जनवादी अधिकारों के लिए आन्दोलन और मज़दूर वर्ग
प्रसेन
साम्राज्यवाद के वर्तमान दौर में, भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश में, समाजवाद के लक्ष्य को लेकर नये सिरे से संघर्ष छेड़ने की तैयारी करते हुए, जनवाद या जनवादी अधिकारों की लड़ाई के बारे में आम तौर पर मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का नज़रिया क्या होना चाहिए, इसके बारे में हम संक्षेप में कुछ बातें रखना चाहेंगे।
जब राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का दौर था तो कारख़ानों में विदेशी पूँजीपतियों के साथ-साथ देशी पूँजीपतियों से भी लड़ते हुए मज़दूर वर्ग औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध व्यापक राजनीतिक जनान्दोलनों में भागीदारी कर रहा था। गाँवों में जो मज़दूर थे, वे बँधुआ मज़दूरी और बेगारी से मुक्ति की जनवादी लड़ाई लड़ रहे थे और सामन्ती भूस्वामियों के ख़िलाफ़ तमाम काश्तकारों के साथ उनका साझा मोर्चा बनता था।
1947 में औपनिवेशिक शासन की विदाई हुई, 1950 में एक बुर्जुआ जनवादी गणराज्य का संविधान लागू हुआ पर बुर्जुआ जनवाद का यह प्रोजेक्ट न केवल अधूरा था, बल्कि विकृत भी था। न केवल सामन्ती अवशेष लम्बे समय तक बने रहे, बल्कि पूँजीवाद ने पुराने मध्ययुगीन मूल्यों-संस्थाओं को भी काफ़ी हद तक थोड़ा हेर-फेर करके बनाये रखा। संविधान का अस्थि-पंजर 1935 के औपनिवेशिक क़ानून से बना था तथा क़ानून-व्यवस्था, न्यायपालिका, पुलिस-व्यवस्था और नौकरशाही का ढाँचा भी मूलतः पहले जैसा ही था। राष्ट्रीय आन्दोलन एक जनान्दोलन था, लेकिन जनक्रान्ति नहीं था क्योंकि उसके बुर्जुआ नेतृत्व ने जनान्दोलनों का दबाव बनाकर सत्तासीन होने तक की यात्रा तो तय की थी, लेकिन जनपहलकदमी को हर समय उसने पीछे धकेला और हर निर्णायक बिन्दु पर जनाकांक्षाओं के साथ विश्वासघात किया। फलतः राष्ट्रीय आन्दोलन एक आंशिक, क्रमिक और ‘पैस्सिव’ राजनीतिक क्रान्ति के रूप में सत्ता हस्तान्तरण का निमित्त तो बना, लेकिन सामाजिक जीवन में जनवादी मूल्यों-संस्थाओं की तथा जनता में जनवादी चेतना की कमी एक गम्भीर समस्या बनी रही। बुर्जुआ जनवाद का प्रोजेक्ट इन अर्थों में अधूरा और विकृत तो था ही कि इसने न तो साम्राज्यवादी विश्व से निर्णायक विच्छेद किया, न ही भूमि-सम्बन्धों का क्रान्तिकारी ढंग से पूँजीवादीकरण किया। साथ ही, यह इन अर्थों में भी अधूरा और विकृत था कि समाज में भी जनवादी चेतना की कमी थी तथा नौकरशाही, पुलिस, आम क़ानूनों और श्रम क़ानूनों का चरित्र भी रस्मी या नाममात्र का ही जनवादी था। यूँ तो बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति करने वाले अमेरिका और यूरोप के पूँजीपति वर्ग ने भी सत्तारूढ़ होने के बाद प्रबोधनकालीन बुर्जुआ दार्शनिकों के जनवादी आदर्शों को पूँजी के हित में तोड़-मरोड़कर रस्मी और संकुचित बना दिया था, पर भारतीय शासकों ने यह काम सौ गुना अधिक बेशर्म और विश्वासघाती ढंग से किया। पिछले साठ वर्षों के दौरान पूँजीवाद का जो क्रमिक विकास हुआ है, उसकी स्वतंत्र स्वयंस्फूर्त परिणति के तौर पर कुछ जनवादी संस्थाएँ और आकांक्षाएँ ज़रूर पैदा हुई हैं लेकिन दूसरी विरोधी गति शासक वर्गों और उनके वैश्विक सीनियर पार्टनर्स द्वारा जनवादी अधिकारों और आकांक्षाओं के निरन्तर दमन की रही है। उद्योगों के विस्तार ने जनवादी संस्थाएँ-आकांक्षाएँ पैदा की हैं, पर अनुत्पादक परजीवी वित्तीय तंत्र की सर्वग्रासी जकड़बन्दी ने सर्वसत्तावाद और निरंकुश स्वेच्छाचारिता का आधार मज़बूत बनाया है। नवउदारवाद के विगत दो दशकों के दौरान यह दूसरी गति ज़्यादा प्रबल हुई है। ऐसे समय में हम मज़दूर वर्ग के जनवादी अधिकारों की लड़ाई के बारे में या जनवादी अधिकारों की लड़ाई में मज़दूर वर्ग की भूमिका के बारे में सोच-विचार रहे हैं।
यह सही है कि उत्पादन-सम्बन्धों के नज़रिए से यदि देखें तो पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध ने आज भारतीय समाज में अपना प्रभावी वर्चस्व स्थापित कर लिया है, और ख़ासकर पिछले बीस वर्षों के दौरान श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध ज्यादा से ज्यादा तीखे होते चले गये हैं। आर्थिक धरातल पर भारत के मज़दूर वर्ग का जो भी टकराव होता है, वह पूँजी की लूट और पूँजीवादी सत्ता से होता है, हालाँकि वह पूँजी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं, बल्कि अपने आसन्न हितों के लिए तथा पूँजी के चौतरफ़ा हमलों से आत्मरक्षा के लिए लड़ता है। राजनीतिक ऊपरी ढाँचे के नज़रिए से यदि देखें तो मज़दूर वर्ग को रोज़-रोज़, कदम-कदम पर, अपने जनवादी अधिकारों को लेकर लड़ने की ज़रूरत पड़ती है।
जनवादी अधिकारों की यह लड़ाई मज़दूर वर्ग के लिए आज बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो गई है कि लम्बे संघर्षों से जो अधिकार उसने हासिल किये थे, वे भी आज, मज़दूर आन्दोलन के उलटाव-बिखराव के दौर में उससे छिन चुके हैं। नवउदारवाद की नीतियों के दौर में मज़दूरों का 93 प्रतिशत हिस्सा ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल और पीसरेट मज़दूरों का है। परम्परागत यूनियनें इन मज़दूरों के हितों को लेकर लड़ने का काम छोड़ चुकी हैं और बिखरे होने के चलते इन अनौपचारिक मज़दूरों की ख़ुद की सौदेबाज़ी की ताक़त बहुत कम हो गयी है। इस मज़दूर आबादी को नये सिरे से, नयी परिस्थितियों में संगठित होने और लड़ने के तौर-तरीक़े ईजाद करने हैं और आगे बढ़ना है।
इसमें सन्देह नहीं कि मज़दूरों को पूँजी की सत्ता और पूँजीवादी आर्थिक सम्बन्धों के विरूद्ध लड़ना होगा, लेकिन वे यदि अपने जनवादी अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकते तो पूँजीवाद के विरूद्ध राजनीतिक-आर्थिक संघर्ष भी नहीं कर सकते। 1894-1902 के दौरान रूसी कम्युनिस्ट आन्दोलन में “अर्थवादियों” ने यह पोज़ीशन ली थी कि रूस में पूँजीवाद के क़ायम होने के बाद मज़दूर वर्ग के लिए राजनीतिक संघर्ष – यानी जनवाद के लिए संघर्ष – की ज़रूरत नहीं है। जब पहला विश्वयुद्ध चल रहा था, उस समय भी कुछ अर्थवादियों और अर्द्ध-अराजकतावादियों ने यह विचार रखा था कि इजारेदार पूँजीवाद की अवस्था में जनवाद के लिए संघर्ष की कोई आवश्यकता नहीं है (इसी दृष्टि को अपनाकर प्याताकोव, बुखारिन आदि ये लोग राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के नारे का विरोध कर रहे थे)। ऐसे लोगों को लेनिन ने जो जवाब दिया था, उसके कुछ आम सूत्रीकरण आज हमारे लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
लेनिन ने लिखा था: “आम तौर से पूँजीवाद और ख़ास तौर से साम्राज्यवाद जनवाद को भ्रम बना देता है, हालाँकि पूँजीवाद उसके साथ ही जन साधारण में जनवादी आकांक्षाएँ पैदा करता है, जनवादी संस्थाओं की सृष्टि करता है, जनवाद को अस्वीकृत करने वाले साम्राज्यवाद तथा जनवाद की आकांक्षा करने वाले जन साधारण के बीच विरोध को संगीन बनाता है। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का तख़्ता अत्यन्त “आदर्श” जनवादी परिवर्तनों द्वारा भी नहीं, बल्कि केवल आर्थिक क्रान्ति द्वारा उलटा जा सकता है। लेकिन जो सर्वहारा वर्ग जनवाद के संघर्ष में शिक्षित नहीं है, वह आर्थिक क्रान्ति सम्पन्न करने में भी असमर्थ है।…”
बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए इसी लेख में आगे वे कहते हैं: “ज़नवाद की समस्या का मार्क्सवादी हल यह है कि अपना वर्ग संघर्ष चलाने वाला सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग का तख़्ता उलट देने की तैयारी करने और अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ सभी जनवादी संस्थाओं और आकांक्षाओं का इस्तेमाल करे। ऐसा इस्तेमाल कुछ आसान काम नहीं है। “अर्थवादियों”, तोलस्तोयपंथियों इत्यादि को यह बात अकसर उसी तरह “बुर्जुआ” और अवसरवादी विचारों के लिए अक्षम्य रियायत प्रतीत होती है जिस तरह “वित्तीय पूँजी के युग में” राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की वक़ालत प. कीयेव्स्की को बुर्जुआ विचारों के लिए अक्षम्य रियायत प्रतीत होती है। मार्क्सवाद हमें सिखाता है कि मौजूदा, पूँजीवादी समाज की बुर्जुआ वर्ग द्वारा सृजित और विकृत की जाने वाली जनवादी संस्थाओं के इस्तेमाल को तिलांजलि देकर “अवसरवाद से लड़ने” का अर्थ है अवसरवाद के सामने पूर्णतः घुटने टेक देना!” (लेनिनः ‘प. कीयेव्स्की (यू. प्याताकोव) को जवाब’, ‘मज़दूर आन्दोलन में जड़सूत्रवाद और संकीर्णतावाद का विरोध’ संकलन, मास्को 1986, पृ. 81-82)
भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक कृषिप्रधान, पिछड़े पूँजीवादी समाज में, जहाँ पूँजीवादी जनवाद का प्रोजेक्ट पहले से ही अधूरा और विकृत रहा है, वहाँ यह और अधिक ज़रूरी हो जाता है कि भारतीय मज़दूर वर्ग अपने जनवादी अधिकारों के लिए लड़े, वह बुर्जुआ वर्ग पर जनवाद के वायदों, संवैधानिक घोषणाओं और क़ानूनी प्रावधानों को अमल में लाने के लिए दबाव बनाये और बुर्जुआ जनवाद के संकुचित (तथा लगातार और अधिक संकुचित होते जाते) स्पेस को विस्तारित करने के लिए संघर्ष करे। यह बेहद ज़रूरी है क्योंकि अतीत में भी अर्थवादी-ट्रेडयूनियनवादी नेतृत्व ने मज़दूरों को या तो महज आर्थिक संघर्षों में उलझाये रखा या मात्र उनकी कुछ ऐसी ही जनवादी माँगों को (जैसे काम के घण्टे, ओवरटाइम, छुट्टी, आदि-आदि) उठाया जो जनता के अन्य वर्गों की साझा जनवादी माँग नहीं बनते थे। यह इसलिए भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि जो अर्द्ध-अराजकतावादी सर्वहारा क्रान्तिकारी धाराएँ हैं वे बुर्जुआ जनवादी संस्थाओं और ‘स्पेस’ का इस्तेमाल करने को ही दक्षिणपंथ मानकर सिरे से खारिज करती रही हैं। यह इसलिए भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि उदारीकरण-निजीकरण के दौर में रहा-सहा बुर्जुआ जनवादी स्पेस भी काफ़ी तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। पहले जो अधिकार मज़दूरों ने लड़कर हासिल किये थे और जिनके लिए काग़ज़ों पर कई क़ानून आज भी मौजूद हैं, व्यवहारतः उनका कोई मतलब नहीं रह गया है।
मज़दूर वर्ग जब आठ घण्टे के कार्यदिवस, साप्ताहिक अवकाश, परिवार की बुनियादी ज़रूरतों (पौष्टिक भोजन, सुविधाजनक आवास, कपड़े, स्वास्थ्य और शिक्षा) को पूरा करने लायक न्यूनतम मज़दूरी, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़े आदि की माँग करता है, तो ये माँगें मज़दूरी-व्यवस्था या अतिरिक्त श्रम के शोषण को समाप्त करने वाली माँगें नहीं हैं। ये माँगें बुर्जुआ जनवाद के दायरे के भीतर की माँगें हैं – ये वे माँगें हैं जिनका बुर्जुआ जनवाद वायदा करता है। ये मज़दूर वर्ग के जनवादी अधिकार और नागरिक आज़ादी की माँगें हैं। मज़दूर जब श्रम क़ानूनों को लागू करने और उनके दायरे को बढ़ाने की तथा श्रम विभाग एवं श्रम न्यायालयों के ढाँचे के जनवादीकरण की माँग उठाता है, तो ये भी बुर्जुआ जनवाद के सीमान्तों के भीतर की लड़ाई होती है, जिसके दौरान मज़दूर संगठित होना और अपनी माँगों को लेकर राज्यसत्ता से लड़ना सीखता है।
इससे दो कदम आगे बढ़कर मज़दूर वर्ग जब काम के अधिकार को मूलभूत अधिकार घोषित करने की माँग करता है, पूरी आबादी के लिए पौष्टिक भोजन, सुविधाजनक आवास, स्वास्थ्य.सेवा और समान शिक्षा सरकार द्वारा अनिवार्यतः मुहैया कराये जाने की माँग उठाता है, तो ये माँगें भी बुर्जुआ जनवादी दायरे के भीतर की ही माँगें हैं। ये माँगें पूँजीवादी शोषण और असमानता की समाप्ति की माँगें नहीं हैं। नागरिकों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति सरकार की ज़िम्मेदारी है, इस बात को बुर्जुआ जनवाद भी सैद्धान्तिक तौर पर मानता है। ये माँगें उन्नत स्तर की बुर्जुआ जनवादी माँगें इस मायने में हैं कि मज़दूर वर्ग जैसे ही इन माँगों को उठाता है, परेशानहाल छोटे मालिक किसान, आम मध्यवर्गीय जमातें और जनता के अन्य हिस्से भी उसके साथ आकर खड़े हो जाते हैं। एक व्यापक जनान्दोलन की – एक व्यापक रणनीतिक संयुक्त मोर्चे की ज़मीन तैयार हो जाती है। ये माँगें जनवादी अधिकार की माँगें हैं, पर इनको लेकर किया जाने वाला संघर्ष उन्नत स्तर का होता है क्योंकि कोई उन्नत बुर्जुआ जनवाद भी इन माँगों को पूरा नहीं कर सकता (कुछ आंशिक रियायतें भले ही दे दे)। अतः इन माँगों पर व्यापक जनान्दोलन जब आगे बढ़ता है तो जनसमुदाय को पूँजीवादी जनवाद की सीमाएँ ख़ुद अपने अनुभव से दीखने लगती हैं। ऐसे जनान्दोलनों के दौरान जनता की सामूहिक पहलकदमी और सामूहिक सर्जनात्मकता निर्बन्ध होती है, तृणमूल (ग्रासरूट) स्तर पर नयी-नयी जनवादी संस्थाएँ जन्म लेती हैं और सामाजिक मूल्यों-मान्यताओं का भी आमूलगामी ढंग से जनवादीकरण होता है।
भारतीय जीवन में इन दिनों समृद्धि के शिखरों की तलहटी में जैसा नारकीय अँधेरा छाया हुआ है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि खाद्यान्न सुरक्षा, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका के सार्विक अधिकार को लेकर जन-सत्याग्रह और नागरिक अवज्ञा आन्दोलन जैसे आन्दोलन के रूपों को पुनः जन.सामान्य के बीच लोकप्रिय बनाया जा सकता है। नवउदारवाद की नीतियाँ आम लोगों के जीवन को जिस तरह दूभर बना रही हैं और धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई आज आँखों में जितनी चुभ रही है, उससे सामाजिक विस्फोट की एक नयी ज़मीन तैयार हो रही है। यह समय है जब जनवादी अधिकार के आन्दोलन को एक व्यापक जनान्दोलन की शक़्ल दी जाये और जनवाद की इस लड़ाई को नये सिरे से संगठित करने में भी मज़दूर वर्ग की अग्रणी भूमिका बनायी जानी चाहिए।
जनवादी अधिकारों के संघर्ष में यहाँ तक शिक्षित होने के बाद मज़दूर वर्ग नयी संविधान सभा बुलाने, जन-प्रतिनिधित्व की सस्ती, पारदर्शी एवं जवाबदेही भरी व्यवस्था बनाने, औपनिवेशिक क़ानून-व्यवस्था, पुलिस और नौकरशाही के तंत्र को बदलने तथा नौकरशाही को हर स्तर पर जन-निगरानी के दायरे में लाने जैसी और उन्नत जनवादी माँगों पर भी लड़ने के लिए स्वयं तैयार होगा और जनता के अन्य वर्गों को भी साथ लेगा। तब वह धार्मिक कट्टरपंथियों के विरूद्ध जुझारू मोर्चेबन्दी के लिए भी तैयार हो सकेगा तथा अन्धराष्ट्रवादी प्रचार के प्रभावों से मुक्त होकर राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का भी मुखर समर्थन करेगा।
यह कोई मंसूबावादी सोच नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक योजना है जो मज़दूर वर्ग की भी ज़रूरत है और जनवादी अधिकार आन्दोलन की भी ज़रूरत है। लेनिन के ही विचार को दुहराते हुए कहा जा सकता है कि जो मज़दूर वर्ग जनवाद की लड़ाई लड़ने के लिए शिक्षित नहीं है, वह पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों और राजनीतिक तंत्र को क्रान्तिकारी ढंग से बदलने के काम को भी अंजाम नहीं दे सकता। इसी बात को दूसरे कोण से यूँ भी कहा जा सकता है कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को व्यापक जनान्दोलन बनाने के लिए शहरों और गाँवों के मज़दूर वर्ग के जनवादी अधिकारों की माँगों को मुद्दा बनाने की और अपनी इन माँगों को लेकर संघर्ष करने के लिए ख़ुद मज़दूर वर्ग को जागृत, गोलबन्द, और संगठित करने की ज़रूरत है।
(यह आलेख ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की ओर से ‘भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलनः दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ’ विषय पर 22-24 जुलाई 2011 को लखनऊ में आयोजित संगोष्ठी में प्रस्तुत किया गया था।)
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