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कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (उन्नीसवीं किस्त)
उत्तर-पूर्व और कश्मीर की जनता के साथ भारतीय राज्य का ऐतिहासिक विश्वासघात
आनन्द सिंह
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इस धारावाहिक लेख के पिछले अंक में हमने देखा कि भारत में राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं की विलक्षण विविधता के बावज़ूद भारतीय संविधान एक अतिकेन्द्रीकृत संघीय ढाँचे की आधारशिला रखता है। यही नहीं संविधान में मौजूद प्रावधानों का इस्तेमाल करके केन्द्र राज्यों की औपचारिक स्वायत्तता को भी छीन सकता है। वैसे तो पिछले छह दशकों में केन्द्र ने लगभग सभी राज्यों की स्वायत्तता पर हमले किये हैं, परन्तु उत्तर-पूर्व के राज्यों और जम्मू-कश्मीर की जनता की स्वायत्तता और आज़ादी की आकांक्षाओं पर इन हमलों ने विशेष बर्बर रूप अख्तियार किया है। उत्तर-पूर्व में 1958 से और कश्मीर में 1990 से ही कुख़्यात सुरक्षा बल विशेष अधिकार अधिनियम (आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट) लागू है जिसकी वजह से चुनावों की रस्म अदायगी होने के बावज़ूद वहाँ व्यवहारतः सैनिक शासन की स्थिति है क्योंकि सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार प्राप्त हैं। इसी काले क़ानून का लाभ उठाकर भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों ने उत्तर-पूर्व में पिछले पाँच दशकों से और कश्मीर घाटी में पिछले दो दशकों से आतंक का नंगा नाच मचाया है और इन राज्यों की आम जनता के मानवाधिकारों का बेधड़क हनन किया है। ग़ौरतलब है कि मानवाधिकारों का मख़ौल उड़ाता यह क़ानून पूरी तरह से संविधानसम्मत है। इस अंक में हम उत्तर-पूर्व के इतिहास पर नज़र डालकर यह देखेंगे कि किस प्रकार भारतीय राज्य ने संघात्मक ढाँचे के तमाम दावों को धता बताते हुए वहाँ की अनेक नृजातीय (एथनिक) राष्ट्रीयताओं की भावनाओं और आकांक्षाओं को निर्ममता से कुचला।
उत्तर-पूर्वी राज्यों की जनता के साथ भारतीय राज्य के छल-कपट की त्रासद दास्तान
वैसे तो भौगोलिक दृष्टि से हर देश का एक उत्तर-पूर्वी क्षेत्र होता है परन्तु भारत के सन्दर्भ में जब उत्तर-पूर्व की बात होती है तो इसका तात्पर्य महज़ भौगोलिक दिशासूचक नाम नहीं होता है। यह सम्बोधन केन्द्र से एक ऐसे क्षेत्र की भौगोलिक दिशा की ओर इंगित करता है जिसकी संस्कृति एवं इतिहास देश के अन्य क्षेत्रों से बिल्कुल जुदा है। साथ ही साथ यह राज्यसत्ता से समस्यापूर्ण सम्बन्ध रखने वाले क्षेत्र की ओर भी इशारा करता है। साथ ही यह भी ध्यान देना ज़रूरी है कि हालाँकि इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की संस्कृति और इतिहास में समानता और समरूपता के कुछ तत्व हैं, लेकिन उनमें आश्चर्यजनक विविधताएँ भी हैं। कुल आठ राज्यों (असम, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, नगालैण्ड) में विभाजित उत्तर-पूर्व का क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का 9 फ़ीसदी और इसकी आबादी देश की कुल आबादी का 3.6 फ़ीसदी है। इस विरल आबादी वाले क्षेत्र में 70 नृजातीय समूह और उपसमूह रहते हैं और यहाँ लगभग 400 भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। यहाँ के सभी नृजातीय समूह आर्य या द्रविड़ मूल के नहीं बल्कि मंगोल मूल के हैं। यहाँ की अधिकांश भाषाएँ तिब्बती-बर्मी और तिब्बती-चीनी भाषा परिवारों की हैं। ग़ौरतलब है कि ब्रह्मपुत्र नदी का पूर्वी हिस्सा भूराजनीतिक रूप से पहली बार भारत के उपनिवेशीकरण के बाद ही शेष भारत से जुड़ा। इसके पहले कभी भी यह क्षेत्र किसी भी भारतीय साम्राज्य का हिस्सा नहीं था। इस क्षेत्र का कोई एक राजा कभी नहीं था। अंग्रेज़ इस क्षेत्र के भूराजनीतिक और सामरिक महत्व को देखते हुए इसे भारत और चीन के बीच एक ‘बफ़र रीजन’ बनाना चाहते थे जो सम्भावित चीनी विस्तार के लिए कुशन का काम करता और उनके व्यापारिक हितों के अनुकूल रहता। लेकिन मैदानी क्षेत्रों की जनता के विद्रोहों से अलग-थलग करने के लिए अंग्रेज़ों ने बड़ी ही चालाकी से उत्तर-पूर्व की आबादी की शेष भारत की आबादी से पारस्परिक अन्तरक्रिया नहीं होने दी। इसकी वज़ह से भूराजनीतिक दृष्टि से शेष भारत से जुड़ने के बावजूद इस क्षेत्र की जनता का सांस्कृतिक अलगाव नहीं कम हुआ। आज़ादी के बाद भारतीय राज्य द्वारा इस क्षेत्र की खनिज और वन्य सम्पदा का दोहन करने से आर्थिक शोषण का भी पहलू जुड़ गया जिसने इस अलगाव को और बढ़ाया।
औपनिवेशिक शासन के अन्तिम दौर में और आज़ादी के बाद सांस्कृतिक अलगाव और आर्थिक शोषण ने उत्तर-पूर्व की विभिन्न जनजातियों में प्रतिरोध की चेतना एक ख़ास क़िस्म के नृजातीय राष्ट्रवाद के रूप में पनपी। केन्द्रीय सत्ता द्वारा किये गये बर्बर दमन ने इस प्रतिरोध की चेतना को और भी विकसित किया। नगा जैसी कुछ जनजातियाँ अपने कई उपसमूहों को मिलाकर एक राष्ट्र के रूप में विकसित हुईं तो कुछ राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं के रूप में। इन राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं के प्रतिरोध का साझा बिन्दु दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता का विरोध था। परन्तु इनमें आपसी अन्तरविरोधों का भी एक लम्बा इतिहास रहा है। मसलन नगा-कुकी विवाद, नगा-मेइती विवाद, नगा-जोमी विवाद, असमी-बोडो विवाद आदि।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ादी के बाद भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता ने उत्तर-पूर्व के राज्यों का पुनर्गठन किया। इस पुनर्गठन का आधार महज़ प्रशासकीय सहूलियतें थीं जिसकी वजह से कई मामलों में एक ही जनजाति कई राज्यों में बँट गयी और जनजातियों की राष्ट्रीय आकांक्षाएँ कुचल दी गयीं। इस क़िस्म के पुनर्गठन से नये विवाद भी उभरे, मसलन ग्रेटर नगालैण्ड विवाद, नगा-मणिपुर विवाद, असमी-बोडो विवाद आदि।
यदि भारतीय संघात्मक ढाँचा वास्तव में आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता देने के बाद अस्तित्व में आता तो उत्तर-पूर्व भारतीय संघ के भीतर अपने आपमें कई नृजातीय राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं का संघ होता और इन राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं के भीतर भी कई उपराष्ट्रीयताओं और भाषिक समुदायों के अपने स्वायत्तशासी क्षेत्र होते। परन्तु ऐसा न होकर अतिकेन्द्रीयकृत भारतीय संघात्मक ढाँचा ऊपर से थोप दिया गया। इस वजह से उत्तर-पूर्व की जनता दिल्ली की सत्ता को औपनिवेशिक काल की निरन्तरता में ही देखती रही।
उत्तर-पूर्व के विभिन्न राज्यों के इतिहास पर निगाह डालने से भारतीय राज्यसत्ता का ऐतिहासिक विश्वासघात स्पष्ट रूप से सामने आता है। मणिपुर में औपनिवेशिक काल में ही हिजाम इराबोट के करिश्माई नेतृत्व में सामन्तवाद और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ एक शक्तिशाली जनवादी आन्दोलन उभरा जिसकी वज़ह से अंग्रेज़ों के जाने के बाद ‘मणिपुर संविधान क़ानून 1947’ पास हुआ जिसके परिणामस्वरूप मणिपुर राज्य आधुनिक ढंग-ढर्रे पर एक संवैधानिक राजतन्त्र के रूप में सामने आया। नये संविधान के तहत मणिपुर में चुनाव भी हुए और विधानसभा भी गठित हुई। परन्तु 1947 में ही भारत सरकार के प्रतिनिधि वी.पी. मेनन ने राज्य में गिरती क़ानून-व्यवस्था पर विचार-विमर्श के लिए राजा को शिलांग बुलाया और वहाँ कुटिलता से उससे भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करा लिया। भारत सरकार ने इतनी भी ज़हमत उठाना ज़रूरी नहीं समझा कि इस समझौते की अभिपुष्टि नवनिर्वाचित मणिपुर विधानसभा द्वारा करा ली जाये। उल्टे विधानसभा को भंग कर दिया गया और मणिपुर को चीफ़ कमिश्नर के मातहत कर दिया गया और प्रलोभन और दमन की नीति अपनाकर प्रतिरोध को दबाने का सिलसिला शुरू हो गया और इसी के समान्तर सशस्त्र संघर्षों का भी सिलसिला शुरू हो गया। आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट की आड़ में भारतीय सेना द्वारा की गयी बर्बरता ने प्रतिरोध को और धार दी। 2004 में भारतीय सैनिकों द्वारा एक मणिपुरी महिला मनोरमा के बलात्कार और हत्या के विरोध में वहाँ की महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सेना मुख्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया जो किसी भी लोकतान्त्रिक राज्य के लिए एक शर्मनाक घटना होती। परन्तु भारतीय राज्य शर्मसार नहीं हुआ और उत्तर-पूर्व में आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट आज़ तक लागू है।
नगा राष्ट्रवाद का इतिहास इससे भी पुराना है। बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत-बर्मा सीमा पर स्थित नगा पहाड़ियों के निवासी नगा नेशनल कौंसिल (एन.एन.सी.) के बैनर तले एकजुट होकर एक साझा मातृभूमि और स्वशासन की आकांक्षा प्रकट करने लगे थे। गाँधी ने एकाधिक बार नगा लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार दिलाने का वायदा भी किया था। ब्रिटिश प्रशासन और एन.एन.सी. के बीच हैदरी समझौते के तहत नगालैण्ड को दस वर्षों के लिए संरक्षित दर्जा प्रदान किया गया था और उसके बाद नगाओं को तय करना था कि वे संघ में शामिल हों अथवा नहीं। लेकिन अंग्रेज़ों के जाने के बाद भारतीय राज्य ने एकतरफ़ा तरीक़े से नगा भूभाग को भारतीय गणराज्य का हिस्सा घोषित कर दिया। बदले में एन.एन.सी. ने नगालैण्ड की स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। नगा नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और तब से ही नगालैण्ड में एक लम्बे सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत हुई। इसी संघर्ष का सामना करने के लिए 1958 में ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट’ बना जो आज तक समूचे उत्तर-पूर्व में लागू है। 1975 में एन.एन.सी. के शीर्ष नेतृत्व ने भारत सरकार के साथ वार्ता करके शिलांग समझौता किया और भारतीय गणराज्य में शामिल होना स्वीकार किया। जिन नगा नेताओं ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया उन्होंने ‘नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैण्ड’ (एन.एस.सी.एन.) का गठन करके संघर्ष जारी रखा। अब यह संगठन मुइवा और खापलांग के दो गुटों में विभाजित है, जिनका आधार नगा जनजातीय समूह की अलग-अलग उपजातियों में है। पिछलें कुछ वर्षों से इन दोनों संगठनों के साथ भारत सरकार का युद्धविराम और वार्ताओं का सिलसिला जारी है।
मिज़ो सशस्त्र विद्रोह की कहानी साठ के दशक से शुरू होती है। साठ के दशक के प्रारम्भ में असम की लुशाई पहाड़ियों में भीषण अकाल पड़ा। एक स्थानीय राहत टीम बनी जिसने भारत सरकार से राहत की गुहार लगाई, पर भारत सरकार ने राहत की रस्म-अदायगी से अधिक कुछ भी नहीं किया। इसके बाद राहत टीम ने स्वयं को मिज़ो नेशनल फ्रण्ट (एम.एन.एफ.) के रूप में संगठित किया और ‘भारतीय उपनिवेशवाद से मिज़ोरम की मुक्ति’ के लिए सशस्त्र संघर्ष का आह्नान किया। फरवरी 1966 में सशस्त्र दस्तों ने ऐज़ल शहर क़ब्ज़ा कर लिया। शहर को फिर से क़ब्ज़ा करने में भारतीय सेना ने पहली बार अपनी नागरिक आबादी पर धुआँधार बमबारी की। हज़ारों परिवारों को उनके घरों से निकाल कर सड़कों के किनारे नये गाँव बसाये गये ताकि सेना उन्हें आसानी से नियन्त्रित कर सके। इससे काफ़ी हद तक मिज़ो समाज की संरचना तबाह हो गई। 1986 में एम.एन.एफ. और भारत सरकार के बीच समझौता हुआ जिसके बाद एम.एन.एफ. हिंसा छोड़कर भारतीय संविधान के अन्तर्गत काम करने पर राज़ी हो गया। पर इससे मिज़ोरम के नृजातीय समूहों का अलगाव ज़रा भी कम नहीं हुआ। आज भी वहाँ अलग-अलग नृजातीय समूहों के अपने-अपने सशस्त्र विद्रोही दस्ते हैं।
राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया में नगालैण्ड को राज्य का दर्ज़ा 1963 में मिला। पर नगा ग्रुपों के कई राजनीतिक-प्रशासकीय इकाइयों में बँटे होने के कारण उनका असन्तोष बना रहा। 1972 में असम से खासी, गारो और जयन्तिया को मिलाकर अलग मेघालय राज्य बना तथा त्रिपुरा और मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। मिज़ो पहाड़ियों (अब मिज़ोरम) और ‘नार्थ-ईस्टर्न फ्रण्टियर एजेन्सी’ (अब अरुणाचल प्रदेश) को असम से अलग केन्द्र शासित राज्य का दर्जा दिया गया फिर 1987 में इन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। असम के बाल्कनीकरण की इस प्रक्रिया ने केन्द्र और शेष भारत से उत्तर-पूर्व के पर्वतीय अंचलों के अलगाव और स्वतन्त्रता की आकांक्षा को तो समाप्त नहीं किया, उल्टे अन्य स्थानीय नृजातीय समूहों में भी स्वशासन या स्वतन्त्रता की आकांक्षा पैदा हुई और भूभागों पर दावों को लेकर आपस में उग्र टकरावों की शुरुआत हो गई। मिसाल के लिए बोडो आन्दोलन और गोरखा आन्दोलन। 2005 में बोडो जनजाति के उग्र आन्दोलन को नियन्त्रित करने के लिए असम के बोडो बहुल्य चार राज्यों को एक स्वायत्तशासी बोडोलैण्ड क्षेत्र का दर्जा दिया गया। सांस्कृतिक अलगाव और आर्थिक शोषण के अतिरिक्त देश के भीतर से होने वाले आप्रवासन और बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत और बर्मा से होने वाले आप्रवासन के चलते पैदा हुए जनसांख्यिकीय असन्तुलन ने भी इस भूभाग की जनता में भय और असुरक्षा का मनोविज्ञान पैदा किया जिसकी परिणति अनेक हिंसात्मक घटनाओं में हुई। अभी पिछले वर्ष बोडोलैण्ड में हुई हिंसा इसी परिघटना की एक मिसाल है जिसमें असम की विभिन्न जनजातियाँ अपनी दरिद्रता का कारण आप्रवासियों के रूप में देखती हैं।
इसी कड़ी में सिक्किम के इतिहास पर नज़र दौड़ाना भी मौजूँ होगा। सिक्किम का दर्जा 1947 से भारत के संरक्षित राज्य (प्रोटेक्टोरेट) का था। वह भारतीय संघ का हिस्सा नहीं था। 1975 में बिना सिक्किम की जनता की राय लिये भारतीय संविधान में मौजूद प्रावधान के तहत उसे भारत में मिला लिया गया और पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। इसके बाद सिक्किम भी उत्तर-पूर्व का हिस्सा माना जाने लगा।
आज़ादी के बाद शुरुआती दशकों में तो भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व के महत्व को केवल रणनीतिक दृष्टि से ही देखा था। परन्तु पूँजीवादी विकास के साथ ही प्राकृतिक सम्पदा और सस्ती श्रम शक्ति के दोहन की भी शुरुआत हुई। साथ ही यह क्षेत्र विकास की मुख्य धारा से कटा ही रहा। असम दुनिया का सबसे बड़ा चाय-उत्पादक भूभाग है। चाय बागानों में देशी-विदेशी पूँजी लगी हुई है, पर इससे आम आबादी की ग़रीबी पर कोई असर नहीं पड़ा है। देश के कुल पेट्रोलियम उत्पादन का 64 प्रतिशत अकेले असम करता है, पर उसका शोधन अन्य राज्यों में होने की वजह से उसे राजस्व का कोई लाभ नहीं मिल पाता। चाय और तेल के अतिरिक्त पूरा उत्तर-पूर्व चूना.पत्थर, कोयला, बाँस सहित प्रचुर खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है जिसका सार्वजनिक और निजी पूँजी द्वारा दोहन लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन उत्तर-पूर्व के राज्य आर्थिक दृष्टि से मध्य और उत्तर भारत के ग़रीब राज्यों के निकट हैं जबकि शिक्षा के स्तर और अन्य मानव-विकास सूचकांकों के हिसाब से विकसित दक्षिण भारतीय राज्यों के निकट हैं।
भारत की शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यसत्ता से टकराकर उत्तर-पूर्व की छोटी-छोटी राज्य राष्ट्रीयताएँ भले ही अपनी मुक्ति न प्राप्त कर पायें, परन्तु वे हारेंगी भी नहीं। उनका संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक उनके अलगाव और उपेक्षा की स्थिति बनी रहेगी। किसी काल्पनिक एकाश्मी राष्ट्रवाद में उनकी राष्ट्रीय भावनाओं का विलयन पूँजीवाद की चौहद्दी में सम्भव भी नहीं लगता। इसलिए उनके संघर्ष भी विसर्जित नहीं होंगे। नेतृत्व की कोई एक धारा जब समर्पण करेगी तो दूसरी धारा उभरकर सामने आयेगी और संघर्ष को ज़ारी रखेगी। इस समस्या का समाधान केवल और केवल एक समाजवादी राज्य के तहत ही सम्भव है जो सही मायने में विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार और अलग होने के अधिकार के आधार पर एक संघात्मक ढाँचा विकसित करेगा।
(अगले अंक में – भारतीय राज्य द्वारा कश्मीर की जनता से दग़ाबाजी का इतिहास)
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