामाजिक- आर्थिक कारणों को समझना होगा, दूसरी ओर उन्हीं का प्रशासन एक न्यायपूर्ण आन्दोलन को ”माओवादी साजिश” कहकर यह संदेश दे रहा है कि ग़रीबों-उत्पीड़ितों के बुनियादी हकों के लिए संघर्ष को सरकार आतंकवाद मानती है। गोरखपुर के अनेक ट्रेडयूनियनों तथा जनसंगठनों ने भी योगी के बयान की निन्दा करते हुए आन्दोलन के दमन के प्रयासों का विरोध किया। संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा ने प्रेस कांफ्रेस करके योगी के बयानों का करारा जवाब दिया और कहा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास को बाधित करने के लिए मजदूर नहीं बल्कि मजदूरों के तमाम हक मारकर उनकी हड्डियाँ निचोड़ने वाले उद्योगपति और उनके हाथों बिके हुए अफसर जिम्मेदार हैं।
चौतरफा दबाव में आकर प्रशासन को समझौता कराने के लिए बाध्य होना पड़ा। लेकिन इसके पहले मजदूरों को कदम-कदम पर मुश्किलों से लड़ना पड़ा, और उन्होंने संघर्ष के नये-नये तरीके विकसित किये।
पिछले तीन अगस्त को ज्ञापन देने के साथ शुरू हुए आन्दोलन के दौरान करीब 9 चक्र वार्ताओं के बाद भी कोई हल निकलता न देख 11 सितम्बर को मजदूरों ने कलक्ट्रेट में क्रमिक अनशन शुरू कर दिया था और सैकड़ों मजदूर वहीं डेरा डालकर बैठ गये थे। प्रशासन द्वारा अगले दिन समझौता कराने के ठोस आश्वासन के बाद ही आधी रात के वक्त मजदूर वहाँ से उठे। जिला प्रशासन के दबाव डालने पर मालिक पवन बथवाल और किशन बथवाल 12 सितम्बर को एस.डी.एम. के समक्ष वार्ता के लिए पहँचे लेकिन ”बाहरी लोगों” यानी बिगुल मजदूर दस्ता के कार्यकर्ताओं को वार्ता में शामिल नहीं करने पर अड़ गये। प्रशासन की ओर से पाँच अगुआ मजदूरों को वार्ता के लिए बुलाया गया लेकिन उन मजदूरों ने भीतर जाते ही ऐलान कर दिया कि ‘बिगुल’ के साथियों के बिना वार्ता नहीं होगी। मजदूरों के अड़ जाने पर एस.डी.एम. ने ‘बिगुल मजदूर दस्ता’ के तपीश मैंदोला और प्रशान्त को भी बुला लिया। एस.डी.एम. द्वारा डी.एल.सी. के सामने लिखित समझौता करने का निर्देश देने के बाद मजदूर राजी हुए कि 13 सितम्बर से काम पर लौट आयेंगे। लेकिन डी.एल.सी. कार्यालय में मालिक के प्रतिनिधि फिर अपनी बात से पलट गये और न्यूनतम मजदूरी देने से साफ इंकार कर दिया।
अगले दिन 13 सितम्बर को मालिकों ने गेट पर तालाबन्दी की नोटिस लगवा दी। इसी दिन बरगदवा की कई फैक्टरियों के मजदूरों ने एक साथ मॉडर्न फैक्टरी पर गेट मीटिंग करके फैसला लिया कि अब बथवाल के ख़िलाफ लड़ाई को और तेज किया जायेगा। मजदूरों ने कहा कि अगर सारे मिल मालिक एक हो सकते हैं तो मजदूर भी एक हो सकते हैं। 14 सितम्बर को एक विशाल जुलूस निकाला गया जिसमें अंकुर उद्योग लि., वी.एन. डायर्स धगा मिल, कपड़ा मिल, जालानजी पॉलीटेक्स मिल, लक्ष्मी साइकिल रिम तथा मॉडर्न लेमिनेटर्स व मॉडर्न पैकेजिंग के 1000 से ज्यादा मजदूर शामिल थे। जिलाधिकारी कार्यालय पर मजदूरों ने विरोध स्वरूप श्रम कानूनों की किताबों को जलाया। साथ में ”श्रम कानून है या भ्रम कानून”, ”श्रम कानून धोखा है”, लागू नहीं करना था तो बनाया ही क्यों”, ”डी.एल.सी. के मुँह में मालिक का मुर्गा है, जिला प्रशासन मुर्दा है” जैसे नारे भी जोर-शोर से लग रहे थे। दोपहर बाद खूब जोर की बारिश हुई, दो घण्टा भीगते हुए भी सभा चलती रही, कोई भी हिला नहीं। मजदूरों के इस जुझारूपन को देखकर प्रशासन के हाथ-पाँव फूलने शुरू हो गये थे। शाम 4.00 बजे सिटी मजिस्ट्रेट ने आकर ज्ञापन लिया तथा मजदूरों से मामला सुलझाने के लिए 10 दिन का समय माँगा। मजदूर और समय देने के लिए तैयार हो गये यह जानते हुए कि यह समय सिर्फ उन्हें थकाकर तोड़ने के लिए लिया गया है।
इस दौरान वार्ताओं के एकाध नाटक के बाद जब 23 सितम्बर को वार्ता के लिए मजदूर पहुँचे तो मालिक पक्ष तथा प्रशासन की ओर से कोई नहीं आया। मजदूर किसी भी परिस्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार थे। वह सबका नंगा चेहरा अपनी ऑंखों से देख रहे थे। शाम तक यह स्पष्ट हो गया कि अब कोई नहीं आयेगा। फिर एक घण्टे के अन्दर फैक्ट्री गेट से 8 किमी. पैदल चलकर सैकड़ों मजदूर बैनर-झण्डा, आटे की बोरी, कण्डे, आलू, प्याज लिये हुए जिलाधिकारी कार्यालय पर पहुँच गये। यह खबर पाकर जब डी.एल.सी. भागे हुए वहाँ पहुँचे तो मजदूरों ने कहा कि अब हमारी बस एक ही माँग है। हमारा माँगपत्र वापस कर दो और लिखकर दे दो कि हम श्रम कानून लागू कराने में असमर्थ हैं। इसी बीच जिलाधिकारी परिसर में आग जलाकर लिट्टी-चोखा बनाने की तैयारियाँ शुरू हो गयीं। घबराये हुए सिटी मजिस्टे्रेट तथा सी.ओ. कैण्ट पुलिस फोर्स लेकर पहुँच गये। काफी देर बहस के बाद सिटी मजिस्ट्रेट तथा डी.एल.सी. ने लिखित दिया कि कल समझौता कराकर सारे श्रम कानूनों का पालन सुनिश्चित कराया जायेगा। तब जाकर मजदूर वहाँ से हटकर 1.00 बजे रात को वापस कम्पनी गेट पर पहुँचे। महिलाओं को डी.एल.सी. की गाड़ी से छोड़ा गया।
फिर 24 सितम्बर को जिलाधिकारी के समक्ष वार्ता हुई जिसमें मालिक पक्ष से पवन बथवाल, सात मजदूर प्रतिनिधि और मजदूरों के श्रम सलाहकार सुरेन्द्र पति त्रिपाठी शामिल थे। वार्ता में मालिक ने माँगें लागू करने के लिए 15 दिन का समय माँगा और यह तय हुआ कि कल से मजदूर काम पर जायेंगे तथा 15 दिन के भीतर सभी श्रम कानूनों का पालन किया जायेगा। 15 दिन बाद फिर से डी.एम. के समक्ष समीक्षा वार्ता की जायेगी।
इस आन्दोलन ने दिखा दिया कि अगर मजदूर एकजुट रहें तो पूँजीपति-प्रशासन-नेताशाही की मिली-जुली ताकत भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। उल्टे इन शक्तियों का जनविरोधी चेहरा बेनकाब हो गया। प्रशासन ने मजदूरों को धमकाने और आतंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एल.आई.यू. और एस.ओ.जी. के लोग फैक्टरी इलाके में जाकर लगातार पूछताछ करते थे – तुम्हारे ये अगुवा नेता कहाँ से आये हैं। पुलिस अधिकारियों द्वारा लगातार धमकी देना कि मजदूरों को भड़काना बनद करो और जिला छोड़कर चले जाओ वरना एनकाउण्टर या जिलाबदर करने में देर नहीं लगेगी। मालिक ने भी बदहवासी में बहुत कुछ योजनाएँ बनायीं, लेकिन मजदूरों को एकजुट देखकर कुछ करने की हिम्मत नहीं पड़ी। कम्पनी के एक ठेकेदार की पत्नी ने कुछ महिला मजदूरों को बताया कि अपने नेता लोगों को सावधन कर दो कि सूरज डूबने के बाद बरगदवा चौराहा की ओर मत आयें, उसने अपने पति के मुँह से सुना था कि आज नेताओं का ”इन्तजाम” कर दिया जायेगा। ऐसी हर कोशिश के साथ मजदूरों की एकता और मजबूत होती गयी। मॉडर्न उद्योग के 51 दिन चले आन्दोलन के दौरान अंकुर उद्योग लि., वी.एन. डायर्स धगा व कपड़ा मिल तथा जालानजी पॉलीटेक्स के मजदूर लगातार साथ में जमे रहे। अंकुर उद्योग के मजदूरों ने आटा इकट्ठा करके दिया तो सारी फैक्टरियों के मजदूरों ने चन्दा लगाकर सहयोग दिया। जब 10 बजे रात को अन्य कम्पनियों की शिफ्ट छूटती थी तो रात को ही 500 से ज्यादा मजदूरों की मीटिंग होती थी, मजदूरों की वर्ग एकता जिन्दाबाद का नारा लगता था।
ऐसे में मालिकों के सामने समझौता करने के अलावा कोई चारा नहीं था। लेकिन उसे लागू करने के मामले में वे अब भी तिकड़मबाजियों में लगे हुए हैं। 25 सितम्बर को जब कम्पनी का गेट खुला तो प्रबन्धक ने 18 अगुआ मजदूरों तथा ठेकावालों को काम पर लेने से मना कर दिया। मजदूरों ने डी.एम., सिटी मजिस्ट्रेट तथा डी.एल.सी. को फोन से सूचित कर दिया तथा गेट जाम कर बैठ गये। डी.एल.सी. भागते-भागते कम्पनी गेट पहुँचा तो मजदूरों ने उसको घेर लिया। किसी तरह से वह कम्पनी के अन्दर घुस गया। फिर मजदूर कम्पनी गेट जाम कर बैठ गये। पुलिस तथा पीएसी के आने से भी मजदूर नहीं हटे, और सभी 18 मजदूरों को काम पर लेने तथा प्रोडक्शन शुरू होने के 3 दिन बाद ठेका मजदूरों को अन्दर लेने की बात पर ही उन्होंने गेट छोड़ा। उसके बाद से भी मालिकान अपने हथकण्डों से बाज नहीं आ रहे हैं। लेकिन मजदूरों ने सबकुछ अच्छी तरह देख-समझ लिया है। वे इस व्यवस्था की सच्चाई को समझ गये हैं कि यहाँ लड़े बिना कुछ नहीं मिलने वाला।
बिगुल, अक्टूबर 2009
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